दीवारें तो साथ हैं
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-1
पति को घर से गए कई घंटे हो गए थे। अब बीतता एक-एक क्षण मिसेज माथुर को अखरने लगा था। वैसे भी लंबे समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने के बाद बड़ी मुश्किल से पति-पत्नी दोनों मिलकर ही यह निर्णय ले पाए थे कि बस बहुत हुआ, नहीं रहना अब इस घर में। बड़े ही भारी मन से लिया था दोनों ने यह निर्णय, कलेजा मुंह को आ गया था जब यह निर्णय लिया।
वो करते भी क्या, कोई और रास्ता भी तो नहीं सूझ रहा था उन्हें। अन्यथा जीवन भर की कमाई लगा कर बनाए गए अपने सपनों के आशियाने को छोड़ना कौन चाहता है। जीवन में न जाने कितने सुख-दुख भरे पल जो जिए उन्होंने वह सब इसी मकान की दीवारों, कोनों में ही तो कहीं पैबस्त हैं। नज़र डालने पर उन्हें उन दिनों के हंसते-खिलखिलाते परिवार की आवाजे़ं सुनाई देने लगती हैं। लेकिन वक़्त ने कैसे चंद बरसों में ही बदल दिया सब कुछ। कि अब इसे छोड़ कर कहीं और ठिकाने की तलाश करनी पड़ रही है। बुढ़ापे में पति आज आठवें दिन भी चार घंटे से न जाने कहां भटक रहा है। फ़ोन करने पर ‘आ रहा हूं’ कह कर काट दे रहा है। न जाने क्या बात है। उनके उधेड़बुन की यह श्रृंखला अचानक बज उठी कॉल बेल ने तोड़ दी। पति आ गए इस उम्मीद में जल्दी से उठ कर उन्होंने गेट खोला। लेकिन सामने मिसेज गुप्ता थीं। चेहरे पर मुश्किल से खींच लाई मुस्कुराहट के साथ उन्होंने उनका स्वागत कर कहा,
‘आओ राहुल की मम्मी, अंदर आओ, बताओ क्या हाल है ?’
‘मैं ठीक हूं दीदी, आप अपनी बताइए, इधर कई हफ़्तों से दिखाई नहीं दीं। सत्संग में भी नहीं आ रहीं, आज भी नहीं आईं तो सबने कहा भई पता करो क्या बात है। मैंने कहा मैं जाऊंगी शाम को। वैसे भी कल संडे है और गुरु जी भी आ रही हैं, कल वह अपनी अमृतवाणी सुनाएंगी यह भी बताना है।’
‘हां .... सही कह रही हो, करीब महीना भर तो हो ही रहा है घर से कहीं निकले।’
‘ऐसा भी क्या हो गया ? आपकी तबीयत तो ठीक है न? और माथुर साहब भी ठीक हैं न?’
‘तबीयत तो कुल मिला कर ठीक है। बुढ़ापा है, ऐसे में जितने रोग हो सकते हैं वह सब हैं। आए दिन कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है। वह कहां पीछा छोड़ने वाले। माथुर साहब भी बस ठीक ही हैं।’
‘आप सही कह रहीं हैं। अब तो हम सब उम्र के उस दौर में हैं जहां कई-कई रोगों को साथ लेकर ही चलना है। यही क्या कम है कि ज़िंदगी के साठ साल तो कम से कम पूरे कर ही लिए हैं हम सबने। और मैं तो यह भी कहती हूं कि ईश्वर की कृपा है हम सब पर कि हमारे बच्चे सब लाइन से लग गए हैं और ऐसी गुरु भी मिल गई हैं जिनकी कृपा हम पर हमेशा बरसती रहती है।’
‘हां ...ये तो है। इसमें कोई शक नहीं।’
मिसेज माथुर ने बड़े गंभीर स्वर में कहा। उनके चेहरे पर पीड़ा की रेखाएं इतनी गाढ़ी हो चुकी थीं कि उसे राहुल की मम्मी ने तुरंत पढ़ लिया और पूछा,
‘क्या बात है दीदी .... आप बहुत परेशान दिख रही हैं। माथुर साहब से कुछ बात हो गई है क्या?इतनी परेशान तो मैंने पिछले बीस बरसों में आपको कभी नहीं देखा।’
‘नहीं माथुर साहब से तो मेरी कभी कोई बहस होती ही नहीं। जब भी कभी कोई बात हुई तो बच्चों ही के कारण।’
‘अब तो बच्चे भी बच्चे वाले हो गए हैं। फिर आपके तो सारे बच्चे भी अच्छी पोजीशन पर हैं। सारे बच्चे आप दोनों का पूरा ख़याल रखते हैं। हम लोग कई बार कहते भी हैं कि दीदी बहुत लकी हैं। रिटायर होते-होते लड़की और तीनों लड़कों की न सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई पूरी करवा दी बल्कि सभी सेल्फ़ डिपेंड हैं। सबकी शादी भी कर दी। सारे बच्चे मिल कर रह रहे हैं। दीदी तो वाकई बहुत खुश हैं।’
यह बातें सुनते-सुनते मिसेज माथुर की आंखें भर आईं। चेहरा दर्द भरी रेखाओं से भर उठा। जिसे देख राहुल की मां से रहा नहीं गया। वह अपनी जगह से उठ कर मिसेज माथुर के बगल में बैठ गईं। स्नेह भरा हाथ उनकी पीठ पर रखते हुए कहा,
‘दीदी आखिर क्या बात है?अगर ऐसी कोई बहुत पर्सनल बात नहीं है तो मुझे बताइए शायद मैं कुछ कर सकूं। बेटों, बहुओं से कोई बात हुई है क्या?अगर ऐसा है तो इतना परेशान मत होइए। आजकल यह घर-घर की बात है। इसको लेकर परेशान होना बेवजह है। माथुर साहब भी नहीं दिख रहे। कहीं गए हैं क्या ?’
‘हां .... ओल्ड एज होम गए हैं। यह पता करने की हम लोग वहां रह पाएंगे कि नहीं।’
मिसेज माथुर ने बहुत गहरी सांस लेकर बडे़ भारी मन से यह बात कही, उनकी बात सुन कर मिसेज गुप्ता अचंभित सी हो बोलीं,
‘क्या...? ये क्या कह रही हैं आप? अपना इतना बड़ा मकान, तीन-तीन काबिल बेटों-बहुओं के रहते इस बुढ़ापे में ओल्ड एज होम जाएंगी। इस उम्र में जब ज्यादा देखभाल, बच्चों का सहारा चाहिए तो आप लोग ओल्ड एज होम जाने की तैयारी कर रहें हैं। ऐसा क्या हो गया ?’
‘हां .... सही कहा आपने, बेटे हैं, बहुए हैं, पर अब अपने कहां हैं। मां-बाप उनके लिए घर का वह कूड़ा हैं। जिसे वह हर हाल में घर के बाहर फेंक देना चाहते हैं। और जब अपना खून, अपने बेटे अपने नहीं हैं तो बहुओं की बात करना भी बेमानी है।’
‘लेकिन आपने तो पहले कभी ऐसा कुछ जाहिर ही न होने दिया। जब भी हम लोग आए बहुओं-बेटों को सबको हंसते बोलते ही पाया। अरे! ... हां आज बहुएं भी नहीं दिख रही हैं और वो दिल्ली वाली बहू का क्या हाल है। वह काफी दिनों से नहीं आई है।’
‘एक अपने भाई के यहां गई है, दूसरी मौसी के यहां और दिल्ली वाली वहीं है। बेटे को ऑफ़िस से फुरसत नहीं है। बहू को अपने मां-बाप बहनों-भाइयों से फुरसत नहीं है। कभी कभार भूले-भटके फो़न कर लेती है। बेटे का हाल थोड़ा सा अलग है। फ़ोन करता है रोज। मगर इसके अलावा सारा वक़्त, सेवा सुश्रुषा, हंसना-बोलना, घूमना-फिरना यह सब सास-ससुर, सालियों, सालों के साथ है। सास-ससुर को इतने प्यार से मम्मी-पापा बोलता है कि अपने सगे मां-बाप को भी कभी न बोला होगा।’
‘ओह! क्या कह रही हैं आप?उसे तो मैं आपके बच्चों में सबसे होनहार सबसे अच्छा समझती थी।’
‘सही समझती थी। शादी से पहले वह वाकई मां-बाप, भाई-बहनों सबको बहुत चाहता था। मगर शादी के बाद न जाने बीवी ने, सास-ससुर ने, साले-सालियों ने कौन सा जादू कर दिया है, उसके ऐसे कान भरे हैं कि वह बिल्कुल ही बदल गया है। अब जब कभी घर आता है तो उसके व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे कि वह किसी गैर के यहां या रिश्तेदारी में आया है। अजीब सा कटा-कटा सा रहता है। ऐसा लगता है कि बस खानापूरती कर रहा है। लाड़-प्यार वह सब भी जताएगा। लेकिन यह सब इतना बनावटी होता है कि देख कर दिल में शूल सी चुभती है।’
‘तो कभी आप टोकती नहीं हैं, कि वह यह सब क्यों कर रहा है।’
‘नहीं, जब तक नहीं आता तब तक तो मन में सोचती हूं कि अब की आएगा तो ज़रूर पूछुंगी कि बेटा मेरी परवरिश में कहां कमी रह गई कि जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए सास-ससुर तुम्हारे लिए मां-बाप से भी बढ़ कर हो गए हैं। जिस मां ने जन्म दिया, जिस मां-बाप की गोद में खेले बड़े हुए। खुद गीले में सो कर जिस मां ने इस लायक बनाया कि आज दुनिया में लोग तुम्हें पूछते हैं। तुम्हारी इज़्ज़त करते हैं। जिनकी परवरिश के कारण वह मुकाम बना पाए कि तुम्हारी शादी के लिए न जाने कितने लोग आए। दरवाजे पर लाइन लग गई लड़की वालों की, आज वही मां-बाप घर तुम्हें बेगाने से क्यों लगते हैं?और सास-ससुर सगे मां-बाप से बढ़ कर कैसे हो गए ? .... मगर क्या करूं जब सामने आता है तो कुछ याद नहीं रहता। बस इतना ही होश रहता है कि मेरा बेटा मेरे सामने आ गया है। जो कभी मेरी गोद में खेलता था, जिसकी किलकारियों से हम मियां-बीवी सांस ले कर जीवित रहते, आगे बढ़ते थे, आज वह खुद बाप बन गया है। देखते-देखते कितनी जल्दी वक़्त निकल गया। बस यही सब दिमाग में, मन में रह जाता है। बाकी सब न जाने कहां लोप हो जाता है।’
‘और माथुर साहब, वह कुछ नहीं कहते।’
‘वो क्या कहेंगे। बाप हैं और सबसे ज़्यादा यह कि मर्द हैं। बस अंदर ही अंदर घुलते रहते हैं। मुझे लगता है कि वह मुझ से ज़्यादा व्यथित रहते हैं लेकिन मुंह नहीं खोलते। जब कभी कुछ कहती हूं तो डांट कर चुप करा देते हैं। मगर इस बीच उनकी भरी हुई आंखें मुझ से नहीं छिप पातीं। उनके अंदर चलती उथल-पुथल उनके सिसकते हृदय की आवाज़ मैं साफ सुनती हूं। उनकी बेबसी मुझे अंदर तक छील कर रख देती है। फिर उनकी और अपनी दोनों की बेबसी पर सिवाए आंसू बहा कर किसी कोने में खुद को सांत्वना देने के अलावा मेरे पास कुछ नहीं बचता।’
‘ओफ़्फ...... मैं...... मैं क्या सत्संग में सभी लोग अब तक यही समझती हैं कि आप से ज़्यादा खुश और कोई हो ही नहीं सकता। कभी एक बार भी मैं नहीं समझती कि किसी के मन में यह आया होगा कि आप इतने सारे कष्ट के साथ जी रहीं हैं। और इतनी हिम्मत के साथ कि कभी आपने बाहर किसी को अहसास तक न होने दिया।’
‘किसी से बताते भी तो कैसे ? हम लोग तो इज़्ज़त को ले कर मरते रहते हैं कि दुनिया क्या कहेगी। इसलिए अंदर-अंदर चाहे जितना घुटते रहें लेकिन जब कोई आया तो उसके सामने चेहरे पर हंसी मुस्कुराहट के अलावा कुछ न आने दिया। बल्कि कोशिश यह भी, कि लोगों के सामने अपने बेटे-बहुओं की तारीफ ही निकले।’
‘वह सब तो ठीक है। मगर मैं यह नहीं समझ पा रही कि एक दो नहीं पिछले कई बरसों से आप दोनों यह सब कैसे झेलते रहे? ये सब कैसे बर्दाश्त करती रहीं?’
‘वक़्त ... वक़्त सब करा देता है। जब बात सामने आती है तो हिम्मत भी आ जाती है।’
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