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मायामृग - 14

मायामृग

(14)

मन को संभालने का उदय का एक कारगर उपाय यह था कि वो किसी भी नर्सरी में जा पहुँचते और पेड़-पौधों से बातें करने लगते | उनसे पूछने लगते कि क्या वे उनके साथ उनके घर चलेंगे? वहां के मालियों से खूब देर तक झक मारते रहते | हरेक पौधे के पास जाकर उसका नाम, पता, ठिकाना पूछते और जितना संभव होता अपने स्कूटर पर उन्हें सजा-संवारकर बड़ी कोमलता से घर ले आते | फिर शुरू होती शुभ्रा की और उनकी चूं–चूं जिसमें शायद उन्हें बहुत आनन्द भी मिलता था | इसीलिए वे पौधों को ऎसी जगह छिपाकर रखते जहाँ शुभ्रा का ध्यान कम ही जा पाता| जब शुभ्रा की दृष्टि नव-पल्लवित पौधों पर पड़ती तब पति के सामने मुह बनाकर भी वह मन से भीग जाती |

उस दिन भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था | बहुत स्वस्थ नहीं थे उदय फिर भी स्कूटर उठाकर नर्सरी चले गए | तबियत ढीली थी अत: जब वापिस लौटकर आए तब काफी शिथिल लग रहे थे| शुभ्रा जब कभी कहती भी कि इतनी धूप में क्यों जा रहे हैं ? गाड़ी आने पर चले जाइएगा या धूप ढले ही चले जाइएगा | उसे उत्तर मिलता कि वे इतने नाज़ुक नहीं हैं ;

“कहाँ है इतनी धूप कि पिघल जाऊँगा | ”

“अच्छा, तो टोपी ही लगा लीजिए –“

वह अंदर की ओर टोपी लेने भागती और टोपी लेकर शीघ्रता से गेट पर पहुंचती तो स्कूटर का पिछला भाग सोसाइटी के गेट से बाहर निकलते हुए देखती | ऐसा इतनी बार हुआ था कि शुभ्रा खीज गई थी फिर उसने उन्हें कुछ कहना ही बंद कर दिया था | उस दिन नर्सरी से आने के बाद उदय बहुत परेशान से दिख रहे थे | शुभ्रा उस समय क्या कहती? स्कूटर पर से पौधे उतारने में उसने उनकी सहायता की और थोड़ी देर बाद खाना लगा दिया | खाना खाकर कैसी खुमारी की नींद सो गए थे उदय ! शाम को पता चला कि उन्हें तेज़ ज्वर है| फिर तो ज्वर बढ़ता ही गया और दवा-दारू शुरू हो गई | कई दिनों के बाद ज्वर उतरा किन्तु उदय शिथिलता बहुत महसूस कर रहे थे | मधुमेह होने के कारण उन्हें मीठी वस्तुएं भी अधिक नहीं दी जा सकती थीं पर शुभ्रा ने उन्हें खूब फलों के पेय दिए जिससे उनकी शिथिलता जल्दी ही ठीक हो सके| हुआ भी यही, आराम करने तथा दवाई व पोषक खाद्य-पदार्थों का सेवन करने के बाद वे शीघ्र ही ठीक होने लगे | शुभ्रा उनके माथे पर पड़ी हुई चिंता की रेखाएं गिनती रहती और स्वयं भी चिंतित बनी रहती | ऊपर से दोनों हंसते रहते, किसीके आ जाने पर तो और भी, लेकिन चिंता करने से क्या कभी कुछ समाधान निकला है? चिंता व चिता में चिता ही अधिक अच्छी है जो मनुष्य के मृत शरीर को जलाती है, चिंता तो ज़िन्दा मनुष्य को ही जला डालती है| उदित व गर्वी में वास्तव में क्या हो रहा था, यह तो पूरी तरह से जान पाना संभव नहीं था किन्तु दोनों में ही अलगाव की स्थिति स्पष्ट दिखाई दे रही थी| गर्वी शुभ्रा से कहती कि वह उदय से बताए कि उदित बहुत ड्रिंक कर रहा है किन्तु शुभ्रा उदय के भीतर की कमज़ोर स्थिति समझती थी, उसे सदा यही भय बना रहा कि कहीं उदय प्रकाश को यह पीड़ा आँधियों में बहा न ले जाए | उदय अपनी पत्नी से भी तो रुष्ट थे जिसने आँखें मूंदकर हर बात में गर्वी का साथ दिया था, उसका हर कहना पाला था, एक आज्ञा समझकर | वैसे उदय जानते तो थे ही कि उदित आजकल बहुत पीने लगा है| आदमी मन से स्वीकार करे या न करे, कहीं न कहीं उनके मन में भी तो पुरानी बातों की यादें गुबार बनकर उन्हें सताती थीं, आज इस क्षण उनके सामने उन दिनों की छाया बनकर गुज़रती रहती जब शुभ्रा उन्हें चेताती थी और वे बड़े भईसाहब के साथ मिलकर आनन्द लेते थे | ’अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत” ! !

उदय का मस्तिष्क भन्नाने लगा था, स्थिति ऎसी थी कि अब कुछ कहने-सुनने की गुंजाइश भी कहाँ रह गई थी | खूब खींचातानी चल रही थी जिसमें गर्वी कम बोलती लेकिन उसे जो करना होता वह करती अवश्य और उदित अधिक बोलता किन्तु उससे कुछ सार न निकल पाता | बार-बार गर्वी का अनुरोध होता कि उसकी पीने की आदत को छुड़ाने के लिए उसको डॉक्टर के पास ले जाना ज़रूरी था| शुभ्रा तो स्वयं सदा गर्वी के साथ खड़ी रही थी, उसकी दृष्टि में जो गर्वी कहती सभी सत्य व ठीक होता | उदय के ऊपर इन बातों का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वो बहुत असहज रहने लगे | शुभ्रा न जाने कितने लोगों से पूछकर न जाने कितनी-कितनी पूजा, अर्चना करने लगी| वह न जाने कितने घंटे भगवान के मन्दिर के सामने बैठकर ईश्वर के समक्ष गिड़गिड़ाने लगी कि ईश्वर उसके बेटे को सद् बुद्धि दें और वह डॉक्टर के पास जाने के लिए तैयार हो जाए | न जाने कैसे जब उदित गर्वी के साथ डॉक्टर के पास जाने के लिए तैयार हुआ और शुभ्रा की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह निकली, उसने मन्दिर के समक्ष भावातिरेक में अपना सिर नवाया कि ईश्वर ने किसी न किसी प्रकार उसके बेटे की बुद्धि ठीक कर दी थी, वह अपने परिवार को बचाने के लिए डॉक्टर के पास जाने के लिए तैयार हो गया था | हम लोग अपनी सारी परेशानियाँ, मुश्किलें भगवान पर छोड़कर सुकून पा जाते हैं | शुभ्रा को भी लग रहा था कि अब सब ठीक हो जाएगा | एक बार यदि लिकर उसके बेटे का पीछा छोड़ देगा तब वह निश्चिन्त हो सकेगी और उदित का परिवार प्रेम व सुख-शांति से रह सकेगा | शुभ्रा व उदय के मन में तो उदित का मदिरापान ही सबसे बड़ा कंटक था जो उन दोनों पति-पत्नी के बीच की काँटों भरी राह बना हुआ था | अत: उदित के डॉक्टर के पास जाने का निर्णय सुनकर वह तथा उदय दोनों ही के चेहरों पर कुछ संतुष्टि सी पसर गई और उदित का वहाँ इलाज़ शुरू हो गया जहाँ गर्वी अपने पिता को ले जाती थी, वह बार-बार शुभ्रा को यह भी सुनाती रही कि इस स्थिति में तो उसे ‘एडमिट’करना पड़ सकता है| उसने अपने पिता का कितने साल इलाज़ करवाया परन्तु कुछ महीनों बाद वे फिर से पीने लगते थे | यह सुनकर उदय प्रकाश और शुभ्रा का उत्साह फिर से गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स हो जाता |

कमज़ोरी के चलते भी उदय प्रकाश ने दिवाली खूब अच्छी प्रकार मनाई | गर्वी के साथ मिलकर उन्होंने पूरे घर को बिजली की लड़ियों से सजा दिया | उदित का उपचार चल रहा था और अत्यंत संवेदनशील क्षणों में उसने पिता से वायदा कर लिया था कि वह अब इस बकवास चीज़ को हाथ भी नहीं लगाएगा, उदय प्रकाश निश्चिंत से होने लगे थे कि अब सब-कुछ ठीक हो जाएगा | उनकी बीमारी ठीक होने लगी, अब कई दिनों से उदित ड्रिंक करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा था, घर भी आता तब भी ऐसा कुछ पता न चलता | पिता के पूछने पर उदित ने कहा ;

“नहीं पापा, अब हाथ भी नहीं लगाऊँगा, विश्वास तो रखिए | ”लेकिन उसका क्रोध बढ़ता जा रहा था, वह अपने ऊपर संयम न रख पाता |

उदय प्रकाश दुविधा की स्थिति में बने रहे, सोचते रहे कि जब नहीं पीएगा, तब ईश्वर की कृपा ही होगी, वे स्वयं को मन ही मन दोषी समझने लगे थे | वे बोलते कुछ नहीं थे किन्तु उनके चेहरे पर कभी भी एक मुर्दना भाव पसर जाता जिसे किसीके भी सामने जाने से पहले वे अपने चेहरे पर मुस्कुराहट फैलाकर छिपा लेते| वे जानते, समझते थे कि कोई न कोई इतना कमज़ोर कारण तो है ही उदित का इतना पीना बढ़ गया था| वह कारण उनकी समझ से परे था |

दिवाली ठीक-ठाक सी ही बीत गई थी, उदित की दवाईयाँ चल रही थीं | ये कुछ इस प्रकार की दवाईयाँ थीं जो उसे और भी उत्तेजित करती थीं, वह कुछ अजीबोगरीब सी हरकतें करने लगा था, उसको बहुत अधिक क्रोध आता था और अपने मन की बात न होने पर वह उद्वेग में फट पड़ने को होता जैसे किसीने उसका सिर पकड़ लिया हो और उसका अपने ऊपर वश न हो | शुभ्रा और भी सहम गई थी, अनबन युवाओं में थी और प्रभावित घर के बुज़ुर्ग हो रहे थे | दवाईयाँ लेने गर्वी हर बार उदित के साथ जाती, अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए वह एक बार दीति को भी साथ ले गई थी जहाँ वह स्वयं ही सब कुछ बोलती रही, डॉक्टर केवल हाँ में हाँ मिलाते रहे | गर्वी ने शुभ्रा से कहा था कि वह उसे डॉक्टर के पास इसलिए नहीं ले जा रही है कि उसको कुछ समझ में नहीं आएगा | अब भी शुभ्रा यही सोचती रह गई कि जब वह सदा गर्वी के पक्ष में ही खड़ी रहकर अपने बेटे की कमियों को स्पष्ट रूप से स्वीकार करती रही है तो उस पढ़ी-लिखी स्त्री को आखिर क्या और क्यों समझ में नहीं आएगा? शुभ्रा को बेहद अफ़सोस था कि किसीकी बेटी के साथ उसके घर में बदसुलूकी हुई है, एक बार दीति ने भी अफ़सोस करते हुए गर्वी से अपनी शर्मिंदगी ज़ाहिर की थी, कहीं न कहीं उदय की ऑंखें भी नम व शर्मसार थीं किन्तु उन्हें एक अटूट विश्वास था कि बेशक उदित व गर्वी में बहुत नाज़ुक मसले हुए हैं पर गर्वी उनके व शुभ्रा के स्नेह को भुला नहीं पाएगी और इस बात पर भी भरोसा था कि अगर उदित का पीना छूट जाएगा तो उसका घर-परिवार फिर से बस जाएगा | उनके दिलोदिमाग़ में उदित की दोनों बेटियों के प्रति ममता का ज्वार उछालें मारता रहता, उन्हें बैचेन किए रहता |

दीति का अपने परिवार के साथ देश के बाहर घूमने जाने का पूर्व निर्धारित कार्यक्रम था | पिता की तबियत ठीक न देखते हुए दोनों पति-पत्नी ने कार्यक्रम रद्द करने का भी विचार किया किंतु उदय ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया, एक सप्ताह की तो बात थी और उन्हें लग रहा था कि अब केवल कमज़ोरी है और कुछ अधिक परेशानी नहीं होगी | उदय ने बेटी व दामाद को ज़बरदस्ती कार्यक्रम रद्द करने से रोक दिया |

अगले सप्ताह शुभ्रा को तेज़ ज्वर ने घेर लिया, उदय की शिथिलता अभी दूर नहीं हुई थी कि शुभ्रा को संभाल पाते, जब तक शुभ्रा साहस जुटाती रही, काम करती रही | अचानक ही पता चला कि गर्वी की माँ की तबियत बहुत खराब हो गई है, वह बिना किसीसे पूछे अपना सामान बांधकर माँ के यहाँ जाने के लिए उदृत हो गई थी, वैसे भी उसने कब किसीसे कहीं जाने की आज्ञा ली थी ! इसके लिए उसे अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता | जैसे ये दोनों माता-पिता अपने बेटे उदित को ‘ट्रेंड’नहीं कर पाए थे, ऐसे ही तो गर्वी को भी कुछ कहाँ सिखा पाए थे ! वह तो दूसरे राज्य, व जाति की थी जैसे उसके संस्कार थे, जैसा उसने देखा था वैसा ही तो वह करती | उससे कभी किसीने कोई विशेष प्रश्न किए ही नहीं थे, एकाध बार जब किन्ही विशेष परिस्थितियों में उदय के कहने पर शुभ्रा ने पूछाताछी की भी तो गर्वी का अहं टकराया था और उसने कहा था कि उस पर निगरानी की जाती है, जबकि बच्चों में कोई भी क्यों न हो जब तक घर न आ जाएं तब तक माता-पिता को चिंता लगी रहनी स्वाभाविक होती है | गर्वी का यह रूप देखकर शुभ्रा चुप लगा गई थी, और वैसे यह तो बहुत पहले की बात थी जब सब कुछ ठीक-ठाक सा ही चल रहा था | सो, सब चुपचाप ही बने रहे, आदतें तो इस घर के बड़ों ने ही डालीं थीं, फिर गिले-शिकवे का अवसर ही कहाँ था! सास ही तो अपनी पुत्र-वधू को परिवार के संस्कार नहीं दे पाई थी | उस दिन जब शुभ्रा व उदित को तेज़ बुखार में छोड़कर गर्वी जाने लगी तब उदित ने भी क्रोध में कहा कि क्या उसे अपने पति को बताने की ज़रुरत भी नहीं समझी ? गर्वी का उत्तर था कि सब तो सुन रहे थे, इसमें बताने की क्या बात थी ?

जब रिश्ते किसी रेशमी डोरी से बंधकर नहीं रहते, वे सूखे पत्तों की तरह बिखरने लगते हैं, कोई अंधी आँधी उन्हें उड़ाकर ऐसे गलियारे में पटक देती है जहाँ न धूप होती है न पानी, जहाँ से उनका सिमटकर आना संभव नहीं होता| उदित का व्यवहार तो रिश्ते की खाई का एक बहुत बड़ा कारण था ही किन्तु इस तथ्य को पता लगने में बहुत देरी हो गई कि गर्वी अपने किसी मित्र के साथ घंटों बात करती है जिससे उदित का मानसिक संतुलन और भी अधिक सीमा-रहित हो जाता है | जब उदय को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने गर्वी से मनुहार की कि वह अपने मित्र को फ़ोन करना बंद कर दे जिससे उदित के मन में भी जो गलतफ़हमी भर गई है, वह दूर हो जाए और चीजें सामान्य होने लगें, आखिर उदित का उपचार तो सब चीजों को ठीक करने के लिए ही किया जा रहा था | गर्वी उस समय बिना कुछ उत्तर दिए चुप बैठी रही | उदय प्रकाश के कुछ भी कहने की अपनी सीमा थी, वे श्वसुर थे, इससे अधिक क्या बोल सकते थे ? उन्होंने गर्वी से एक और बहुत नाज़ुक प्रश्न पूछा था जो उनके लिए पूछना कॉफी कठिन व शर्मिंदगी से भरा रहा होगा जिसका उत्तर गर्वी ने‘हाँ’ में दिया था, उदय प्रकाश को यह भी ज्ञात हुआ था कि उदित को भी गर्वी के विवाह की पूर्व घटना की जानकारी थी फिर भी जब यह विवाह हुआ तो किसी विश्वास के धरातल पर तो इस विवाह की नींव रखी गई होगी | उदय ने गर्वी का उत्तर अपने पास ही दिल के अँधेरे कोने में समेट लिया था अब वे चुप थे और अपनी पेशानी की लकीरों को सहलाते रहते थे | शायद यह भी सोचते हों काश ! वे बेटे को शादी के तुरंत बाद अलग कर देते तो कितना अच्छा होता! दोनों जैसे चाहे अपना जीवन जीते जब इस विवाह के लिए उनकी एक प्रतिशत स्वीकारोक्ति नहीं थी लेकिन नियति के आगे किसकी चली है ? हम कितने भी प्रयत्न क्यों न करलें नियति के आगे हमें नतमस्तक होना ही पड़ता है | हम सब कुछ कर सकते हैं, यह भ्रम पालकर मनुष्य बेशक कितना भी प्रसन्नता से क्यों न भर उठे वह प्रकृति के सामने बौना ही रहता है| प्रकृति, जिसे हम भगवान कहते हैं, जो पाँच तत्वों से निर्मित है अपने खेल खेलती ही रहती है, उसके समक्ष किसीका वश न तो चला है और न ही चलने की कोई संभवना है |

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