पीताम्बरी - 3 Meena Pathak द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पीताम्बरी - 3

पीताम्बरी

मीना पाठक

(3)

उधर डोली आशुतोष के दरवाजे पहुँचते ही आशुतोष की माँ और बहनें जल्दी से बहू उतारने आयीं, डोली में पीतो बेहोश थी किसी तरह उसके मुँह पर पानी के छींटे मार कर परछावन कर उसे भीतर ला कर लिटा दिया गया था |

शादी की खुशी क्या होती है कुछ भी महसूस ना कर पायी पीतो, बस यंत्रवत ससुराल के सभी रस्म निभाती गई |

बेला के फूलों की सुगंघ कमरे में भरी हुयी थी | पलंग पर सुंदर सा हाथों से काढ़ा हुआ गुलाबी रंग का चादर बिछा हुआ था | उसकी ननदें उसे कोहबर से ला कर इस कमरे में छोड़ गई थीं | एक पल के लिए पीतो बेला की सुगंध में खो गई, गुलाबी चादर काढ़ते हुए उसके मन में कितनी उमंगें हिलोरे ले रही थीं, इंदू और रूपा ने कितना छेड़ा था, वह खुद भी चादर काढते-काढ़ते अपने मन में उठे सुखद एहसास से मुस्कुरा उठती थी; पर आज जब वह पल बिल्कुल करीब था तब वो एहसास नहीं थे | अचानक ही किसी के स्पर्श से वो चौंक पड़ी | आशुतोष ने उसे अपने आपनी बाहों में समेट लिया; पर वो सुखद स्पर्श पाते ही पितो के हृदय की पीड़ा आँखों के रास्ते उमड़ पड़ी | एक मजबूत वृक्ष से बेल की तरह लिपटी हुई पीतो सिसकते हुए बेहाल हो कर पति की बाहों में झूल गई | पिता के ना रहने के बाद पहली बार आशुतोष से मिली थी | आशुतोष ने उसे बाँहों में उठा कर पलंग पर लिटा दिया, उसके माथे पर अपने होठों का स्पर्श दिया | इस समय पीतो उसे एक बच्ची सी लग रही थी | उसके माथे पर आ गयी लटों को उसने उँगलियों से हटाया और एक बच्ची की तरह उसे सीने से लगा कर आँखे बंद कर लेट गए |

*

आशुतोष उसे बहुत हिम्मत दिला रहे थे, समझा रहे थे, उसे सामान्य करने का प्रयास कर रहे थे; पर पीतो की मानसिक स्थिति अभी भी ठीक नहीं थी, अपने पिता के दुःख को अपने दिल से नहीं निकाल पा रही थी | धीरे-धीरे दिन बीतने लगे, आशुतोष की छुट्टियाँ खत्म होने को थीं पर पीतो के आँसू सूखने का नाम नहीं ले रहे थे | वह जब भी उसके पास जाते उसे सिसकता पाते | आखिर एक दिन उसे हौसला बँधा कर आशुतोष कलकत्ता लौट गए | पीतो के लिए जिंदगी आसान नहीं थी अब | पिता का साया उठ गया था और पति दूर; पर जिंदगी तो जीना ही था सो वह घर के कार्यों में मन लगाने लगी | सुबह से घर का काम, छोटी ननद की पढ़ाई में मदद से ले कर उसके सभी जरूरतों का ध्यान रखना, सास का हर तरह से ख्याल रखना बड़ी नन्दों की आवभगत करना, उसने अपने को समर्पित कर दिया था इस घर को | महीने दो महीने पर बड़की अम्मा किसी को भेज देती थीं जिससे पीतो को मायके का और बड़की अम्मा को पीतो की खबर मिल जाया करती थी |
धीरे-धीरे दिन, महीने गुजरने लगे, दो-चार महीने में एक बार गाँव आ जाते थे आशुतोष |

*

कलावती का व्यवहार वैसे तो ठीक रहता; पर जैसे ही दोनों बेटियाँ आ जातीं उनके व्यवहार में बदलाव आ जाता | जब कि दोनों के आते ही उनकी सेवा में लग जाती थी पीतो; तब भी उनके कटाक्ष का दंश उसे झेलना ही पड़ता था | घर में कुछ भी नुकसान होता उसका ठीकरा उसी के सर फूटता था..

“जब से अइली हा नुकसान पर नुकसान हो रहल बा, ना जाने कऊन सगुन-साईत में बियाह तय भईल |”

मझली की बात खत्म होते ही बड़ी भी आग में घी डालती है, “अरे हमार आशू के त करमें जरल रहे, मेहरारू के सुखे नाही उनकी भाग में |”

जब इन तानो को सुन कर वह व्यथित होती तब चूल्हे के सामने रसोई में बैठे-बैठे रो लेती, ये सब बातें ना तो वह अपने पति को बता सकती थी ना ही अपने चाचा को क्यों कि चाचा को बताने पर बड़की अम्मा तक बात पहुँच जाती, बड़की अम्मा वैसे भी दुखी थीं, ये सब जान कर वह और भी दुखी होंतीं इस लिए वह रो कर अपना मन हल्का कर लेती और फिर से काम में लग जाती |
उस दिन तो घर में आफत ही आ गई | गाँव के बाहर जो पोखर था उसमें बहुत सी मछलियाँ थीं जिनको खिला-पीला कर पुष्ट किया जाता था फिर व्यापारी को बेच दिया जाता था | उस दिन द्वेष वश किसी ने जहर डाल दिया था, पोखर की सभी मछलियाँ उलट गयीं थीं, मछलियों के साथ और भी जो जलीय जीव थे पोखर में वो भी उल्टे पड़े थे | सभी हाय-हाय कर रहे थे, कलावती पानी पी-पी कर पटिदारों को कोस रही थी | मछलियों से अच्छा मुनाफा मिलता था इसी द्वेष से किसी ने पोखर में विषैला पदार्थ डाल दिया था | इस वर्ष मछलियों से होने वाले मुनाफे में भारी गिरावट आई थी |
उस दिन रात में पीतो काम खत्म कर के अपनी सास के पाँव दबाने जा रही थी, दरवाजे के पास पहुँची ही थी कि उसके कान में आवाज पड़ी -

“केतना मना कईल गईल कि ई बियाह मति करा, जऊन लड़की के बिआह तय होते ओकर बाप मर गईल, ओकर गोड़ नीक नइखे, बाकिर तू नाही सुनलू, अब ढोआ जिनगी भर |” तीसरी ननद की आवाज थी |

“अब ओ बेचारी के का दोष ? दिन भर तोहा लोगिन के सेवा में लागल रहेली, तब्बो तोहा लोगिन ओकरी पाछे हाथ धो के पड़ल रहेलू | चुप रहा, नाही त सुन् लीहें त दुःख होई ओ बेचारी के, बिना बाप के लईकी के पाछे पड़ल रहेलू तू लोग, ई मति भुला कि तोहार बिआह अबहिन बाकी बा, का जानी कइसन ससुरा पइबू, अपनी बड़की बहिन लोग के बोली मति बोला |” कलावती ने झिड़क दिया था अपनी छोटी बेटी को | सुन कर पीतो का मन भर आया |

पर अपनी सास के विचार सुन कर उसे अच्छा लगा | उसकी सास दिल की अच्छी थी
ये जान कर उसे बहुत तसल्ली हुई |

*

धीरे-धीरे तीन वर्ष व्यतीत हो गए | इंदू का ब्याह हो गया, रूपा की पढ़ाई पूरी हो गई थी और पीतो की छोटी ननद का भी ब्याह हो गया | आशुतोष अपनी जिम्मेदारी से मुक्त थे | अब कलावती एक नन्हा-मुन्ना पीतो की गोद में चाहती थीं; पर ये सब तो ईश्वर के हाथ की बात थी |

कलावती ने सोच लिया था कि इस बार वह पीतो को आशुतोष के साथ भेज देगी, वह रह लेगी किसी तरह, आखिर कब तक बहू अपने पति से दूर रहेगी !

चिट्ठी भेज कर आशुतोश को बुलवा लिया कलावती ने और पीतो को उनके साथ कलकत्ते भेज दिया, अब सब कुछ ठीक था | दोनों खुशी से रहने लगे थे, आशुतोष पीतो का बहुत ख्याल रखते, पीतो भी अपनी घर-गृहस्थी में लगी रहती |

*

फिर से वर्षा ऋतु का आगमन हुआ था, जेठ की तपन से तप्त वसुधा शीतल हो रही थी, उसके गर्भ में दबे बीजों ने नन्हें-नन्हें कोपलों का रूप ले गर्भ से बाहर झाँकना आरम्भ कर दिया था, देखते-देखते उसका हरा भरा आँचल लहरा उठा था, वृक्षों के पत्ते वर्षा के जल से स्नान कर खिल उठे थे, मौसम खुशनुमा हो गया था | धरती का कोना-कोना महक उठा था |

उस दिन ड्यूटी से लौटते ही आशुतोष ने पीतो से कहा – “जल्दी तैयार हो जाओ आज काली-घाट चलते हैं, माँ के दर्शन करेंगे और खाना भी बाहर ही खाएँगें |”

“मैं तो कब से कह रही थी आप से, आप के पास ही समय नहीं था |” पीतो पानी का गिलास आशुतोष को थमाती हुयी बोली |

“बड़ी मुश्किल से आज जल्दी निकल पाया हूँ, अब जल्दी करो नहीं तो लौटने में देर हो जायेगी |” गिलास खाली करने के बाद आशुतोष ने कहा |

पीतो जब से कलकत्ते आई थी तब से माता के दर्शन करना चाहती थी पर आशुतोष की व्यस्तता के कारण नहीं जा पा रही थी | जल्दी-जल्दी दोनों ने कपड़े बदले, घर में ताला बंद किया और सड़क पर आ गए |

थोड़ी देर बाद ही उन्हें एक खाली रिक्शा मिल गया | रिक्शे वाले को काली घाट चलने को बोल कर दोनों बैठ गए | मौसम सुहावना हो रहा था ठण्डी-ठण्डी हवा तन और मन दोनों को स्फूर्ति दे रही थी | सड़क के किनारे खड़े वृक्ष हवा से झूम रहे थे, पंछी चहक रहे थे और आकाश में बादल तैर रहे थे |
पीतो को यहाँ के रिक्शे पर बैठना अच्छा नहीं लगता था क्यों कि रिक्शावाला रिक्शे को पैदल ही खींचता था | गाँव में ऐसा नहीं था | मजबूरी इन्सान से क्या नहीं कराती है |

माँ के दर्शन कर जब वो घर लौटे तो रात हो चुकी थी | आशुतोष रिक्शे से उतर कर रिक्शेवाले को पैसे देने लगे | बैठे-बैठे पीतो का दाहिना पैर सुन्न हो गया था इस लिए पीतो रिक्शे पर बैठे हुए अपना पैर सहला रही थी |

“चलो उतरो |” आशुतोष ने अपना हाथ बढ़ा दिया पीतो की तरफ |

पीतो उनका हाथ थाम कर रिक्शे से उतरने लगी | जैसे ही उसने अपना दाहिना पैर जमीन पर रखा, उसका पैर मुड़ गया और वह धम्म से गिर पड़ी | वो तो आशुतोष ने सम्भाल लिया नही तो बहुत चोट लग जाती | थोड़ी देर वहीं बैठ कर आशुतोष ने उसका पैर सहलाया फिर उसे सहारा दे कर घर में ले आए|

दर्द के कारण पीतो रात भर सो नहीं पायी | अगले दिन आशुतोष ने उसे डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि पाँव की हड्डी टूट गयी गई है |

उसे हस्पताल में भर्ती कर आशुतोष ने अपने घर पर खबर कर दिया और अपनी बहन को बुला भेजा; पर किसी को आने की फुर्सत नहीं थी | कोई किसी तो कोई किसी कार्य में व्यस्तता के कारण नहीं आ सकती थी; आशुतोष दुखी थे और परेशान भी, घर, ड्यूटी और पीतो, सब कुछ अकेले कैसे संभालें ?

जब ये खबर बड़की अम्मा के पास पहुँची तो उन्होंने तय किया कि वह पीतो की देख भाल के लिए रूपा को भेज देगीं | इंदू के पापा के साथ रूपा कलकत्ते चली आई | इंदू के पापा उसे पहुँचा और पीतो को देख कर घर वापस चले गए |

कुछ दिन हस्पताल में रह कर पीतो घर आ गई | अब घर की सारी जिम्मेदारी रूपा पर थी और वह बखूबी निभा भी रही थी | खाना, कपड़े, आशुतोष का टिफिन, उनके सभी चीजों का और पीतो का भी हर तरह से ख्याल रख रही थी रूपा | घर में क्या है, क्या नहीं है और चीजें कहाँ हैं, वह सब जानने लगी थी |

आशुतोष भी अब उसी से किसी चीज के लिए कहते और जो भी सामान लाते उसे ही सौंपते | पीतो अपने बिस्तर पर सिमट कर रह गई थी उसका हर काम रूपा बहुत प्यार और जिम्मेदारी से करती लेकिन पीतो कुछ अकेलापन महसूस करने लगी थी | वह तो जैसे आसमान से गिरी और खजूर पर आ कर अटक गई थी, इतने दिनों बाद पति का सानिध्य नसीब हुआ था और इस दुर्घटना ने उसे फिर से उनसे दूर कर दिया था | कहने को तो साथ थी पर ना जाने क्या उसे अन्दर चुभ रहा था जिसकी चुभन को वह खुद भी झुठलाती जा रही थी |

ना जाने क्यूँ पीतो का मन नहीं लग रहा था, रह-रह कर जी घबरा रहा था | उसने रूपा को आवाज दे कर बुलाया, “रूपा !”

“आई दीदी |”

“आ कर मेरे पास बैठ |”

“नहीं दीदी..बहुत काम है..जीजा जी के आने का समय हो रहा है..उनके आने से पहले खाना तैयार करना है |” रूपा जैसे आई थी वैसे ही पीतो को समझा कर रसोई में चली गई |

बात तो सही थी, उनके आने से पहले खाना तैयार चाहिए; पर क्यों उसे रूपा का यूँ आशुतोष का ख्याल रखना अखर रहा था ? फिर वह अपने को समझाती है “एक तो रूपा इतने प्रेम से मेरा और मेरे पति की देखभाल कर रही है और मैं ना जाने क्या सोच रही हूँ |” उसे बहुत दुलार आया रूपा पर | लेटे-लेटे ना जाने कब उसको झपकी लग गई |

***