शेरू Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शेरू

शेरू

चीड़ और देवदार के ना-हमवार तख़्तों का बना हुआ एक छोटा सा मकान था जिसे चोबी झोंपड़ा कहना बजा है। दो मंज़िलें थीं। नीचे भटियार ख़ाना था जहां खाना पकाया और खाया जाता था। और बालाई मंज़िल मुसाफ़िरों की रिहायश के लिए मख़सूस थी। ये मंज़िल दो कमरों पर मुश्तमिल थी। इन में से एक काफ़ी कुशादा था। जिस का दरवाज़ा सड़क की दूसरी तरफ़ खुलता था। दूसरा कमरा जो तूल-ओ-अर्ज़ में उस से निस्फ़ था भटियार ख़ाने के ऐन ऊपर वाक़्य था। ये मैंने कुछ अर्से के लिए किराया पर ले रखा था। चूँकि साथ वाले हलवाई के मकान की साख़्त भी बिलकुल इसी मकान जैसी थी और इन दोनों जगहों के लिए एक ही सीढ़ी बनाई गई थी। इस लिए अक्सर औक़ात हलवाई की कुतिया अपने घर जाने के बजाय मेरे कमरे में चली आती थी।

इस इमारत के तख़्तों को आपस में बहुत ही भोंडे तरीक़े से जोड़ा गया था। पेच बहुत कम इस्तिमाल किए गए थे। शायद इस लिए कि उन को लकड़ी में दाख़िल करने में वक़्त सर्फ़ होता है, कीलें कुछ इस बे-रब्ती से ठोंकी गई थीं कि मालूम होता था इस मकान को बनाने वाला बिलकुल अनाड़ी था। कीलों के दरमयान फ़ासिला की यकसानी का कोई लिहाज़ ना रखा गया था। जहां हाथ ठहर गया वहीं पर कील एक ही ज़र्ब में चित्त करदी गई थी। ये भी न देखा गया था कि लकड़ी फट रही है या कील ही बिलकुल टेढ़ी होगई है।

छत टीन से पाटी हुई थी, जिस की क़ैंची में चिड़ियों ने घोंसले बना रखे थे। कमरे के बाक़ी तख़्तों की तरह छत की कड़ियां भी रंग और रोगन से बेनयाज़ थीं अलबत्ता उन पर कहीं कहीं चिड़ियों की सफ़ैद बैटें सफेदी के छींटों के मानिंद नज़र आती थीं। मेरे कमरे में तीन खिड़कियां थीं। दरमयानी खिड़की की तूल-ओ-अर्ज़ में दरवाज़े के बराबर थी। बाक़ी दो खिड़कियां छोटी थीं उन के किवाड़ों को देख कर मालूम होता था कि मालिक मकान का कभी इरादा था कि इन में शीशे जड़ाए, पर अब उन के बजाय टीन के टुकड़े और लकड़ी के मोटे मोटे ना-हमवार टुकड़े जुड़े थे। कहीं कहीं लंदन टाईम्स और टरीबीवन अख़बार के टुकड़े भी लगे हूए थे। जिन का रंग धोएँ और बारिश की वजह से ख़स्ता बिस्कुटों की तरह भोसला होगया था। ये खिड़कियां जिनकी की कुंडियां टूटी हुईं थीं। बाज़ार की तरफ़ खुलती थीं और हमेशा खुली रहती थीं। इस लिए कि उन को बंद करने के लिए काफ़ी वक़्त और मेहनत की ज़रूरत थी।

खिड़कियों में से दूर नज़र डालने पर पहाड़ीयों के बीचों बीच टेढ़ी बंगी मांग की तरह किश्तवाड़ और भद्रवा जाने वाली सड़क बलखाती हूई चली गई और आख़िर में आसमान की नीलाहट में घुल मिल गई थी।

कमरे का फ़र्श ख़ालिस मिट्टी का था जो कपड़ों को चिमट जाती थी और धोबी की कोशिशों के बावजूद अपना गेरवा रंग न छोड़ती थी। फ़र्श पर पान की पीक के दाग़ जा-ब-जा बिखरे हुए थे। कहीं कहीं कोनों में चिचोड़ी हुई हड्डियां भी पड़ी रहती थीं जो हर रोज़ झाड़ू से किसी न किसी तरह बचाओ हासिल कर लेती थीं।

इस कमरे के एक कोने में मेरी चारपाई बिछी थी जो ब-यक-वक़्त मेज़, कुर्सी और बिस्तर का काम देती थी। इस के साथ वाली दीवार पर चंद कीलें टंगी हुई थीं उन पर मैंने अपने कपड़े वग़ैरा लटका दिए थे। दिन में पाँच छः मर्तबा में उन को लटकाता रहता था इस लिए कि हवा की तेज़ी से ये अक्सर गिरते रहते थे।

कश्मीर जाने या वहां से आने वाले कई मुसाफ़िर इस कमरे में ठहरे होंगे। बाअज़ ने आते जाते वक़्त तख़्तों पर चाक की डली या पैंसिल से कुछ निशानी के तौर पर लिख दिया था। सामने खिड़की के साथ वाले तख़्ते पर किसी साहब ने याददाश्त के तौर पर पैंसिल से ये इबारत लिखी हुई थी 4/5/25-ई- से दूध शुरू किया और एक रुपया पेशगी दिया गया।

इस तरह एक और तख़्ते पर ये मुंदरज था:।

धोबी को कल पंद्रह कपड़े दिए गए थे जिन में से वो दो कम लाया।

मेरे सिरहाने के क़रीब एक तख़्ते पर ये शेअर लिखा था।

दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं

ख़ुश रहो अह्ले वतन हम तो सफ़र करते हैं

इस के नीचे अलीम पिंट्र लिखा था। ज़ाहिर है कि ये नवीसंदा का नाम होगा। यही शेअर कमरे के एक और तख़्ते पर लिखा था। मगर ज़र्द चाक से उस के ऊपर तारीख़ भी लिख दी गई थी। एक और तख़्ते पर ये शेअर मर्क़ूम था

मेरे घर आए इनायत आप ने मुझ पर ये की

मेरे सर आँखों पर आओ, थी ये कब क़िस्मत मेरी

इस से दूर एक कोने में ये मिसरा लिखा था।

एक ही शब गोर है लेकिन गुलों में हम रहे

इस मिसरे के पास ही इसी ख़त में पंजाबी के ये शेअर मर्क़ूम थे

तेरे बाहजा ना आसी क़रार दिल नों, जज़्बा प्रेम वाला बेपनाह रहेगा

लिख अखयां तो होसें दूर बानो ए पर दलां नों दलानदारा रहेगा

तेरे मेरे प्यार दा रब जाने, मग्गोना ले दानीर गवाह रहेगा

तर्जुमा: तेरे बगै़र मेरे दिल को कभी क़रार नहीं आएगा। जज़्बा-ए-मोहब्बत बेपनाह रहेगा तू लाख मेरी आँखों से दूर हो लेकिन दिल को दिल की राह रहेगी। तेरे और मेरे प्रेम को सिर्फ़ ख़ुदा जानता है। लेकिन “मगो-नाला” का पानी भी इसका गवाह रहेगा।

मैंने इस अशआर को ग़ौर से पढ़ा। एक बार नहीं कई बार पढ़ा, न मालूम इन में क्या जज़्बियत थी कि पढ़ते पढ़ते मैंने हीर की दिलनवाज़ धुन में उन्हें गाना शुरू कर दिया। लफ़्ज़ों का रूखापन यूं बिलकुल दूर हो गया और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि लफ़्ज़ पिघल कर इस धुन में हल होगए हैं।

ये शेअर किसी ख़ास वाक़िया के तास्सुरात थे। मगो-नाला होटल से एक मील के फ़ासिला पर शहतूतों और अखरोट के दरख़्तों के बीचों बीच बहता था। मैं यहां कई बार हो आया था। उस के ठंडे पानी में गोते लगा चुका था। उस के नन्हे नन्हे पत्थरों से घंटों खेल चुका था लेकिन ये बानो कौन थी?........ ये बानो जिस का नाम कश्मीर के बगो गोशे की याद ताज़ा करता था।

मैंने उस बानो को इस पहाड़ी गांव में हर जगह तलाश किया मगर नाकाम रहा। अगर शायर ने उस की कोई निशानी बता दी होती तो बहुत मुम्किन है मगो-नाले ही के पास उसकी और मेरी मुडभेड़ हो जाती। उस मगो-नाले के पास जिस का पानी मेरे बदन में झुरझुरी पैदा करदेता था।

मैंने हर जगह बानो को ढ़ूंडा मगर वो न मिली। इस मौहूम जुस्तजू में अक्सर औक़ात मुझे अपनी बेवक़ूफ़ी पर बहुत हंसी आई, क्योंकि बहुत मुम्किन था कि वो अशआर सिरे ही से मोहमल हों और किसी नौजवान शायर ने अपना मन पर्चाने के लिए घड़ दिए हूँ मगर ख़ुदा मालूम क्यों मुझे इस बात का दिली यक़ीन था कि बानो........ वो बानो जो आँखों से दूर होने पर भी इस शायर के दिल में मौजूद है ज़रूर इस पहाड़ी गांव में सांस ले रही है। सच्च पूछे तो मेरा यक़ीन इस हद तक बढ़ चुका था कि बाअज़ औक़ात मुझे फ़िज़ा में उस का तनफ़्फ़ुस घुला हुआ महसूस होता था।

मगो-नाले के पत्थरों पर बैठ कर मैंने उस का इंतिज़ार किया कि शायद वो इधर आ निकले और मैं उसे पहचान जाऊं लेकिन वो ना आई। कई लड़कियां ख़ूबसूरत और बद-सूरत मेरी नज़रों से गुज़रीं मगर मुझे बानो दिखाई न दी। मगो-नाले के साथ साथ उगे हुए नाशपाती के दरख़्तों की ठंडी ठंडी छाओं, अखरोट के घने दरख़्तों में परिन्दों की नग़मा रेज़ियां और गीली ज़मीन पर सब्ज़ और रेशमीं घास, मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर एक ख़ुश-गवार थकान पैदा करदेती थी और मैं बानो के हसीन तसव्वुर में खो जाता था।

एक रोज़ शाम को मगो-नाले के एक चौड़े चकले पत्थर पर लेटा था ख़ुनुक हवा जंगली बूटियों की सोंधी सोंधी ख़ुश्बू में बसी हुई चल रही थी। फ़िज़ा का हर ज़र्रा एक अज़ीमुश्शान और नाक़ाबिल-ए-बयान मोहब्बत में डूबा हुआ मालूम होता था। आसमान पर उड़ती हुई अबाबीलें ज़मीन पर रहने वालों को गोया ये पैग़ाम दे रही थीं। उठो, तुम भी इन बुलंदियों में परवाज़ करो।

मैं नेचर उन की सह्र कारीयों का लेटे लेटे तमाशा कर रहा था कि मुझे अपने पीछे ख़ुश्क टहनियों के टूटने की आवाज़ आई। मैंने लेटे ही लेटे मुड़ कर देखा। झाड़ियों के पीछे कोई बैठा ख़ुश्क टहनियां तोड़ रहा था। मैं उठ खड़ा हुआ, और स्लीपर पहन कर इस तरफ़ रवाना होगया कि देखूं कौन है।

एक लड़की थी जो ख़ुश्क लकड़ियों का एक गट्ठा बना कर बांध रही थी और साथ ही साथ भद्दी और कुन सिरी आवाज़ में “माहीआ” गा रही थी। मेरे जी में आई कि आगे बढूँ और उस के मुँह पर हाथ रख के कहूं “कि ख़ुदा के लिए ना गाव........ लकड़ियों का गट्ठा उठाओ और जाओ मुझे अज़ियत पहुंच रही है।” लेकिन मुझे ये कहने की ज़रूरत न हुई, क्योंकि उस ने ख़ुदबख़ुद गाना बंद कर दिया।

गट्ठा उठाने की ख़ातिर जब वो मुड़ी तो मैंने उसे देखा और पहचान लिया ये वही लड़की थी जो भटियार ख़ाने के लिए हर रोज़ शाम को ईंधन लाया करती थी। मामूली शक्ल-ओ-सूरत थी। हाथ पांव बेहद ग़लीज़ थे। सर के बालों में भी काफ़ी मैल जम रहा था।

उस ने मेरी तरफ़ देखा और देख कर अपने काम में मशग़ूल होगई। मैं जब उठ कर देखने आया था तो दिल में आई कि चलो उस से कुछ बातें ही करलें। चुनांचे मैंने उस से कहा “ये ईंधन जो तुम ने इकट्ठा किया है! इसका तुम्हें जम्मा क्या देगा”

जम्मा इस भटियार ख़ाने के मालिक का नाम था।

उस ने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर जवाब दिया। “एक आना”

“सिर्फ़ एक आना।”

“कभी कभी पाँच पैसे भी दे देता है।”

“तो सारा दिन मेहनत करके तुम एक आना या पाँच पैसे कमाती हो।”

इस ने गट्ठे की ख़ुश्क लकड़ियों को दरुस्त करते हुए कहा। “नहीं, दिन में ऐसे दो गट्ठे तैय्यार हो जाते हैं।”

“तो दो आने होगए।”

“काफ़ी हैं”

“तुम्हारी उम्र क्या है?”

इस ने अपनी मोटी मोटी आँखों से मुझे घूरकर देखा। “तुम वही होना जो भटियार ख़ाने के ऊपर रहते हो।”

मैंने जवाब दिया, “हाँ वही हूँ। तुम मुझे कई बार वहां देख चुकी हो।”

“ये तुम ने कैसे जाना।”

“इस लिए कि मैंने तुम्हें कई बार देखा है।”

“देखा होगा।”

ये कह वो ज़मीन पर बैठ कर गट्ठा उठाने लगी। मैं आगे बढ़ा। “ठहरो मैं उठवा देता हूँ।” गट्ठा उठवाते हूए लकड़ी का एक नोकीला टुकड़ा इस ज़ोर से मेरी उंगली में चुभा कि मैंने दोनों हाथ हटा लिए। वो सर पर रस्सी को अटका कर गट्ठे को क़रीब क़रीब उठा चुकी थी। मेरे हाथ हटाने से इस का तवाज़ुन क़ायम न रहा और वो लड़खड़ाई। मैंने फ़ौरन उसे थाम लिया। ऐसा करते हुए मेरा हाथ उस की कमर से लेकर उठे हुए बाज़ू की बग़ल तक घसीटता चला गया वो तड़प कर एक तरफ़ हिट गई। सर पर रस्सी को अच्छी तरह जमाने के बाद उस ने मेरी तरफ़ कुछ अजीब नज़रों से देखा और चली गई।

मेरी उंगली से ख़ून जारी था। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर..... इस पर बांधा और मगो-नाले की तरफ़ रवाना होगा। इस पत्थर पर बैठ कर मैंने अपनी ज़ख़मी उंगली को पानी से धो कर साफ़ किया और उस पर रूमाल बांध कर सोचने लगा। ये भी अच्छी रही बैठे बिठाए अपनी उंगली लहूलुहान करली........ ख़ुद ही उठा लेती मैंने भला ये तकल्लुफ़ क्यों किया।

यहां से मैं अपने होटल, माफ़ कीजीएगा। भटियार ख़ाने पहुंचा और खाना वाना खा कर अपने कमरे में चला गया। देर तक खाना हज़म करने की ग़रज़ से कमरे में में इधर उधर टहलता रहा। फिर कुछ देर तक लालटैन की अंधी रोशनी में एक वाहीयात किताब पढ़ता रहा। सच पूछिए तो इर्दगिर्द हर शैय वाहीयात थी। लाल मिट्टी जो कपड़े के साथ एक दफ़ा लगती थी तो धोबी के पास जा कर भी अलग न होती थी और वो आपस में निहायत ही भोंडे तरीक़े पर जोड़े हुए तख़्ते और उन पर लिखे हुए ग़लत अशआर और चचोड़ी हुई हड्डियां जो हर रोज़ झाड़ू की ज़द से किसी न किसी तरह बच कर मेरी चारपाई के पास नज़र आती थीं।

किताब एक तरफ़ रख कर मैंने लालटैन की तरफ़ देखा। मुझे इस में और उस लकड़ियां चुनने वाली में एक गौना मुमासिलत नज़र आई। क्योंकि लालटैन की चिमनी की तरह उस लड़की का लिबास भी बेहद ग़लीज़ था। मुझे उस को बुझाने की ज़रूरत महसूस ना हुई क्योंकि मैंने सोचा, थोड़ी ही देर में धोईं की वजह से ये इस क़दर अंधी हो जाएगी कि ख़ुदबख़ुद अंधेरा हो जाएगा।

खिड़कियां ख़ुदबख़ुद बंद होगई थीं। मैंने उन को भी न खोला और चारपाई पर लेट गया। रात के नौ या दस बज चुके थे। सोने ही वाला था कि बाज़ार में एक कुत्ता ज़ोर से भोंका जैसे उस की पिसली में यका यकी दर्द उठ खड़ा हुआ है मैंने दिल ही दिल में उस पर लानतें भेजीं और करवट बदल कर लेट गया मगर फ़ौरन ही नज़दीक ओ दूर से कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आने लगीं एक अजीब-ओ-ग़रीब सबतक क़ायम होगया। अगर कोई कुत्ता एक सुर छेड़ता तो सबतक के सारे सुर फ़िज़ा में गूंजने लगे। मेरी नींद हराम होगई।

देर तक मैंने सब्र किया। लेकिन मुझ से न रहा गया तो मैं उठा दूसरे कमरे में गया और उस का दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गया। नीचे बाज़ार में उतरा और जो पत्थर मेरे हाथ में आया मारना शुरू कर दिया। एक दो पत्थर कुत्तों के लगे क्योंकि निहायत ही मकरूह आवाज़ें बुलंद हुईं मैंने इस कामयाबी पर और ज़्यादा पत्थर फेंकने शुरू किए। दफ़ातन किसी इंसान के उफ़ करने की आवाज़ सुनाई दी। मेरा हाथ वहीं पत्थर बन गया।

आवाज़ किसी औरत की थी। सड़क के दाएं हाथ ढलवान थी, उधर तेज़ क़दमी से गया तो मैंने देखा कि नीचे एक लड़की दोहरी हो कर कराह रही थी। मेरे क़दमों की चाप सुन कर वो खड़ी होगई........ बदली के पीछे छिपे हूए चांद की धुनदली रोशनी में मुझे अपने सामने वही ईंधन चुनने वाली लड़की नज़र आई। इस के माथे से ख़ून निकल रहा था। मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि मेरी ग़फ़लत के बाइस उसे इतनी तकलीफ़ हुई। चुनांचे मैंने उसे कहा। “मुझे माफ़ करदेना........ लेकिन तुम यहां क्या कर रही थीं?”

उस ने जवाब दिया। “मैं ऊपर चढ़ रही थी।”

“रात को इस वक़्त तुम्हें क्या काम था।”

उस ने कुरते की आसतीन से माथे का ख़ून साफ़ किया और कहा “अपने कुत्ते शेरू को ढूंढ रही थी।”

बेइख़्तयार मुझे हंसी आगई। “और मैं तमाम कुत्तों का ख़ून कर देने का तहय्या करके घर से निकला था।”

वो भी हंस दी।

“कहाँ है तुम्हारा शेरू?”

“अल्लाह जाने कहाँ गया है। यूं ही सारा दिन मारा मारा फिरता है।”

“तो अब कैसे तलाश करोगी।”

“यहीं सड़क पर मिल जाएगा कहीं।”

“मैं भी तुम्हारे साथ उसे तलाश करूं?”

नींद मेरी आँखों से बिलकुल उड़ चुकी थी इस लिए मैंने कहा कि चलो कुछ देर शगल रहेगा। लेकिन उस ने सर हिला कर कहा। “नहीं मैं उसे आप ही ढूंढ लूँगी। मुझे मालूम है वो कहाँ होगा।”

“अभी अभी तो तुम कह रही थीं कि तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं।”

“मेरा ख़याल है कि तुम्हारे मकान के पिछवाड़े होगा।”

“तो चलो मुझे भी उधर ही जाना है क्यों कि मैं पिछला दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला था।”

हम दोनों भटियार ख़ाने के पिछवाड़े की जानिब से रवाना हुए। ठंडी ठंडी हुआ चल रही थी जो कभी कभी बदन पर ख़ुशगवार कपकपी तारी करदेती थी। चांद अभी तक बादल के पीछे छुपा हुआ था। रोशनी थी मगर बहुत ही धुनदली जो रात की ख़ुनकी में बड़ी पुर-इसरार मालूम होती थी जी चाहता था कि आदमी कम्बल ओढ़ के लेट जाये और ऊटपटांग बातें सोचे।

सड़क तय करके हम ओपर चढ़े और भटियार ख़ाने के अक़ब में पहुंच गए। वो मेरे आगे थी। एक दम वो ठटकी और मुँह फेर कर अजीब-ओ-ग़रीब लहजे में उस ने कहा। “दूर दफ़ान होना मुराद!”

एक मोटा ताज़ा कुत्ता नमूदार हुआ और अपने साथ हलवाई की कुतिया को घसीटता हुआ हमारे पास से गुज़र गया।

दरवाज़ा खुला था मैं उसे अंदर अपने कमरे में ले गया।

लालटैन की चिमनी अभी मुकम्मल तौर पर स्याह नहीं हुई थी, क्यों कि एक कोने से जो इस कालिक से बच गया था थोड़ी थोड़ी रोशनी बाहर निकल रही थी। दो ढाई घंटे के बाद हम बाहर निकले। चांद अब बादल में से निकल आया था। मैंने देखा कि नीचे सड़क पर इस का कुत्ता शेरू बड़े से पत्थर के पास बैठा अपना बदन साफ़ कर रहा था। इस से कुछ दूर हलवाई की कुतिया खड़ी थी।

जब वो जाने लगी तो मैंने इस से पूछा “तुम्हारा नाम क्या है?”

इस ने जवाब दिया। “बानो।”

“बानो!........ ” मैं इस से ज़्यादा कुछ ना कह सका।

अब उस ने पूछा। “तुम्हारा नाम क्या है।”

मैंने जवाब दिया। “शेरू।”