कभी यूँ भी तो हो... - 2 प्रियंका गुप्ता द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कभी यूँ भी तो हो... - 2

कभी यूँ भी तो हो...

प्रियंका गुप्ता

भाग - २

दो-तीन दिनो तक मेरी हिम्मत ही नहीं हुई थी सागर को फोन करने की...फिर आखिरकार फोन कर ही दिया। उसने फोन उठाया भी...बात भी की...। नाराज़ तो था, पर जाहिर नहीं कर रहा था...। न ही फोन काटने की जल्दी दिखाई...। ये तो मैं मानूँगी पलक...मेरा फोन सागर ने हमेशा उठाया है...चाहे कितना ही बिज़ी क्यों न रहा हो...पर मुझे इग्नोर उसने कभी नहीं महसूस होने दिया। पर उस समय मैं अच्छी तरह महसूस कर रही थी कि अगर सागर की रुचि कहीं ख़त्म हो गई थी तो रुचि का सागर भी कहीं खो गया था जैसे...।

हमारी बातें धीरे-धीरे कम होने लगी थी। मैं ही झिझकने लगी थी उसे फ़ॉर्मल बातें करते देख कर...। सागर मुझे इतनी अच्छी तरह समझता था कि बिन कहे वो मेरा मन बहुत गहरे तक पढ़ लेता था। तभी तो वह समझ गया था कि उसकी अजनबियत से मैं दुःखी होती हूँ। इसी लिए उसके बाद फिर जब भी हम बात करते, वो पहले की तरह सहज रहने की कोशिश करते हुए उसी तरह खिलखिलाने लगा था...। हाँ, एक बात की शिकायत हमेशा रहेगी मुझे...उसे शायद कभी इस बात पर यकीन नहीं आया कि मेरी खुशी उसकी हर छोटी-बड़ी खुशी से जुड़ी है...तब भी और अब भी...। तभी तो चाहे वो उसकी शादी की बात हो, या उसके बेटे और बेटी के जन्म की खुशख़बरी...हर ख़बर उसने बहुत झिझकते हुए...बड़ी कठिनाई से सुनाई जैसे...। उसके मन के किसी कोने में एक भय-सा बैठा था जैसे कि अगर वो अपने परिवार की बात मुझसे शेयर करेगा, तो मैं कहीं आहत न हो जाऊँ...। पागल था बिल्कुल...तभी तो एक बार मुझसे पूछा भी था...शारदा तुम्हें अपनी सौत लगती है न...? और मैने उसे उसी पुराने अंदाज़ मे गरिया दिया था...कमीनेऽऽऽ...सौत नहीं है...। सौत से जलन का रिश्ता होता है और जो तुझे प्यारा हो, उससे मैं ईर्ष्या कैसे कर सकती हूँ...। पर फिर भी कई बार वो शारदा की बाबत पूछने पर धीरे से बात बदल देता था...। मुझे कई बार डर लगने लगा था, पलक...कि कहीं मुझसे जुड़ाव महसूस कर वो शारदा से दूर न हो जाए...। मैं एक हँसती-खेलती लड़की की ज़िन्दगी में दुख नहीं लाना चाहती थी...। इसी लिए एक दिन मैने उससे साफ़ कह दिया था...हम अब ज्यादा कॉन्टेक्ट में नहीं रहेंगे...वरना शारदा का श्राप लगेगा मुझे...। पता है पलक, उसने क्या कहा था...रुचि...तू कभी मुझे शारदा से दूर होने ही नहीं देगी...। अगर कभी ऐसी कोशिश करूँगा भी तो तेरी लात पड़ेगी मुझे...न बाबा न...तुझसे पिटना नहीं मुझे...और फिर वही किसी मंदिर की घंटी-सी खनखनाती हँसी...। ऐसे में मैं खामोश रह जाती...उसकी हर बात पर यक़ीन था मुझे...इसी लिए...।

एक सहेली की सी बात कहूँ तुझसे पलक...उसकी वो हँसी मुझे हमेशा मदहोश सी कर देती थी...। इतनी बातें तुझसे कर रही हूँ, तो आज वो भी कन्फ़ेस कर ही दूँ जो कभी किसी से नहीं कर पाई...सागर से भी नहीं...। कम-से-कम दिल में शान्ति लेकर तो जा सकूँगी इस दुनिया से, कि सीने में कोई राज़ दफ़न कर अतृप्त आत्मा बन भटकूँगी नहीं...। कई बार अपने अन्दर की रुचि को ठेल-ठेल कर दूर करने के बावजूद जब बिस्तर पर अकेले होती थी न...तो वही रुचि इस रुचि पर आधिपत्य कर लेती थी...सागर की वही हँसी फिर मेरे कानों में गूँजने लगती थी। ऐसे में मन करता था, काश! मेरे बगल में सागर होता और मैं उसमें ही समा जाती...किसी प्यासी बूँद की तरह...। जिन होंठो से ऐसी सुन्दर हँसी झरती है...उन्हें एक बार चूम पाती...। कभी महसूस कर पाती कि प्यार की छुअन में कैसी अनोखी मादकता होती है...।

ग़लत न समझना पलक...मेरे और सागर के प्यार के बीच देह अब भी नहीं आ रही थी...पर इस बावरे मन का मैं क्या करती...? वो तो शायद जन्मों का प्यासा था...। तभी तो मैने जब एक दिन पॉलो कोएलो की ‘ब्रिदा’ पढ़ी तो मैने सागर से कहा भी था...तुझे पता है, तू मेरा मनमीत क्यों है...? असल में तू मेरा सोलमेट है...मेरी आत्मा का एक बिछड़ा हिस्सा...। तभी इतना खिंचाव महसूस करते हैं हम एक-दूसरे की ओर...। बिना शर्त...बिना लालच बँधे हैं एक-दूसरे से...। और वो पगला भी सहमत था मेरी बात से...।

एक ही शहर में रहते हुए कभी हम ने फिर मिलने की कोशिश नहीं की थी। पर एक दिन अचानक पता चला, वो दूसरे शहर चला गया। नई जगह उसे एक बेहतर ऑफ़र मिला था। उस दिन मैं पहली बार आहत हुई थी। कोई यूँ ही तो उठ कर नहीं चल देता न एक शहर से बोरिया-बिस्तर समेट कर दूसरे शहर...। जाने से पहले आखिरी बार ही सही, मिल तो लेता...। बहुत लड़ी थी मैं सागर से...पर सागर की रुआँसी आवाज़ सुन धक्का भी लगा था...। कैसे मिलता मैं तुमसे...? अगर मिल लेता तो क्या जा पाता...? और अगर यहाँ से न जाता तो तुमसे किया प्रॉमिस नहीं बचा पा रहा था मैं...। तुम फिर चाहे कितनी लातें मार लेती पर मैं शारदा को छोड़ तुम्हारे दरवाज़े पर ही आ रुकता...। तब क्या करती...? इतना हद तक तो दूर हो ही चुका हूँ तुमसे, अब पूरी तौर से नहीं खोना चाहता था...। इसी लिए बिन बताए, बिन मिले चला आया...। कम-से-कम अपने मन से तो नहीं निकालोगी न लात मार के...। फिर शायद हम कभी न मिलें रुचि, पर ये तसल्ली रहेगी कि इस दुनिया के किसी कोने में हमारी आत्मा का दूसरा हिस्सा है...। यही समझ लेना कि मेरे मन के चोर ने मुझे तुमसे दूर कर दिया...।

मैं शॉक्ड थी पलक...बहुत शॉक्ड...। समझ नहीं आ रहा था, क्या कहूँ...? बस इतना कह पाई...जहाँ भी रहो, बस खुश रहो...।

उसके बाद से मैने ही धीरे-धीरे उसे फोन करना बहुत कम कर दिया था। दस साल यूँ ही बीत गए...। बस अब तो वही...उसके जन्मदिन पर एक फोन...। बता नहीं सकती तुझे पलक...कितना मुश्किल था ऐसा कर पाना...कितना सेल्फ़-कन्ट्रोल चाहिए होता है इसके लिए...। पर मैं जितना नाजुक दिल हूँ, उतनी ही स्ट्राँग भी...ये तो तुझे भी पता ही है...है न...? इसी बात पर तो सागर कभी-कभी चिढ़ कर कह भी देता था...एक तरफ़ तो बिल्कुल नर्म, नाजुक, नन्ही-सी बन जाती हो...और दूसरी तरफ़ ये स्ट्राँग होने का दिखावा...डुएल कैरेक्टर हो क्या...? और मैं भी चिढ़ कर कहती...हाँ हूँ...तो...?

आज तुझ से ये बातें शेयर कर रही हूँ पलक, तो सिर्फ़ इस लिए कि अगर इस डॉयरी को पढ़ते समय मेरी साँस बची हो तो प्लीज़...इस डॉयरी के आखिरी पन्ने पर उसका नम्बर लिखा है...उसे फोन कर के बुला लेना...। मरने से पहले आखिरी बार उसे देखने की इच्छा है...। पर अगर मैं न रहूँ, तो भी उसे फोन ज़रूर करना...और जब वो आए, तो उसे ये डॉयरी सौंप देना...इस वायदे के साथ कि इसे पढ़ कर वो विसर्जित कर देगा...मेरी सारी यादों के साथ...।

अपना ख्याल रखना पलक...और कभी अगर ज़रूरत पड़े तो सागर को बेझिझक याद कर लेना...वो हमेशा तुम्हारे लिए रहेगा...एक पिता की तरह...।

बहुत सारे प्यार के साथ...तुम्हारी माँ...।

मैं डॉयरी हाथ में पकड़े फूट-फूट कर रो रही थी। पर जल्दी ही अपने पर काबू भी पा लिया। माँ की साँस अभी बाकी थी और मुझे उनकी ये ख़्वाहिश पूरी करनी थी, सो आखिरी पन्ने से नम्बर देख मैने बिना एक भी पल गँवाए माँ के सोलमेट को फोन मिला दिया।

पलक...ये नाम सुनते ही दो पल उधर खामोशी छाई रही, फिर उन्होंने आहिस्ता से पूछा...रुचि कैसी है...? मेरे सब्र का बाँध उनकी बात सुनते ही एक बार फिर टूट चुका था। हिचकियों के बीच जैसे-तैसे उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। माँ की आखिरी बात सुन कर वो फिर खामोश हो गए।

"बेटा...आय एम आउट ऑफ़ द टाउन राइट नाऊ...फ़ैमिली के साथ वैकेशन पर हूँ...परसों लौट रहा हूँ...। दैन आइ विल डैफ़िनिटली कम टू सी हर...। एवरीथिंग विल बी ऑलराइट...। यू टेक केयर...एण्ड कीप मी पोस्टेड...। बी स्ट्राँग लाइक युअर मदर...।"

फोन डिस्कनेक्ट हो चुका था। मुझे लगा जैसे वक़्त वहीं थम-सा गया हो...। पर मन तो नहीं थमा न...वो तो यही सोच रहा था कि अगर माँ की साँसें तब तक नहीं थमी तो...?

(प्रियंका गुप्ता)