लो फिर से चांडाल आ गया Ajay Amitabh Suman द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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लो फिर से चांडाल आ गया

(१)

ये एक नकारात्मक व्यक्ति के बारे में एक नकारात्मक कविता है। चाहे ऑफिस हो या घर , हर जगह नकारात्मक प्रवृति के लोग मिल जाते है जो अपनी मौजूदगी मात्र से लोगो में नकारात्मक भावना को पनपाने में सक्षम होते हैं। कविता को लिखने का ध्येय यह है कि इस तरह के व्यक्ति विशेष ये महसूस करें कि उनकी इस तरह की प्रवृतियाँ किसी का भी भला नहीं सकती । इस कविता को पढ़ कर यदि एक व्यक्ति भी अपनी नकारात्मकता से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो कवि अपने प्रयास को सफल मानेगा।


चांडाल


आफिस में भुचाल आ गया ,

लो फिर से चांडाल आ गया।


आते हीं आलाप करेगा,

अनर्गल प्रलाप करेगा,
हृदय रुग्ण विलाप करेगा,

शांति पड़ी है भ्रांति सन्मुख,
जी का एक जंजाल आ गया,

लो फिर से चांडाल आ गया ।


अब कोई संवाद न होगा,

होगा जो बकवाद हीं होगा,
अकारण विवाद भी होगा,

हरे शांति और हरता है सुख,
सच में हीं बवाल आ गया,

लो फिर से चांडाल आ गया।

आफिस में भुचाल आ गया ,

लो फिर से चांडाल आ गया।
कार्य न कोई फलित हुआ है,

जो भी है, निष्फलित हुआ है,
साधन भी अब चकित हुआ है,

साध्य हो रहा, हार को उन्मुख,
सुकर्मों का महाकाल आ गया,

लो फिर से चांडाल आ गया।


धन धान्य करे संचय ऐसे,

मीन प्रेम बगुले के जैसे,
तुम्हीं बताओ कह दूं कैसे,

कर्म बुरा है मुख भी दुर्मुख,
ऑफिस में फिलहाल आ गया,

हाँ फिर से चांडाल आ गया।

आफिस में भुचाल आ गया ,

लो फिर से चांडाल आ गया।
कष्ट क्लेश होता है अक्षय,

हरे प्रेम बढ़े घृणा अतिशय,
शैतानों की करता है जय,

प्रेम ह्रदय से रहता विमुख,
कुर्म वाणी अकाल आ गया,

लो फिर से चांडाल आ गया।


कोई विधायक कार्य न आये,

मुख से विष के वाण चलाये,
ऐसे नित दिन करे उपाय,

बढ़े वैमनस्य, पीड़ा और दुख,
ख़ुशियों का कंगाल आ गया,

लो फिर से चांडाल आ गया।

आफिस में भुचाल आ गया ,

लो फिर से चांडाल आ गया।
दिखलाये अपने को ज्ञानी,

पर महाचंड वो है अज्ञानी,
मूर्खों में नहीं कोई सानी,

दुर्जन , दुर्मुख है अभिमानी ,
सरल कार्य में धरता है चुक,

बुद्धि का हड़ताल आ गया,
लो फिर से चांडाल आ गया,

आफिस में भुचाल आ गया ,
हाँ फिर चांडाल आ गया,

हाँ फिर चांडाल आ गया।


(२)

क्यों नर ऐसे होते हैं?

कवि को ज्ञात है कि ईश्वर हर जगह बसता है. फिर भी वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आता है , जो काफी नकारात्मक हैं . कवि चाह कर भी इन तरह के लोगों में प्रभु के दर्शन नहीं कर पाता . इन्हीं परिस्थियों में कवि के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं , जिन्हें वो इस कविता के माध्यम से ईश्वर से पूछता है .

कवि यूँ हीं नहीं विहँसता है,
है ज्ञात तू सबमें बसता है,
चरणों में शीश झुकाऊँ मैं,
और क्षमा तुझी से चाहूँ मैं।


दुविधा पर मन में आती है,
मुझको विचलित कर जाती है ,
यदि परमेश्वर सबमें होते,
तो कुछ नर क्यूँ ऐसे होते?


जिन्हें स्वार्थ साधने आता है,
कोई कार्य न दूजा भाता है,
न औरों का सम्मान करें ,
कमजोरों का अपमान करें।


उल्लू नजरें है जिनकी औ,
गीदड़ के जैसा है आचार,
छली प्रपंची लोमड़ जैसे,
बगुले जैसा इनका प्यार।


कौए सी है इनकी वाणी,
करनी है खुद की मनमानी,
डर जाते चंडाल कुटिल भी ,
मांगे शकुनी इनसे पानी।


संचित करते रहते ये धन,
होते मन के फिर भी निर्धन,
तन रुग्ण है संगी साथी ,
पर परपीड़ा के अभिलाषी।


जोर किसी पे ना चलता,
निज-स्वार्थ निष्फलित है होता,
कुक्कुर सम दुम हिलाते हैं,
गिरगिट जैसे हो जाते हैं।


कद में तो छोटे होते हैं ,
पर साये पे हीं होते है,
अंतस्तल में जलते रहते,
प्रलयानिल रखकर सोते हैं।

गर्दभ जैसे अज्ञानी है,
हाँ महामुर्ख अभिमानी हैं।
पर होता मुझको विस्मय,
करते रहते नित दिन अभिनय।


प्रभु कहने से ये डरता हूँ,
तुझको अपमानित करता हूँ ,
इनके भीतर तू हीं रहता,
फिर जोर तेरा क्यूँ ना चलता?


क्या गुढ़ गहन कोई थाती ये?
ईश्वर की नई प्रजाति ये?
जिनको न प्रीत न मन भाये,
डर की भाषा हीं पतियाये।

अति वैभव के हैं जो भिक्षुक,
परमार्थ फलित ना हो ईक्छुक,
जब भी बोले कर्कश वाणी,
तम अंतर्मन है मुख दुर्मुख।


कहते प्रभु जब वर देते हैं ,
तब जाके हम नर होते हैं,
पर है अभिशाप नहीं ये वर,
इनको कैसे सोचुं ईश्वर?

ये बात समझ ना आती है,
किंचित विस्मित कर जाती है,
क्यों कुछ नर ऐसे होते हैं,
प्रभु क्यों नर ऐसे होते हैं?


अजय अमिताभ सुमन
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