"कितनी बार कहा है कि कमरे की हालत ठीक कर लिया कर लेकिन फिर भी इस लड़के ने नहीं सुननी और ये पुरानी किताबें…. ना जाने दुनिया भर की कितनी किताबें इकठ्ठा कर रखी है, रद्दी किताबों को बेच क्यों नहीं देता, पूरे कमरे में भरी पड़ी हैं" | यह कहकर मां चाय का कप मेज़ पर पटक कर चली गई |
ऐसा पहली बार नहीं था जब माँ ने ये सब कहा हो, ये सब तो रोज की बातें थी और मैं हमेशा की तरह हम्म… कहकर टाल जाता पर अब अलमारी में रखी ये पुरानी किताबें मेरी आँखों में भी खटक ने लगी है | कई बार सोचा इनको हटा दूँ लेकिन हिम्मत नहीं हुई, हिम्मत के मामले में मैं हमेशा ही पीछे रहा... इसीलिए आज मै इनको उठा कर बोरी में भरने लगा, वो किताबें जो कभी जीने का जरिया थीं, न जाने कितने ही लोकप्रिय उपन्यास कहानियां और नौकरी की तैयारी के लिए अनगिनत किताबें | नौकरी तो मिलने से रही, पापा का बिजनेस ही काम आया इसीलिए ये किताबें जो मेरी दिनचर्या का एक अहम हिस्सा थीं, अब वो महज़ रद्दी बन चुकी थीं |
मै किताबें हटा ही रहा था कि तभी एक किताब हाथ से छूट कर फर्श पे जा गिरी और खुल गई, मैंने झुककर उस किताब को उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसे देख मैं, मानो कमरे की चार दिवारी से निकलकर मैं किसी और दुनिया में चला गया… या यूं कहो अपनी बीती दुनिया मे..
किताब का पन्ना नम्बर 142 और कहानी "अधूरा ख़त" इसी पन्ने के बीच में रखा आधा फटा हुआ खत, जो था तो फटा हुआ पर कहानी पूरी सुना रहा था, उस दिन मुझे ज्यादा देर नही हुई थी इस ख़त को लिखकर तुम तक पहुचाने की पर कुछ जज़्बात उन लहरों की तरह होतें हैं जो दिल के समन्दर से उठते तो हैं लेकिन मुहाने तक कभी नहीं पहुंचते, और मैं आपको बता ही चुका हूं कि हिम्मत के मामले में मैं जरा पीछे हूं |
आज भी इस ख़त के आखिरी में "तुम्हारा…. " शब्द लिखा हुआ था, "तुम्हारा...." कितना अधूरा और अकेला शब्द था ये, काश इसके आगे मेरा नाम लिख गया होता, पर कॉलेज के उस आखिरी दिन जब तुम नहीं तुम्हारी खबर आई थी, कि तुम पढ़ाई पूरी होने के बाद हमेशा के लिए मुझे छोड़ कर दूसरे शहर चली गई हो, मैं बीते सालों में उस खत को लिखने की हिम्मत जुटा कर ये खत लिख पाया था और उस "तुम्हारे" शब्द के आगे अपना नाम लिखकर हमेशा के लिए तुम्हारा हो जाता, क्यूंकि मुझे भी पता था तुम्हें इसी खत का ना जाने कब से इंतजार है, लेकिन ये सुनने के बाद ये अधूरा ही रह गया |
कहानियां भी अजीब होती हैं, कब किसकी कहानी किस से मिल जाय और किस से अलग हो जाए पता नहीं होता, ठीक इस पन्ना नम्बर 142 की कहानी की तरह | खत पढ़कर मैंने एक ठंडी आह भरी और किताबों को बोरी में भरकर कमरे से बाहर रद्दी में डाल दिया |
कमरे में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी, मैं जाकर बालकनी में खड़ा हो गया शाम के 6:30 बज चुके थे , सूरज डूब चुका था और अपने पीछे आसमान में कुछ लाल निशान छोड़ गया था, ठंडी हवा मानो मेरे सीने को चीरती हुई मेरे हृदय पे आघात कर रही हो, जिससे इसकी धड़कन मंद सी पड़ रही हो | मैं काफी देर तक सूरज द्वारा छोड़े गए लाल निशानों को काले निशानों मे बदलते हुए देखता रहा और कमरे में मेज पर रखी किताब का पन्ना नंबर 142 खुला पड़ा था जिसमें वो अधूरा खत हवा के झोंकों से बार बार लड़कर किताब से आजाद होना चाह रहा था, जिसमें लिखा तुम्हारा शब्द आज भी अधूरा था और जो कभी भी "तुम्हारा…. " न हो सका |
? समाप्त ?
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?धन्यवाद् ?
? सर्वेश कुमार सक्सेना