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निक्की

निक्की

तलाक़ लेने के बाद वो बिलकुल नचनत होगई थी। अब वो हर रोज़ की वानिता कुल कुल और मार कटाई नहीं थे। निक्की बड़े आराम-ओ-इत्मिनान से अपना गुज़र औक़ात कर रही थी।

ये तलाक़ पूरे दस बरस के बाद हुई थी। निक्की का शौहर बहुत ज़ालिम था। प्रले दर्जे का निखट्टू् और शराबी कबाबी। भंग चरस की भी लत थी। कई कई दिन भंगड़ ख़ानों में और तकीयों में पड़ा रहता था। एक लड़का हुआ था। वो पैदा होते ही मर गया। बरस के बाद एक लड़की हुई जो ज़िंदा थी और अब नौ बरस की थी।

निक्की से उस के शौहर गाम को अगर कोई दिलचस्पी थी तो सिर्फ़ इतनी कि वो उस को मार पीट सकता था। जी भर के गालियां दे सकता था। तबीयत में आए तो कुछ अर्से के लिए घर से निकाल देता था। इस के इलावा निक्की से उस को और कोई सरोकार नहीं था। मेहनत मज़दूरी की जब थोड़ी सी रक़म निक्की के पास जमा होती थी तो वो उस से ज़बरदस्ती छीन लेता था।

तलाक़ बहुत पहले हो चुकी होती। इस लिए कि मियां बीवी के निबाह की कोई सूरत ही नहीं थी। ये सिर्फ़ गाम की ज़िद थी कि मुआमला इतनी देर लटका रहा इस के इलावा एक बात ये थी कि निक्की के आगे पीछे कोई भी न था। माँ बाप ने उस को डोली में डाल कर गाम के सपुर्द किया और दो महीने के अंदर अंदर राही-ए-मुल्क-ए-बक़ा हुए जैसे उन्हों ने सिर्फ़ इसी ग़रज़ के लिए मौत को रोक रखा था। उन्हें अपनी बेटी को एक लंबी मौत के लिए गाम के हवाले करना था। बहुत दूर के दो एक रिश्तेदार होंगे। मगर निक्की से उन का कोई वास्ता नहीं था। उन्हों ने ख़ुद को और ज़्यादा दूर कर लिया था।

गाम कैसा है, ये निक्की के माँ बाप अच्छी तरह जानते थे। उन की बेटी सारी उम्र रोती रहेगी, ये भी उन को अच्छी तरह मालूम था। मगर उन्हें तो अपनी ज़िंदगी में एक फ़र्ज़ से सुबुकदोश होना था। और ऐसे सुबुकदोश हुए कि सारा बोझ निक्की के नातवां काँधों पर डाल गए।

तलाक़ लेने से निक्की का ये मतलब नहीं था कि किसी शरीफ़ से निकाह करना चाहती थी। दूसरी शादी का उस को कभी ख़्याल तक भी न आया था। तलाक़ होने के बाद वो क्या करेगी, क्या नहीं करेगी, इस के मुतअल्लिक़ भी निक्की ने कभी नहीं सोचा था। असल में वो हर रोज़ की बकबक और झिक झिक से सिर्फ़ एक इत्मिनान का सांस लेना चाहती थी। इस के बाद जो होने वाला था उस को निक्की बखु़शी बर्दाश्त करने के लिए तैय्यार थी।

लड़ाई झगड़े का आग़ाज़ तो पहले रोज़ ही से हो गया था। जब निक्की दूल्हन बन कर गाम के घर गई थी। लेकिन तलाक़ का सवाल उस वक़्त पैदा हुआ था। जब वो गाम के सुधार के लिए दुआएं मांग मांग कर आजिज़ आगई थी और उस के हाथ अपनी या उस की मौत के लिए उठने लगे थे। जब ये हीला भी बेअसर साबित हुआ तो उस ने अपने शौहर की मिन्नतसमाजत शुरू की कि वो इसे बख़्श दे और अलाहिदा करदे, मगर क़ुदरत की सितम ज़रीफ़ी देखिए कि दस बरस के बाद तकीए में एक उधेड़ उम्र की मीरासन से गाम की आँख लड़ी और एक दिन उस के कहने पर उस ने निक्की को तलाक़ दे दी और बेटी पर भी अपना कोई हक़ न जताया। हालाँकि निक्की को इस बात का हमेशा धड़का रहता था कि अगर उस का शौहर तलाक़ पर राज़ी भी होगया तो वो बेटी कभी उस के हवाले नहीं करेगा....... बहरहाल निक्की नचनत होगई। और एक छोटी सी कोठड़ी किराए पर लेकर चेन के दिन गुज़ारने लगी।

उस के दस बरस उदास ख़ामोशी में गुज़रे थे। दिल में हर रोज़ उस के बड़े बड़े तूफ़ान जमा होते थे मगर वो ख़ाविंद के सामने उफ़ तक नहीं कर सकती थी। इस लिए कि उसे बचपन ही से ये तालीम मिली थी कि शौहर के सामने बोलना ऐसा गुनाह है जो कभी बख़्शा ही नहीं जाता। अब वो आज़ाद थी इस लिए वह चाहती थी कि अपने दस बरस की भड़ास किसी न किसी तरह निकाले। चुनांचे हम-साइयों से उस की अक्सर लड़ाई भिड़ाई होने लगी। मामूली तूं तूं में में होती जो गालियों की जंग में तबदील हो जाती। निक्की पहले जिस क़दर ख़ामोश थी। अब उसी क़दर उस की ज़बान चलती थी। मिंटा मिन्टी में वो अपने मद्द-ए-मुक़ाबिल की सातों पीढ़ियां पुन कर रख देती। ऐसी ऐसी गालियां और सठनयां देती कि हरीफ़ के छक्के छूट जाते।

आहिस्ता आहिस्ता सारे मुहल्ले पर निक्की की धाक बैठ गई। यहां कार-ओ-बारी क़िस्म के मर्द रहते थे। जो सुबह सवेरे उठ कर काम पर निकल जाते और रात देर से घर लौटते। सारे दिन में औरतों में जो लड़ाई झगड़ा होता। इस से वो मर्द बिलकुल अलग थलग रहते थे। इन में से शायद किसी को पता भी नहीं था कि निक्की कौन है और मुहल्ले की सारी औरतें इस से क्यों दबती हैं।

चर्ख़ा कात कर, बच्चों के लिए गढ़े गुड़ियायाँ बना कर और इसी तर के छोटे मोटे काम करके वो गुज़र औक़ात के लिए कुछ ना कुछ पैदा कर लेती थी। तलाक़ लिए उसे क़रीब क़रीब एक बरस हो चला था। उस की बेटी भोली अब ग्यारह के लग भग थी और बड़ी सुरअत से जवान होरही थी, निक्की को उस के शादी ब्याह की बहुत फ़िक्र थी। उस के अपने ज़ेवर थे। जो एक एक करके गाम ने चट कर लिए थे। एक सिर्फ़ नाक की कील बाक़ी रह गई थी। वो भी घिस घिसा कर आधी रह गई थी। उसे भोली का पूरा जहेज़ बनाना था और इस के लिए काफ़ी रुपया दरकार था। तालीम थी, वो उस ने अपनी तरफ़ से ठीक दी थी। क़ुरआन ख़त्म करा दिया था। मामूली हर्फ़शनासी करलेती थी। खाना पकाना ख़ूब आता था। घर के दूसरे काम काज भी अच्छी तरह जानती थी। चूँकि निक्की को अपनी ज़िंदगी में बहुत तल्ख़ तजुर्बा हुआ था। इस लिए उस ने भोली को ख़ाविंद का इताअत गुज़ार होने के लिए कभी इशारतन भी नहीं कहा था। वो चाहती थी कि उस की बेटी ससुराल में छड़खट पर बैठी राज करे।

माँ के साथ जो कुछ बीता था इस बिप्ता का सारा हाल भोली को मालूम था मगर हम-साइयों के साथ जब निक्की की लड़ाई होती थी। तो वो पानी पी पी कर उसे कोसती थीं और ये ताना देती थीं कि वो मुतल्लक़ा है जिस को ख़ाविंद ने सिर्फ़ इस लिए अलाहिदा किया था कि उस ग़रीब का नाम में दम कर रखा था। और बहुत सी बातें अपनी माँ के किरदार-ओ-अत्वार के मुतअल्लिक़ उस की समाअत में आती थीं। मगर वो ख़ामोश रहती थी। बड़े बड़े मार्के की लड़ाईयां होतीं मगर वो कान समेटे अपने काम में लगी रहती।

जब सारे मुहल्ले पर निक्की की धाक बैठ गई तो कई औरतों ने मरऊब हो कर उस के पास आना जाना शुरू कर दिया। कई उस की सहेलियां बन गईं। जब उन की अपनी किसी पड़ोसन से लड़ाई होती तो निक्की साथ देती और हर मुम्किन मदद करती। इसके बदले में उस को कभी क़मीज़ के लिए कपड़ा मिल जाता था। कभी फल, कभी मिठाई और कभी कभी कोई भोली के लिए सूट भी सिल्वा देता था। लेकिन जब निक्की ने देखा कि हर दूसरे तीसरे दिन उसे मुहल्ले की किसी न किसी औरत की लड़ाई में शरीक होना पड़ता है और उस के काम काज का हर्ज होता है तो उस ने पहले दबी ज़बान से फिर खुले लफ़्ज़ों में अपना मुआवज़ा माँगना शुरू कर दिया। और आहिस्ता आहिस्ता अपनी फ़ीस भी मुक़र्रर करली। मार्के की जंग हो तो पच्चीस रुपय। दिन ज़्यादा लगें तो चालीस। मामूली चख़ के सिर्फ़ चार रुपय और दो वक़्त का खाना। दरमियाने दर्जे की लड़ाई के पंद्रह रुपय....... किसी की सिफ़ारिश हो तो वो कुछ रियायत भी करदेती थी।

अब चूँकि उस ने दूसरों की तरफ़ से लड़ना अपना पेशा बना लिया था। इस लिए उसे मुहल्ले की तमाम औरतों और उन की बहू बेटीयों के तमाम फ़ज़ीहते याद रखने पड़ते थे। उन का तमाम हसब-ओ-नसब मालूम करके अपनी याददाश्त में महफ़ूज़ करना पड़ता था। मिसाल के तौर पर उस को मालूम था कि ऊंची हवेली वाली सौदागर की बोई जो अपनी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती, एक मोची की बेटी है उस का बाप शहर में लोगों के जूते गांठता फिरता था और उस का ख़ाविंद जो जनाब शेख़ साहब कहलाता है मामूली कसाई था। उसके बाप पर एक रंडी मेहरबान होगई थी। वो उसी के बतन से था और ये ऊंची हवेली उस तवाइफ़ ने अपने यार को बनवा कर दी थी।

किस लड़की का किस के साथ मआशक़ा है। कौन किस के साथ भाग गई थी। कौन कितने हमल गिरा चुकी है। इस का हिसाब सब निक्की को मालूम था। ये तमाम मालूमात हासिल करने में वो काफ़ी मेहनत करती थी। कुछ मसालिहा उस को अपने मुवक्किलों से मिल जाता था। उसे अपनी मालूमात के साथ मिला कर वो ऐसे ऐसे बम बनाती कि मद्द-ए-मुक़ाबिल के छक्के छूट जाते थे। होशयार वकीलों की तरह वो सब से वज़नी ज़र्ब सिर्फ़ उसी वक़्त इस्तिमाल करती थी। जब लोहा पूरी तरह सुर्ख़ होता। चुनांचे ये ज़र्ब सोला आने फ़ैसलाकुन साबित होती थी।

जब वो अपने मुवक्किल के साथ किसी महाज़ पर जाती थी तो घर से पूरी तरह कील कांटे से लैस हो के जाती थी, ताने महिनों और गालियों और सठनियों को मोअस्सिर बनाने के लिए मुख़्तलिफ़ अशीया भी इस्तिमाल करती थी। मिसाल के तौर पर घिसा हुआ जूता। फटी हुई क़मीज़। चिमटा। फुकनी वग़ैरा वग़ैरा। कोई ख़ास तशबीह दीनी हो या कोई ख़ासुलख़ास इशारा या कहना ये मतलूब हो तो वो इस ग़रज़ के लिए कारआमद शय घर ही से लेकर चलती थी।

बाअज़ औक़ात ऐसा भी होता कि आज वो जन्नते के लिए ख़ीरां से लड़ी है। तो दो ढाई महीने के बाद उसी ख़ीरां से डबल फ़ीस लेकर उसे जन्नते से लड़ना पड़ता था। ऐसे मौक़ों पर वो घबराती नहीं थी। उसे अपने फ़न में इस क़दर महारत होगई थी और उस की प्रैक्टिस में वो इतनी मुख़लिस थी कि अगर कोई फ़ीस देता तो वो अपनी भी धज्जियां बिखेर देती।

निक्की अब फ़ारिगुलबाल थी। हर महीने उसे अब इतनी आमदन होने लगी थी कि इस ने पस अंदाज़ करके अपनी बेटी भोली का जहेज़ बनाना शुरू कर दिया था। थोड़े ही अर्से में इतने गहने पाते और कपड़े लत्ते हुए गए थे कि वो किसी भी वक़्त अपनी बेटी को डोली में डाल सकती थी।

अपने मिलने वालियों से वो भोली के लिए कोई अच्छा सा बर तलाश करने की बात कई मर्तबा कर चुकी थी। शुरू शुरू में तो उस को कोई इतनी जल्दी नहीं थी, मगर भोली सोला बरस की होगई। लोठा की लोठा। क़द काठ की चूँकि अच्छी थी। इस लिए चौधवीं बरस ही में पूरी जवान औरत बन गई थी। सत्रहवीं में तो ऐसा लगता था कि वो उस की छोटी बहन है। चुनांचे अब निक्की को दिन रात उस के ब्याह की फ़िक्र सताने लगी।

निक्की ने बड़ी दौड़ धूप की। कोई साफ़ इनकार तो नहीं करता था। मगर दिल से हामी भी नहीं भरता था। उस ने महसूस किया कि हो न हो लोग इस से डरते हैं। उस की ये सिफ़त कि लड़ने के फ़न में अपना जवाब नहीं रखती थी। दरअसल इस के आड़े आरही थी। बाअज़ घरों में तो वो ख़ुद ही सिलसिला जनियानी न करती कि उस की किसी औरत का उस ने कभी नात्क़ा बंद किया था। दिन पर दिन चढ़ते जा रहे थे। और घर में पहाड़ सी जवान बेटी कुंवारी बैठी थी।

निक्की को अपने पेशे से अब घिन आने लगी उस ने सोचा कि ऐसा ज़लील काम क्यों उस ने इख़्तियार किया। मगर वो क्या करती, मुहल्ले में आराम चेन की जगह पैदा करने के लिए उसे पड़ोसनों का मुक़ाबला करना ही था। अगर वो न करती तो उसे दब के रहना पड़ता। पहले ख़ाविंद के जूते खाती थी, फिर उन की पैज़ार की गु़लामी करनी पड़ी। ये अजीब बात थी कि बरसों दबील रहने के बाद जब उस ने अपना झुका हुआ सर उठाया और मुख़ालिफ़ कुव्वतों का मुक़ाबला करके उन को शिकस्त दी, ये कौमें झुक कर उस की इमदाद की तालिब हुईं कि दूसरी कुव्वतों को शिकस्त दें और उस को इस इमदाद पर कुछ इस तरह राग़िब किया गया कि उस को चस्का ही पड़ गया।

इस के मुतअल्लिक़ वो सोचती तो इस का दिल न मानता था। क्यों कि उस ने सिर्फ़ भोली की ख़ातिर इस पेशे को जिसे अब लोग ज़लील समझने लगे थे इख़्तियार किया था। ये भी कम अजीब चीज़ नहीं थी। निक्की को रुपय दे कर किसी औरत पर उंगली रख दी जाती थी। और इस से कहा जाता था कि वो उस की सातों पीढ़ियां पुन डाले....... इस के आबा-ओ-अज्दाद की सारी कमज़ोरियां माज़ी के मलबे से कुरेद कुरेद कर निकाले और उस के वजूद पर छेद करदे। निक्की ये काम बड़ी ईमानदारी से करती वो गालियां जो उन के मुँह में ठीक नहीं बैठी थीं अपने मुँह में बिठाई। उन की बहू बेटियों के उयूब पर पर्दे डाल कर वो दूसरों की बहू बेटियों में कीड़े डालती। ग़लीज़ से ग़लीज़ गालियां अपने उन मुवक्किलों की ख़ातिर ख़ुद भी खाती....... पर अब कि उस की बेटी के ब्याह का सवाल आया था वो कमीनी नीच और रज़ील बन गई थी।

एक दो मर्तबा तो उस के जी में आई कि मुहल्ले की उन तमाम औरतों को जिन्हों ने उस की बेटी को रिश्ता देने से इनकार कर दिया था। बीच चौराहे में जमा करे और ऐसी गालियां दे कि उन के दिल के कानों के पर्दे फट जाएं मगर वो सोचती कि अगर उस ने ये ग़लती करदी तो ग़रीब भोली का मुस्तक़बिल बिलकुल तीरह-ओ-तार हो जाएगा।

जब चारों तरफ़ से मायूसी हुई तो निक्की ने शहर छोड़ने का इरादा कर लिया एक तरफ़ यही रास्ता था। जिस से भोली की शादी का कठिन मरहला तय हो सकता था चुनांचे उस ने एक रोज़ भोली से कहा। “बेटा, मैंने सोचा है कि अब किसी और शहर में जा रहें।”

भोली ने चौंक कर पूछा। “क्यों माँ!”

“बस अब यहां रहने को जी नहीं चाहता।” निक्की ने उस की तरफ़ ममता भरी नज़रों से देखा और कहा। “तेरे ब्याह की फ़िक्र में घुली जा रही हूँ। यहां बैल मंढे नहीं चढ़ेगी। तेरी माँ को सब रज़ील समझते हैं।”

भोली काफ़ी सयानी थी, फ़ौरन निक्की का मतलब समझ गई उस ने सिर्फ़ इतना कहाँ “हाँ माँ!”

निक्की को इन दो लफ़्ज़ों से सख़्त सदमा पहुंचा। बड़े दुखी लहजे में उस ने भोली से सवाल क्या। “क्या तू भी मुझे रज़ील समझती है?”

भोली ने जवाब न दिया और आटा गूँधने में मसरूफ़ होगई।

उस दिन निक्की ने अजीब अजीब बातें सोचीं। उस के सवाल करने पर भोली ख़ामोश क्यों होगई थी। क्या वो उसे वाक़ई रज़ील समझती है क्या वो इतना भी न कह सकती थी कि “नहीं माँ।” क्या ये बाप के ख़ून का असर था? बात में से बात निकल आती और वो बहुत बुरी तरह इन में उलझ जाती। उसे बीते हुए दस बरस याद आते। ब्याही ज़िंदगी के दस बरस जिस का एक एक दिन मार पीटी और गाली ग्लोच से भरा था। फिर वो अपनी नज़रों के सामने मुतल्लक़ा ज़िंदगी के दिन लाती....... इन में भी गालियां ही गालियां थीं जो वो पैसे की ख़ातिर दूसरों को देती रही थी। थक हार कर वो बाअज़ औक़ात कोई सहारा टटोलने लगती और सोचती, क्या ही अच्छा होता कि वो तलाक़ न लेती....... आज बेटी का बोझ गाम के कंधों पर होता। निखट्टू् था। प्रले दर्जे का ज़ालिम था। ऐबी था। मगर बेटी के लिए ज़रूर कुछ न कुछ करता। ये इस के उज्ज़ की इंतिहा थी।

पुरानी मारें, और उन के दबे हुए दर्द अब आहिस्ता आहिस्ता निक्की के जोड़ों में उभरने लगे। पहले उस ने कभी उफ़ तक नहीं की थी। बर अप उठते बैठते हाय हाय करने लगी। इस के कानों में हर वक़्त एक शोर सा बरपा होने लगा। जैसे उन के पर्दों पर वो तमाम गालियां और सठनियां टकरा रही हैं जो अनगिनत लड़ाईयों में उस ने इस्तिमाल की थीं।

उम्र उस की ज़्यादा नहीं थी। चालीस के लग भग थी। मगर अब निक्की को ऐसा महसूस होता था कि वो बूढ़ी होगई है उस की कमर जवाब दे चुकी है उस की ज़बान जो क़ैंची की तरह चलती थी। अब कुन्द होगई है। भोली से घर के काम काज के मुतअल्लिक़ मामूली सी बात करते हुए उस को मशक़्क़त करनी पड़ती थी।

निक्की बीमार पड़ गई और चारपाई के साथ लग गई। शुरू शुरू में तो वो इस बीमारी का मुक़ाबला करती रही। भोली को भी उस ने ख़बर न होने दी कि अंदर ही अंदर कौन सी दीमक उसे चाट रही है। लेकिन एक दम वो ऐसी निढाल हुई कि उस से उठा तक न गया। भोली को बहुत तशवीश हुई। उस ने हकीम को बुलाया। जिस ने नब्ज़ देख कर बताया कि फ़िक्र की कोई बात नहीं, पुराना बुख़ार है। ईलाज से दूर हो जाएगा।

ईलाज बाक़ायदा होता रहा। भोली सआदतमंद बेटियों की तरह माँ की हर मुम्किन ख़िदमत बजा ला रही थी। इस से निक्की के दुखी दिल को काफ़ी तसकीन होती थी। मगर मर्ज़ दूर न हुआ। बुख़ार पहले से तेज़ होगया। और आहिस्ता आहिस्ता निक्की की भूक ग़ायब हो गई। जिस के बाइस वो बहुत ही लागर और नहीफ़ हो गई।

औरतों में एक ख़ुदादाद वस्फ़ होता है कि मरीज़ की शक्ल देख कर ही पहचान लेती हैं कि वो कितने दिन का मेहमान है एक दो औरतें जब बीमार-पुर्सी के लिए निक्की के पास आईं तो उन्हों ने अंदाज़ा लगाया कि वो बमुश्किल दस रोज़ निकालेगी चुनांचे ये बात सारे मुहल्ले को मालूम हो गई।

कोई बीमार हो। मरने के क़रीब हो। तो औरतों के लिए एक अच्छी ख़ासी तफ़रीह का बहाना निकल आता है। घर से बन संवर कर निकलती हैं और मरीज़ के सिरहाने बैठ कर अपने तमाम मरहूम अज़ीज़ों को याद करती हैं उन की बीमारीयों का ज़िक्र होता है वो तमाम ईलाज बयान किए जाते हैं जो लाइलाज साबित हुए थे। गुफ़्तगु का रुख़ पलट कर क़मीज़ों के नए डिज़ाइनों की तरफ़ आजाता है।

निक्की ऐसी बातों से बहुत घबराती थी। लेकिन वो ख़ुद चूँकि मरीज़ों के सिरहाने ऐसी ही बातें करती रही थी इस लिए मजबूरन उसे ये ख़ुराफ़ात सुननी पड़ती थी....... एक रोज़ जब मुहल्ले की बहुत सी औरतें उस के घर में जमा हो गईं तो इस एहसास ने उस को बहुत मुज़्तरिब किया कि अब उस का वक़्त आचुका है इन में से हर एक चेहरे पर ये फ़ैसला मर्क़ूम था कि निक्की के दरवाज़े पर मौत दस्तक दे रही है। जो औरत आती। अपने साथ ये खट खट लाती तंग आकर कई दफ़ा निक्की के जी में आई कि कुंडी खोल दे और दस्तक देने वाले फ़रिश्ते को अंदर बुलाले।

इन बीमार-पुर्स औरतों को सब से बड़ा अफ़सोस भोली का था। निक्की से वो बार बार उस का ज़िक्र करतीं कि हाय इस बेचारी का क्या होगा। दुनिया में ग़रीब की सिर्फ़ एक माँ है। वो भी चली गई तो इस का क्या होगा। फिर वो अल्लाह मियां से दुआ करतीं कि वो निक्की की ज़िंदगी में चंद दिनों का इज़ाफ़ा कर देता कि वो भोली की तरफ़ से मुतमइन होकर मरे।

निक्की को अच्छी तरह मालूम था कि ये दुआ बिलकुल झूटी है। उन्हें भोली का इतना ख़्याल होता तो वो उस के रिश्ते से इनकार क्यों करतीं। साफ़ इनकार नहीं किया था। इस लिए कि ये दुनियादारी के उसूल के ख़िलाफ़ था। मगर किसी ने हामी नहीं भरी थी।

वो छोटा सा कमरा जिस में निक्की चारपाई पर पड़ी थी, बीमार-पुर्स औरतों से भरा हुआ था.......भोली ने उन के बैठने का इंतिज़ाम ऐसा मालूम होता है पहले ही से कर रखा था। पीढ़ियां कम थीं, इस लिए उस ने खजूर के पत्तों की चटाई बिछा दी थी। भोली के इस एहतिमाम-ओ-इंतिज़ाम से निक्की को बड़ा सदमा पहुंचा था गोया वो भी दूसरी औरतों की तरह उस की मौत के इस्तिक़बाल के लिए तैय्यार थी।

बुख़ार तेज़ था, दिमाग़ तपा हुआ था। निक्की ने ऊपर तले बहुत सी तकलीफ़देह बातें सोचीं तो बुख़ार और ज़्यादा तेज़ होगया और उस पर हिज़यानी कैफ़ीयत तारी होगई। जल्दी जल्दी बेजोड़ बातें करने लगी। बीमार-पुर्स औरतों ने मानी ख़ेज़ नज़रों से एक दूसरे की तरफ़ देखा। वो जो उठ कर जाने वाली थीं निक्की का वक़्त क़रीब देख कर बैठ गईं।

निक्की बके जा रही थी। ऐसा मालूम था कि वो किसी से लड़ रही है। “मैं तेरी हश्त पुश्त को अच्छी तरह जानती हूँ....... जो कुछ तू ने मेरे साथ किया है। वो कोई दुश्मन के साथ भी नहीं करता। मैंने अपने ख़ाविंद की दस बरस गु़लामी की। उस ने मार मार कर मेरी खाल उधेड़ दी। पर मैं ने उफ़ तक न की.......अब तू ने....... अब तू ने मुझ पर ये ज़ुल्म शुरू किए हैं....... फिर वो कमरे में जमा शूदा औरतों को फटी फटी नज़रों से देखती। तुम.......तुम यहां क्या करने आई हो.......नहीं नहीं.......मैं किसी फ़ीस पर भी लड़ने के लिए तैय्यार नहीं.......तुम में से हर एक के ऐब वही हैं.......पुराने.......सदीयों के पुराने जो कीड़े.... जो कीड़े फामां में हैं वही तुम सब में हैं.......तुम में से क़रीब क़रीब हर एक का ख़सम रंडी बाज़ है....... जो बुरी बीमारी फातो के ख़ाविंद को लगी है। वही जन्नते के घर वाले को चिम्टी हुई है....... तुम सब कौड़ी हो....... और ये कोढ़ तुम ने मुझे भी दे दिया है.... लानत हो तुम सब पर ख़ुदा की....... ख़ुदा की.......ख़ुदा....... और वो हँसने लगती। मैं उस ख़ुदा को भी जानती हूँ.......उस की हश्त पुश्त को अच्छी तरह जानती हूँ.......ये क्या दुनिया बनाई है तू ने.......ये दुनिया जिस में गाम हैं। जिस में फामां है जो अपने ख़ाविंद को छोड़कर दूसरों के बिस्तर गर्म करती है....... और मुझे फ़ीस देती है....... बीस रुपय गिन कर मेरे हाथ पर रखती है कि मैं नूर फ़िशां के पुराने यारानों का पोल खोलूं....... और फ़िशां मेरे पास आती है कि निक्की ये पाँच ज़्यादा लो और जाओ अमीना से लड़ो। वो मुझे सताती है....... ये क्या चक्कर चलाया हुआ है तू ने अपनी दुनिया में....... मेरे सामने आ....... ज़रा मेरे सामने आ....... ”

आवाज़ निक्की के हलक़ में रुकने लगी। थोड़ी देर के बाद घुंघरु बजने लगा। तशन्नुज से वो पेच-ओ-ताब खा रही थी और हिज़यानी कैफ़ियत में चिल्ला रही थी। “गाम मुझे न मार.......ओ गाम.......और ख़ुदा मुझे न मार.......ओ ख़ुदा.......ओ गाम”

ओ ख़ुदा ओ गाम बड़बड़ाती आख़िर निक्की बीमार-पुर्स औरतों के अंदाज़े के ऐन मुताबिक़ मर गई। भोली जो उन औरतों की ख़ातिरदारी में मसरूफ़ थी। पानी का गिलास हाथ से गिरा कर धड़ा धड़ अपना सर पीटने लगी।

14-15 अक्तूबर1951-ई-

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