Kamina tu, Kamini me books and stories free download online pdf in Hindi

कमीना तू, कमीनी मैं

कमीना तू, कमीनी मैं

‘आज का न्यूज पेपर देखा? पहले पेज पर खबर थी। दस साल बाद कॉलेज की एक लेक्चरार ने अपने कलीग पर रेप का चार्ज लगाया है। दोनों लिवइन रहते थे। मजे की बात है कि वो जेल भी पहुंच गया है। वो भी दस साल बाद...क्या मैं ऐसा कर सकती हूं? बोलो? कर डालूं क्या? ’

सुधीर के चेहरे पर झल्लाहट थी या कोफ्त...उसने जवाब नहीं दिया। बस रुक-रुक कर बियर की चुस्कियां लेता रहा।

धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मेरे शरीर में अजीब झनझनाहट होने लगी है। पहले पैग का नशा नहीं हो सकता। पता नहीं क्यों मन कर रहा है कि सुधीर के सामने अंड-बंड बकती रहूं। गालियां निकालूं। उसे भला-बुरा कहूं, चिल्लाऊं, जोर-जोर से, बाल खोल कर, आंखें निकाल कर वहशियों की तरह। मुक्के से मारूं। बाल पकड़ कर खींचूं। हाथ के नाखून उसे गालों में घुसा दूं। सिर के बाल नोच लूं। मुंह में वोत्का भर कर गरारे करते हुए उसके ऊपर आक...

मैं चौकन्नी हो कर बैठ गई। मेरे अंदर इतना जंगलीपना होगा, अंदेशा नहीं था। आज तो दोनों तय करके आए थे, अपनी अंतिम मुलाकात का जाम छलकाने। फिर किस बात पर इतना गुस्सा? ऐसा क्या कर दिया था सुधीर ने मेरे साथ? जो था, वो एक साथ था। जो नहीं था, दोनों के लिए नहीं था। साथ बीता समय शिकायतों भरा या तन्हा रहा, ऐसा भी नहीं। सुधीर को मेरी सीमा पता थी, मुझे उसकी। लाइन क्रास भी करते थे, पर पूरे अहसास के साथ। एक दूसरे को जताते हुए। इस रिश्ते में पलड़ा शायद मेरा ही भारी था। वो मुझसे ज्यादा जिम्मेदार था। जिम्मेदार से भी कुछ अधिक। मेरा पति विद्युत साल में छह महीने बाहर रहता। मर्चेंट नेवी में। मैं बाकि के छह महीनों में छुट्टा सांड ही तो थी। विद्युत के रहते कभी सुधीर से मिलने को नहीं बुलाती। उसने कभी इस बात का ताना भी नहीं मारा। पर हर बार कहीं से और कभी भी मेरे बुलाने पर वह आ जाता।

फिर मेरी प्रतिक्रिया इतनी उग्र क्यों? समझ रहे थे दोनों कि अब साथ चलना मुश्किल है। कुछ रिश्ते चुक जाते हैं। खत्म हो जाते हैं। कुछ नया करने-कहने को नहीं रह जाता। होता है ऐसा भी। अब जा कर महसूस कर रहे हैं। बात हो चुकी थी ना। रिश्ते का द एंड। एकतरफा कुछ नहीं। कई दिनों बाद, अच्छी तरह सोचने के बाद। दो शादीशुदा, पकी उम्र के आदमी और औरत, अपने और दूसरे के बारे में भी अच्छी तरह परख रखने वाले इसी समाज के बाशिंदे।

‘तुम डर गए हो क्या? ’ जब बहुत देर तक दोनों ने कुछ कहा नहीं, तो मैंने ही सुधीर को कोंच लिया।

वो सुधीर, जो अभी कुछ समय पहले तक मेरी जिंदगी का सबसे मधुर हिस्सा रहा है। जिसके साथ रहने के नाम पर अंदर-बाहर भीगती रही, गुनगुनाती रही, संवरती रही। जिसके साथ कुछ वक्त बिताने भर के लिए अपना ना जाने कितना-कितना वक्त गंवाती रही। उस सुधीर से पूछ रही हूं कि क्या वह मुझसे डरने लगा है? सुधीर के चेहरे पर अजीब से भाव आ गए। वह अचानक मुझे दुनिया का सबसे परेशान और बेजार आदमी लगने लगा।

उसने बियर का लंबा सा घूंट भर कर कुछ उकताई आवाज में कहा,‘रोशनी, तुम ये सब क्यों कर रही हो? जरूरत है क्या इतना नीचे उतरने की? ’

‘नीचे? मैंने क्या किया? ऐसा क्या कह दिया? ’

‘मैं हैदराबाद से दिल्ली क्या तुमसे यह सब सुनने आया हूं? हद है यार। तुमने कहा था तुम आखिरी बार मेरे साथ कुछ समय बिताना चाहती हो। इसलिए? नॉनसेंस। तुम्हें पता भी है तुम क्या कह रही हो? ’

मुझे शर्मिंदा हो जाना था ना यह सुन कर। पर पता नहीं क्यों ढीठ बनने को जी चाह रहा है, मैं गलत कह रही हूं? कहने दो मुझे। आज कोई बात दिल के अंदर नहीं रखना चाहती, ‘पिछले महीने तक हम यही कहते थे ना कि जैसा चल रहा है चलने दो। सुधीर, कितने साल हो गए हमें? अगले महीने नौ साल हो जाएंगे ना? कम होते हैं क्या नौ साल? आसान नहीं था हम दोनों के लिए यह रिश्ता निभाना। पर मैं निभाना चाहती थी... जब तुमसे प्यार करती थी...’

‘ओह, तो अभी से पास्ट टेंस। वेल। अच्छा लग रहा है। तुम जल्दी निकल आओगी इस रिश्ते से। आओगी क्या? लगता है निकल आई। तुम उतनी वल्नरेबल नहीं हो, जितना दिखाती हो। ’

क्या सुधीर वाकई यह कहना चाहता था या मेरी बात सुन कर उसने रिएक्शन भर दिया था? मेरा चेहरा जलने क्यों लगा है? मैं इतना अपमानित क्यों महसूस कर रही हूं? ऐसा नहीं है कि इससे पहले हम कभी झगड़े नहीं? हर मुलाकात का अंत झगड़े में ही खत्म होता था। उस झगड़े के बाद दिल भर आता, आंखों के आंसू बंद ही ना होते। धडक़न रुकने सी लगती, यह सोच भी सांसें रोकने को काफी थी कि सुधीर अगली बार मिलने नहीं आयेगा, तो क्या होगा? दो पल में यह निश्चय धरा का धरा रह जाता कि अब हम कभी नहीं मिलेंगे। ना, यह सोचना भी नहीं है। जितना और जो भी वक्त मिलता है साथ-साथ बिताने के लिए, उसे ही जज्ब कर मान लेंगे कि यही जिंदगी है।

ऐसा नहीं है कि कभी सुधीर की किसी बात से मुंह कड़वा ना हुआ हो, आंखों से ज्वाला नहीं निकली हो। कई बार हुआ है। या कहूं, अकसर ही। कुछ कह देता सुधीर, मैं भी कुछ सुना देती उसे, अगले ही पल कोई स्पर्श, कोई बात ऐसी होती कि बिना कुछ कहे सब सुलझ जाता। हर बार... पर लगता है इस बार नहीं...

यकायक मैंने अपना गिलास जमीन पर दे मारा। वोद्का के कुछ घूंट अभी भी बाकी थे। झन्न...पास खड़ा वेटर दौड़ा आया।

सुधीर ने कुछ संभल कर कहा,‘क्लीन द मेस प्लीज।’

मेरी तरफ गौर से देखते हुए सुधीर ने अपना बियर का गिलास खत्म किया। मैं उसकी तरफ नहीं देख रही थी। वो शायद मेरी आंखों में झांकने की कोशिश कर रहा था।

समझ नहीं आ रहा था कि यह सब इतना मुश्किल होगा। सुबह वो हैदराबाद से दिल्ली आया था, इस होटल में मुझसे मिलने। मैं संभली हुई थी। हमें साथ बैठे दो घंटे से ज्यादा हो गए। मैं उसकी सुन कम रही थी, अपने में ज्यादा उलझी थी। मैं उसे जिंदगी के आगे की प्लानिंग बता रही थी। कुछ दिन मुंबई दीदी के पास। उनकी बेटी की शादी में पूरी तरह व्यस्त हो जाऊंगी। शादियों का मजमा यूं भी मुझे बहुत लुभाता है। दिलचस्प गप्पें, इधर-उधर की बतकहियां, बेकार की खरीदारी, हर बात पर हंसी-ठठ्ठे, रंगीन खुशबुएं, चुटपुट खाते रहने की अजब बीमारी और घर भर के इधर-उधर के अपने लोग। इसके बाद अधूरा उपन्यास पूरा करूंगी। लो छह महीने बीत गए। इतने में विद्युत की वापसी का समय हो जाएगा। उसके साथ वापस दिल्ली। दिवाली आ जाएगी। पूरा घर तोड़-ताड़ रिनोवेशन कर डालूंगी। छत पर बगिया... लो बीत गया साल। आ गई जनवरी। देखते-देखते हमें अलग हुए साल भर बीत जाएंगे। फिर तय करेंगे कि एक बार मिलना चाहिए कि नहीं।

मैंने कहा था--मुझे लगता नहीं कि मैं तुमसे मिलना नहीं चाहूंगी।

सुधीर के चेहरे पर हल्की सी शिकन आई थी, या मुस्कुरा रहा था वो?

‘पता है क्यों सुधीर? मैं अब अपने अंदर कुछ और तलाशना चाहती हूं। लगता है तुम्हें तलाशते-तलाशते अपना बहुत कुछ खो दिया है। तुम्हें बताया था ना, बनारस में मुझे ऑकलैंड की नियोमी मिली थी... ओह, मैं कुछ और दिन उसके साथ रहना चाहूंगी। तुमसे अलग हो कर ऐसा कर सकती हूं। तुम तो एकदम मना कर दोगे। तुम्हें लगता है उसके साथ मैं भी एक हिप्पी हो जाऊंगी।’

कहा इतना ही, पर मैं यही भी जोडऩा चाहती थी, तुम्हें डर लगता है ना कि कहीं मैं नशेड़ी, चरसी या लाल चोगा पहने कोई मायावी सी औरत ना बन जाऊं? फिर तुम कहते कि मायावी तो तुम हो ही, बनने की क्या जरूरत? क्या मैं यह कहती तो तुम समझ पाते कि मेरे अंदर चौबीसों घंटे कैसी आग सी लगी रहती है। तुम्हारे साथ नहीं रहती, तुम्हारे बारे में नहीं सोचती, तो यही सब दिमाग में आता है। यह भी तो कहना चाह रही थी मैं कि तुमने मुझे हिप्नोटिज्म सीखने ही नहीं दिया, दो क्लास के बाद तुमने बीच में रुकवा दिया। डरते थे ना? कहीं मैं तुम्हें सम्मोहित कर हमेशा अपने वश में ना कर लूं?

मुझे चुप देख सुधीर ने कुछ सधी आवाज में कहा, ‘तुम ठीक हो ना रोशनी? मुझे पता है तुम ठीक हो जाओगी। तुम कमजोर नहीं हो।’

मैं धीरे से बुदबुदाई, ‘ठीक हूं? घबराओ मत। मैं अपनी नस नहीं काटूंगी। ना आधी रात को किसी अस्पताल से तुम्हें फोन आएगा कि मैंने जहर खा लिया है।’

सुधीर की नजरें मुझ पर टिकी हुई थीं। मुझे शायद पता था वह क्या कहेगा। कितना अच्छी तरह जानने लगी हूं उसे।

‘रोशनी किसे सुना रही हो यह सब? क्या तुमने ऐसा नहीं किया है? कितनी बार... ’

सोचा था आज उसके सामने आंखों से यह वादा ले कर रहूंगी कि वे नहीं बहेंगी। सावधान। नहीं बहना है। सुधीर कह रहा है मैं कमजोर नहीं हूं। किस बिला पर? मैं कमजोर ही तो हूं। देखो ना, ठीक से अलविदा भी नहीं कर पा रही। यह तो नहीं तय हुआ था हम दोनों के बीच। पिछले छह महीने से लगातार इसी पर तो बात कर रहे हैं, बहस कर रहे हैं, छोडऩा होगा एक-दूसरे को। बहुत हुआ। जब हमने तय किया है कि अपने-अपने जीवनसाथियों से अलग नहीं हो पा रहे, जीवन में प्राथमिकताएं बदल रही हैं, हमारी जिंदगियां अलग-अलग पटरियों पर जाने लगी हैं, तो दो वयस्कों की तरह हैंड शैक करके, अपनी-अपनी गलियों में क्यों ना निकला जाए? अब किस बात की अपेक्षा रह गई है एक-दूसरे से? ऐसा भी तो हो रहा है कि हम जब मिलते हैं, तो पहले की तरह अब शरीर अपनी जरूरतें सिर नहीं उठातीं। अलग होते हैं तो पहले की तरह शरीर की अतृप्तियां रातों को बेचैन नहीं करतीं। कुछ समय से लग रहा है कि बहुत खींच दिया हमने इस रिश्ते को। जब भी मिलते हैं, पता होता है कि सामने वाले के पास शिकायतों का टोकरा होगा। सुधीर को मेरा एडवेंचरस होना पसंद नहीं, उसे इस बात से भी आपत्ति होती है कि मैं अपने से कम उम्र वाले लडक़ों के साथ ट्रैकिंग पर निकल पड़ती हूं। यह भी कि मैं अपने शरीर को कुछ ज्यादा सहेजने लगी हूं। अब अपनी बातों में वह विद्युत को अकसर लाने लगा है। यह भी कह देता है कि विद्युत पता नहीं कैसा पति है, जो तुम्हें यह सब करने देता है।

हैलो, मिस्टर, रुक जाओ। सुनो भई। यह सब तो शुरू से करती थी मैं। मेरे इसी वाले स्वभाव पर विद्युत भी रीझा था और तुम भी सुधीर। मैं घर घुस्सू, अच्छी वाली औरत कब थी? जब पहली बार मिले थे, पैंतीस की होने वाली थी मैं। विद्युत से शादी को छह साल हो गए थे। मैंने कहा था तुमसे--मैं अपनी दादी की तरह हूं। वह थी ना धाकड़, लंबतड़ंग मजबूत औरत। पूरी गुंडी थीं दादी।

तुम भी तो उस वक्त गजब के रोमांटिक हुआ करते थे। शेर ओ शायरी करते थे। कितनी कविताएं लिखी थीं मुझ पर। मैं कहती थी तुमसे कि अपने दोस्तों के साथ भूटान जा रही हूं और तुम मुझे तलाशते हुए अगले दिन भूटान पहुंच जाते। कितना रोमांचित करता था मुझे तुम्हारा वह अक्खड़पन। वह तबीयत से कहना कि रात होटल मेरे कमरे में आ जाना। नहीं तो...

मैं भी तो खेल खेलती थी अपने दोस्तों से। यह कह कर कि मैं अपने अगले उपन्यास के लिए एक बौद्ध भिक्षु की तलाश में निकल रही हूं का बहाना कर आ गई थी तुम्हारे पास।

एक बार दिल्ली से सीधे हैदराबाद आ पहुंची थी मैं, बस तुम्हारे मुंह से कुछ कविताएं सुनने। एयरपोर्ट से तुम्हें फोन किया। तुमने बहाना नहीं बनाया। ऑफिस का काम छोड़ मेरे पास आ गए। एयरपोर्ट के पास एक रेजार्ट में तुम्हारी गोद में सिर रख कर, आंखें बंद कर जब मैं तुम्हारी कविताएं सुन रही थीं, तो शायद तुम्हारे शब्दों से ज्यादा तुम्हारे पास होने पर मुझे गर्वीला होने का दिल हो आया। अहा, तुम मेरे लिए यह भी कर सकते हो! मन ने यह नहीं कहा कि तुम मुझे इतना प्यार करते हो, मुझे इस बात पर ना शक था ना शुबहा। प्यार से बड़ी चीज थी तुम्हारा मेरे पास उस तरह से होना, जैसा मैं चाहती थी। तुम्हें मैं वैसी ही पसंद थी, कमीनी, खुली, विद्रोही, दबंग, खब्ती, नाशुक्री, दीवानी और जुनूनी। मुझे भी तुम वैसे ही पसंद थे, ठहरे हुए, भावुक, विवेकी, संवेदनशील, पगले और थोड़े अजीब और जरा से कमीने।

मैंने तुमसा बनना कभी ना चाहा। तुम जरूर चाहने लगे थे कि मुझमें ठहराव आ जाए। क्या कहते थे तुम, मैच्योरिटी? इतनी ही मैच्योर होती, सही-गलत के तराजू में तौल कर जिंदगी जीती तो आदि विद्रोहिनी की तरह तुम्हारे साथ रिश्ता बना पाती? ऐसी कितनी औरतों को जानते हो तुम, जो शादीशुदा हो कर भी मुझ सी डेयरिंग हो? मैंने नहीं देखी। तुम्हें मेरा यह डेयरिंग स्वभाव अखरने क्यों लगा था माइ डियर सुधीर?

चलो, मैं तुमसे साफ-साफ मान लेती हूं, मैं विद्युत के लिए थोड़े-बहुत समझौते कर लेती हूं, अपने ऊपर एक भली औरत का आवरण ओढ़ कर विवाह संसार के कुछ अनर्गल नियमों का पालन भी कर लेती हूं। पर तुम्हारे साथ ऐसा क्यों करूं? तुम तो मेरे चाहे और मेरे बनाए रिश्ते हो ना? तुम्हारे लिए तुम्हारी पत्नी भी तो यही सब कर रही होगी। फिर मुझसे अचानक तुम गुड गर्ल बनने की अपेक्षा क्यों करने लगे थे?

सुधीर की गिलास में बियर खत्म हो गया। आखिरी बूंद मुंह में उडेल उसने गिलास की तरफ कुछ यूं देखा, मानो उसे खाली होने का अफसोस हो रहा हो। ओह, गिलास में तो हमारे रिश्ते थे! अंतिम बिंदू तक जज्ब हो गया है अंदर। अब बचा क्या? क्या मैं सामने बैठे इस आदमी को जानती हूं?

‘तुम पियोगी, एक और ड्रिंक? ’ऐसा तो कभी पूछता ना था मेरा आदमी। वो तो जानता था कि मैं एक के बाद एक तीन ड्रिंक पीती हूं। तीसरे से पहले उकता जाती हूं। पर तीसरा सामने ना हो तो भी उकताती हूं।

मेरे सिर हिलाने से पहले उसने वेटर को आवाज दे कर मेरे लिए ड्रिंक मंगवा लिया। एक बार फिर बियर के खाली गिलास को मुंह में लगा उसने मेरी तरफ देखा। अपने लिए वह एक और बियर क्यों नहीं मंगवा रहा?

मेरे पूछने से पहले उसने कह दिया, ‘मुझे कुछ जरूरी कॉल करना है। तुम बैठो यहां। आराम से पियो। आइ विल जॉइन यू।’

उसने टेबल पर रखा अपना मोबाइल उठाया और झटके से खड़ा हो गया।

इट्स ओवर। ना, उसने यह नहीं कहा। मुझे पता लग गया। सुधीर वहां से उठ कर चला गया। उसने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं। ओह, तो क्या वह चला गया? अभी तो हमने लंच भी नहीं किया। उसकी भी तो फ्लाइट शाम को है। शायद सही कह रहा है, फोन ही करने गया होगा, लौट कर आएगा लंच करने।

पंद्रह मिनट बाद वेटर मेरे पास आया। मैंने अपने ड्रिंक को छुआ भी नहीं था। उसने धीरे से पूछा, ‘मैम लंच? बुफे करेंगी या अला कार्टे? ’

मैंने बुदबुदाते हुए कहा, ‘बु...फे। ’

वह मुझे प्लेट थमा गया। ना उठने का मन था, ना खाने का। जब वेटर दोबारा आया, तो उठी। सब कुछ धुंधला सा था। पता नहीं क्या परोस लाई प्लेट में। वेटर दो-तीन तरह की रोटियां ले आया। एक ले कर कुतरने लगी।

लौटेगा, नहीं लौटेगा...लौटेगा...नहीं लौटेगा...

कोई खेल है ये?

चला गया है सुधीर। यही सच है। अब कोई सुधीर नहीं है जिंदगी में।

यहां आने से पहले पता था ना। फिर अब कोई झूठी आशा, उम्मीद क्यों?

सुधीर कहा करता था--थोड़ी सी मक्कार हूं मैं। मैं भी हंसती थी, थोड़ी नहीं, बहुत। सभी औरतें होती हैं। सब होने से डरती हैं। मैं डरती नहीं हूं सुधीर। तुम हंस रहे हो?

विद्युत से नहीं डरती?

नहीं, डरती नहीं। वो मेरा पति है। मैं उसके साथ कुछ कमिटमेंट निभाना चाहती हूं।

तुम्हारे मुंह से कमीनी निकलते-निकलते रह गया। कह दो ना। क्या फर्क पड़ता है। कमीनी आजकल कोई गाली थोड़े ही ना है? करीबी लोग यही कहते हैं एक दूसरे को।

ड्रिंक के साथ रोटी निगल रही हूं। आंखें सतर्क हैं। वो वेटर के पास सुधीर तो नहीं खड़ा? नहीं, उस आदमी ने नीली शर्ट पहनी है। सुधीर ने तो आज गुलाबी...

एक घंटा हो गया है। खाने के बाद वेटर पूछ कर फिरनी ले आया है। जबरदस्ती खा रही हूं।

कुछ देर और। वेटर को इशारा किया बिल ले आए। उसने पास आ कर कहा,‘मैडम, आपका बिल तो पैड है। सर ने कर दिया था... ’

मन हुआ वेटर से भिड़ जाऊं। क्यों लिए सर से पैसे? क्या मैं अपने खाने का पैसा नहीं दे सकती थी?

उठना ही था वहां से। फ्लाइट का समय हो चला था। अटैची होटल के रिसेप्शन पर था। टैक्सी मंगवाई।

एयर पोर्ट पर चैक इन करने के बाद सब्र का बांध टूटता सा लगा। फोन पर ना कोई मैसेज ना कॉल। तय किया था दोनों ने कि जब अलग होंगे तो एक-दूसरे का नंबर डिलीट कर देंगे। इसके बिना तो रिश्ता टूटने से रहा।

एक, दो, तीन,...दस, सौ, ना जाने कितने नंबर गिन लिए। अब और नहीं। सुधीर का नंबर मिला ही दिया। नंबर लगा, फिर कट गया।

मैसेज करने लगी--यहीं तक का साथ था तो ऐसे तो खत्म नहीं होना था। कितने कायर और डरपोक हो तुम? स्थितियों का सामना करना ही नहीं चाहते। मैं क्या बस यहीं तक थी तुम्हारे लिए?

दस मिनट। कोई जवाब नहीं।

दूसरा मैसेज - मैं गलत थी। अपने को लेकर। मुझे किसी का कोई डर नहीं है। मैं तुम्हें आराम से जीने नहीं दूंगी। तुम्हें एक्सपोज करूंगी। नौ साल, मेरी जिंदगी के नौ साल। या तो वापस करो या वापस आओ।

पांच मिनट। तीसरा मैसेज-क्या तुम्हें वाकई लगता है मैं तुम पर रेप का चार्ज नहीं लगा सकती? मुझे अपनी इमेज से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं कह सकती हूं, सिर उठा कर, हां, तुमने मेरे साथ गलत किया है...

फ्लाइट की घोषणा हो गई। प्लेन में बैठने तक फोन को बार-बार खोल कर देखती रही। प्लेन के उड़ान भरने से पहले आखिरी बार सुधीर का नंबर घुमाया। अब नंबर बंद आने लगा। तो उसने मुझे डिलीट कर ही दिया…।

दिल्ली से मुंबई एक घंटे पचपन मिनट की दूरी।

जब तन के अंदर अवहेलना की बारिश होने लगे, तो समझ जाएं कि अब आप किसी सही अंजाम तक पहुंचने के काबिल ना रहीं। दादी कहा करती थीं, मैं ना सिर्फ अपने आप से, परिवार से और समाज से लड़ी हूं, उन स्थितियों से भी मोर्चा लिया है, जहां पता था कि परिणाम मेरे विरुद्ध हैं। लड़ी, तो कहीं जीती, कहीं हारी। शर्त है, जब हारो तो अपने आपको को भी खबर ना लगने दो। जीतो तो सबसे पहले खुद को खबर करो।

दादी की रोशनी, भटकी हुई रोशनी...

आंख बंद कर सोचने की कोशिश की, क्या नौ साल के इन अनुभवों के निचोड़ से अपना अगला उपन्यास लिख सकती हूं? इसका जवाब नहीं मिल पाया।

यही सही होगा कि मुंबई से सीधे बनारस चली जाऊं। बड़े दिनों से तमन्ना है नियोमी की तरह दिनों तक मसान में रह कर साधना करने की। सम्मोहन सीखने की। अब शायद यह कर पाऊं।

बहुत वक्त बाद अंदर का उफान शांत होता लगा। मुंबई में उतरी तो बारिश हो रही थी। सामान ले कर बाहर आई। टैक्सी में बैठ कर फोन ऑन किया।

सुधीर के दो मिस्ड कॉल थे।

एक मैसेज भी-

तुम भी ना रोशनी। मैंने कहा था अलग होने को?

लड़ाई तो हम नौ साल से हमेशा करते आ रहे हैं। नया क्या है?

अलग होने की बात किसने कही थी? तुमने ना? फिर आज जो तुमने किया, वो क्यों? तुम इतना हिल जाओगी, मुझे लगा नहीं था। मुझे लगता था हम दोनों में ज्यादा मजबूत तुम हो।

तो... क्या सोचा है? मुंबई से कहां जाओगी?

हैदराबाद? आ जाओ ना मेरे पास। मूड ठीक हो जाएगा। मैंने अभी-अभी एक कविता लिखी है तुम्हारे लिए। व्हाट्सऐप करूं?

बस, एक गुजारिश है देवी, ये बनारस जा कर शमशान में रहने, हिप्नोटिज्म सीखने जैसी बचकानी हसरतों को दफा करो। लिखने के लिए हर चीज को भोगना जरूरी नहीं होता।

वैसे एक अच्छा आयडिया दे रहा हूं। हमारे रिश्तों पर एक नोवेल लिखो। इसके बारे में हैदराबाद में बात करेंगे। उसी रेजार्ट में। टेक केयर।अब क्या कहूं... जल्दी से आ जाओ, मेरे पास।…

***

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED