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लोभिन - 2

लोभिन

मीना पाठक

(2)

उस दिन भी सुधा रो रही थी कि तभी गेट खटका | उसने जा कर दरवाजा खोला तो देखा उसका जीजा मनोहर खड़ा था | उसने भीतर आने के लिए रास्ता दिया और फिर से दरवाजा बंद कर दिया | मनोहर सब जनता था, माँ काम पर गयी थी | मनोहर को पानी देने के लिए वह उठी | मनोहर ने उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया | सुधा की आँखे रोने के कारण सूज गयीं थीं | मनोहर ने उसकी ठोड़ी के नीचे उँगली रख कर उसका चेहरा ऊपर उठा दिया और उसकी आँखों में झाँकता हुआ स्वर में चाशनी सी मिठास घोल कर बोला -

“क्या हुआ सुधा ? बताओगी नहीं ?”

मनोहर से अपनापन और हमदर्दी पा कर सुधा उसके गले लग कर रो पड़ी | मनोहर उसकी पीठ सहलाता रहा | अब लगभग रोज ही मनोहर आ जाता सुधा को समझाने के लिए | अकेला घर और दोनों का साथ ! धीरे-धीरे उनके बीच नजदीकियां बढ़ती गयीं |

*

शर्मा परिवार का जेवरात का व्यापार था | लक्ष्मी जैसे हाथ-गोड़ धो कर उनके घर बैठ गयी थीं | राजा मिडास की तरह जिस चीज को वो लोग हाथ लगा देते, सोना बन जाता | घर में किसी चीज की कमी नहीं थी अगर कमी थी तो छोटी बहू की | दोनों बड़े बेटों का विवाह हो चुका था, बच्चे भी थे उनके पर तीस-बत्तीस की उम्र में भी छोटे बेटे के विवाह का कोई आसार नहीं दिख रहा था | कारण उसकी बीमारी थी, उसे मिर्गी के दौरे पड़ते थे | जिसके कारण वह कभी स्वस्थ नहीं रहता | ऊपर से मुँह में हर वक्त मसाला भरा रहता | शरीर भरा पूरा हो तो काले रंग के बावजूद भी व्यक्ति आकर्षक लगता है | पर वह हड्डियों का कंकाल मात्र रह गया था | सारा दिन इधर-उधर घूमना और घर आ कर सो जाना, यही उसका काम था | बिल्ली जैसी गोल आँखे गहरे गड्ढे में धँस गयी थीं | दाँत काले और नीचे का होठ लटका हुआ था | कौन उसके साथ अपनी बेटी ब्याह देता ? वो लोग तो उम्मीद छोड़ चुके थे |

अचानक बहन का फोन सुन कर उस दिन सारा परिवार दौड़ता चलता गया और सुधा को पसंद कर शगुन भी दे आया |

*

मनोहर का साथ पा सुधा के चेहरे की रंगत वापस आने लगी थी | ऐसा नहीं था कि मनोहर और सुधा की नजदीकियां उसकी माँ से छुपी थी | बस उसने अपनी आँखे मूँद ली थी | गरीबी के कारण जीवन के बद्तर दिन वह काट चुकी थी, अब अगर ईश्वर उसे अच्छे दिन दिखा रहा था तो वह क्यों छोड़ दे ! वह तो नहीं गयी थी रिश्ता मांगने, रिश्ता खुद चल कर आया था | दुनिया में ना जाने कितने बेमेल रिश्ते होते हैं तो क्या वह निभते नहीं ? हर ब्याह में कहीं ना कहीं कुछ समझौता करना पड़ता है पर ब्याह होते ही सब ठीक हो जाता है | वह खुद को हर तरह से तसल्ली देती है पर यह भी जानती है कि इस ब्याह को ले कर वह कितनी स्वार्थी हो गयी है | अपनी दोनों बेटियों का भविष्य उसने दाँव पर लगा दिया था |

*

शर्मा जी ने एक अच्छे एरिया में छोटा सा घर खरीद कर कुसुम को दे दिया था | इतनी सुन्दर बहू के लिए उन्हें कितनी भी कीमत देनी पड़े वह पीछे हटने वाले नहीं थे | उन्हें निम्न वर्ग से उठा कर मद्ध्यम वर्ग पर ला खड़ा किया ताकि कोई यह ना कह सके कि शर्मा जी ने कहाँ गिर कर ब्याह किया बेटे का | बेटे के ब्याह के साथ-साथ उन्हें अपने स्टेटस का भी ख्याल रखना था | बेटे का घर बस जाय, यही तो हर माता-पिता चाहते हैं |

*

कुसुम को और क्या चाहिए था, बेटी के साथ वह भी सुखी हुई जा रही थी | अब उसे घर-घर जा कर बर्तन नहीं माँजना पड़ेगा | अच्छे कपड़े, अच्छा घर और अच्छा पड़ोस, और क्या चाहिए था उसे ! ब्याह का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा था, सुधा की धड़कनें बढती जा रही थीं | माँ से कहती कि “माँ अब भी मान जा, मैं उससे ब्याह नहीं करुँगी |”

कुसुम हर बार उसे दुनियादारी समझा-बुझा देती | मनोहर से लिपट कर रोती तो वह भी कहता- “क्यूँ परेशान है ? मैं हूँ ना !”

सुधा रो-धो कर रह जाती |

ब्याह का छोटे से बड़ा सभी खर्च शर्मा जी ने उठाया | बड़ी ही धूम-धाम से विवाह हो गया | सुधा बनारसी साड़ी और जेवरों से लदी हुई उस छोटे घर से अपनी ससुराल के बंगले में आ गयी |
हजारों सपने ले कर नयी दुल्हनें अपने ससुराल में गृह-प्रवेश करतीं हैं; पर सुधा ने क्षोभ, विवशता, और डर के साथ गृह प्रवेश किया | सारी रश्में निभाते-निभाते रात हो गयी |

रश्मों के बाद दोनों जेठानियों ने उसे ला कर एक कमरे में पलंग पर बिठा दिया | उसने अपनी नजरें चारो ओर घुमाई, कमरा बड़ी ख़ूबसूरती से तरह-तरह के फूलों से सजाया गया था | खिड़की दरवाजों पर दीवार के रंग का ही भारी पर्दा पड़ा था | फर्श पर महंगा कालीन बिछा था | सुन्दर से पलंग पर बेला और गुलाब के फूलों से सजावट की गयी थी | बेड के सामने की दीवार पर बड़ी सी L. E. D. टीवी लगी हुई थी | पूरा कमरा सुगंध से भरा हुआ था | एक पल के लिए वह अपने भाग्य पर इतराने लगी, ऐसे कमरे में तो उसने अपनी मालकिनों को रहते देखा था, जहाँ वह माँ के साथ काम पर जाया करती थी; पर अब वह स्वयं मालकिन थी इस कमरे की | एक क्षण के लिए उसके चेहरे पर चमक आयी पर अगले ही पल वह मायूस हो गयी |

तभी पर्दा हटा कर उसका डर भीतर आ गया | उसे देख कर वह सिहर उठी | दिल धाड़-धाड़ करने लगा, घूँघट खींच लिया उसने और ऐसे सिकुड़ने लगी जैसे अपनेआप में ही समा जाना चाहती हो | घूंघट के भीतर से ही कनखियों से उसे देखा |

उफ्फ्फ !!

उसके रोंगटे खड़े हो गए, अपनी आँखे मूँद ली उसने | तभी वह आ कर उसके करीब बैठ गया | मसाले की तीव्र गंध सुधा के नथुनों में समा गयी | उसे लगा जैसे वह बेहोश हो जाएगी, उसने दूसरी तरफ मुँह घुमा कर साँस छोड़ी और एक लंबी साँस भर कर मनोहर को याद करने लगी | वह सुधा पर वहशी की तरह झपट पड़ा | उफ्फ़ ! ऐसा लगा जैसे सैकड़ों जोकें उससे लिपट गयी हों और उसकी देह छेद कर उसके भीतर समा जाना चाहती हों | मसाले की दुर्गन्ध से उसका दम घुट रहा था | वह बिलबिला उठी | एक क्षण लगा कि उसे ढकेल कर भाग जाय; पर कुछ नहीं कर सकी |

*

तीसरे दिन ही चौथी का सामान ले कर कुसुम मनोहर के साथ शर्मा जी के बंगले पर पहुँच गयी | कुसुम तो सिर्फ रश्म निभाने आई थी नहीं तो प्रबंध तो सारा शर्मा जी ने ही किया था | जब से इस घर से रिश्ता जुड़ा था उसकी तो किस्मत ही बदल गयी थी | दूसरों के घर के बचे-खुचे खाने पर दिन गुजारने वाली कुसुम अब शर्मा परिवार की बदौलत खुदमुख्तार थी | जैसे ही कुसुम बेटी के कमरे में पहुंची, सुधा माँ के गले लग कर रो पड़ी |

“माँ ! ये किस नर्क में धकेल दिया तूने मुझे ? उसके साथ में अपना पूरा जीवन कैसे गुजारुंगी ?”

“चुप कर लड़की..अगर किसी ने सुन लिया तो गज़ब हो जाएगा..जीवन रबड़ी का दोना नहीं..जो स्वाद ले-ले कर तू चाटती रहे..क्या खराबी है उसमे ?..लंगड़ा-लूला है या काना-कुतरा है ?..अरे ! अब तू ध्यान दे उसका और सुन..अब यही तेरा घर है और यही तेरी जिंदगी..जब तू दो साल की थी तभी तेरा बाप मुझे छोड़ गया था..मैंने कैसे-कैसे दिन देखे हैं..मैं ही जानती हूँ...तू क्या चाहती थी ?..उसी नर्क में मैं तुझे भी धकेल देती ?” कुसुम उसे झकझोरती हुई कहती चली गयी |

तभी एक नौकरानी ने आ कर बताया कि उसे नीचे बुलाया जा रहा है | कुसुम उसके पीछे कमरे से बाहर आ गयी | मनोहर सोफे पर बैठा चुपचाप दोनों को देख रहा था | उसके जाते ही वह मनोहर से लिपट गयी | खुले हुए काले रेशमी केश, बियहुती पियरी, पाँवो में आलता और भारी पाजेब, कलाई भरी लाल चूड़ियों के साथ सोने के मोटे-मोटे कड़े, गले में हार व काले मोतियों का मंगलसूत्र, नाक में बड़ी सी नथ, मांग टीका में वह दमक रही थी | उसके बालों से आती हुई महंगे शैम्पू की खुशबू मनोहर को मदहोश किये दे रही थी | उसने सुधा का चेहरा चूम लिया | सुधा भी उस सुखद एहसास को खोना नहीं चाहती थी | तभी बाहर किसी की आहट सी हुई | दोनों अलग हो गए | शाम को माँ के साथ ही वह पग फेरों के लिए मायके आ गयी |

*

अभी नया-नया ब्याह हुआ था इस लिए शर्मा जी नहीं चाहते थे कि छोटा बेटा अपने पत्नी या ससुराल वालों के साथ ज्यादा रहे | वह नहीं चाहते थे कि ‘मिर्गी’ वाली बात उन लोगो को अभी पता चले इस लिए बहू को उसकी माँ के साथ उसके मायके भेज दिया |

जिंदगी अब बदल चुकी थी सुधा की | ब्याह तो हो ही चुका था पूरे समाज के सामने, वह इस रिश्ते से अब भाग नहीं सकती थी | ससुराल में सभी का स्नेह बरसता पर हर रात भयावह होती थी | छोटी उम्र में ही उसने जीवन का बहुत बड़ा समझौता कर लिया था | वह समझ चुकी थी की अब यही समझौते का जीवन ही उसका जीवन है | अपने ससुराल में रहने के सिवा अब उसके पास कोई चारा नहीं था क्यों कि एक उसके कारण दोनों परिवार सुखी थे |

*

यूँ तो बेटियों के घर का पानी भी नहीं पीते पर कुसुम बेटी के घर से मिलने वाली सुख-सुविधाओं की आदी होती जा रही थी | पंखे के बाद कूलर और कूलर के बाद अब ए-सी लग रहा था घर में | बहाना था सुधा का कि सुधा अब ए-सी के बिना नहीं रह पाती | शर्मा जी ने जैसे ही सुना तुरंत उसके घर में ए-सी लगाने का ऑर्डर दे दिया | दिन पर दिन कुसुम स्वर्थी होती जा रही थी | सुधा अब उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बन गयी थी |

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