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‘बराबाद’ .... नहीं आबाद

‘बराबाद’ .... नहीं आबाद

प्रज्ञा

‘‘ क्या नाम लेती हो तुम अपने गांव का... हां याद आया गन्नौर न। सुनो आज गन्नौर में दो प्यार करने वालांे ने जान दे दी ट्रेन से कटकर।’’

‘‘हे मेरे मालिक क्या खबर सुणाई सबेरे- सबेरे म्हारे मायके की। जी भाग गए होंगे दोनों। न दी होगी मंजूरी घरवालों ने। आह भरकर सुनीता काम में लग गई । सात बज चुके थे और अभी चार घरों का काम बाकी था। सवा सात से पहले उसे हर हालत में डिम्पल के घर पहुंचना था क्योंकि स्कूल के लिए निकलने से पहले उसका माई से बर्तन मंजवाना जरूरी है। यों तो डिम्पल का पति दस बजे दुकान के लिए निकलता है पर माई से काम करवाना उसकी शान के खिलाफ है।

पचास साल की उम्र की सुनीता अपने से दस-पंद्रह साल छोटी मालकिनों को भाभी शब्द से सम्बोधित करती है पर गुस्से में कभी-कभी भाभी डिम्पल को डिम्पल मैडम कहती है।

‘‘सुन लो भाभी, आज डिम्पल मैडम ने एकसाथ चार चादर डाल दीं धोने के लिए। सब पता है मुझे, कल नहीं आई थी न काम पर। सुबह से ही मुंह बना रक्खा है। उसीका बदला है और क्या? डाल दो । मैंने भी मसीन में डाली और दो पानी से निकाली। एक उसी का काम करती रही तो कमा लिए मैंने चार हजार रुपये महीना। और अभी तनखा बढ़ाने को कहूं तो रोने लगेगी।’’

अर्से से उसकी ऐसी बातें सुनने की आदि हो चुकी हूं। अपना काम करती जाएगी और मुझे खड़ा कर लेगी श्रोता बनाकर। कई बार मैं न भी खड़ी हों तो भी तेज़ आवाज़ में अपनी बात सुनाती ही चली जाती है। उसकी हरियाणवी दिल्ली के पानी में सराबोर है। कुछ ठेठ शब्दों के साथ काम के बीच-बीच में पूछती रहती है सुन रही हो न भाभी? मुझे अपनी बात में शामिल करने का उसका अपना तरीका है--

‘‘ अब तुम बताओ मैं क्या करूं?’’ यही उसका रामबाण है। मर्जी न मर्जी बात मंे शामिल होना ही होगा क्योंकि सुनीता के लिए आपकी राय बड़े मायने रखती है। उसे लोगों का मनोविज्ञान पढ़ना बखूबी आता है इसलिए सबके सामने अपनी रामकहानी नहीं कहती। अपने सुध् िश्रोता उसने चुन रखे हैं। पड़ोस की मालती को भी शुरू-शुरू में अपनी कहानी सुनाने लगी थी पर जल्दी ही उसने महसूस किया कि जिस दिन वो कहानी सुनाती उसी दिन मालती कभी उससे बालों में मेंहदी लगवाती, पैर की मालिश करवाती या खिड़की-कूलर साफ करवाती थी। इस अतिरिक्त श्रम का कोई भुगतान न किया जाता। भुगतानस्वरूप कहानी सुन ली यही क्या कम है? मालती को शुरू से उसकी तंगदिली के कारण सुनीता आंखें तिरछी करके नाम लेने या भाभी कहने की बजाय ‘वो’ सम्बोधन ही दिया करती है।

मैं अब तक उसे जितना भी जान पाई थी उसका कुल निचोड़ ये है कि सुनीता एक मेहनती औरत है। अच्छों के साथ बहुत अच्छी और बुरों के साथ बुरी नहीं पर अपने काम से काम रखने वाली। पर बात केवल इतनी सीधी भी नहीं है। उसका एक विलक्षण गुण ये भी है कि वह अच्छी- तटस्थ और तटस्थ- अच्छी एकसाथ भी हो सकती थी बशर्ते कोई बात उसे छू जाए। उसकी दरियादिली की कोई सीमा नहीं थी बस कोई उसे दीदी कह दे तो सब कुछ निछावर कर दे। पिछले पांच साल से डिम्पल मैडम का काम इसी कारण चल रहा था। सुबह डिम्पल मैडम पर गुस्साने-खीजने वाली सुनीता शाम तक डिम्पल भाभी की तरफदारी करने लगती। ‘‘आखिर कौण है जी उसका? बिचारी दुख-दर्द कह-सुुन लेती है मेरे ते। जी हल्का कर लेती है। मैं तो वैसे भी दुखिया की संगी हूं। जी आदमी की तरफ से घणी परेशान हो रक्खी है। सही बात है जी आदमी ढंग का न हो तो सब सुख बराबाद हैं।’’

‘‘ अरे सुबह तक तो तुम उससे बड़ी नाराज़ थीं। अब क्या हो गया?’’ शुरू में उसके स्वभाव से वाकिफ न होने के कारण मैं सवाल कर बैठती।

‘‘ क्या करे भाभी तुम्हारे जैसों के धोरे मैं भी अपने दुख बांट लेती हूं और सुन भी लेती हूं। और नराजगी कैसी? तुम लोगों की दुआ से खिंच रही है गाड़ी। टैम पास हो लेगा मेरा भी।’’

धीरे-धीरे उसके स्वभाव को जानकर मैंने इस तरह के सवाल करने छोड़ दिए। और जान लिया ये औरत किसी का बुरा करना तो दूर बुरा सोच भी नहीं सकती। सुनीता वाचाल नहीं है पर चुप रहना उसे पसंद नहीं। वह कहती भी है अक्सर ‘‘बोलते-बतियाते टैम पास हो जाता है मेरी जैसियों का। चुप रहने वाली घुन्नी होती हैं।’’ मैं महसूस करती हूं उसके घर में आते ही रौनक-सी आ जाती है। ‘‘जी नमस्ते’’ से घर में कदम बढ़ाने वाली सुनीता काम के दौरान सारे समाचार ले-दे लेती है। मिलनसार और खुशमिजाज़ सुनीता का मानना हैै -‘‘ जी सबसे राम-रमी रखने में कैसी बुराई। दो बोल प्यार से बोल लो और क्या धरा है जिनगी में।’’

प्यार के बोलों पर तो जान झिड़कती है। प्रेस के कपड़े लेने आए महेश से हमेशा उसकी लड़की का हाल-चाल पूछना, मेरी पड़ोसन के सर्वाइकल के दर्द से पीड़ित होते ही दुख व्यक्त करना जैसी कई बातें उसकी आदत में शामिल है। एक दिन देखा कि बड़े सारे पत्ते लेकर आई है।

‘‘ ये किसलिए लाई हो? इनका क्या होगा सुनीता?’’

‘‘ जी! आप न जानोगे इसे । देसी इलाज के लिए हैं। अंडुए के पत्ते हैं। इन्हें सरसों का तेल लगाकर तवे पर हल्का -सा गरम कर लो और चोट पर बांध लो। बस हवा न लगनी चाहिए। कसम से पुरानी से पुरानी चोट और दरद दूर हो जाता है। नीचे एक भाभी के आदमी के हाथ में चोट लगी है। बीर-मरद कबसे परेशान थे। कई महीने हो लिए दवाएं खाते। मुझे पता लगा तो मैं लेती आई।’’

फौज मंे रहे अपने पिता के इस हुनर को जितना भी जानती थी सबको बताती रहती । कमाल की बात तो ये थी कि अधिकांश शहराती जो आध्ुनिक सुविधाओं और वस्तुओं के बीच जी रहे थे वेे भी उसके देसी नुस्खों पर अमल करते थे। इस सबके पीछे उसका सलीके से रहना-बोलना, उम्र और अनुभव, बोली का जादू और आंखों से झलकता ढेर सारा भरोसा ही तो था जो इंसान को उसकी बातों पर अमल करने पर मजबूर कर देता। प्यार और अपनेपन की भूखी है सुनीता, पर इतनी बेवकूफ नहीं कि असली और नकली का फर्क ही न जान सके। नीचे वाली मद्रासी आंटी की बेटी जब उसे सुनीता आंटी कह देती तो ढेर-ढेर आशीषों की बारिश कर देती। और जिससे मन खट्टा हो जाता फिर उसकी कोई चर्चा ही जुबान पर नहीं लाती। हर समय उसकी कोशिश यही रहती कि कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। अपनी तरफ से वह हरसंभव कोशिश करती है सबको खुश रखने की। चाहे कोई खराब व्यवहार भी करे तो भी उसका उसूल है ‘‘चुप रहो और निभाते चलो।’’ मैं कई बार सोचती हूं कि ये औरत यहां रहती भी नहीं फिर भी हमसे ज्यादा लोगों को जानती है। जिन्हें हम रोज मिलकर हंसते-मुस्कुराते आगे बढ़ जाते हैं, इसे उनके दुखों का पता है। नाम लेने भर की देर है वह उनकी तकलीफों का बयान कर देगी। ऐसा नहीं है कि उसमें भेद लेने की जन्मजात प्रवृत्ति है बल्कि ये तो उसके अनूठे स्वभाव का हिस्सा है।

आज नमस्ते करने के बाद सुनीता अपने स्वभाव के विपरीत न ‘बोल-बतिया’ रही थी न ही मेरी बातों का सही ढंग से जवाब दे रही थी।

‘‘क्या बात है आज तबीयत खराब है?’’

‘‘नही ंतो... ’’

‘‘ ऐसे तो तुम चुप नहीं रहतीं?’’ आत्मीय शब्दों का सहारा पाकर उसके मन की गांठ खुलने लगी।

‘‘क्या करोगे जी इस गरीबनी का दुख जानकर? क्या कहूं... आदमी चला गया, ससुरालवालों ने धोखा कर दिया और छोड़ दी मैं भटकने को। कैसे-कैसे घरों में काम करके बेटे-बेटी पाले। सादियां कर दीं। अब छोटे की बाकी है। लाख है मेरा बेटा । नसीब वाली होगी उसकी औरत पर तकदीर में जाने क्या लिखा है। दो साल पहले जब बड़े की शादी की थी तो इसे उसकी साली पसंद आ गई थी। जी लड़की भी चाहे थी इसे , मैंने बात भी चलाई पर बहू की मां नट गई-- एक घर में दोनों बेटी न देगी। ’’

‘‘ तुमने कुछ समझाया नहीं उसे?’’ मैंने पूछा।

‘‘भतेरी समझायी पर चक्कर दूसरा था। मैं ठहरी गरीब। समधिन पीछे एक बेटी देकर पछता रही थी। सबके सामने बोल नहीं सकती थी। मेरे ते बहू ने बताई कि मां तो अच्छा घर देख रही है। और जी बहू की भैन हमारे घर भी आती थी और मेरे प्रिंस ते खूब बोले-चाले थी। पर सादी कर दी उसकी। वो बम्बई चली गई। सवा साल बाद वापस आई है तबसे प्रिंस को फोन करे जा रही है कि मेरी बहन को मुझसे मिलाने ले आ। मुझे ले जा कुछ दिन के लिए मौसी से मिलाने।’’

‘‘आखिर बात क्या हुई?’’

‘‘ वो कैसे बताऊं ... वो... जी बस बच्ची बहुत तंग हो ली वहां... आदमी संग खुस न रह सकी।’’

‘‘ क्या मारता-पीटता था?’’

‘‘ जी वो भी... बस समझ लो लड़की ने वहां सुख जाना ही नहीं... आदमी नामरद निकला।’’

दरअसल सुनीता की समधिन गली-मोहल्ले का कूड़ा उठाती थी। बरसों से घर भर इसी काम में लगा था पर समधिन की नौकरी सरकारी थी। सुनीता के पिता और पति दोनों के काम-धंधे तो कूड़ा उठाने और मेहतरी के खानदानी काम से अलग ही थे। सुनीता दिखने में ठीक-ठाक थी। घरों में बर्तन-सफाई के काम में कुछ घरों ने उसकी जात पूछकर काम भी नहीं दिया। पर फिर किसी ने बिना पूछताछ उससे काम लिया। एक से दो, दो से तीन घरों में उसके अच्छे काम और व्यवहार ने उसका नाम बना दिया। जिन्हें काम से मतलब था उन्होंने काम दिया। और सुनीता का घर चल निकला। उसके समधी ने भैंस पाल रखी थीं तो आमदनी अच्छी थी। फिर दूसरी लड़की सुंदर भी बहुत थी तो उनका मन था अपने से अच्छी कमाई वाले घर में ही उसका रिश्ता करेंगे। इत्तेफाक से लड़का भी मिल गया, वो भी सरकारी नौकरी वाला। सुनीता के बहुत आग्रह और लड़का-लड़की के एक-दूसरे को चाहने के बाद भी लड़की की शादी वहीं कर दी। सुनीता और उसके लड़के ने दिल पर पत्थर रख लिया। साल भर बाद अब जब फिर लड़के की कहीं बात चलाने की सोच ही रही थी कि ये खबर मिल गई। जितना मुझे बताया उससे तो ऐसा ही लगा कि अब लड़की दोबारा बम्बई तो नहीं जाएगी। और ये भी पता चला कि सुनीता कुछ दिन के लिए उसे अपने घर भी बुलाना चाह रही है ताकि वो बहन से मन की बातें कर ले। पर उस दिन लगा कि सुनीता के मन में और भी कुछ था जिसे बताते-बतातेे वो हिचक गई थी। ऐसा लगा कि जितना उसने बताया ये तो केवल भूमिका है आख्यान कुछ और ही है। इस बात को हुए कुछ दिन गुजर गए। मैं भी व्यस्त थी और सुनीता ने भी कोई चर्चा नहीं छेड़ी। उस दिन शुक्रवार था। अगले दो दिन के अवकाश से मन राहत और खुशी से भरा था। आज कुछ मीठा बनाने का दिल था। काम के दौरान सुनीता भी आ गई।

‘‘कुछ बना रही हूं खाकर जाना।’’

‘‘ओहो तो आज बड़े खुस लग रहे हो। कल सबकी छुट्टी जो है। चलो मैं भी कल देर से आउंगी। कल वो पूजा आ रही है।’’

‘‘कौन पूजा?’’

‘‘ जी बहू की भैन की बताई थी न आपको... वही।’’

‘‘तो अब क्या हो रहा है उसका?’’

‘‘जी आए हुए भी हफता हो लिया , घरवाले ने फोन भी नहीं किया। न ससुराल में से किसी ने खबर ली। लड़की मरी कि जिंदा है। जी इसकी मां तो कह रही है कि हमें भी न भेजनी लड़की। सच में जी क्या करेगी वहां जाकर। देखो शादी में हजार-हजार के सूट चढ़ा दिए। सोने की दो-तीन टूमें-टामें दे दीं उससे क्या बन गया सब? जब लड़की खुस न रही तो फिर मिट्टी हो लिया न सब।’’

‘‘तलाक दिलवा के दूसरी शाादी कर दें उसकी।’’

‘‘जी हमारे में कहां होते हैं तलाक। कौन काटे कोरट-फोरट के चक्कर। फिर औरत की दूसरी सादी कौन-सी आसान है। दुनिया तो उसीमें दोस काड़ देगी। बाल-बच्चा न हो तो दोस उसीका, तलाक में तो उसका। विधवा हो जाए तो भी उसीका। सुंदर हो तो उसका। जी जब आदमी गुजरा मेरा, ससुराल वालों ने मुंह फेर लिया। एक रुपये की मदद न की। पता नहीं कौन-से कागजों पर अंगूठा लेके हमारा हिस्सा भी अपने नाम कर लिया। उन्होंने सोचा था मर-मरा जाएगी पर जी मेरे आगे तीन बालक थे। खुद को देखती या उनको। मन कड़ा करके काम करती गई। बड़े डोब लेके पाले हैं जी अपने बच्चे, पर अपनी ज्योति को न डाला इस काम में। घणी कही लोगों ने ले आ काम पर दो पैसे कमाएगी पर जी नहीं मैं अकेली काफी थी जूठन मांजने का और गंदगी साफ करने को।’’

अगले कुछ दिन तो सुनीता की हंसी देखते ही बनती थी। उसकी बातें पूजा से शुरू हो रही थीं और पूजा पर खत्म। आज उसने ये किया। आज ये बनाया। आज घर साफ कर दिया जी। अपने भतीजे का बड़ा ख्याल रखती है। पूजा के आने से जैसे उसके घर में बहार आ गई थी। सुनीता की कोशिश यही रहती जितने दिन को आई है खूब खुश रहे। यों भी उससे किसी का दुख देखा नहीं जाता ंथा। उसका बचपन बड़े सुख में बीता था। पिता फौज में थे। अपना घर था । मां ने हमेशा लाड़ से रखा। मां के मरने के बाद जैसे सब कुछ बदल गया। पिता ने जिम्मेदारी से मुक्त होने के लिए सुनीता की शादी कर दी। शादी के बाद पता चला कि उसके साथ धोखा हुआ है। जो पक्का घर दिखाकर शादी की गई थी वो किसी और निकला। सुनीता का पति जोगेश्वर बैंड पार्टी में बाजा बजाता था। कमाई का कोई ठीक था नहीं क्योंकि उसे नशे की लत थी। नशे में रात-रात भर सुनीता को मारा करता और दिन में नशा उतरने पर उसे सहलाने-दुलराने लगता। सुनीता इसी प्यार की भूखी थी। प्यार मिलते ही कोई गिला-शिकवा नहीं करती। अक्सर बताती है--

‘‘ न था जी हमारे पास कोई पैसा, ज्योति का बाप भी बहुत मारा करे था। पर उसने प्यार भी कम नहीं दिया। कोई एक टाफी भी दे देता तो खुद न खाता मेरे लिए बचा के रखता। रात चाहे कितना कलेस करे खाना हम साथ खाकर ही सोते। जी भले मारे था पर उसके साथ ही ओढ़ने-पहनने के सारे सुख गए मेरे तो।’’

‘‘क्यों अब भी पहनो न जो मन करे?’’

‘‘दुनिया नहीं जीने देगी मेरे मालिक। बाप के मरने के कई दिन बाद एक अच्छा सूट पहन लिया था तो जी बड़े बेटे ने कह दी --मां छोरी-सी बन के कहां जा रही है आज?’’ बड़ा तो जी अपने बाप का भी बाप है। पीने में उसते आगे, गंदी जबान और बीबी-बच्चों की कोई परवाह नहीं। उसका घर मैं ही चला रही हूं। पैसे पर जान देता है। सालों बीत गए दुख न कटा। बड़ा बेटा अपने सगे भाई से जलता है। जी कहीं मेरे प्रिंस के साथ वैसा ही न करे जैसे बाप के भाइयों ने उसके साथ किया।’’ सगे भाइयों ने जोगेश्वर से मुंह मोड़ लिया था। रिश्ते की एक नंद दोनों को दिल्ली ले आई। यहां आकर सुनीता ने घरों में काम करना शुरू किया। मंुह अंधेरे काम पर निकलती। कहीं चाय-वाय मिल गई तो ठीक नहीं तो भूखे पेट ही दो बजे तक काम निपटाती। घर आकर घर का काम और फिर शाम को घरों में बर्तन का काम। रात में अपना घर। बस फिर अर्से से सुनीता दिल्ली की ही हो गई। तमाम दुखों में इस औरत ने हार नहीं मानी। हौसला करके आगे बढ़ती गई। तीन बच्चों को जन्म दिया पर घर के हालात और लड़ाई-झगड़े में उन्हें पढ़ा न सकी। कच्ची बस्ती में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा भी उसका हो गया। कच्चा-पक्का घर भी बना लिया था। दो बच्चों की शादी के बाद अब उसे प्रिंस की ही चिंता थी।

इधर जिस दिन से पूजा उसके घर आई थी उसी दिन से खाने-पीने का छोटा-मोटा सामान उसके लिए खरीदकर ले जाती। शाम को उसके लंबे बाल संवारती और अगले दिन उन बालों का गुण-गान करती थी। आखिर एक दिन संकोच से भरकर मुझसे बोली--‘‘जी मन में एक बात है। क्या पूजा को अपने घर ले आऊं, प्रिंस के लिए?’’

‘‘क्या सबसे बात कर ली? सास-ससुर, बेटे से और फिर प्रिंस से? क्या प्रिंस तैयार है?’’ मैंने पूछा।

‘‘मैं मना लूंगी उसे। देखो प्रिंस की ही थी तभी तो आई न वापस। और उसका क्या कसूर है? कमी तो आदमी की थी। वो तो प्रिंस को ही चाहती थी न। और सास-ससुर और बेटा मेरे लिए क्या कर रहे हैं जो उनसे कुछ पूछूं?’’

‘‘ पहले प्रिंस से ही बात करो। कहीं ऐसा न हो शादी की बात पूजा के कान में डाल दो और प्रिंस तैयार न हो और पिफर तैयार हो भी जाए तो कहीं जीवन भर उसे ताना न मारता रहे। दुखी रखे.... समझ रही हो न?’’

‘‘ जी मैंने ज्योति ते और डिम्पल भाभी ते बात की है।’’

‘‘क्या कहा दोनों ने?’’

‘‘जी डिम्पल भाभी ने तो थोड़ी ही न-नुकुर की पर राजी हो गई पर जी मेरी ज्योति तो नराज हो गई। बोली ‘मेरे भाई के लिए दुनिया में यही लड़की रै गई है? हमें न करनी इससे सादी। मेरा भाई तो कंवारा है। मां तू भाई की जिनगी न खराब कर।’.... अब आप ही बताओ जी जीवन में इतने दुख उठाकर भी क्या उस दुखियारी का दुख देखे जाऊं तो क्या सीख ली जिनगी से मैंने?’’

मैं अवाक् रह गई उसकी बात सुनकर। एकाएक उसका कद कितना बढ़ गया था। मुझे लगा मेरे आस-पास शायद ही इतनी साहसी और सुलझे विचारों की कोई महिला होगी। इतने कष्ट सहने के बाद जब हम बेहतर स्थिति में होते हैं तो पिछला सब भूल जाते हैं। पर सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्थिति में कमतर सुनीता सबसे टकराकर पूजा को अपनाने का मन बना चुकी थी। और अब चाहे किसी से लड़ना पड़े या मनाना पड़े। मैं जानती हूं एक बार निर्णय करके वो उसी दिशा में आगे ही बढ़ेगी। उसने बेटे को मुश्किल से ही सही पर मना लिया, बेटी ने भी देर-सबेर जिद छोड़ दी। अब बस पूजा के मां-बाप से बात करनी बाकी थी। पूजा अपने घर लौट गई थी। सुनीता महीना खत्म होने के इंतजार में थी। तनख्वाह मिले तो पूजा के लिए कुछ खरीदकर सोनीपत जाए। सब घरों से उसने महीने के पहले शनिवार की छुट्टी भी मांग ली थी। रोज ही नए-नए मंसूबे बनाती--‘‘ जी सोने की तो नई चांदी की दो-एक टूमें बनवा लूंगी। ऐसे कपड़े लूंगी। पर जी ज्यादा दिखावा नहीं सादी तरीके से कर लेंगे सब.... बस पूजा की मां को मना लूं.... वो भी मान जाएगी देखना तुम।’’

इतवार की सुबह मुझे इंतज़ार था सुनीता के आने का। इस बात का कि आखिर क्या हुआ? सुनीता आई ,मुस्कुराई ‘‘लगता है बात बन गई।’’ मैंने कहा।

‘‘नहीं जी सब उल्टा-पुल्टा हो गया... हम घर गए तो पता चला पूजा तो अपने घरवाले के साथ चली गई। जी न जाने कैसा हो आया था हम मां-बेटे का। सब कुछ जानते- बूझते भी लड़की ढकेल दी नाले में। जी बताते हैं पूजा भी मरजी से चली गई। धमकाई होगी जी। फिर उसे भरोसा न होगा जी कि सादी के बाद भी कोई उसे अपना लेगा? ’’

अब क्या कहूं कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इतने में सुनीता बोली, ‘‘ जी रिस्ता पक्का हो गया मेरे प्रिंस का।’’

‘‘ तो इतनी देर से मज़ाक कर रही थीं तुम? जान निकाल दी मेरी। मेरा तो दिल ही बैठ गया था तुम्हारी बातों से कि... ’’

‘‘ कोई झूठ नहीं कै रही... नहीं जी सच। पूजा तो सच में जा ली ।’’

‘‘ तो फिर?’’

‘‘ जी वो तो पिंकी है। उनके पड़ोस में रहती है। हम तो जी पूजा के जाने की बात सुनके चुप लगा गए थे। एक बार कही भी मैंने --क्यो भेजी उस घर में? पर उसके मां-बाप बोले--‘‘जैसी तकदीर उसकी’’ अब फिर क्या कहती उनसे। तभी समधिन ने कहा-‘‘ पड़ोस मे एक लड़की है देख के जा प्रिंस के लिए। अपनी ही जात-बिरादरी की भली लड़की है।’’ जी! मन नहीं कर रहा था । क्या आस लगाके गए थे और क्या हो गया। घणा दुख था जी लड़की का मुझे... ऐसे में ब्याह-सादी की बात सुहा नहीं रही थी। समधिन ने जिद पकड़ ली । कही, चल चाय पीले वहां चलके। छोरी भा जाए तो ठीक न भाए तो ठीेक। बस जी लड़की देख के मन खुस हो गया मेरा। कितना मीठा बोल। गोरी ऐसी कि छूने से मैली हो जाए। सच मंे जी खाली गोरी ही नहीं थी, नैन-नक्स भी चोखे थे। मेरे प्रिंस ने तो सब मुझ पर छोड़ दिया। अच्छा घर था। मां-बाप ठीक और लड़की का क्या कहना? जी सीधी, एकदम। आजकल जैसी कोई बात ही नहीं। बस जी इस बार घर बस जाए बेटे का।’’

सुनीता की कहानी का क्लाईमेक्स लाजवाब था। बात का बनना, फिर बिगड़ना और बिगड़ के फिर बन जाना। तेजी से घटता घटनाक्रम, परिस्थितियों की उथल-पुथल, पर्याप्त नाटकीयता और फिर प्रयोजन भी... यही तो कहानी का आधार है। उस पर सुखांत भी हो गई। इससे बेहतर और क्या हो सकता था? चलिए बेटे का घर आबाद भी हो गया। सुनीता के शब्दों में कहंू तो ‘‘बराबाद नहीं गया उसका सोनीपत जाना।’’ पर सब कुछ होते हुए भी कहानी यहीं खत्म न हो सकी। कुछ दिन सुनीता अपनी कल्पनाओं में ही डूबी रही। फिर से पुरानी बातें कुछ और नएपन के साथ दोहराने लगी- ‘‘ सोने की नई तो चांदी की दो-एक टूमें बनवा लूंगी... वैसेे सोने का पानी चढ़ी भी देख लूंगी। कुछ अच्छे-से कपड़े ले लूंगी। पर जी सब सादी तरीके से कर लेंगे.... पैसा तो न उनके पास है न मेेरे। दिखावा क्या करना है? पांच लोगों की बरात जाएगी । बस इस बार सब ठीक हो ले तुम्हारी दुआ से।’’ शादी चार महीने बाद तय हो गयी थी। सुनीता पैसे जोड़ने में लग गई। कुछ कर्जा लेने की बात भी उसने कहीं कर ली थी। लड़की के विषय में सारे रिश्तेदारों को बता दिया गया। सास-ससुर नाराज़ हो गए। अकेले ही रिश्ता तय कर आने की बात उन्हें जम नहीं रही थी। पर सुनीता का अपना तर्क था-- ‘‘ जी जब आदमी गया तो न दिया सहारा इन्होंने । बच्चे मैंने अकेले पाले तो रिस्ते भी मैं तै करूंगी।... मेरा सुख नहीं देखा जा रहा और क्या। कैसे विधवा-गरीबनी को अच्छा घर मिल गया। जी प्रिंस लाया है न मोबाइल से लड़की की फोटो खेंचकर, तभी से छुरियां चल रही हैं-- ‘‘कहां ते मिल गई इतनी सुंदर लड़की? इतनी जल्दी क्या पड़ी है? सब देखभाल के चलना चाहिए। अरे पहले से तै कर आई होगी... ये औरत तो बड़ा-छोटा भी न देख रही।’’ सुनीता यों तो इन तानों की परवाह नहीं कर रही थी पर उसके भीतर बौखलाहट थी। अपने बेटे को लेकर किसी अनजाने-अदृश्य भय से वह परेशान थी। बार-बार उसकी शादी के बनते-बिगड़ते क्रम ने उसे संकट में डाल दिया था। इधर खर्चे की चिंता भी थी। पर इस सबके बीच उसे सच्ची खुशी मिलती जब प्रिंस उसे पिंकी से हुई बातचीत बताता। उन दोनांे के भावी जीवन के सपनों को सुन-सुनकर ही वह खुश हो जाती । बच्चों के बीच पनप रहा प्रेम भाव उसे उत्साहित करता। सुनीता खुद को अपने लड़के के दोस्त जैसा महसूस करने लगी थी।

अचानक एक शाम सुनीता आंसुओं से रोने लगी। किसी बात का कोई जवाब ही नहीं दे रही थी। मुझे लगा सास-ससुर से लड़कर आई है पर लड़ना तो उसके स्वभाव में था ही नहीं। कहीं हमेशा की तरह बड़े बेटे ने तो कुछ नहीं कह दिया? मेरा दिल बैठा जा रहा था। आखिर आंसू पोंछकर उसने पानी मांगा । पानी पीकर आवाज काबू में आई तो पहला वाक्य यही निकला ‘‘ जी बराबाद हो लिया सब।’’ मैं क्या अटकल लगाऊं कुछ समझ नहीं पा रही थी। कुछ क्षण बाद बोली ‘‘ जी बड़े ने रिस्ता तुड़वा दिया छोटे का, पिंकी के बाप को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाके । भाई-भाभी चावै हैं कि ये कमाके उनका घर भरता रहै। इसकी सादी हो गई तो ... सुनीता फिर रोने लगी।’’ कुछ देर बाद मालूम हुआ कि प्रिंस और पिंकी के बीच फोन पर बातचीत बंद हो गईं हैं। दिक्कत पिंकी के पिता को है। ‘‘पिंकी के बाप ने मना कर दी कि अब कभी बात नहीं करणी। वो सोतेला बाप है जी।’’ ऐसा सुनीता ने बताया। और जो बताया वो तो एक बहुत बड़े नाटक का हिस्सा था। पिंकी का सौतेला पिता लड़की पर कोई दोष लगाकर उसे बेचने के मंसूबे बांध रहा था। पर लड़की में कोई ऐब था ही नहीं। ये सुनहरी मौका उसके हाथ लग गया था। एक बार शादी टूट जाएगी तो दोबारा मुश्किल आएगी, वो इसीका फायदा उठाने की फिराक में था। उसने पूजा-प्रिंस के बारे में अपफवाहें उड़ाना भी शुरू कर दिया। इधर सुनीता के बड़े बेटे ने भी मौके का लाभ उठाया। बात का बतंगड़ बनाकर रिश्ता तुड़वा दिया। पर सुनीता का मन बेहद दुखी और चिंतित था और ये चिंता वाजिब भी थी। यहां केवल लड़की की बदनामी की बात नहीं थी बदनामी लड़के की भी थी। सबको कहने का मौका मिल रहा था। ‘‘अरे कोई खोट ही होगी जो बार-बार रिश्ता टूट रहा है।’’ लाख देते रहिए सफाइयां जिसे ऐसा मानना ही है उसे कुछ सुनना कहां?

इधर सुनीता की परेशानी तो कुछ और ही थी। उसे दुख जरूर था कि रिश्ता टूट गया पर असली चिंता भविष्य से जुड़ीे थी कि बड़ा बेटा उसके मरने पर छोटे का क्या हाल करेगा। उसकी आंखों में अतीत एक बार फिर से जीवित हो उठा -- यही बड़ा बेटा एक दिन अपने पिता को धिक्कारते हुए कह रहा था ‘‘बड़ा होने दे भीख मंगवाऊंगा तुझसे । रोटी भी न दूंगा, देख लियो।’’ आज भी गरम लावे जैसे उसके ये शब्द सुनीता के कानों में खौल रहे थे। उस वक्त भी अपने पति की तरफदारी करते हुए उसने एक पैसा कमाकर न लाने वाले बेटे से कहा था ‘‘ बाप है तेरा, कैसे बोल रहा है इससे? इसकी फिकर न कर तू। जब तक जीती हूं खिला लूंगी इसे। मैं अभी बैठी हूं।’’ और बाप के मरने पर बड़ा उससे भी आगे निकल गया। शराब पीना, जुआ खेलना,चोरी-चकारी, मार-पीट। यहां तक की पत्नी और बच्चों से भी प्यार नहीं। तनख्वाह कहां खत्म हो जाती है उसकी पता ही नहीं चलता। सुनीता अपने और प्रिंस के बलबूते ही उसके बीबी-बच्चों का भार उठाती रही। दो बार न्यारा करने पर भी दिल पसीज गया उसका छोटे-छोटे पोता-पोती को देखकर। वो असहाय बहू को चाहती है पर बहू अपने भविष्य से डरती है । डर है कि अगर देवर का ब्याह हो गया तो कौन आर्थिक सहायता करेगा?े कैसे चलेगा उसका घर-परिवार?

इन सब परेशानियों के अलावा उसके दिल की सबसे बड़ी कसक वो लड़की थी जिससे रिश्ता तय हुआ था। पता नहीं कुछ देर के मिलने और अपने बेटे से सुनी उसकी बातों से ही सुनीता ने अनुमान लगा लिया था कि रूप-गुण में उसके जैसी लड़की ढूंढ पाना उसके लिए असंभव है। उसके चेहरे में जिस अपार धैर्य को उसने परखा था अब वही चेहरा आंखों से हटता नहीं था। सब कुछ खत्म होने के बाद भी जिक्र छिड़ते ही वो ठंडी सांस भरती और गहरे दुख से कहती... ‘‘हाय! री किस्मत... न जाने किस भागवान को मिलेगी पिंकी?’’ पर अगले ही क्षण ठिठक जाती कि जाने किस कसाई के पल्ले बंध्ेागी? न जाने कितनी ही बार तो मुझसे कह चुकी है ‘‘जी गाय गार में ध्ंासी है।’’ यहां तक कि वो रुपये देकर लाने को भी तैयार थी पर लड़की का पिता तो कुछ सुनना ही नहीं चाहता था। वो बेटे की चिंता और लड़की के मोह में घुली जा रही थी। बार-बार एक ही बात ‘‘बराबाद हो लिया सब।’’

कुछ दिन बीतने के बाद एक सुबह पांच बजे घंटी बजी। दरवाजे पर सुनीता खड़ी थी। ‘‘जी कुछ पैसे चाहिए ... नरेले जा रही हूं। आज काम नहीं होगा । आप सबको बता दियो।’’

‘‘इतनी सुबह... क्या बात है?’’

‘‘ जी लड़की की मां भगा लाई है लड़की को कसाई से छुड़ाके। कहीं नहीं करनी थी शादी उसे लड़की की। अब कहता है मैं रख लूंगा इसे अपने लिए । मां नट गई तो रोज मारता-पीटता है। दोनों जनियों की जिंदगी नरक कर रखी थी। लड़की की मां मौका देखकर भगा लाई है। मेरे पास फोन आया था। प्रिंस के साथ निकलूंगी छह वाली गाड़ी से। देखूं क्या होता है? जाने क्यों बुलाया है टेसन पर?’’

परेशानहाल सुनीता पैसे लेकर चली गई। मैं यही सोचती रही कि जाने अब क्या होगा? कहीं सुनीता के पहंुचने से पहले वो आदमी पहुंच गया तो? क्या सुनीता को लड़की सौंपने के लिए बुलाया है या केवल मदद के लिए? क्या सुनीता का बेटा इस तरह भागी हुई लड़की से शादी करेगा? कहीं पुलिस का चक्कर न हो जाए? जाने कैसे-कैसे ख्याल आते रहे। सारा दिन इसी उधेड़बुन में निकल गया। काम की भी चिंता सता रही थी कि अगर सुनीता फंस गई तो दो-तीन दिन काम कैसे चलेगा? अगले दिन सुबह ठीक समय पर घंटी घनघनाई। सुनीता बाहर खड़ी थी। दरवाजा खोलते हुए मैंने पूछा ‘‘क्या कर आईं?’’

‘‘वही जो करने गई थी... थारी बहू ले आई।’’ ताली पीटकर हंसते हुए उसने बताया।

‘‘जी बहू की मां ने लड़की प्रिंस को सौंप दी। कसम से रो पड़ी दोनों जनियां। मैंने भी भाई बुला लिया था अपना। उसने पक्का काम करा डाला। फेरे डलवा दिए। वकील भी भाई की पैचान का था। वकील ने पक्के कागज बना दिए हैं। दोनों बालिग हैं। सादी में दोनों की मांएं खड़ी थीं। लड़की ने कह दिया सादी मेरी मरजी से हो रही है। पांच हजार में काम हो गया। लड़की की मां के पास तो कुछ नई था पर मेरे पास था। छोटा बेटा बहुत खुस है और वो लड़की को तो यकीन नहीं आया अब तक कि हम सादी कराकर ले आए उसे। जी बड़ा प्यारा जोड़ा है बच्चों का। लड़की की मां बड़ी हिम्मती निकली जी।’’

‘‘और लड़के की मां क्या कम है?’’ मैंने कहा।

‘‘बस जी हौसला करके खड़ी हो गई। बच्चों को लेकर घर में बड़ी तो जी मेरा बड़ा बेटा तो देखता रह गया। लड़की के सौतेले बाप को भी धक्का लगेगा। इन दोनों ने बराबाद करने में कोई कमी न छोड़ी थी..... बस जी आबाद रहे ये दोनों बच्चे।’’

समाप्त

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