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पाप तरक और परायशचित.

पाप तरक और परायशचित

प्रज्ञा

सुनोए तुम मीनू को जानते होघवही जो तुमहारे भैया के पास पढ़ती थी। सांवली है और बात. बेबात हंसती रहती है। और वो न

अरे भैया के पास कितने बचचे आते हैं टयूशन पढ़नेए मेरे पास सबका रिकारड है कयाघ और जहां तक मेरी बात है तो भैया ने बताया होगा कभी मेरे बारे में या देखा होगा उसने कभी जब मैं घर गया हूंगा।

जानते हो आज उसका पहला दिन था कॉलेज में और मुझे देखते ही बोली. आप संजय सर की छोटी बहू हो नमुझे अचछा नहीं लगा। पहली ही मुलाकात में इतना बेतकललुफ हो जाना उसका।

इसका मतलब तो ये हुआ कि उसने मुझे ही नहीं तुमहें भी देखा है घर में। और फिर भैया ने कह दिया होगा कि हमारी बहू हैए पढ़ाती है कॉलेज में। पर तुमहें बुरा कया लग रहा है. उसका बेतकललुफ होना या उसका भैया की छोटी बहू कहना

मानस की बात तीर की तरह मेरे कलेजे में जा लगी। दरअसल बात तो यही थी कि मेरे वरकपलेस पर एक अजनबी लड़की पहली ही बार में मुझसे इतनी लिबरटी लेकर मुझे टीचर नहीं बलकि अपने टीचर की बहू कह रही थी। उसके एक वाकय ने मेरा सारा वजूद हिलाकर रख दिया था। मैं डॉण सहज तरिपाठीए एक लंबा अनुभव है मेरा इस संसथान में। कितने ही छातर पढ़ाए। एक रूतबा है मेरा और मातर बारहवीं पास एक लड़की ने मुझे मेरे ही गढ़ में चितत कर दिया। देखा जाए तो कुछ गलत तो नहीं था उसके कहने में पर उसका परिचय की कड़ी जोड़ने का अंदाज़ ही मुझे न भाया। उसके चंद शबदों ने मेरी पहचान को सीमित कर दिया और उसकी बेसाखता हंसी मुझे इसलिए नापसंद हो गयी कि शायद परिचय के घेरे का लाभ उठाकर वो कया मुझे एक मामूली औरत समझ रही है घ और फिर अब तीन साल इसे पढ़ाना है। अपनी कलास के बचचों पर भी मुझे जानने का रौब गांठेगी और मेरा परिचय एक बहू के रूप में ही देगी। दिमाग में अटके उसके शबदों ने जब बहुत तूफान मचा दिया तो मैंने उसे संभालने के लिए गरदन को तेजी से झटका। अगले दिन पढ़ाए जाने वाली कलास की सभी तैयारियों के साथ मैंने मीनू को भी दुरूसत करने के कुछ तरीके सोच लिए।

अगले दिन सबसे पहलेे उसकी बेतकललुफ हंसी को अपनी गंभीर नजर जो अपरिचय की हद पार कर रही थीए उसीके रिमोट से मैंने कंटरोल करने की कोशिश की। पर उसे तो जैसे फरक ही नहीं पड़ा। कॉलेज के माहौल ने उसकी हंसी को नए पंख दे दिए थे शायद। वो वैसे ही बिंदास हंस रही थी। कलास शुरू होने पर नए बचचों में मैंने अतिरिकत दिलचसपी लेकर उसे नियंतरित करने का नया तरीका ईजाद किया पर फिर भी कोई फरक नहीं। तब मैंने अपने तरकश का अचूक तीर निकाला। विय पर आने से पहले बचचों से सवाल. जवाब का। पर यहां भी मेरा अंदाज़ा गलत निकला। उसकी हंसी से मुझे लगा था कि पढ़ने. लिखने में औसत या उससे कम ही ठहरेगी पर दिमाग से पैदल नहीं निकली मीनू और ऐसे लोगों की कदर करना मेरे सवभाव में था। पर मैंने ये बात जाहिर नहीं होने दी। मेरी मुदरा काफी अरसे तक उसके परति अतिरिकत रूप से गंभीर और सचेत ही बनी रही। उसने पहली ही मुलाकात में मुझे असहज कर दिया था इसलिए उसका असर आसानी से जाने वाला नहीं था।

मेरी नज़र सखत बने रहने के बावजूद उसका पीछा किया करती। अकसर देखती कॉरिडोर उसकी हंसी से झूमता मिलता। कुछ ही दिनों में सीनियरस से भी अचछी दोसती गांठ ली उसने। उसे देखकर कोई कह नहीं सकता था कि ये फसरट ईयर की लड़की हैए यूनिवरसिटी की शबदावली में कहें तो फचचा है। वह तो अपने अलमसत सवभाव से ऐसी लगती थी कि बरसों से इस कॉलेज के चपपे. चपपे से वाकिफ है। कलास में आते. जाते मैं कनखियों से उसे निहारने का कोई मौका न चूकती। ऐसा लगता जैसे मेरी सारी इंदरियां अपनी पूरी ऊरजा के साथ उसे सुनने. सूंघने की करिया में पराणपण से जुट गईं हों। बात. बात पर ताली मार कर उसका हंसनाए गलियारों में भागनाए तेज़ सवर में उसकी तीखी आवाज़ का गूंजनाए गलियारों में भागते. दौड़ते परांठों का रोल बनाकर खाना या जबरन लोगों को खिलाना या फिर घर की सी उनमुकतता महसूस करते हुए अचार की चूस. चूसकर पतली कर दी गई झिलली जैसी परत का भी उसके धूमिल होने की हद तक लुतफ उठाए चलना .. सब उसकी आदतों में शुमार था। और फिर बात. बात में उसके चल जा ना या हट भई हवा आने दे. जैसे जुमलों की मैं आदि होती जा रही थी। ऐसे ही उसकी हरकतों को अपनी जासूस निगाहों से टोहते हुए मैंने जाना लोग उसे नाम की बजाय जैनी या जैन साब पुकारने लगे थे। इसका राज़ बाद में फाश हुआ। दरअसल इसके भी दो कारण थे। एक सामानय कारण ये कि कलास में दो मीनू होने के कारण पहचान की सुविधा के लिए सरनेम का सहारा एक सरल उपाय था और दूसरा विशिट कारण था कि अकसर कॉलेज में अधिक घनिठ संबंध होने या दूसरों से खास होने वाले को ये बचचे ऐसे नाम अपनेपन और पयार से दे दिया करते थे।

मुझे शुरू से ही ऐसे मसतमौला बचचे पसंद थे पर मीनू उस दायरे में होकर भी बाहर थी। उससे पहली मुलाकात का असर अब तक कायम था। हालांकि ये असहजता मुझे अकसर परेशान भी करती। खांमखां मैंने उससे दूरी बना ली है। आखिर कब तक घ और एक दिन पुरानी बातों पर खाक डालने की बात सोचकर और कड़ा निशचय करके मैं कॉलेज आई थी तो सामने पड़ते ही मीनू बोलीए

कल आपके ससुराल गई थी मैं। मैंने बताया सर को कि आप हमें पढ़ाते हो।

सहज. सरल से इस वाकय ने एक बार फिर मुझे घायल कर दिया । अपनी पीड़ा को छुपाकर और अपने गुससे को जताकर मैंने दो. टूक कहा देखो मीनूए ये कॉलेज है और मैं नहीं चाहती कि तुम मेरे घर. परिवार से जुड़ी कोई चरचा मुझसे या किसी और से करो। उसकी चेहरे पर नासमझी के भाव की परत मुझे भली लगी। हालांकि बाद में ठंडे मन से सोचा तो पाया कि कया गलत कहा था उसने ऐसा। पर मुझे हर बार कयों चुभती है उसकी बातघ कयों ये लड़की मुझे बार. बार मेरे करम के दायरे से धकेलकर घर में बंद कर देती हैघ कया उसकी नज़र में मैं केवल एक पतनीए बहू एमां ही हूं घ अब तक शिकक का मेरा सवतंतर असतितव उसकी नज़र में कुछ भी नहीं है कया घ पता नहीं वो इस बात को समझी कि नहीं पर उस दिन का असर ये हुआ कि मीनू ने फिर मेरे परिवार से जुड़ी बातों का जि़कर नहीं छेड़ा। फिर जैसे. जैसे उसने मेरे परिवार से जोड़कर मुझे देखना बंद किया वैसे. वैसे वो और बचचों की तरह मेरे करीब होती चली गई।

उस दिन बचचों की फरेशरस पारटी थी। नए बचचों के लिए आयोजित परतियोगिता को जांचने वाले तीन लोगों के निरणायक. मंडल में मैं भी एक थी। जैसे ही मीनू का नाम पुकारा गया एक शोर. सा उठा। ये शोर यों ही नहीं उठा थाए हरदिलअजीज़ मीनू के लिए उठने वाला शोर थाए जिस पर कई टीचरस ने उसकी लोकपरियता के कारणों को मुसकुराते हुए मौन समरथन दिया। सबकी निगाहें उसी पर जमी थीं। निहायत सलीके से अपना परिचय देते हुए जब उसने कोई शेर कहा तो दाद देने वालों की तालियां न थमीं। पहले रांउड में अपने गजब के आतमविशवास से उसने बाज़ी मार ली थी अब पारटी के सेकेंड रांउड की तरफ सबकी आंखें लगीं थीं। उसके नाम की परची में उसे डांस करके दिखाना था। बेधड़क आवाज़ में बोली और ये कया वो तो गाना शुरू होते ही फिरकी की तरह नाचने लगी। करीना पर फिलमाए किसी पॉपुलर गाने पर उसका ठुमका लगाकर थिरकना कभी भूल सकती हूं कयाघ बिना किसी बेढंगेपन केए लय के अनुकूल नाचना और तेज और धीमे संगीत के मुताबिक अंग. संचालन। पांच मिनट तक बिना हांफे पूरी गरिमा के साथ वो नाची और मैं सोच रही थी कि करीना ने कितने री. टेक दिए होंगे इसमें और कितना टच. अप कराया होगा मेकअप का। वो दिन मीनू अपने नाम लिखवाकर ले गई। बिना कोई हिचक सबने उसे मिस. फरेशर चुन लिया। यही नहीं मिस टैलेंट का खिताब भी उसे साथ में मिल गया। पहले से बढ़ रही उसकी खयाति और भी महक उठी। सबसे अचछी बात तो ये थी कि उसका वयकतितव इतना निराला था कि वो जलनपरूफ और ईरयापरूफ था। फिर लोग भी उसके सरल सवभाव और साफगोई पर जान छिड़कते थे। वो लड़ती. झगड़ती रहती तो भी कोई उसका दुशमन नहीं था और पीठ पीछे भी कोई उसे बुरा न कहता था।

जैन साहब इलैकशन लड़ लो इस बार। पूरे विभाग की राय यही बन रही थी और सीट भी काफी सुरकित थी. लैंगुएज रिपरेज़नटेटिव की। मीनू ने हामी भी भर दी। नामांकन दाखिल करने की औपचारिकताओं से जुड़ा पहलू उसके दोसतों ने संभाल लिया। सभी टीचरस भी इस निरणय पर संतुट थे। सब जानते थे अपने सवभाव और परभाव से जीतने पर कुछ बेहतर कर दिखाएगी मीनू। पर उसका सीनियर अनिल झा पिछले साल से इस सीट के लिए मन बनाए हुए था। दिककत उसके सामने ये भी थी कि अनिल के आने से सारा खेल उतना आसान नहीं रह जाता जितना मीनू के लिए था। उसे टककर देने वालों की कमी नहीं थी। मीनू के असर से संकोच के दरवाजों में कैद हो गई उसकी इचछा न जाने किस खुली रह गई खिड़की से मीनू के पास तक जा पहुंची।

अरे सर आपने बताया कयों नहीं मुझेघ जानती होती तो ये सब होता ही न। आपका हक पहला हैए वो तो अचछा हुआ कि नॉमीनेशन फाइल नहीं किया था। इस बार आप ही आंएगे और जीत की गारंटी मेरी।

मीनू ने न केवल सीट अनिल के नाम कर दी बलकि सारे वोट भी उधर खिसका दिए। और उममीदवार न होते हुए भी सबके दिल पर उसकी उममीदवारी तय हो गई। उसके खुलेपन और दोसताना रवैये ने उसे सबकी चहेती बना दिया था। उसे देखकर लगता था कि मानो ये अकय ऊरजा का कोई सतरोत है। जब देखो. किसी पहर देखोए आंखों में वही चमकए आवाज़ में वही खनक। मन कहता थकती नहीं है ये लड़कीघ हर काम को करने में गजब का उतसाह। ऐसे बचचे पूरे माहौल को ताज़गी से भर देते हैं। सालाना उतसव में निबंध लेखन परतियोगिता से लेकर लोकगीत परतियोगिता तक सबमें उसकी काबिल. ए. तारीफ परसतुति। उसी दिन लोकगीत की अदायगी से मैंने जाना कि मीनू राजसथान से संबंध रखती है। कितना बढि़या गीत गाया था उसने।

मैडम आपके घर के पास आ गई हूं मैं। यहीं पास में नवजयोति अपारटमेंटस में किराए का फलैट लिया है पापा ने। कभी आओ न घर आप।

हां ज़रूर कभी। बचचों की इस फरमाईश की आदत लगभग हर टीचर को होती है इसीलिए फिर कभी जैसे शबदों से एक अनिशचयातमक सथिति रचकर अपना निशचयातमक रूख दिखाना हर टीचर को बखूबी आता है। सो मैंने भी वही किया। सोचा दो. एक बार कहेगी फिर सच जानकर कहना छोड़ देगी पर मीनू तो धुन की पककी थी। अड़ गई और मुझे घर बुलाकर ही मानी। और एक तरह से अचछा ही हुआ। मैंने देख लिया कि उसका परिवार काफी धारमिक है। चार भाई. बहनों में मीनू तीसरे नमबर पर थी और सबसे छोटा था भाई। एक बहन की शादी जलदी ही होने वाली थी। मीनू के सवभाव के परतिकूल घर बेहद शांत था। जगह. जगह उनके किनहीं गुरू जी के चितर लगे थे। घर कया था मंदिर था। जूते बाहर ही उतारने पड़े थे। घर में कोई चपपल भूले से भी नहीं दिख रही थी। बड़े संयमित ढंग का परिवार था और फरनीचर भी सादा और बेहद कम। उसकी मां ने ही बताया कि साल में दो. तीन बार राजसथान अपने गुरूजी के आशरम में उनका जाना बरसों से जारी है। पिता छोटा. मोटा कोई वयवसाय करते हैं। अकेले कमाने वाले हैं और कमाई जयादा नहीं है पर धरमपरायण वो भी बहुत हैं। इसीके चलते खरचे ज़यादा भी थेए ऐसा उसकी मां ने ही बताया। हालांकि दूसरे नमबर वाली बहन गणित में होशियार होने के कारण टयूशन भी पढ़ाती है। तीनों लड़कियां गुरूजी के आदेशों का पालन करती हैं। इसके अलावा पता नहीं कौन. कौन से वरत. तयौहार की जानकारी वो मुझे दे रहीं थीं जिनसे मैं आतमा की गहराई तक ऊब रही थी।

आइये आपको अपना पारक दिखाती हूं। मुझे बचाने का अचछा बहाना बनाया उसने। जान बची तो लाखों पाए की तरज पर मैंने मुगधभाव से जूते पहनते हुए उसे देखा। पारक घुमाते हुए उसकी मसती फिर से तारी हो गई और मुझे लगा कि जाने किस कैद से छूटकर आए हैं हम दोनों। हैरत की बात तो ये थी कि मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि मीनू इसी परिवार की लड़की है या गोद ली गई हैघ कई फिलमों में जनम के वकत बचचों की अदला. बदली के दृशयों को देखने के बाद मुझे लगने लगा कि मीनू भी शायद वही बदला हुआ बचचा है। पर कमाल की बात है अपने चुपपा भाई. बहनों के बीच भी वो अपनी लय में ही जीती थी।

देखते. देखते मीनू बेहद अचछे नमबरों से पास होकर दूसरे साल में आ गई। दरअसल उसके जीवन में घटनाओं की उथल. पुथल यहीं से शुरू हुई जिसके कारण कुछ भी सामानय न रहाए न उसके जीवन में और न ही उससे जुड़े लोगों के जीवन में। नया सतर शुरू ही हुआ था और मीनू लंबे समय तक कॉलेज नहीं आई। मैडम फोन ही नहीं उठाती कया करेंघ बचचों से पूछने पर पता चला।

मैं अतिरिकत रूचि नहीं लेती तो पता ही न चलता। कलास का कोई भी बचचा उसके घर के बारे में कुछ नहीं जानता था। अपने घर की कोई बात नहीं करती थी कॉलेज में। वो तो एमणएण में पढ़ने वाली वरा ही अकेली लड़की थी जो मीनू के घर आती. जाती थी शायद किसी पुरानी पहचान के कारण ए उसीने बताया.

मैडम बीमार है वो।उनके यहां कोई कठिन वरत होता है वही रखा था उसने।

एक दिन के वरत में ऐसा कया हो गया उसेघ

एक दिन नहीं मैडम एक महीने का वरत था। बेहद कठिनए चातुरमास करके कुछ। कहीं आ. जा नहीं सकते और गरमी में भी गरम पानी पीना है। पूजा. पाठ और बुरे कामों से मुकति का संकलप जैसा भी कुछ होता है इसमें। तीनों बहनों ने रखा था।

मीनू और उसकी बहनों ने ऐसे कया बुरे काम कर दिएघ बड़ी ही पयारी बचचियां हैं वो तोघ

मेरी बात पर गौर किए बिना ही वरा बोलती गईए पर वरत के अंतिम दिन काफी खुश थी वो कि अब कॉलेज जा सकेगी। मुझे बुलाया था उसनेए मेंहदी लगवाने जा रही थी।

वो किसलिए घ

पता नहीं मैडमए रिवाज सा है उनके यहांए कनयाएं वरत के अंतिम दिन खूब सजती हैं या खुशी मनाती हैंए ऐसा ही कुछ। और उस दिन अपने करीबी लोगों से मिलती भी हैं। बस मैं तो इसी करके चली गई थी उसके घर। उसकी दोनों बहनों ने भी वरत रखा था पर ये कितनी दुबली है पहले हीए सह नहीं पाई। कई दिन हॉसपिटल में रही है। अब घर आ गई है। उसका हीमोगलोबिन काफी कम है।

तो ये थे मीनू के गुरू जी के बताए नियम. कायदेए जिनकी कसौटी पर खरा उतरना था उसे और उसकी बहनों को। वो बीमार न पड़ती तो शायद इस रहसय से परदा ही न उठताघ या अगर वरा भी उसके घर न आती. जाती तो कुछ भी पता न चलता। बहरहाल कुछ दिन बाद मीनू लौटी। बीमारी की बात तो उसने बताई पर कारण गोल कर गई। मुझे लगा वो मुझे वासतविकता बताने से कतरा रही है। उसकी वरत. कथा पर परदा ही पड़ा रहा। पर अब मीनू में पहले जैसी ऊरजा नहीं रह गई थी।

भाई भगा न मुझेए सांस भूलती है मेरी। ले मान ली मैंने हार अपनी। कलास के बाहर गलियारे में मीनू की ये बात सुनकर जहां उसका साथी जीत की खुशी में इतराने लगाए मेरा मन किसी आशंका से भर गया। कया हुआ मीनू की हिममत कोघ हारना तो उसका सवभाव ही नहीं था।

नए बचचों के सवागत की तैयारियां चल रहीं थीं। सभी टीचरस चाहते थे कि शुरूआत मीनू के डांस से ही हो। उसने भी खुशी. खुशी सवीकार कर लिया। पर हैरानी की बात ये थी उसका ये कहना.

दो दिन के लिए कॉलेज में ही रिहरसल की वयवसथा करा दें आप। घर में पॉसीबल नहीं।

बात अजीब तो नहीं थी पर लगा शायद घर में उसे नाचने. गाने की अनुमति नहीं है। मैंने वयवसथा तो करा दी पर घर के बारे में पूछने पर उसने बेहद नपे. तुले शबदों में इतना ही कहा. बस ऐसे ही। पापा को पसंद नहीं। मेरे मन ने परतिवाद कियाए कया ज़रूरत है पापा को बताने कीघ कौनसा वह सारे दिन घर में रहते हैंघ और आखिर नाचने में ऐसी कौनसी बुराई है जिसे छोड़ा जाना चाहिए। कया उसके पापा ने देखा है कभी उसका नाचनाघ शायद नहीं एइसीलिए तो वे जान ही नहीं सके कि नाचते हुए उसकी खुशी सातवें आसमान पर होती है। बात करना चाहती थी मैं उससे खुलकर। चलकर समझाना चाहती थी उसके पापा को पर उसके कसकर भिंचे होंठो ने एक सीमा रेखा खींच दी थी जिसके पार जाने की अनुमति मुझे नहीं थी।

जलदी चलिए मैडमए मीनू बेहोश हो गई है।

अगले दिन डांस की तैयारी के दौरान बचचे बदहवास भागे आए। डॉकटर ने बताया कि उसके शरीर में खून कम है और कम पोण के चलते जान भी नहीं है। बचचों ने एक और बात का भी खुलासा किया कि एनणएसणएस की ओर से लगे बलड डोनेशन कैंप से डॉकटर ने इसे बलड डोनेट करने से मना कर दिया था। उस दिन गलूकोज़ चढ़वाकर मीनू को उसके घर लेकर गई । बाहर के गेट पर ही उतरते हुए बोली.

मैं खुद चली जाऊंगी और पलीज़ मेरे घर में कभी किसी को न बताएं कि मेरे साथ कया हुआ। आप चलेंगी तो कल तक ठीक रही तो डांस ज़रूर करूंगी।

आज सवाल उठा कि ये वही मीनू है जो मुझे घर बुलाने पर अड़ गई थीघ दूसरे ही पल मैं कांप गई कया मुझे घर बुलाने का कोई और मकसद तो नहीं था। उसके घर का धारमिक अनुशासन और मेरी बातों में धरम की रूढि़यों का तारकिक खंडन। तो कया मीनू इसलिए मुझेओह ! हांएशायद इसीलिए। वैसे भी बचचों के सामने डॉ सहज तरिपाठी का जीवन खुली किताब ही तो था जिसने जीवन अपनी शरतों पर जिया और किसी भी तरह की रूढि़ और पूरवागरहों को कभी नहीं माना। पढ़ाई के विय से लेकर जीवनसाथी के चुनाव तक का निरणय उसका अपना रहा। इसीलिए मुझसे पयार करती थी मीनू तो अब कयों उसने अपने घर और मन के दरवाजे बंद कर लिएघ

मेरा दिमाग उसके घर के रहसय को खोलने में लगा था पर जुबान से यही निकला ठीक है और तुम कल की चिंता न करो अपना धयान रखो बस। इस घटना के बाद कॉलेज में मीनू का डांस छूट गया। अब कभी. कभी गाना गा देती थी। बड़ी टीस. सी उठा करती थी मेरे भीतर और सवालों के जंगल में उलझते. दौड़ते जब लड़खड़ाती तो मैं खुद से सवाल करती आखिर कया है ये. हरदम मीनूए मीनूघ मीनू के अलावा और भी तो बहुत कुछ है न जि़ंदगी में। होते हैं कई बचचों के अपने सवाल जि़ंदगी के। हम किस. किसके सवालात हल करते फिरें आखिरघ और हल तो तब करें न जब कोई शामिल करे अपनी परेशानी में।

इधर कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि जो मीनू हंसना. खिलखिलाना भूलती जा रही थीए उसकी हंसी फिर लौट रही है। शरीर से कमज़ोर होने के बावजूद मन से मजबूत हो रही थी। उसकी चंचलताए चुलबुलापन फिर से गलियारों में गूंज रहा था। पर ये कयाए अब एक नई मुसीबत। वो कलास में अकसर गायब रहने लगी। खोजने पर भी कारण नहीं मिला तो अपनी आदत के मुताबिक एक दिन कलास से पूछ ही लिया.

मीनू नहीं आई कया आजघ

मैडम वो तो रोज़़ आती है पर। इस अधूरे जवाब के साथ कुछ दबी धवनियां भी कलास में गूंजी जिनहोंने मुझे बेचैन कर दिया। कुछ चेहरों पर शरारती मुसकुराहटए आंखों. आंखों में बचचों का एक. दूसरे को देखना और फिर वो दबे से शबद में परशांत का वयंगयातमक धुन में गुनगुनाया गीत बहुत कुछ बयां कर गए . आजकल पांव ज़मीं पर नहीं टिकते उसके। पर मन ने माना एहो सकता है ये बचचों की खामाखयाली हो फिर ये मीनू का निजी मसला था और कॉलेज में ऐसा बहुत कुछ होता ही रहता है। दरअसल मेरी चिंता वो नहीं थी ए चिंता इस बात की थी कि मीनू पढ़ाई के परति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती हैघ उसके घर का माहौल फिर घर की माली हालत और मीनू का रवैयाए सब कुछ परेशान करने वाला था। मीनू मिलती भी तो मैं उसे कलास में आने के लिए ही कह सकती थी उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकती थी।

आप मुझे पूछ रहे थेए मैडम़कल एकलास मेंघ

अचानक अगले दिन वो खुद मेरे सामने मेरे सभी सवालों का जवाब बनकर हाजि़र थी।

हां भईए कहां हो तुमघ

फिलम देखने गई थीमैं और इमरान थे साथ मेंणणउसका जनमदिन था न। शुरूआती संकोच से निकले उसके बेधड़क शबदों ने बहुत कुछ कह दिया।

दोसतों का जनमदिन मनाओ पर रो़ज. रोज कलास से कैसी नाराज़गीघ

बहुत सारे सवाल होते हुए भी संयमित रहना वकत की ज़रूरत थी। और मीनू मुसकुराकर चली गई। मामले की भनक तो लग गई थी मुझे पर किसी निकर पर पहुंचना अभी मुशकिल था। मीनू ने मेरी कलास में आना दोबारा शुरू कर दिया पर बाकी लोगों के यहां वो गैरहाजि़र थीए दूसरे कलास में वो इमरान के साथ ही बैठती। इमरान भले घर का अचछा लड़का था और मीनू तो थी ही अचछी पर ऐसा कया था जो मुझे परेशान किए जा रहा था। वो शायद समय ही था जो उनके कचचे मन पर भारी दसतक दे रहा था जिसकी आवाज़ मेरे कानों में भी अपनी धमक के साथ गूंज रही थी। मेरे ही कया कई कानों में गूंज रही थी और सबका मन यही कह रहा था. ये कोई उमर है भलाघ पर बात कुछ और भी थी. कया मीनू का परिवार इमरान को देख पाएगा मीनू के जीवन साथी के रूप मेंघ सवाल जटिल था पर बार. बार इसका जवाब बड़ी सरलता से मेरे सामने अपनी ननहीं सी मुदरा में आता. नहीं। दिककत एक ये भी थी कि मीनू इस सारे मामले को अपने तक ही सीमित रखना चाहती थी। अपने किसी दोसत को भी उसने अपने परेम का राज़दार नहीं बनाया थाए साकी को भी नहीं।

इधर इमरान. मीनू परेम. परसंग ने कॉलेज में नई हलचल भर दी थी। कुछ तो उसके बोलड सटैप को भावी परेरणा की तरह पा रहे थे तो कुछ की परतिकरिया बेहद सामपरदायिक और घृणा से भरी भी थी।

अरे ये टरेंड चल निकला है। लव. जेहाद के बारे में जानते हो कयाघ अरे सोची. समझी साजिश है। ये लड़के ऐसे ही हमारी लड़कियों को बरगलाते हैं और उनहें अपने धरम में शामिल कर लेते हैं। अभी घर पर फोन खड़का दूं मीनू के तो सही रसते पर आ जाएगी।

परशांत के अशांत मन में चल रही बातों का खुलासा कुछ बचचे मुझसे कर गए। पीठ पीछे परशांत के तीखे. तलख जुमलों और भददे शबदों से इमरान. मीनू दोनों ही आहत थे। एक दिन दोनों के सामने ही कलास के दौरान परकारांतर से मैंने धरमनिरपेकता और समतामूलक समाज की नींव में धारमिक संकीरणता की बाधा और इस दिशा में अंतरजातीय. अंतरधारमिक विवाहों की ज़रूरत पर बात की। हमेशा की तरह बहुत से सहमत हुए और कुछ उदासीन ही रहे। पर परशांत जैसे बचचे आकरामक होकर बहस करने लगे। मैंने कई बार उनहें तरक के रासते लाने की कोशिश की पर वे लकीर के फकीर की तरह बोले.

ये तो गलत होगा। हमारा धरम तो सदियों से शरेठ रहा है। सबसे ऊपरए सबसे अचछा। सब उननति का मूल। हमारी संसकृति तो आधार है मैडमए इसे कैसेए कयों और किनके लिए हिला देंघ धरमनिरपेकता जैसे शबद सुनने में मधुर हैंए फैशनेबल हैंए वोट मिलते हैं इनसे पर इनके चककर में अपना धरम नहीं छोड़ा जाता। मैडम जाति कभी नहीं जाती. सुना तो होगा आपने।

जिसने जीवन में इन बातों की परवाह नहीं की उसे ये बचचे शायद जबरन समझाने की कोशिश कर रहे थे। यही नहीं एक दिन कलास में घुसते हुए खौलते लावे जैसे शबद भी कान में तैर गए. ये सब साले पाकिसतानी। खायेंगे यहां की और। हम कया चुप बैठे रहेंगेए पानी नहीं है खून दौड़ता है अंदरए दिखा देंगे।

फिर अचानक कॉलेज फेसट के दौरान किसी बात पर लड़कों ने इमरान को बुरी तरह पीट दिया। धकका. मुककी में मीनू को भी चोट आई और मौके का फायदा उठाकर उससे छेड़छाड़ भी की गई थी शायद। कुछ बचचों का कहना था कि नाचते समय इमरान किसी से टकरा गया और कहते. सुनते बात बढ़ गई। कुछ का कहना था मीनू के साथ बदतमीज़ी का विरोध करने पर ऐसा हुआ तो कुछ ने बताया इमरान को पीटने वाले लड़के कह रहे थे. मार के गाड़ दो साले को देख लेंगे सब बाद में। मैडमए दोनों को पहले से दी जा रही धमकियां कोरी गीदड़ भभकी नहीं थीं। थोड़े दिन बाद सथितियां शांत हुईं और निकर निकला फेसट. वेसट में तो ऐसा हो ही जाता है। शान मारने के लिए लड़के ये सब किया ही करते हैं। पर इस सबके बीच उन दोनों के परसंग को बड़े ही वाहियात तरीके से हवा दी गई। आग की चिंगारी मीनू के घर तक पहुंच गई। अब मीनू कलास से गायब रहने लगी और ठीक होने के बाद कॉलेज आया इमरान मुझे अकेला बैठा मिलता। उदास और परेशान। कोई नहीं जानता था आखिर हुआ कयाघ इमरान ने बेहद संकोच भरे शबदों में यही कहा मैडम उसका फोन बंद है। मैं कुछ नहीं जानता। शायद वो बात ही नहीं करना चाहती मुझसे।

पहले तो मुझे लगा कि कुछ दिन मीनू का न आना ही ठीक है पर जब कई दिन बीत गए तो मेरा माथा ठनका। इस मसले पर अपने एक सीनियर साथी से बात करने की कोशिश की तो उनहोंने कहा.

बी परैकटीकल सहज। कयों पड़ती हो इन चककरों में नौकरी करो और खुश रहो। परिवार देखो अपना। किन झंझटों में फंस रही हो। ये बचचे किसके सगे हैंघ

सच ही तो कहा उनहोंने नौकरी करो और खुश रहो। हां नौकरी करने ही तो आते हैं हम। पर मन ने तुरंत परतिवाद किया कया केवल नौकरी ही करने आते हैं हमघ कया हम भी किसी मंडी में बैठे हैं कि बस सामान को जलदी से जलदी बेचना और हर हाल में गराहक को खुश करते हुए उससे लाभ कमाना ही हमारा पेशा है। ऐसे ही गढ़ने हैं हमें आदम के सांचेघ

मैडम मीनू दिलली में है ही नहींए उसके पापा को बड़ा झटका लगा है बिज़नेस में। सब लोग दिलली छोड़कर राजसथान चले गए।

वरा से सारा हाल मालूम होते ही मैं बौखला गई.

ऐसे कैसेघ अब उसकी पढ़ाईघ थरड ईयर है आखिर।

वो तो इमरान की बात के बाद ही खतम हो गई थीए मैडम। घर में मार पड़ी सो अलग। बहुत रोई थी मैडम वो। बहुत गिड़गिड़ाई कि पढ़ाई मत छुड़वाओ। रिशते की चाची के यहां रहकर पढ़ाई पूरी करने की भीख तक मांगी उसने पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। ऊपर से उसके पापा ने कहा पाप किया है तूने अब परायशचित तो करना ही पड़ेगा। पता नहीं मैडम कया. कया हुआ होगाघ फोन भी छीन लिया उसका। न कोई नमबर है न कोई पता।

लोगों से भरी इस दुनिया से मीनू एकदम गायब कर दी गई। बिना पते और बिना फोन नमबर के कहां ढूंढे उसेघ मेरी तड़प यही थी कि काश मैं उसके माता. पिता को समझा पाती और किसी तरह मीनू बीणएण पूरा कर लेती। सपनों से भरी एक लड़की अपने ही घर के आईने की किरचों में कहीं लहूलुहान पड़ी थी। उसके सपनों और उममीदों के पर नोंच डाले गए होंगे अब तक। उसका खयाल मुझे किसी करवट चैन न लेने देता। परेशानी से भरे उन दिनों में एक मानस ही थे जो मुझे हौसला देते और दूसरी वरा थी जिसके होने से उममीद बंधती कि कभी न कभी तो वरा से उसकी बात होगी ही।

आज थरड ईयर का फेयरवेल थाए मीनू की कलास का। पर मीनू नहीं थी और इमरान ने आना लगभग बंद. सा ही कर दिया था। उस आयोजन में कहीं किसी ने उसका जि़कर भर किया था और अब इसके बाद उसका जि़कर भी हमेशा के लिए खतम होने वाला था। दुखी मन से कॉलेज से निकल रही थी कि वरा मिल गई। आपको चलना होगा मैडम मेरे साथ। अभी इसी समय।

कहां और किसलिए घ

मीनू आई है मैडम। दिलली में रहेगी कुछ दिन।

घबराहट में मेरे गले की सारी नसें तन गईं। अपनी सारी शकति समेटकर मैंने कहाएकहां हैघ जलदी चलो। मममी. पापा को बिना बताए कुछ समय के लिए ही आई होगी नए हमसे मिलने। कया इमरान भी पहुंच रहा हैघ

नहीं वो नहीं आ रहा। अब मीनू को किसी से छिपने. बचने की ज़रूरत नहीं है मैडमए उसे दीका दिला दी गई है मैडम।

दुखी सवर में निकले साकी के शबद किसी वज़नी हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में पड़े। जीवन से भरीए उमंगों में झूमतीए सपनों के गीत गुनगुनातीए फिरकी की तरह नाचतीए परेम के पंख लगाकर उड़ने वाली मीनू और दीका धारण करने वाली साधवी मीनाकी . दोनों में कौनसा सच थाए पहचान जटिल थी। कया यही था मीनू का फेयरवेलघ

आज सोचती हूं तो लगता है कि वरा से सच जानने के बाद मैं कयों गई उससे मिलनेघ कया बदल दिया मैंनेघ और कया जान लिया नया ही कुछघ जितना उसका सच था साकी ने बता तो दिया ही था। फिर ऐसा कया मिलने वाला था उसे देखकरघ कया वरा के कथन का जीता. जागता सबूत लेने गई थी मैंघ साधवियों की तरह सफेद साड़ी में लिपटीए शांत मीनू ने तो मेरी मीनू के वजूद को धवसत कर दिया था। उस सतसंग में ननहींए किशोरीए जवान और वृदध साधवियों की पंकति में बैठी मीनू को पहचान लेना आसान बात नहीं थी। थोड़ी देर का समय निकालकर मीनू हमारे साथ बैठी।

कैसी हैं आपघ

भला अपनी मीनू को मरते देख कया खुश होंगी मैंघ कैसा सवाल हैघ उसके चेहरे में अपनी मीनू की पहचान का कोई अवशे ढूंढने की कोशिश में मेरे अधूरे से शबद बाहर आए. कयों मीनूघये सब किसलिएघ

सब हमारे करम का खेल है और कयाघ भाग में लिखा था। सरलता से कही उसकी बात मुझे बड़ी ही बनावटी और थोथी जान पड़ी। चीखना चाहती थी उसपरए एक तमाचा मारना चाहती थी उसे पर उसकी बात खतम नहीं हुई थी.

परिवार के दुख का कारण बन गई थी। पढ़ाई छुड़वा दी गईए घर की हालत तो आप जानती ही थीं। उस घटना के साथ ही पापा का बिज़नेस भी डूबाए इसे कोई अनिट मानकर पापा ने संकलप लिया कि एक बेटी धरम की राह पर जाएगी। फिर मुझे पाप का परायशचित भी तो करना था।

उसके आखिरी शबदों ने खुद को संयत रखने की भरपूर कोशिश के बाद भी वयंगय की रेखाएं और रंगों को उभार दिया।

पर कया यही रासता थाघ मैं रोक न सकी किसी तरह अपने सवाल का तीर।

कया करती बीच रासते में पढ़ाई छोड़ बैठी एक परनिरभरए बेरोज़गारए कलंकित लड़कीघ मेरी तो कोई भी साध पूरी होनी ही नहीं थी इस हालत मेंए पर पापा की तो हो ही सकती थी न। धरम भी रह गया और दीका ने बाकी खरचे और झंझट भी बचा दिए। पुणय मिला सो अलग। अब कोई परेशान नहींए सब खुश हैंआप ही कहा करती थीं न तरक से सिदध करो अपनी बात। है न मेरी दीका में गहरा तरक। अकारण कुछ भी नहीं है।

तारकिक होते हुए भी उसकी बातें कयों मुझे भावुक कर रही थीं। भीतर के आवेग को रोकते हुए मेरा एक आखिरी सवाल अपनी पूरी उततेजना और जिजञासा में फूट पड़ा.

इतनी छोटी उमर और इतना कठिन संकलपघ

आज मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास. जो सबसे सरल लगता था जीवन में वही कठिन था मेरे लिए। इस जीवन में कैसी कठिनाईघ देखिए नए यहां तो चार साल की बचचियां भी ये कठिन संकलप लिए हुए हैं और साठ. सततर साल की औरतें भी। फिर मेरे जैसी लड़की के लिए कया मुशकिल हैघ

बेहद नाटकीय होते हुए भी यही मीनू की जि़ंदगी की हकीकत थी। और कया गलत कह रही थी वोए चार साल की अबोध बचचियां और साठ. सततर साल की अशकत औरतें सभी तो थीं उसके साथ। फिर मीनू न तो अबोध थी न अशकत। सफेद साडि़यों में लिपटी ये बचचियांए जवान और वृदधाएं . इनमें से कितनी ही होंगी मीनू की तरह अपने अरमानों की गठरी में गिरफतए खुद ही अपनी इचछाओं और जीवंत अतीत पर कसकर गांठ बांधने वाली। औरों के लिए सबाब कमाने वाली बेजान गठरियां ही तो दिख रही थीं सब।

इस घटना के बाद बहुत कुछ बदल गया। मीनू से तो किसी मुलाकात की अब कोई उममीद थी नहीं पर एक नया परिवरतन मेरे जीवन में ये आया कि साधवियों से जुड़ी खबरों पर मेरा धयान विशे रूप से जाने लगा। कभी झाबुबा में लंबे वरत के कारण किसी साधवी की मौत की खबर मुझे परेशान करती तो कभी महाराटर में बाल संनसासिनों पर चलने वाले विवाद और कई नयायिक मोड़ो परए कभी देश के किसी भी इलाके में समपनन हुई दीका के भवय आयोजन पर तो कभी साधवियों के अपहरण और उनसे मार. पीट की वारदातों पर। शायद मैं इन सब में मीनू को ही खोजा करती थी। जैसे इन सबमें मीनू ही बसती थीघ ऐसे ही एक दिन राजसथान की किसी साधवी के साथ बदसलूकी की खबर पर मेरी नज़र गई और मन ने तुरंत कहा.

कहीं ये मीनू तो नहीं हैघ

खबर ने उसकी उमर बारह साल बताकर मुझे गलत ठहरा दिया। कुछ पल के संतो के बाद मीनू का धयान मुझे फिर से एक गहरे असंतो से भर गया। काश! ये खबर मीनू की ही होती। कम से कम अरसे से उसके साथ हो रही बदसलूकी की खबर तो आज सब तक पहुंच जाती। मन भी कितना अजीब है न ‘

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