दिन के आरे बारे और रात के दिया बारे Vikash Raj द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दिन के आरे बारे और रात के दिया बारे

बचपन में जब भी मैं मां के उम्मीद से ज्यादा पैसा खर्च करता तो मेरी हमेशा एक कहावत कहा करती थी 'दिन के आरे बारे और रात के दिया बारे ' । जिसका अर्थ होता है घर में चूल्हा जलाने का औकात नहीं और शहर में भंडारा करने की बात करना। इस कहावत पर एक कहानी याद आती है।
पिताजी उसके किसी अमीर आदमी के लिए ड्राइवर का काम करते थे। उनके तनख्वाह से उसकी कॉलेज की फीस और घर में दो वक़्त की रोटी नसीब हो जाती थी। शुरुवात तो ठीक -ठाक रहा लेकिन वक़्त के साथ साथ बेटे को कॉलेज के अमीरजादों की दोस्ती की हवा लग गई। कॉलेज रास्ते में पड़ता इसलिए उसके पिताजी उसे हमेशा कॉलेज छोड़ अपने मालिक के यहां चले जाते। दोस्तो के पूछने पर उसने बताया कि उसके पिताजी बड़े व्यापारी हैं और ये महंगी गाड़ी के अलावा और भी दर्जनों महंगी गाड़ी हैं उसके घर । खुश था देख कर की चर्चा पूरा कॉलेज में होनी लगा, उसका मान बढ़नर लगा लोग उसे पूछने लगे। आदतें उसकी बदलने लगी दोस्तो के बीच मां रखने के लिए घर से पैसे चुराने लगा , बड़े बड़े पर्टियाओं में जाने लगा। पैसे चोरी करने के कारण अब उसके घर रोटी एक वक़्त की पकने लगी, एक वक़्त ऐसा आया कि रोटियां भी आधे आधे बटने बन लगी।
मुद्दा ये है कि चोरी कि नौबत क्यूं आयी? अपने दोस्तो से पहले ही अपने घर की हालत बता दिया होता तो शायद उसके घर में आज दो वक़्त की रोटी आराम से बन सकती थी। आज अगर हम भारत की बात करें तो बिल्कुल भी ऐसी ही है। घर में भले ही चूल्हा जले या ना जले पर बाहर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। बिहार में आया बाढ़ से हर कोई वाकिफ होगा , हज़ारों ने जान गवाएं, कितने लापता है लाखों करोड़ों का नुक़सान हुआ।
दूसरी तरफ पूरे भारत में दुर्गा पूजा की तेयारी होने लगी। जगह जगह पंडाल बनाने शुरू हो गए, घर घर जा कर चंदा जमा किया जाने लगा । पर कहीं भी किसी के जुबान पर बिहार में अाई बाढ़ का जिक्र नहीं था। सच पूछिए तो दुर्गा मां कि श्रद्धा के सामने लोगो का दर्द फीका पड़ गया। इसलिए तो आए दिन अख़बार में पटना बहने को आखिरी पन्ने जबकि बारिश के कारण लाखों का पंडाल छतिग्रस्त को फ्रंट पेज में जगह दी गई।
यहां हर एक किसी कि यही समस्या है कि हमारा पंडाल से बड़ा पंडाल बगल वाले मुहल्ले का कैसे हुआ ? लाख और लाख दो लाख लगाए जा रहे हैं नेता सहायता कर रहें हैं बड़े बड़े दुकानों के पोस्टर लग रहें हैं , जाहिर है कि दुकान वाले ने मोटी रकम दी होगी पंडाल में पोस्टर लगाने के लिए । प्रतियोगिताएं रखी जा रही है, पंडालों के बीच होड़ लगी हुई है कि इस बार तो बेस्ट पंडाल का पुरस्कार तो उन्हें ही मिलेगा। बात अगर एक ही शहर की करें तो करोड़ों रुपए पंडालों की निर्माण में फूंके जा रहे हैं । और ये पंडाल कितने दिन रहेगी बस 4 दिन उसके बाद क्या छूमंतर ।
मैं कोई नास्तिक नहीं हूं जो लोगो की श्रद्धा पर सवाल उठा रहा हूं, मैं तो बस समाज को आयना दिखाने की कोशिश कर रहा हूं । एक तरफ तो सारा शहर ढह गया जब लोगों ने मदद कि गुहार लगाई तो कुछ एक लोग मदद के लिए आए। और दूसरी तरफ पंडालों में लाखों करोड़ों रुपए फूंके जा रहे हैं जो महज चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात है। श्रद्धा दिल से होनी चाहिए प्रतियोगिता रख कर नहीं । लाखों में से कोई एक लाख दिल से भी अगर बहते पटना के लिए लगा दिया होता तो आज किसी बिछड़े का घर मिल जाता , किसी कि जीने की उम्मीद जगती। जाने वाला वापस तो नहीं आ सकता लेकिन राहत तो किसी अपनी को मिलती। समाज को सच्चाई में जीना चाहिए ना की उस बेटे कि तरह दिखावे में। एक तरफ शहर ढह रहा है दूसरी तरफ खुशियां मनाई जा रही है। शहर रोशन किया जा रहे हैं और शहर से सटे घर अंधेरे में जीने पर मजबुर हैं। शहर साफ किए जा रहे हैं और कचरा गरीब तबके के घरों के आंगन में फेका जा रहा है।
यहां तो कहवात सटीक बैठती है ' दिन के आरे बारे और रात को दिया बारे '