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मायामृग - 12

मायामृग

(12)

व्यवसाय में असफलता के फलस्वरूप उदित का पीना बढ़ गया था | दोनों पति-पत्नी में पहले भी झगड़े होते थे अब अधिक होने लगे थे | सभी पहचान वालों व मित्रों को लगता कितना सामंजस्य है दोनों में, दूसरी जाति व राज्य के होने के उपरांत भी परिवार को कैसे बांध रखा है ! उस समय ईंट की दीवारों में जान लगती थी, एक मुस्कान व सकारात्मक उर्जा पसरी रहती | कितने ही लोग तो कहते ;

“”आपके घर आने से बड़ी शांति मिलती है, लगता है बस आपके पास बैठे ही रहें | और बहू भी अलग जाति –बिरादरी की होकर कितनी हंसमुख व अपनत्व से भरी है | ”झूम जाती थी शुभ्रा अपने परिवार की प्रशंसा सुनकर, उदय का चेहरा भी प्रसन्नता से खिल जाता किन्तु भीतर की बात किसीको कैसे पता चलती जब उन्होंने ही आवरण पर आवरण चढ़ा रखे थे, जब जीवन के सत्य व असत्य में कोई फ़र्क ही नहीं था, जब शुभ्रा कभी स्वयं ही नहीं समझ पाई थी कि वह किसी भ्रमजाल में फंसी हुई है, जब वह जीवन को सदा खुली पुस्तक समझती रही जो सबके समक्ष खोलकर पढ़ी जा सकती थी जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी |

शुभ्रा की दृष्टि में न तो उसका बेटा उदित ही कम था और न ही पुत्रवधू ! हाँ! इसमें कोई संदेह नहीं कि गर्वी ने उदित का काफी साथ दिया था लेकिन यह भी सत्य है कि उसने शुभ्रा तथा उदय को उन दोनों के बीच के पूरी तरह सही चित्र नहीं दिखाए थे | आख़िर सारी कमियाँ किसी एक में तो नहीं हो सकती, एक बहुत खराब हो और दूसरा बहुत शांत –तब तो जीवन में कभी कोई परेशानी हो ही नहीं पाती चे कितनी बड़ी कठिनाइयाँ क्यों न हों ! उदित तो पिता से खुला हुआ था ही नहीं, सो जितनी भी बातें आतीं गर्वी के माध्यम से ही आतीं | असफलता की झौंक में उदित ने बहुत से ऐसे काम किए थे जो उसके तथा परिवार के हित में नहीं थे किन्तु माता-पिता से कुछ साँझा करना तो उसने सीखा ही नहीं था, शायद गर्वीसे भी नहीं | उसे लगता कि वह अपने आप ही सारी समस्याओं का हल निकाल लेगा और जब सफ़ल हो जाएगा तब सबको कुछ बनके दिखला देगा | वैसे क्या बनना चाहता है मनुष्य? किसके साथ बराबरी करना चाहता है और क्यों? क्या ज़रुरत है इन सबकी ? किन्तु ईश्वर तो पूरी परीक्षा लेता है मनुष्य की! उसने मनुष्य को सब कुछ दिया है किन्तु बुद्धि देकर उसका प्रयोग करने का आदेश भी तो दिया है, यहीं मनुष्य चूक जाता है, वह स्वयं को सर्वोपरि समझने लगता है, वह नाचता ही रहता है मायामृग की चकाचौंध के पीछे ! और सब कुछ ऐसा हो जाता है जैसे उस अदृश्य ने लिखकर रख दिया है |

परिस्थितियों के चलते अब उदित को अपनी पत्नी के पिता के परिवार व माँ के व्यवहार से भी शिकायत होने लगी थी जो उदय पहले से ही समझते थे और उन्हें यही भय भी था| इतना आसान कहाँ होता है समाज में फैली बातों को पचा पाना, पहले तो मुहब्बत के जोश में उन बातों में कोई सार नजर नहीं आता, कुछ दिन गुज़रते ही वो ही बातें जो पहले नगण्य लगती हैं दिल में चुटकी भरकर पीड़ित करती रहती हैं, आदमी यदि इतना महान हो जाए तो समाज में बिखरे हुए सभी झगड़े-टंटे न सुलझ जाएं ? किन्तु ऐसा होता नहीं है, छोटी सी आँधी में ही मुहब्बतों के पेड़ थरथराने लगते हैं | बहुत सी ऎसी घटनाएँ होती रहीं जो उदित को अधिक कमज़ोर बनाती रहीं | अब पीने के बाद वह गलत शब्दों से गर्वी के माता-पिता का अपमान करने लगा था| उदित ने गर्वी के परिवार की वास्तविकता से परिचित होने के तथा गर्वी के भूत से परिचित होने के बाद ही तो उससे विवाह करने का निश्चय लिया था फिर अब क्यों उसे सबमें कमियाँ दिखाई देने लगीं थीं ? यह शुभ्रा की तथा उदय की दृष्टि में सर्वथा अनुचित था| जब किसी बात को स्वीकार लिया जाता है तब उसमें सामने वाले को हेय दिखाने का कोई औचित्य नहीं होता किन्तु यहाँ स्थितियाँ भिन्न थीं जो शुभ्रा व उदय दोनों को ही नागवार थीं किन्तु मौन रहकर उन दोनों को ही मानसिक कष्ट झेलना था| सच, आज भी शुभ्रा की समझ में नहीं आता आखिर क्यों वे माता-पिता होकर भी कभी अधिकार से नहीं बोल पाए थे ? उदय इसी बात से तो इतने अधिक चिंतित व घबराए हुए रहते थे कि कहीं दोनों में कोई अलगाव के क्षण न आ जाएँ, यही बात उन्होंने अपने बेटे उदित से विवाह से पूर्व की थी, जिसके लिए वे मन ही मन न जाने कितने लंबे समय तक परेशानी में उलझे रहे थे| उदय जैसे व्यक्ति के लिए बहुत कठिन था, ऎसी परिस्थिति में युवा बेटे से बात करना उदित व गर्वी दोनों में आए दिन उठा पटक चलती रहती | शुभ्रा और उदय प्रकाश भागकर उनके कमरे में जाते और किसी प्रकार बीच-बचाव करते | वे दोनों ही अधिकतर गर्वी का साथ देते, वह बात अलग है कि गर्वी अब स्वीकार करे या न करे, यह उसके ज़मीर पर निर्भर करता है | इन बातों के कोई प्रमाण तो होते नहीं हैं, कोई तस्वीर बनाकर तो रखी नहीं जाती कि समय आने पर प्रमाण प्रस्तुत किए जाएं| हाँ, एक-दो बार उदय ने दोनों को ही एक-दूसरे पर हाथ उठाए हुए देखा था और क्रोध में भरकर कड़े शब्दों में दोनों को चेतावनी भी दी थी कि वे दोनों को ही थप्पड़ लगा बैठेंगे अगर उन्होंने फिर से अगर ऐसा कुछ देखा तो ! न जाने कब उनकी मुहब्बत फिर से जाग उठती और वो दोनों एक दिखाई देने लगते |

कई वर्ष पूर्व उदय को भी अपने कार्य से अवकाश प्राप्त हो गया था किन्तु उन्हें इस सबका आभास भी नहीं था कि वे आर्थिक रूप से इतने क्षीण हो जाएंगे ऊपर से पुत्र और पुत्रवधू के व्यवहार से उनकी चिंता उतरोत्तर बढ़ती जाती थी| उन्हें गर्वी के मूल स्वभाव की कमियाँ अब अधिक खटकने लगी थीं और वे मन ही मन अधिक भयाक्रांत रहने लगे थे | उदय व शुभ्रा ने कई बार पुत्र को समझाने की चेष्टा की| लगा, कुछ बात बन रही है किन्तु चार दिन बाद वही ढ़ाक के तीन पात ! दोनों एक-दूसरे को अपशब्दों का सेहरा पहनने लगते लगते, दोनों एक-दूसरे के चरित्र पर लांछन लगाने लगते| कमरे से आवाज़ें आतीं, बूढ़े पति-पत्नी दोनों के दिल की धड़कनें सप्तम पर पहुँच जातीं, धड़कते हुए दिल व डगमगाते पैरों से वे बेटे-बहू के कमरे में पहुँचते और वहाँ का दृश्य देखकर सिर पकड़कर सोफ़े में धप्प से गिर जाते| फिर अपने अनुसार उदय बेटे को समझाने की चेष्टा करते, कभी इतने बड़े बेटे पर हाथ भी उठा देते फिर नीचे आकर उनकी नींद कोसों दूर चली जाती | यह कष्ट व क्लेश उदय प्रकाश ने बहुत बार झेला जिससे उनकी मानसिक स्थिति क्षीण पड़ने लगी | वो शुभ्रा से कई बार इस बात का ज़िक्र करते व सोच में डूब जाते कि क्या यह संभव होता है कि ताली एक हाथ से बजाई जा सके ? शुभ्रा को तो एक ही बात समझ में आ रही थी, वह थी ‘नियति’! भाग्य के आगे किसी की न चली है, न चलेगी फिर भी हम किन्तु, परन्तु में फँसे ही रहते हैं |

शुभ्रा को गर्वी का चेहरा देखकर समझ में आ जाता था कि पति-पत्नी में कुछ गड़बड़ हुई है किन्तु उनके बीच कब सुलह हो जाती, कुछ पता ही नहीं चलता और बात आई-गई हो जाती | सब मिल-जुलकर घर संभाल रहे थे | वर्ष में दो बार उदित कभी अपनी गाड़ी से, कभी रेलगाड़ी से, कभी हवाई जहाज़ से परिवार को कहीं न कहीं घुमाने ले जाता जिसका पता उदय व शुभ्रा को या तो उसी समय चलता जब वे जा रहे होते अथवा एकाध दिन पहले | उदय को लगता कि यदि गर्वी शुभ्रा से इतनी खुली हुई है तब वह क्यों अपनी सास को जाने की योजना बनने पर क्यों सूचित नहीं कर सकती थी ? किन्तु गर्वी ने उन्हीं चित्रों में रंग भरा जिनमें वह भरना चाहती थी अर्थात् जो वह सबको दिखाना चाहती थी, अपने उन चित्रों को उसने श्वेत-श्याम ही रखा और अपने ऊपर ‘बेचारी’ का ऐसा ‘लेबल’ चिपकाकर रखा जिससे परिवार केवल उदित को ही दोषी मानता रहा| गर्वी ने सदा यही कहा कि कहीं बाहर जाने पर वही खर्चा करती रही है किन्तु यह तो सब जानते, समझते थे कि वह कितना भी कमा ले किन्तु स्टार होटलों में जाने जितना तो नहीं ही कमा रही थी, बाक़ी अन्दर की बात तो कौन जान सकता है जब तक खुलकर पूछा ही न जाए | कोई तुक नहीं थी पूछने की सो सब कुछ यूँ ही चलता रहा | दोनों युवा पति-पत्नी बच्चों को लेकर उडनछू हो जाते और दोनों बुज़ुर्ग चुप्पी की पट्टी मुख पर चिपकाए बैठे रहते | शुभ्रा सोचती माना उसका बेटा नालायक है, वह कभी माता-पिता को नहीं पूछता या उनका ध्यान नहीं रख पाता --- गर्वी तो योग्य थी न ! आज जिस कगार पर वह खड़ी है बेशक गर्वी अपने मन का सारा कीचड़ उस पर उछाल ले किन्तु सच किसी सफ़ाई का मोहताज नहीं होता | अगर वह उसकी बातों से अब इत्तिफ़ाक न भी रखे तब भी हर किसीका अंतर उसे कचोटता ही है, मनुष्य कैसा भी क्यों न हो, उसकी परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो, वह कभी न कभी सच्चाई को मन ही मन स्वीकारता भी है और पछताता भी है, ऐसा शुभ्रा को सदा लगता रहा है | अब वह बात अलग है कि उस स्वीकारोक्ति को इतनी देरी हो जाए और जीवन की सारी संभावनाएँ बंद मुट्ठी से पतझड़ के सूखे पत्ते बनकर निकल जाएँ | वह तो उसे माँ समझती थी न ! फिर वह कभी क्यों नहीं पूछ पाई ? वह उसे वास्तविकता से क्यों बाबस्ता नहीं करवा पाई? हो गया न फ़र्क बहू और बेटी में ! ये सब तो अब उसके दिमाग में कुछ प्रश्न शोले बनकर उसे जलाने लगते हैं वरना उस समय शुभ्रा तो पहले ही सदा उसकी तरफ़दारी लेती रही थी, उदय के कुछ कहने पर वह कुछ न कुछ कहकर उसे भी पटा लेती | एक लंबी श्वाँस भरकर वो भी चुप रह जाते| गर्ज़ यह है कि पारिवारिक शांति के लिए दोनों पति-पत्नी ने आँखों पर पट्टी बाँध ली थी, दोनों ही गांधारी बनने की मूर्खता करते रहे थे, दोनों ने कानों में रूई ठूँस ली थी, दोनों ही चुप बने रहे| उदय शुभ्रा से लगभग दस वर्ष बड़े थे अत: वह इस बात से भी भयभीत होती रही थी कहीं उदय के मन पर कोई इतनी गहरी चोट न लग जाए कि कुछ अनर्थ हो जाए | वह उस समय यह नहीं सोच पाई कि जो होना होगा, वह तो होगा ही | इसके लिए वह क्यों इतनी अधीर बनी रहे| उदय बेटी दीति से कभी-कभार शुभ्रा के बारे में बातें करके चिंतित होते रहे और शुभ्रा ! वह तो बस अपना सारा स्नेह, प्यार गर्वी को दुलारने में लगाती रही | व्यक्ति कितना स्वार्थी होता है न ! वह भी स्वार्थी ही तो थी | एक तो उदय की उम्र दूसरा किसी से कुछ न साँझा करने की आदत, शुभ्रा ने पूरी उम्र उदय को संभालकर रखा था, मधुमेह होने के पश्चात भी उदय खाने-पीने के बहुत शौकीन थे, वे खाने के बाद मीठा तलाशते रहते, शुभ्रा स्वयं भी मीठा खाने की शौकीन थी किन्तु पति के मधुमेह से डरती थी जो बहुत कुछ खाते रहते| हाँ, उन्होंने अपने स्वास्थ्य का सदा ही ध्यान रखा था | एलोपैथिक, आयुर्वैदिक व होम्योपैथिक सभी प्रकार की दवाईयाँ उनकी अलमारी में सजी रहतीं| वे स्वास्थ्य-संबंधी पत्रिकाएँ मंगवाते रहते और करेले के जूस से लेकर नीम के कड़वे पत्ते, सदाबहार फूल की पत्तियाँ, जामुन की गुठलियाँ और जो कोई कुछ भी बताता था, वे उसका ही सेवन शुरू कर देते थे चाहे वह कितनी कड़वी चीज़ ही क्यों न हो| उनका मधुमेह कभी चिंता की हद तक पहुंचा भी नहीं, वे स्वयं उपचार करने में सक्षम थे | हाँ, घर में अशांति के वातावरण से वे उदास हो उठते और अब यदा-कदा कहने लगे थे कि बस अब वे थक गए हैं |

शुभ्रा जानती है कि थकने के बावज़ूद भी उनके मन में जीवन जीने की कितनी ललक थी | घर के सामने सड़क पार करते ही ‘मल्टीप्लस थियेटर’ में वे कभी भी सड़क फांदते ही जाकर फिल्म देखने बैठ सकते थे | वो तो शुभ्रा को बहुत अधिक रूचि नहीं थी, मारकाट की फिल्मों के शोर से उसे घबराहट व उकताहट होती थी अत:उसके कारण वे बंध जाते थे फिर भी दस-पन्द्रह दिनों में तो दोनों पति-पत्नी जा ही बैठते थे सिनेमा-हॉल में | अशांति अथवा किसी परेशानी से मधुमेह की शिकायत अधिक होने की संभावना शुभ्रा ने सुनी थी अत: वह घर में शान्ति व प्रसन्नता हो इसके लिए प्रयत्न करती रही थी, अपनी अवकाश-प्राप्ति के बाद भी वह घर से काम करती रही थी और यह प्रयास करती रही थी कि किसी प्रकार की तंगी किसी को न भुगतनी पड़े | शान्ति के बिना जीवन उथल-पुथल होने में देर कहाँ लगती है अत:कितनी भी परेशानियाँ आईं शुभ्रा का यही प्रयास रहा कि वह उदय को कोई कष्ट न दे | जहाँ तक हो सके बात अपने आप ही संभल जाए | उदित व गर्वी की खटर-पटर देखकर उदय वैसे ही भीतर से बहुत सहमे रहते थे, वे यह भी देखते थे कि गर्वी का मूल स्वभाव बहुत स्ट्रेट व खुरदुरा है, वह सदा अपने आपको सबसे बुद्धिमान व समर्थ समझती है | उदय ने प्रारंभ से ही गर्वी के मूल स्वभाव को पहचान लिया था और वे सदा चिंता में ही घिरे रहे किन्तु इस प्रकार की बातों का कोई समाधान तो होता नहीं है | गर्वी ने सदा अपने अहं को सबसे महत्वपूर्ण माना था, उसमें चाहे उसकी सास हो अथवा नन्द वह अपने व्यवहार पर संयम नहीं रख पाती थी | ऐसा प्रतीत होता था कि बेशक उदित अपनी पत्नी गर्वी से झगड़ा करता है किन्तु कहीं न कहीं वह उसके छा जाने वाले स्वभाव से घबराता भी था फिर स्वयं उसने भी तो इस प्रकार का व्यवहार किया था जो उचित नहीं था | मनुष्य अनुचित व्यवहार कर लेता है किन्तु उसके अंतर में कहीं न कहीं एक गिल्ट तो होती ही है जो उसे बेचैन करती है | दूसरी ओर मनुष्य का अहं उसके व्यक्तित्व से बड़ा होकर उसे चाट जाता है | ऐसा नहीं है कि अहं किसी एक व्यक्ति में होता है, यह अन्य संवेदनाओं की भांति प्रत्येक मनुष्य में थोड़ा या अधिक होता ही है किन्तु जब अहं इतना फ़ैल जाए कि वह सबको दिखाई देने लगे और दूसरे आपके अहं से कष्ट में आ जाएँ तब वह अहं सबके लिए ही हानिकारक होता है|

बहुधा शुभ्रा गर्वी से मज़ाक में पूछती रहती कि उसने उसके बेटे में ऐसा तो क्या गुण देखा था कि उस पर लट्टू हो गई थी ? बात हँसी में आई-गई हो जाती| उदय को बेटे के बारे में अपनी पत्नी का इस प्रकार पूछना बहुत नागवार गुज़रता पर शुभ्रा को आँखों से तरेरकर चुप्पी लगा जाते | उन्हें शुभ्रा के इस व्यवहार से बहुत कोफ़्त होती किन्तु गर्वी के सामने वे किस प्रकार उसके विपरीत कुछ बोलते, उनकी पत्नी की बुद्धि में तो यह बात आने वाली ही नहीं थी | आज यह लगता है कि मज़ाक में भी इस प्रकार की बातें पूछे जाना उदित के लिए छोटेपन का पर्याय बन गया था| अब उदय नहीं हैं उनकी बातें शुभ्रा के दिल को मसोस जाती हैं, उनका सबके लिए परवाह करना, उनकी दूरदर्शिता सब कुछ कितना महत्वपूर्ण था ! उनकी अनुपस्थिति का अँधेरा उसके घर व मन को रोशनी से विहीन कर गया था | सच ! वह कैसी माँ थी जो केवल अपने बेटे को ही गलत समझती रही| वह सोच ही नहीं पाई कि गलतियाँ दोनों में हो सकती हैं, एक हाथ से कभी ताली नहीं बजती | वैसे भी उदित कोई इतना बहादुर भी नहीं था कि पत्नी के सामने शेर बनता ! न ही गर्वी इतनी ढीली और विनम्र कि वह अपने आपको आहत होने देती | होना भी नहीं चाहिए, शुभ्रा के मन में तो पहले से ही कन्याओं के प्रति एक विशेष लगाव रहा है लेकिन अब उसमें ढेरों प्रश्नचिंह भर गए थे |

एक बार गर्वी ने उसे बताया था कि विवाह से पूर्व एक बार घूमते हुए उदित ने किसी बात पर तकरार होने से हाई-वे पर उसे अपनी मोटर-साइकिल से उतार दिया था तो उसने भी जब तक उदित को एक बार हाई-वे पर ही अपने स्कूटर से नहीं उतार दिया तब तक उसे चैन नहीं मिला था| शुभ्रा ने खूब हँस-हँसकर दीति को यह बात बताई थी | दीति अफ़सोस में भर उठी थी कि उसकी माँ को यह बात कैसे समझ में नहीं आती है कि उसकी माँ जो ज़िंदगी भर न जाने कितने लोगों से हर रोज़ मिलती रही है, नए-नए लोगों में घुल-मिल जाने का जिसका स्वभाव है, वह कैसे इस लड़की को पहचान नहीं पा रही थी या पहचानकर भी क्यों गुमसुम थी? जब हम किसी व्यक्ति की चारित्रिक विशेषताओं से अवगत हो जाते हैं तब हमें उसके साथ अनुकूल व्यवहार करने में अधिक सुविधा रहती है | इस प्रकार क्या बदला लेने से परिवारों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है? क्या मुहब्बत पनप सकती है ? जिसका उजाला उसकी माँ की आँखों में दिन-रात चमकता रहता है | वह मानती थी कि उसके भाई ने गलत किया था किन्तु वह यह भी मानती थी कि इस प्रकार बदला लेने की भावना पनपने से परिवार में स्नेह कहाँ से टिक सकता है ? बेशक उसकी माँ कितना भी स्वयं को कुर्बान कर दे, जब तक समझदारी से काम न लिया जाय तब तक परिवार कैसे बंधकर रह सकता है?

कई बार हम कुछ बातों को हलके में ले लेते हैं किन्तु वे बातें हमारे जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित करती हैं | गर्वी बहुधा कहती थी ;

“”मेरी सास तो अगर तेज़ होती तो मैं उसे सीधा कर देती ---””गर्वी ने कितनी बार शुभ्रा के समक्ष गर्व से कहा था |

शुभ्रा हँस पड़ती, वह इस बात को अपनी प्रशंसा समझती कि गर्वी के मन में उसके प्रति कितनी इज्ज़त व आदर है कि उसे यह सब करने की आवश्यकता ही नहीं हुई क्योंकि उसकी सास शुभ्रा है जो सबको संभालकर चलती है, जो किसी बात को अपने पति अर्थात गर्वी के श्वसुर तक भी पहुँचने नहीं देती | इस बात को सुनकर दीति ने अपनी माँ की मूर्खता पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए पिता को यह बात बताई थी | उदय को यही तो भय था ;

“ “मुझे यही तो लगता है, तेरी माँ को तो ऊँगलियों पर नचा देगी यह लड़की ! इसके कोई बात ही समझ में नहीं आती –---सबको अपने जैसा ही समझती है| बहुत बेवकूफ़ है तेरी माँ ---””उन्होंने अपनी बेटी दीति से अपनी पत्नी की सरलता पर चिंता व्यक्त करते हुए न जाने कितनी बार कहा था |

उदय का बेवकूफ़ कहना शुभ्रा को बिलकुल भी अखरा न हो, ऐसा नहीं था| उसे ऐसा लगता क्यों उदय अपनी पत्नी के सरल, प्रेमिल व्यवहार को समझकर भी नहीं समझने का नाटक करते हैं| आखिर प्रेम से बढ़कर जीवन में और क्या हो सकता है ? यही प्रेममय व्यवहार अच्छे अच्छों को रास्ते पर ले आता है | कुछ समय तक वह पति के काम मुह चढ़ाकर करती रहती, थोड़ी ही देर में न जाने कहाँ उस बात को हवा में उड़ा देती |

गर्वी ने सात वर्ष बाद दूसरी बेटी को जन्म दिया था | उदय पहले तो दूसरा बच्चा चाहते ही नहीं थे, आज के वातावरण को देखते हुए बच्चा पालना कोई आसान काम तो है नहीं किन्तु उन्हें बहू-बेटे से संतानोत्पत्ति न करने के लिए भी तो कहना शोभा नहीं देता था | हाँ, बेटी के जन्म की बात सुनकर वे बहुत प्रसन्न हो उठे थे ;

“”बहुत अच्छा है बेटी हुई है, बेटियाँ ही माँ-बाप का दर्द समझती हैं---”” प्यारी सी गोरी-चिट्टी कली को हाथों में उठाकर वे बहुत प्रसन्न होते| बच्ची के हाथ-पैरों को चलते हुए वे ध्यान से देखते रहते फिर कभी उसके हाथों को उठाकर हिलाते तो कभी पैरों को ऊपर-नीचे हिलाकर देखते रहते | मालिश करने के बाद कली उनके पास गार्डन में धूप में चारपाई पर लेटी रहती थी जिसे देख-देखकर दादू के मुख-मंडल पर मुस्कान तैरती रहती | कई लोग उदय के पास आकर बैठते अथवा जब कोई नवजात शिशु को मिलने आता वे कहते;

“”बच्चे सुन्दर हों या न हों, उनके हाथ-पैर सलामत अवश्य होने चाहिएं और नॉर्मल होना बहुत ज़रूरी है | आजकल इतने विकलांग बच्चे हो रहे हैं कि सोचकर ही मन घबराने लगता है| ””

शुभ्रा परिवार व दोनों बच्चों के मोह में अपने स्वास्थ्य पर ध्यान ही नहीं दे पाती थी | उसे लगता बेटा जब तक पूरी तरह अपने व्यापार में जम न जाए तब तक उदय, वह और बहू सब मिलकर घर के खर्चे को यदि बहुत दिखावे से नहीं तो आराम से जीवन खींच सकते हैं | हुआ भी कुछ ऐसा ही था, परिवार का सम्मान कभी दांव पर नहीं लगा, एक ओर से कुछ कठिनाई आई भी तो दूसरी ओर से बड़े ही सहज रूप से समस्या का का समाधान भी समक्ष आकर मुस्कुराने लगा| एक और बात बहुत महत्वपूर्ण है और जो अब उदय के नाजे के बाद उसके दिल में बार-बार आई है, जो उसके भीतर को चीरकर रख देती है, वह यह है कि जब अपना पक्ष कमज़ोर होता है तब झुकना ही पड़ता है | उदित के ठीक प्रकार जम न पाने का कारण सर्वोपरि था जो उदय बेटे के परिवार को मंझधार में न छोड़ सके | संभवत:उदित यदि आर्थिक रूप से मजबूत होता तब उदय इस प्रकार का स्वभाव बर्दाश्त न करके, स्वयं उसके परिवार को अलग रहने के लिए कह भी देते | यहाँ भी नियति ही आकर अड़ जाती है, मनुष्य के सोचे न कुछ हुआ है, न होगा ही |

शुभ्रा सदा खुली आँखों से स्वप्न देखती रही, भ्रमजाल में सुनहरे धागे बुनती रही | उसको जाने क्यों पूर्ण विश्वास था कि गर्वी उसे खूब-खूब समझती है | वह गर्वी के अलावा किसी से भी अपनी बात साँझा न करती| जब बीच में कुछ वर्ष के लिए बेटी दीति बंबई चली गई थी तब तो शुभ्र पर और भी अधिक गर्वी का प्रभाव इतना गहरा गया था जैसे ‘काली कांबली पर चढ़े न दूजो रंग ! ’अत:शुभ्रा बेटी से से दूर होती चली गई| एक विश्वास होता है न जो मन पर एक गहरी लकीर सी बना देता है फिर कोई चाहे कुछ भी कहे, वह विश्वास डिगता नहीं है | बस वही विश्वास एक सुदृढ़ टीला, एक मजबूत स्तंभ बनकर शुभ्रा के मस्तिष्क में एक पत्थर की भांति जम गया था गर्वी के प्रति | गर्वी भी अपनी बहुत सी बातें उसके साथ बाँटती थी | हाँ, उसने कभी अपने माता-पिता की कोई कमजोरी उसके साथ नहीं बाँटी थी, कोई भी बच्चा अपने माता-पिता की कमज़ोरी साँझा करने में संकोच ही करता है, माता-पिता आखिर बच्चे के जन्मदाता होते हैं | वह बात अलग थी कि उदय और शुभ्रा गर्वी के परिवार की परिस्थितियों से परिचित थे, साथ ही गर्वी अब उनके परिवार की बहू बनकर उनकी इज्ज़त थी अत:घर में भी गर्वी के परिवार के विषय में कभी कुछ बात नहीं हुई, बातों को व्यर्थ घसीटने का कोई औचित्य था भी नहीं | वैसे भी कौनसा परिवार ऐसा है जिसमें कभी कुछ कमज़ोर क्षणों ने जीवन के किन्हीं आनंददायी क्षणों पर प्रहार न किया हो | मनुष्य जन्म ही लेता है अपने-अपने हिस्से के लेन-देन पूरा करने के लिए, फिर यह कैसे संभव है कि वे लेन-देन केवल सकारात्मक ही हों | वो दोनों होते हैं ---सकारात्मक व नकारात्मक भी, जैसा और जितना जिसका पात्र, वैसा उसका निभाव !

भूत लौट-लौटकर उसके गालों पर थप्पड़ मारकर जाता है, बीते हुए क्षण सबको सिखाते ही तो हैं, उसे भी बहुत कुछ सिखाया है | उदय के जाने के बाद वह और अधिक सीख रही है, हर पल सीख रही है, हर घटना से सीख रही है | ये क्षण मनुष्य के जीवन में आते ही इसलिए हैं कि उसे कुछ सिखाकर जाएं किन्तु कुछ अधिक देरी हो जाती है, समझने में | ऎसी ‘बोनस आयु’ में समय की समझ उसके मस्तिष्क में आकर कुलबुलायी है जब उसे स्वयं पता नहीं वह कितना और किसको समझाकर जा सकती है ? वैसे उसे अपनी इस सोच पर स्वयं ही हँसी आती है ;क्या वह किसीको कुछ सिखाने, समझाने वाली कोई होती है ? अरे! यदि मनुष्य पहले स्वयं सीख ले तो उसका स्वयं का अथवा उससे जुड़े हुओं का भाग्य संवर न जाए ? लेकिन ऐसा होता नहीं है|

शुभ्रा सोचती रहती है ‘आख़िर जन्म लेना क्यों इतना ज़रूरी है ? ’

भीतर का तंबूरा हँसता है ;“तेरे हाथ में है क्या ? ”

ऎसी सब सोच व्यर्थ में ही मनुष्य को और भी कमज़ोर बनाती हैं, मनुष्य को जीना भी आखिरी साँस तक है | यदि अपना जीवन समाप्त करने का प्रयास करे भी और नियति में अभी जीना और सब-कुछ भुगतना ही लिखा हो तो बीच में ही लटककर न रह जाएगी? फिर तो न मरों में, न ही जिन्दों में ! और जब यह बात भीतर उतरने लगी है कि जो भी जन्मे हैं उनको अपना समय पूरा करके ही जाना है तब भी किन्ही कमज़ोर क्षणों में मन में गुबार भरने लगता है और असहजता के बादल मन के आसमान पर न जाने कहाँ कहाँ से उड़ते हुए घनघोर घटाएँ मन को स्याह करने लगती हैं |

प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी काम के लिए प्रेषित किया गया है, उसका कार्य व समय निश्चित करके ही इस धरती पर भेजा गया है, यह हमारे हाथ में कहाँ होता है कि हम जीवन को अपने अनुसार जी सकें | आज उदय के न रहने के पश्चात् जीवन की वास्तविक तस्वीर उसके सम्मुख खुलकर आई है | अभी तक वह न जाने किस भ्रमजाल में रह रही थी कि वह अपने जीवन में सबके लिए बहुत कुछ कर रही थी, देखा जाए तो उसने किया ही क्या था, ठीक ही तो कहती है गर्वी| शुभ्रा को स्वीकारने में संकोच क्यों होना चाहिए ? विवाह के पश्चात बीते वर्षों में गर्वी न जाने कितनी बार शुभ्रा को सुना चुकी थी;

“”तमाचे लगाए होते बेटे के गालों पर तब लाडले की तस्वीर कुछ और ही होती, न जाने कहाँ से लाट साहबों वाला स्वभाव लेकर आए हैं ---“” शुभ्रा ने जब अपनी सखियों से सांझा किया था तब उनमें से एक बोली थी ;

“तुमसे कहा नहीं गया कि बेटे को तमाचे लगाने में तो गलती हो ही गई लेकिन तुम्हें भी तो लगाने थे, तुम्हें तो टोका भी नहीं गया, यह भी तो इतनी बड़ी गलती हुई है, यह दिखाई नहीं देती? ”

शुभ्रा के पास चुप्पी साधने के अतिरिक्त कोई मार्ग न था, सच ही तो है, चाहती तो वह भी गर्वी को मुहफटा उत्तर दे सकती थी, अगर उसने बेटे को लाटसाहब बना दिया है तो उसे भी तो महारानी बनाया है | उससे वह कब और किस प्रकार एक सास का व्यवहार कर सकी है या ओछे शब्दों में बात कर सकी है ? बल्कि अब तो उसे लगता है कि उसे सच ही अपनी स्वयं की एक साख बनाने की ज़रुरत थी जो वास्तव में उदय चाहते थे किन्तु वह न बना सकी | परिवार तब ही परिवार बनता है जब उसमें सबका आदर, स्नेह, छोटों को प्यार के साथ, समझाने व ज़रुरत पड़ने पर डांट का भी व्यवहार हो | किन्तु ढीले स्वभाव की शुभ्रा प्रत्येक बात को अपने ऊपर ओढ़ लेती जिससे पति उदय और बेटी दीति बहुत असहज हो उठते | शुभ्रा बहुत सी बातें छिपा ही तो जाती, जानती थी यदि वह ये सब बातें उदय से साँझा करेगी तो वे बहुत-बहुत आहत हो जाएँगे, हो सकता था वे अपने स्वभाव के विपरीत भी ऐसा कुछ कर बैठते जो शायद ठीक न होता | एक तो उनकी अनिच्छा से विवाह के लिए ज़ोर देकर शुभ्रा ने अपनी मुसीबत स्वयं मोल ली थी या ऐसा कहें कि यह होना था इसलिए हुआ, वह होने वाले को रोक भी कैसे सकती थी? वह यदि कोशिश भी करती तो उदित की बुरी बनने के अतिरिक्त कुछ उसकी झोली में न पड़ता | वह अच्छी तरह जानती थी कि यदि वह उदित का पक्ष न भी लेती या चुप्पी लगा जाती तब भी ‘आदमी किसीसे नहीं अपने बच्चों से हारा’कहने वाले उदित उस विवाह की स्वीकृति देर-सबेर दे ही देते | इसलिए अब सब कुछ हो जाने के बाद शुभ्रा में उन्हें ये सब बातें बताकर मानसिक कष्ट में डालने का साहस उसमें नहीं था | बेशक कोई उसे कमजोर कह ले अथवा बेचारा, उसे मंजूर था |

गर्वी को किसीकी टोका-टाकी पसंद नहीं थी तो उदित कौनसा कम था, दोनों अपने मन-मुताबिक चलने वाले| कब क्या, कहाँ जाने-आने की योजना बन जाए कुछ पता नहीं | उदय ने शुरू से ही बच्चों को आदत डाल रखी थी कि वे जहाँ कहीं भी जाएं सूचित अवश्य करते रहें | यदि वे लोग सूचित नहीं करते थे तो उदय स्वयं फ़ोन न करके शुभ्रा को टहोके मारते, उन्हें गई रात नींद नहीं आती, करवटें बदलते रहते | शुभ्रा को तो आदत ही पड़ गई थी कि जब तक परिवार के सब सदस्य घर में न आ जाएं तब तक नींद उससे कोसों दूर रहती, उदय भी करवटें बदलते रहते | शुभ्रा देखती कि उदय की झपकी लग गई है, चुपके से दरवाज़ा खोलकर गेट पर खड़ी हो जाती, जैसे उसके गेट पर खड़े होने से बाहर से बच्चे जल्दी लौट आएँगे | पूरी ज़िन्दगी उसने करवटें बदल-बदलकर काटी थी | उदय शुरू से ही देर रात घर में आता, उदय भुनभुन करते किन्तु कभी उसे न जाने क्यों कुछ कह न पाए थे | माँ की आवाज़ तो नक्कारखाने में तूती की आवाज़ होती थी, उसके कहने–सुनने से तो किसीको क्या फ़र्क पड़ता| आज वह देख पा रही है गर्वी का अपने बच्चों पर प्रभाव ! वह शत-शत नमन करती है उसे मन ही मन, क्या आदर्श दे रही है वह बच्चियों को ! एक बार दीति के समझाने पर कि जो हुआ अब उसे भूलकर नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करे, गर्वी ने छूटते ही उत्तर दिया था कि वह अपनी बच्चियों को यह नहीं सिखाना चाहती कि उनके पति अथवा ससुराल में उनसे ऐसा व्यवहार किया जाए | वह उन्हें सुदृढ़ बनाना चाहती है कि उन पर कोई अपना हुकुम न चला सके | क्या गर्वी यह बात समझती है कि जो वह कर रही है, उसका प्रभाव बच्चों पर क्या पड़ेगा? क्या वे इसी भाषा में अपने बड़ों से बात करके वे आदर और स्नेह प्राप्त कर सकती हैं जो आज तक गर्वी को मिला था ? अब यदि वह इस बात को स्वीकार न करे तो वह उसका मन और उसकी इच्छा थी |

जिंदगी की ज़ुबान हर पल ही कुछ न कुछ सिखलाती है किन्तु हम सीख कहाँ पाते हैं ? एक भाग दौड़ सी लगी रहती है, फिर थकना शुरू हो जाता है | कौन झाँक पाता है उस कल्पनातीत भविष्य की झोली में ! क्या भरा है उसमें किसको पता चलता है ? कभी समतल, कभी ऊबड़-खाबड़ होती हुई ज़िंदगी की नदिया की लहर उठती-बैठती रहती हैं | एक चिरन्तन सत्य है ज़िंदगी का होना, आना-जाना, हवा में उड़ना, झुकना, बैठना, लहराना --- पुन: इसी क्रम में पांच तत्वों में विलीन हो जाना | क्या, है क्या ज़िंदगी ? आज पूरी ज़िंदगी को सोचते हुए उसकी आँखों में आँसुओं की लड़ी अविरल बहती, बिना किसी रोक-टोक के ! क्योंकि ज़िंदगी की वास्तविकता अब, इस उम्र में उसके समक्ष आई है जो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी | तब संभवत: ज़िंदगी का रूप बदलने में वह कुछ कामयाब हो पाती ! या शायद न भी हो पाती क्योंकि यह तो वह अपने बुज़ुर्गों से सदा ही सुनती आई थी ;’होनी को भला कौन टाल सकता है ? ’

अपने स्वास्थ्य के प्रति बेहद ईमानदार उदय बेशक डायबिटीज़ के होते कुछ न कुछ मिठाई की मांग करते रहे, बहुधा छिप-छिपकर भी खाते रहे, पर रहे ईमानदार अपने परिवार व स्वयं के प्रति | वास्तविकता तो यह है यदि मनुष्य अपने प्रति ईमानदार होता है तो दूसरों के प्रति भी ईमानदार होता है | पहली शर्त है स्वयं से ईमानदारी की जो हम समझ ही नहीं पाते | उदय अपने स्वास्थ्य के साथ सबका ही ध्यान रखते, विशेषकर अपनी पत्नी शुभ्रा का जिसको वे जानते थे कि वह भीतर ही भीतर घुलती रहती है | ऊपर से हर पल मुस्कुराती रहने वाली शुभ्रा अपने स्वभाव के कारण किसीको कुछ कह तो न पाती किन्तु ज़रा सी बात होते ही चिंता उसकी आँखों में, चेहरे पर पसरकर चुगली खा जाती | वास्तविकता तो यह थी कि वे अपनी पत्नी के कारण ही कुछ न बोलते अन्यथा उन्होंने अपने बेटे के परिवार को कबका सीधा कर दिया होता | ऊपर से दो बेटियों के मोह ने उन्हें शिथिल बना दिया था, वे बहुत कुछ देखकर भी मन मारकर रह जाते | अपनी तीसरी पीढ़ी के प्रति वे बेहद-बेहद संवेदनशील थे, उनके लिए ‘मूल से अधिक ब्याज प्यारा’की बात अक्षरश: सही उतरती थी | वैसे तो यह सत्य है ही कि अपने बच्चों से अधिक बच्चों के बच्चे लुभाते हैं, अधिक संवेदनशील बना देते हैं वे | उस पर बेटियाँ ! उदय को उनमें अपनी बिटिया दीति नजर आती, वे बच्चों के नाम पर बेहद कमज़ोर हो जाते थे | जब दीति कभी-कभार बंबई से आती, उदय की आँखों में लाड़ के गुलमुहर खिल उठते | उनका पूरा बगीचा नाचने लगता | चारों बच्चे इतने घुल-मिल जाते कि उदय का मन-मयूर नाच उठता | दीति की एक बेटी और उदित की दो बेटियों के बीच दीति का बेटा कान्हा बना घूमता रहता, था भी वह सबसे छोटा और चंचल ! आम के मौसम में डाइनिंग-टेबल पर बैठकर आम खाए जा रहे हैं, गुठलियाँ मुह-हाथ पर मली जा रही हैं | सबके कपड़े उतारकर मेज़ पर बैठा दिया जाता था और बीच में आम रख दिए जाते, फिर वे चारों जैसी चाहे मस्ती करें| बस, उनके गिरने का ध्यान रखा जाना आवश्यक था, सो कोई न कोई उनका पहरेदार बना खड़ा रहता | वैसे अधिक तो आ भी नहीं पाती थी दीति, कभी इधर से भी सब लोग चले जाते | किन्तु उदय हर दूसरे-तीसरे माह बेटी से मिलने को तैयार रहते | जो अटैची वे ले जाते थे, वह पूरी तरह कभी खाली नहीं करते थे, पता भी न चलता कब अपनी टिकिट बुक करा लेते | दो-चार दिन पहले चुपके से बताते, जानते थे शुभ्रा तो घर छोड़कर जाने वाली नहीं है पर उनका उखड़ा हुआ मन जब तक बिटिया से बात न कर लेते तब तक सहज न होता, वे बिटिया से अपने सुख-दुःख की ढेरों बात करते और अपने न रहने पर शुभ्रा के लिए अपनी चिंता व्यक्त करते| बाद में तो दीति यहीं आ गई थी, गर्वी बहुत खुश नहीं हो पाई थी और आश्चर्य की बात यह थी कि शुभ्रा भी बहू के रंग में रंग गई थी जिससे दीति को बेहद अफ़सोस होता कि उसकी माँ होकर कैसे शुभ्रा हर समय केवल अपनी बहू के गुणगान करती रहती है ? दीति की माँ तो जैसे अपनी बेटी को भूल ही गई थी |

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