दीवारें तो साथ हैं
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-3
‘देखो अगर तुम्हारी बात मान लें कि चलो लड़की के घर खाने पीने रहने में कोई संकोच हिचक नहीं करनी चाहिए। आखिर वह भी अपनी ही संतान है। मेरी समझ में लड़की की मदद तभी लेनी चाहिए जब कोई और रास्ता बचा ही न हो। सिर्फ़ लड़की ही हो। लड़के हों ही नहीं। लड़कों के रहते लड़की-दामाद के यहां रहना मेरी नजर में बहुत गलत है। फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह हमें बुरा लगता है कि लड़के ससुरालियों की सेवा में लगे रहते हैं। वैसे ही यदि हम लड़की के यहां जाकर रहेंगे तो क्या उसके घर वालों को बुरा नहीं लगेगा। क्या दामाद के मां-बाप अपने बेटे को ससुरालियों का पिछलग्गू नहीं कहेंगे जैसे हम कह रहे हैं।’
‘बात तो सही कह रही हैं आप। मगर इस समस्या का हल क्या ओल्ड एज़ होम है?क्या आप वहां शांति से रह सकेंगी? क्या वहां आपका मन शांत रह सकेगा?मुझे तो लगता है कि आप वहां जाकर और भी ज़्यादा परेशान होंगी यह सोच-सोच कर कि अपनों के रहते हम ओल्ड एज होम में रहने को अभिशप्त हैं। फिर कुछ भी हो जाए मन का क्या करेंगे। बच्चे कैसे भी हो जाएं मां-बाप का मन तो उतना कठोर नहीं होगा न, आप ही कुछ देर पहले यह बोल रही थीं। अभी आप परेशान होकर जाने को तैयार हो गई हैं। लेकिन मैं समझती हूं कि वहां जाकर आप हालात को और खराब कर लेंगी। फिर तब यदि वापस आएंगी तो बेटे-बहू यही कहेंगे हर क्षण लो गए तो थे बड़े ताव में, ठिकाना नहीं लगा। आ गए। उस स्थिति में न इधर के रहेंगे न उधर के। नज़र उठाकर बात करना भी मुश्किल हो जाएगा। खुद अपनी ही नज़रों में हीनता सी महसूस होगी। बच्चों और खुद के बीच एक ऐसी दरार पड़ेगी जिसे भरना संभव नहीं होगा। जीवन के आखिरी कुछ बरस जो रह गए हैं वो नरक समान हो जाएंगे। यह कुछ वैसा ही होगा जैसे किसी छोटी सी तकलीफ से छुटकारा पाने के लिए किसी और बड़ी मुसीबत को मोल ले लिया जाए। फिर उस बात का क्या होगा जो अभी आपने कही कि लड़की को भी इस लिए सारी बातें नहीं बतातीं कि बदनामी होगी। जब ओल्ड एज होम जाने की बात उसे और दुनिया को मालूम होगी तब क्या बदनामी नहीं होगी। जरा सोचिए ठंडे दिमाग से।’
‘तो तुम्हीं बताओ हम क्या करें, इधर कुआं उधर खांई किधर जाएं हम।’ कहते-कहते मिसेज माथुर रो पड़ीं ।
‘आप चुप हो जाइए। ऐसे हिम्मत नहीं हारते। पहले तो यह समझ लें कि यह घर-घर की कहानी है। इसलिए यह सोच-सोच कर दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है कि एक आप ही परेशान हैं। आप जैसा अगर सब सोचने लगेंगे तब पूरी दुनिया ओल्ड एज होम में तब्दील हो जाएगी। बच्चे गलत कर रहे हैं तो हमारा तो कर्त्तव्य है कि हम तो उन्हें सही बात बताएं, यदि मानते हैं तो ठीक है, नहीं मानते हैं तो उन्हें अपना जीवन अपने हिसाब से जीने दें। छोड़ दें उन्हें उनके हाल पर।
हम ऐसा कुछ भी न करें जिससे उनको यह लगे कि हम उनकी खुशियों, उनकी आज़ादी के बीच में आ गए हैं। सच बताऊं आपको, जब मुंबई घूमने वाली बात पर बेटे की बातों से दिल टूट गया तो मैं बहुत रोई धोई, गुस्से के मारे कई दिन खाना नहीं खाया। ऊट-पटांग कहती रही बेटे को। कई दिनों चला यह सब, तब एक दिन इन्होंने ही यह सब समझाया। और कहा हमारी और बच्चों की दोनों की भलाई, खुशी इसी में है कि हम किसी के रास्ते में न आएं। वो भले हमसे कुछ अपेक्षा कर लें लेकिन हमें उनसे एक पैसे की अपेक्षा नहीं करनी है। वो कब आ रहे हैं, कब जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं। अपने कमाए पैसे का सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग हमें इस बारे में सोचना ही नहीं है। उन्हें ठोकर लगने दो, तभी तो वो समझ पाएंगे कि संभला कैसे जाता है। कैसे सावधानी से चला जाए कि ठोकर लगे ही न। क्यों कि हम उस जमाने में जी रहे हैं जहां कुछ कहने का अर्थ बच्चे यही लगाते हैं कि हम उनकी आज़ादी, उनके अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहे हैं।’
‘अरे! हम मां-बाप हैं, क्या हमें इतना भी अधिकार नहीं कि उनसे कुछ पूछ सकें। उन्हें कुछ कह सकें। मां-बाप, बेटे-बेटियों के अधिकारों, आज़ादी की बात होगी। ये सब एक परिवार के सदस्य हैं या कि बाहरी लोगों का एक झुंड जो अधिकार मांगेंगे, आज़ादी की बात करेंगे। अरे! जब यह सब छीने जाते हैं तब इनकी बात आती है। मां-बाप तो हर पल अपने बच्चों को कैसे अच्छे से अच्छा भविष्य दे सकें केवल यही कोशिश तो करते रहते हैं। फिर घर में यह सारी बातें कहां से आ गईं।’
‘दीदी आप अपनी जगह सही हैं। लेकिन सच यह है कि आप जैसा चाहती, सोचती हैं, ज़रूरी नहीं है कि सभी वैसा ही करें। आप जैसा चाहती हैं ऐसा तो सैकड़ों साल पहले ही संभव था। जब मां-बाप बच्चों के लिए पूज्य हुआ करते थे। और बच्चे मां-बाप के लिए प्राणों से बढ़कर। यह आज के जमाने में ही हो रहा है कि मां-बाप पैसे के लालच में लड़कियों से धंधा कराते हैं या बेच देते हैं। या संपत्ति के लिए बाप द्वारा बेटों के कत्ल, बेटों द्वारा बाप के कत्ल का समाचार हम पढ़ते, देखते हैं। देखो दीदी सच यह है कि जैसी हवा चल रही हो हमें उसी के अनुकूल अपने को सँभालते हुए चलना चाहिए। उसके विपरीत चलेंगे तो कष्ट होगा या फिर हममें इतनी क्षमता हो कि हम हवा का रुख बदल दें। ऐसा तो हम लोगों के वश में है नहीं।’
‘तो क्या लड़कों की गुलामी करें। उनके सामने गिड़गिड़ाएं कि हमारा ख़याल रखें।’
‘ओफ़्फो... पहले आप अपने गुस्से को दूर करें। गुरु जी कितना समझाती हैं कि घर को संभालने के लिए या एक रखने के लिए उतनी ही कोशिश करें जितनी से कोई घुटन न महसूस करे। यदि ऐसा होने लगे तो सबको उसके उस हाल पर छोड़ देना चाहिए जिस हाल में वो खुल कर सांस ले सके । इसी में सबकी भलाई है। आप क्यों चाहती हैं कि लड़के आपको हर वक़्त सिर आंखों पर बिठा कर रखें। यह तो है नहीं कि आप उन पर आश्रित हैं। अरे! वो आपकी परवाह नहीं करते हैं तो आप भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर अपने लिए अलग व्यवस्था कर लें। सुबह शाम के लिए नौकरानी रख लें, जो खाना-पीना, कपड़ा सब कर दे। माथुर साहब इतना तो कमाते ही हैं। फिर क्यों परेशान हैं। हां ऐसा करने पर जब लड़के रोकें तो विनम्रतापूर्वक उनसे कह दें कि भाई तुम लोगों के पास वक़्त नहीं है तो ऐसा कर लिया। इससे तुम लोगों को भी आसानी होगी। यह करना ओल्ड एज होम जाने से कहीं बेहतर है। इससे न तो घर की बात बाहर पहुंचेगी न आप अपने घर को छोड़ेंगी। न ओल्ड एज होम के भावनाहीन, ठस, मशीनी माहौल के घुटन से सामना होगा। और हो सकता है लड़के इस क़दम से अपनी गलती समझ जाएं और आपके हिसाब से चलने लगें। ओल्ड एज होम जाकर तो आप जीवन भर के लिए बात को बिगाड़ लेंगी। बात के सम्भलने के लिए सारे रास्ते हमेशा के लिए बंद कर देंगी। आप इस बारे में गंभीरता से सोचिए। फिर डिसीजन लीजिए।
जरा ओल्ड एज होम की कल्पना कीजिए। हर तरफ से बेसहारा वृद्ध लोगों का एक समूह होगा। जिनके चेहरे पर सिवाय उदासी के कुछ न होगा। जो हमेशा चुप रहेंगे या फिर अपनी दुख भरी कहानी बता कर आंसू बहाएंगे, आपको भी रुलाएंगे। एक निश्चित टाइम पर खाना-पीना और योग आदि के नाम पर बेवजह जबरदस्ती हंसाने का उपक्रम करेंगे। यहां तो सब कुछ अपना है। वहां कुछ भी अपना न होगा। मेरी तो समझ में यह नहीं आ रहा है कि आपने वहां जाने का सोच भी कैसे लिया। और आश्चर्य तो यह कि माथुर साहब भी तैयार होकर चल दिए ओल्ड एज होम के लिए। सोचिए गुरु जी सुनेंगी तो क्या कहेंगी। कि उनकी दसियों साल की शिक्षा का कोई फ़र्क नहीं है। वह तो यह भी बताती हैं कि हम यदि बहुओं को भी, उतना ही प्यार करें वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपनी बेटियों के साथ करते हैं तो शायद ही कोई बहू होगी जो हमें नहीं मानेगी। कहीं कुछ कमी तो हमसे भी रह जाती होगी न तभी तो बहुएं हमें खलनायिका समझने लगती हैं।’
‘अरे! तुम क्या यह कहना चाहती हो कि मैं बहुओं से लड़ती हूं ?’
‘नहीं ... नहीं मैं ऐसा सोचती भी नहीं, मैं तो एक जनरल बात कह रही हूं कि जैसे गुरु जी बतातीं हैं कि ताली दोनों हाथ से बजती है, चलिए आप अपनी बहुओं को बहुत मानती हैं लेकिन वह फिर भी आपको नहीं मानतीं तो सीधा सा मतलब है कि वह संयुक्त परिवार या सब को साथ लेकर चलने में यकीन नहीं करतीं। ऐसे में समझदारी इसी में है कि उसे उसके हिसाब से जीने दीजिए। आप अपने हिसाब से जीएं। अगर इस थोड़ी सी दूरी से शांति बनी रहे तो मुझे लगता है यह कहीं से गलत नहीं है। बाकी आप समझदार हैं दीदी, जो ठीक समझें करें, मगर फिर भी कहूंगी कि ओल्ड एज होम जाने के बारे में एक बार फिर से विचार अवश्य कर लें।’
‘सच कहूं तो मन तो मेरा भी नहीं है। मज़बूर होकर ही यह फैसला लिया। मगर जैसा तुम बता रही हो ओल्ड एज होम के बारे में उसे जानकर तो लगता है यहीं रहना बेहतर है। जब कोई रास्ता न बचे तभी वहां के बारे में सोचें। मगर मुश्किल यह भी है कि यह जब कोई डिसीजन ले लेते हैं तो जल्दी बदलते नहीं। इन्हें कैसे समझाऊं।’
तभी कॉल बेल बजी तो मिसेज माथुर ने उठते हुए कहा ‘लगता है आ गए हैं। तुम रुको मैं खोलती हूं गेट।’
पत्नी-संग माथुर साहब अंदर आते हैं। राहुल की मां ने उन्हें नमस्कार कर उठते हुए कहा,
‘अच्छा दीदी अब मैं चलती हूं।’
‘नहीं ... नहीं बैठो इतनी जल्दी क्या है।’
राहुल की मां के बैठने के बाद मिसेज माथुर ने पति के सामने उनकी सारी बातें रखीं। जिन्हें सुनकर वह बोले,
‘आप कह तो सही रही हैं। कई ओल्ड एज होम के चक्कर लगा चुका हूं। वहां के हालात तो मुझे और भी बदतर नजर आए। बड़ा ही नीरस ऊबाऊ और दमघोंटू माहौल है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं कहां जाऊं।’
‘भाई साहब मेरी मानिए तो यहीं रहिए अपने घर में। यह दीवारें, यह सामान, यह पूरा घर सब कुछ है आपका। बच्चे भले ही दूरी बनाए हुए हैं लेकिन इन्हें आपने बरसों पहले जहां बनवाया था ये आज भी वहीं हैं। इन्होंने आपका साथ नहीं छोड़ा। यह निर्जीव हैं मगर आपके साथ बनी हुई हैं और आखिर तक बनी ही रहेंगी। जब तक आप इनसे अलग नहीं होंगे तब तक यह आपको छोड़ने वाली नहीं। तब आप इन्हें क्यों छोड़ रहे हैं। यह निर्जीव हैं लेकिन अहसास करिए तो इनके साथ भी एक भावनात्मक रिश्ता है आप दोनों का। यहां आप बच्चों से अलग भी रहेंगे तो भी माहौल दमघोंटू नहीं लगेगा। मैं तो कहूंगी कि एक बार इत्मिनान से विचार कर लें तब क़दम आगे बढ़ाएं।’
‘विचार क्या करना है, आप जो कह रही हैं सही कह रही हैं। जब इस घर की दीवारें नहीं छोड़ रहीं हमारा साथ तो हम छोड़ कर क्यों जाएं कहीं और। मेरा खून पसीना समाया है इन दीवारों में, एक-एक पैसा जोड़ कर बनाया है। आपने बहुत सही समझाया। यह भी तो मेरे ही परिवार का हिस्सा हैं। वो कहते हैं न कि मानो तो देवता नहीं तो पत्थर। चलो बच्चे न सही यही सही। कोई तो है साथ। ओल्ड एज होम में यह भी न होगा।’
‘इतना ही नहीं भाई साहब इन दीवारों पर आपको अपने बच्चों का बचपन, अपने जीवन के बीते सारे पल भी हंसते-खिलखिलाते सुनाई देंगे दिखाई देंगे। सब कुछ अपना होगा। फिर हालात बदलते भी तो देर नहीं लगती। हो सकता है जब बच्चे गलती का अहसास करें तो फिर लौट आएं आपके पास। मैं तो यह भी सोचती हूं कि हम लोगों का यह संन्यास आश्रम है। बच्चों का मोह छोड़ कर बस अपने को ईश्वर, अन्य कामों में व्यस्त रखें। यह अकेला घर हम लोगों की वन में बनी कुटिया है। है न दीदी। आधुनिक जमाने की कुटिया। क्योंकि वन तो अब रहे नहीं तो वन में कुटिया कहां से बनेगी।’
राहुल की मां की इस बात पर माथुर दंपति मुस्कुरा उठे। माथुर साहब ने गहरी सांस लेकर कहा,
‘आप सही कह रही हैं। समय के साथ परिवर्तित स्थितियों को समझना जितना ज़रूरी है उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है उनके अनुसार अपने आचार-व्यवहार, मन, कार्यशैली, जीवनशैली में भी परिवर्तन लाना। जड़वादी सोच से बचना। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आपने जीवन संध्या के व़क्त एक गलत क़दम उठाने से बचा लिया। आपको इसके लिए धन्यवाद देता हूं।’
‘अरे! भाई साहब इसमें धन्यवाद की क्या बात है। सच तो यह है कि हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। सहयात्री हैं। यात्रा हंसते-मुस्कुराते पूरी हो यह ज़िम्मेदारी सभी यात्रियों की है।’
तभी माथुर साहब का मोबाइल बज उठा। नंबर देख कर उन्होंने मोबाइल पत्नी को देते हुए कहा,
‘लो तुम्हारे श्रवण कुमार का फ़ोन आ गया, बात करो। अभी मेरा मन बात करने का नहीं है।’ स्थिति को देखते हुए राहुल की मां ने भी यह कहते हुए चलने की इज़ाज़त ली कि ‘अब चलती हूं। बहुत देर हो गई है वो भी आ गए होंगे और हां! कल सत्संग ज़रूर आइएगा।’
समाप्त