शुग़ल Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शुग़ल

शुग़ल

(मैक्सिम गोर्की की याद में)

ये पिछले दिनों की बात है जब हम बरसात में सड़कें साफ़ करके अपना पेट पाल रहे थे।

हम में से कुछ किसान थे और कुछ मज़दूरी पेशा, चूँकि पहाड़ी देहातों में रुपय का मुँह देखना बहुत कम नसीब होता है। इस लिए हम सब ख़ुशी से छः आने रोज़ाना पर सारा दिन पत्थर हटाते रहते थे। जो बारिशों के ज़ोर से साथ वाली पहाड़ियों से लुढ़क कर सड़क पर आ गिरते थे। पत्थरों को सड़क पर से परे हटाना तो ख़ैर इक मामूली बात थी। हम तो इस उजरत पर इन पहाड़ियों को ढाने पर भी तैय्यार थे। जो हमारे गिर्द-ओ-पेश स्याह और डरावने देवओं की तरह अकड़ी खड़ी थीं। दरअसल हमारे बाज़ू सख़्त से सख़्त मशक़्क़त के आदी थे। इस लिए ये काम हमारे लिए बिलकुल मामूली था। अलबत्ता जब कभी हमें सड़क को चौड़ा करने के लिए पत्थर काटना होते, तो रात को हमें बहुत तकान महसूस होती थी। पट्ठे एकड़ जाते और सुबह को बेदार होते वक़्त ऐसा महसूस होता कि वो तमाम पत्थर जिन्हें हम गुज़श्ता रोज़ काटते और फोड़ते रहे हैं। हमारे जिस्मों पर बोझ डाले हुए हैं। मगर ऐसा कभी कभी होता था।

हमारा काम जो रोज़ सुबह सात बजे शुरू होता था। जब तलूअ होते हुए सूरज की तलाई किरणें चीड़ के दराज़क़द दरख़्तों से छन-छन कर हमारे पास वाले नाले के ख़श्म-आलूद पानी से अटखेलियां कर रही होतीं। और आस पास की झाड़ियों में नन्हे नन्हे परिंदे अपने गले फुला फुला कर चीख़ रहे होते। यूं कहिए कि हम क़ुदरत को अपने ख़्वाब से बेदार होता देखते थे। सुबह की हल्की फुल्की हवा में शबनम आलूद सब्ज़ झाड़ियों की दिलनवाज़ सरसराहट नाने में संगरेज़ों से खेलते हुए कफ़-आलूद पानी का शोर और बरसात के पानी में भीगी हुई मिट्टी की भीनी भीनी ख़ुशबू, चंद ऐसी चीज़ें थीं। जो हमारे संगीन सीनों में एक ऐसी ताक़त पैदा कर देती थीं। जो ज़िंदगी के इस दोज़ख़ में हमें बहिश्त के ख़्वाब दिखाने लगती।

हमें हर रोज़ बारह घंटे काम करना पड़ता था। यानी सारा दिन हम सड़क की मोरियों और पत्थरों को साफ़ करते रहते थे। ये काम दिलचस्प न था। मगर हम ने उस की ना-ख़ुश-गवार यक-आहंगी को दूर करने के लिए एक तरीक़ा ईजाद कर लिया था जब हम सब इस पहाड़ी के नीचे जमा-शुदा मलबे को अपने बेलचों से हटा रहे होते जिस के संगरेज़े हरवक़्त सड़क पर गिरते रहते थे। तो हम एक सुर में कोई पहाड़ी गीत शुरू कर देते, मलबे के पत्थरों से टकरा कर हमारे बेलचों की झनकार इस गीत की ताल का काम देती थी। ये गीत इस अफ़्सुर्दगी को दूर कर देता, जो ये ग़ैर दिलचस्प काम करने से हमारे दिलों में पैदा हो जाती है। जब तक इस के सुर हमारी चौड़ी छातियों में से निकलते रहते हम महसूस तक न करते कि इस दौरान हम ने मलबे के एक बहुत बड़े ढेर को साफ़ कर लिया है।

मोटर लारियों की आमद-ओ-रफ़्त से भी हमारा दिल बहला रहता था। जो रंग बिरंग मुसाफ़िरों को कश्मीर से वापस या कश्मीर की तरफ़ ले जाती रहती थीं। जब कभी कोई लारी हमारे पास से गुज़रती तो हम कुछ अर्सा के लिए अपनी झुकी हुई कमरें सीधी करके सड़क के एक तरफ़ खड़े हो जाते और ज़मीन पर अपने बेलचे टेक कर उस को सामने वाले मोड़ के अक़ब में गुम होते देखते रहते। इन लारियों को इतनी दूर तक देखते रहने का मक़सद ये था कि हम थोड़ा सुस्ता लें। मगर बाअज़ औक़ात इन लारियों की शानदार अस्बाब से लदी हुई छतें और उन की खिड़कियों से मुसाफ़िरों के लहराते हुए रेशमी कपड़ों की एक झलक हमारे दिलों में एक नाक़ाबिल बयान तल्ख़ी पैदा कर देती थी। और हम अपने आप को इन पत्थरों की तरह फ़ुज़ूल और नाकारा तसव्वुर करने लगते थे। जिन को हमारे बेलचों के धक्के इधर उधर टपकते रहते थे। इन मुसाफ़िरों के तरह तरह के लिबास देख कर जिन पर यक़ीनन बहुत से रुपय सर्फ़ आए होंगे। हम ग़ैर इरादी तौर पर अपने कपड़ों की तरफ़ देखना शुरू कर देते थे।

हम में से अक्सर का लिबास पट्टू के तंग पाइजामे, गाड़े की क़मीज़ और लुधियाने की सदरी पर मुश्तमिल था। सब के पाइजामे या तो घुटनों पर से घिस घिस कर इतने बारीक हो गए थे कि उन में जिस्म के बालों की पूरी नुमाइश होती थी या बिलकुल फटे हुए थे। क़मीज़ों और सदरियों की भी यही हालत थी। उन पर जगह जगह मुख़्तलिफ़ रंग के पैवंद लगे हुए थे। क़रीब क़रीब हम सब की क़मीज़ों के बटन ग़ायब थे। इस लिए सीने आम तौर पर खिले रहते थे। और काम करते वक़्त उन पर पसीने की बूंदें साफ़ नज़र आती थीं।

बारह बजे के क़रीब हम काम छोड़कर खाने के लिए सड़क के नीचे उतर कर पेड़ के साय तले बैठ जाते थे। ये खाना हम सुबह कपड़े में बांध कर अपने साथ लाते थे। तीन ढोडे (मक्की की मोटी रोटियां ) और आम तौर पर सरसों का साग होता था जिस को हम अपने भूके पेट में डालते थे। खाने के बाद हम पानी उमूमन नाले से पिया करते थे। और जिस रोज़ बारिश की ज़्यादती के बाइस इस का पानी ज़्यादा गदला हो जाये तो हम दूर सड़क के उस पार चले जाया करते थे जहां साफ़ पानी का एक चशमा फूटता है।

खाने से फ़ारिग़ हो कर हम फ़ौरन काम शुरू कर देते थे। मगर हमारा जी चाहता था कि नरम नरम घास पर लेट कर थोड़ी देर सुस्ता लें और फिर काम शुरू करें। मगर ये क्योंकर हो सकता था जब कि हमें हरवक़्त इस बात का ख़याल रहता था। कि पूरा काम किए बग़ैर उजरत न मिलेगी।

हमारा मतमह-ए-नज़र काम करना और इस हीले से अपना पेट पालना था। और चूँकि हमें मालूम था कि हम में से किसी ने अगर अपने काम में ज़रा सी सुस्त रफ़्तारी या बे-दिली का इज़हार किया तो ताश की गड्डी से नाकारा जोकर की तरह बाहर फेंक दिया जाएगा। इस लिए हम दिल लगा कर काम किया करते थे ताकि हमारे अफ़िसरों को शिकायत का मौक़ा न मिले। इस के ये मानी नहीं हैं कि हमारे अफ़्सर हम पर बहुत ख़ुश थे। ये क्योंकर हो सकता है। वो बड़े आदमी ठहरे इस लिए इन का जायज़-ओ-नाजायज़ तौर पर ख़फ़ा होना भी दरुस्त होता है। कभी ये लोग ऐसे ही हमारे काम का मुआइना करते वक़्त अपनी बे-इत्मिनानी का इज़हार करते हुए हम पर बरस पड़ते थे। लेकिन हम जो उन की बड़ाई को बख़ूबी समझते थे। महाराज, महाराज कह कर उन का गु़स्सा सर्द कर दिया करते। हम जानते थे, कि उन का गु़स्सा बिलकुल बेजा है लेकिन ये एहसास हमारे दिलों में नफ़रत के जज़्बात पैदा नहीं करता था। शायद इस लिए कि कोज़िशों ने हम को बिलकुल मुर्दा बना रख्खा है। या फिर इस की वजह ये भी हो सकती है कि हम को ये ख़ौफ़ दामन-गीर रहता था कि अगर हम अपने मौजूदा काम से हटा दिए गए तो हमारी रोज़ी बंद हो जाएगी।

हम अपने काम से मुतमइन थे। और यही वजह है कि हम थोड़ी मज़दूरी और ज़्यादा काम के मसले पर बहुत कम ग़ौर करते थे। उस की ज़रूरत भी किया है। इस लिए कि ये काम पढ़े लिखे आदमियों का है। और हम बिलकुल अन-पढ़ और जाहिल थे। दरअसल बात ये है कि हमारी दुनिया बिलकुल अलग थलग थी जिस की सरहदें पत्थर तोड़ने या उन को हटाने, बारह बजे रोटी खाने और फिर काम करने और इस के बाद अपने अपने डेरों में सौ जाने तक ख़त्म हो जाती थीं। हमें इन हदूद के बाहर किसी शैय से कोई सरोकार न था। दूसरे अल्फ़ाज़ में अपना और अपने मुतअल्लिक़ीन का पेट पालने के धंदे में हम कुछ ऐसी बुरी तरह फंस कर रह गए थे कि इस के बाहर निकल कर हम किसी और शैय की ख़्वाहिश करना ही भूल गए थे।

हमारे काम पर सड़कों के महिकमे की तरफ़ से एक निगरान मुक़र्रर था। जो दिन का बेशतर हिस्सा सड़क के एक तरफ़ चारपाई बिछा कर बैठे रहने में वक़्त गुज़ार देता। ये ज़ात का पण्डित था। ऊंचे तबक़े का इम्तियाज़ी निशान सींदूर के तिलक की सूरत में हरवक़्त उस की सफ़ैद पेशानी पर चमकता रहता था। हम अपने निगराँ को एहतिराम और इज़्ज़त की निगाह से देखते थे। अव़्वल इस लिए कि वो ब्रहमन था और दूसरे इस लिए कि हम उस के मातहत थे। चुनांचे इधर उधर के दूसरे कामों के इलावा हम बारी बारी दिन में कई बार उस के पीने के लिए हुक़्क़ा ताज़ा किया करते थे और आग बना कर उस की चिलमें भरा करते थे।

पण्डित का काम सर्फ़ ये था कि सुबह चारपाई पर अपने गेरवे रंग की किलिफ़ लगी पगड़ी और रेशमी कोट उतार कर अपने गंजे सर पर हाथ फेरते हुए हमारी हाज़िरी लगाए। और फिर एक बड़े रजिस्टर में कुछ दर्ज करने के बाद इधर उधर टहलता रहे या हुक़्क़ा पीता रहे वो अपने काम में बहुत कम दिलचस्पी लेता था। अलबत्ता जब कभी मुआइने के लिए किसी अफ़्सर की मोटर उधर से गुज़रती थी तो वो अपनी चारपाई उठवा हमारे पास खड़ा हो जाया करता था। उस की इस चालाकी पर हम दिल ही दिल में बहुत हंसा करते थे।

एक रोज़ जबकि सुबह से हल्की हल्की फ़ुवार पड़ रही थी। और हम बारह बजे खाने से फ़ारिग़ हो कर हस्ब-ए-मामूल अपने काम में मशग़ूल थे। मोटर के हॉर्न ने हमें चौंका दिया लारियों की निसबत हम मोटरों के देखने के बहुत शाईक़ थे। इस लिए कि इन में हमारी भूकी नज़रों के देखने के लिए अजीब-ओ-ग़रीब चीज़ें नज़र आती थीं। हम कमरें सीधी करके खड़े हो गए। इतने में मोटर के अक़ब से सब्ज़ रंग की एक छोटी मोटर नुमूदार हुई जब ये हमारे क़रीब पहुंची। तो हम ने देखा कि उस की बॉडी बारिश के नन्हे नन्हे क़तरों के नीचे चमक रही है बहुत आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी। शायद इस लिए कि पिछली सीट पर जो दो साहब बैठे हुए थे। इन में एक अपनी रानों पर ग्रामोफोन रखे बजा रहे थे। जब ये मोटर हमारे मुक़ाबिल आई तो रिकार्ड की आवाज़ सड़क के साथ वाली पहाड़ी के पत्थरों से टकरा कर फ़िज़ा में गूंजी। कोई गा रहा था।

न मैं किसी का , न कोई मेरा छाया चारों और अंधेरा

अब कुछ सूझत नाहीं, मोहे अब कुछ

आवाज़ में बेहद दर्द था। एक लम्हे के लिए ऐसा मालूम हुआ कि हम शायद बहर-ए-ज़ुलमात में डूब गए। जब मोटर अपनी नीम वा खिड़कियों से इस गीत के दर्दनाक सुर बिखेरती हुई हमारी नज़रों से ओझल हो गई। तो हम सब ने एक आह भर कर अपना काम शुरू कर दिया।

शाम के क़रीब जब सूरज की सुर्ख़ और गर्म टिकिया पिघले हुए ताँबे का रंग इख़्तियार करके एक स्याह पहाड़ी के पीचे छुप रही थी। और उस की उन्नाबी किरणें दराज़क़द दरख़्तों की चोटियों से खेल रही थीं। सब्ज़ रंग की वही मोटर उस तरफ़ से वापस आती दिखाई दी। जिधर वो दोपहर को गई थी। जब हम ने उस के हॉर्न की आवाज़ सुनी तो काम छोड़ कर उस को देखने लगे। आहिस्ता आहिस्ता चलती हुई वो हमारे आगे से गुज़र गई। और फिर दफ़अतन हम से आधी जरीब के फ़ासले पर खड़ी हो गई। वो बाजा जो उस में बज रहा था। ख़ामोश हो गया।

थोड़ी देर के बाद पिछली सीट से एक नौजवान दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला, और अपनी पतलून को कमर पर से दरुस्त करता हुआ हमारे पास से गुज़रा, और आहिस्ता आहिस्ता उस पुल की तरफ़ रवाना हो गया, जो सामने नाले पर बंधा हुआ था। ये ख़याल करके कि वो नाले के पानी का नज़ारा करने के लिए गया है। जैसा कि आम तौर पर उधर से गुज़रने वाले मुसाफ़िर किया करते थे। हम अपने काम में मसरूफ़ हो गए।

अभी हमें अपना काम शुरू किए पाँच मिनट से ज़्यादा अर्सा न गुज़रा होगा कि पुल की तरफ़ से ताली की आवाज़ बुलंद हुई। हम ने मुड़ कर देखा। पतलून पोश नौजवान सड़क के साथ पत्थरों से चुनी हुई दीवार के पास खड़ा ग़ालिबन मोटर में अपने साथियों को मुतवज्जा कर रहा था। संगीन मुंडेर पर उस नौजवान से कुछ दूर एक लड़की बैठी हुई थी।

हम में से एक ने अपने बेलचे को बड़े ज़ोर से मोरी की गीली मिट्टी में गाड़ते हुए कहा। “ये राम दुई है।”

कालू ने जो उस के पास खड़ा था। दरयाफ़त क्या। “राम दुई?”

“संतू चमार की लड़की और कौन? ” इस के लहजे में बेलचे के लोहे ऐसी सख़्ती थी।

हम बाक़ी चार हैरान थे कि इस गुफ़्तुगू का मतलब किया है। अगर वो लड़की जो मुंडेर पर बैठी है। संतू चमार की लड़की है, तो कौन सी अहम बात है, कि हमारा साथी इस क़दर तेज़ बोल रहा है। हम ग़ौर कर रहे थे। कि फ़ज़ल ने जो हम सब से उम्र में बड़ा था। और नमाज़ रोज़े का बहुत पाबंद था। अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए निहायत ही मुफ़क्किरा ना लहजे में कहा:।

“दुनिया में एक अंधेर मचा है........ ख़ुदा मालूम लोगों को क्या हो गया है।”

ये सुन कर हम बाक़ी तीन असल मुआमले से आगाह हो कर सब कुछ समझ गए। और इस एहसास ने हमारे दिलों में ग़म और गुस्से की एक अजीब कैफ़ीयत तारी कर दी।

ताली की आवाज़ सुन कर मोटर की पिछली नशिस्त से पतलून पोश के साथी ने अपना सर बाहर निकाला। और ये देख कर कि उस का दोस्त उसे बुला रहा है। दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला। और हमारे क़रीब से गुज़रता हुआ पुल की जानिब रवाना हो गया हम बेवक़ूफ़ बकरियों की तरह उसे अपने दोस्त के पास जाता देखते रहे।

जब पतलून पोश नौजवान का दोस्त उस के पास पहुंच गया। तो वो दोनों लड़की की तरफ़ बढ़े। और उस से बातें करना शुरू कर दीं। ये देख कर कालू पेच-ओ-ताब खा कर रह गया। और ख़श्म-आलूद लहजे में बोला:।

“बदमाश......... ! ”

फ़ज़ल ने सर्द आह भरी और मग़्मूम लहजे में कहने लगा। “जब से ये सड़क बनी है और ऐसे बाबूओं की आमद-ओ-रफ़्त ज़्यादा हो गई है। यहां के तमाम इलाक़ों में गंदगी फैल गई है। लोग कहते हैं। कि ये सड़क बनने से बहुत आराम हो गया है। होगा मगर इस क़िस्म की बेशरमी के नज़ारे पहले कभी देखने में न आते थे......... ख़ुदा बचाए! ”

इस दौरान में पतलून पोश के साथी ने लड़की को बाज़ू से पकड़ लिया। और ग़ालिबन उस को उठ कर चलने के लिए कहा। मगर वो अपनी जगह पर बैठी रही। ये देख कर कालू से न रहा गया और उस ने राम प्रशाद से कहा “आओ ये लोग तो अब दस्त दराज़ी कर रहे हैं।”

कालू ये कह कर अकेला ही उस जानिब बढ़ने को था। कि हम ने उसे रोक दिया, और ये मश्वरा दिया, कि तमाम मुआमला पण्डित के गोश गुज़ार कर दिया जाये। जो चारपाई पर सौ रहा है और फिर जो वो कहे उस पर अमल किया जाये। इस तजवीज़ को माक़ूल ख़याल करके हम सब पण्डित के पास गए और उसे जगह कर सारा क़िस्सा सुना दिया। उस ने हमारी गुफ़्तुगू को बड़ी बे-पर्वाई से सुना। जैसे कोई बात ही नहीं। और उन दो नौजवानों की तरफ़ देख कर जो अब राम दुई को ख़ुदा मालूम किस तरीक़े से मना कर अपने साथ ला रहे थे कहा।

“जाओ तुम अपना काम करो। मैं उन से ख़ुद दरयाफ़्त कर लूंगा।”

ये जवाब सुन कर हम बेचारगी की हालत में अपने काम पर गए। लेकिन हम सब की निगाहें राम दुई और उन दो नौजवानों पर जमी हुई थी। जो अब पुल तै करके पण्डित की चारपाई के क़रीब पहुंच रहे थे। लड़के आगे थे। और राम दुई थकी हुई घोड़ी की तरह उन के पीछे पीछे चल रही थी। जब वो सब पण्डित के आगे से गुज़रने लगे। तो वो चारपाई पर से उठा........ दो तीन मिनट तक उन से कुछ बातें करने के बाद वो भी उन के साथ हो लिया।

जब पण्डित, राम दुई और वो नौजवान हमारे पास से गुज़रे। तो हम ने देखा कि नौजवानों के चेहरों पर एक हैवानी झलक नाच रही है। और पण्डित बड़े अदब से उन के साथ चल रहा है। राम दुई की नज़रें झुकी हुई थीं

मोटर के पास पहुंच कर पण्डित ने आगे बढ़ कर उस का दरवाज़ा खोला। पहले पतलून पोश फिर राम दुई और इस के बाद दूसरा नौजवान मोटर में दाख़िल हो गए। हमारे देखते देखते मोटर चली और नज़रों से ओझल हो गई। और हम आँखें झपकते रह गए।

“शैतान, मर्दूद!! ” कालू ने बड़े इज़्तिराब से ये दो लफ़्ज़ अदा किए।

इतने में पण्डित आ गया। और हम को मुज़्तरिब देख कर एक मस्नूई आवाज़ में कहने लगा। “मैंने उन से दरयाफ़त किया है। कोई बात नहीं। वो लड़की को ज़रा मोटर की सैर कराना चाहते थे। इन्सपैक्टर साहब के मेहमान हैं। और डाक बंगले में ठहरे हुए हैं। थोड़ी दूर ले जा कर उसे छोड़ देंगे......... अमीर आदमी हैं। उन के शग़ल इसी क़िस्म के होते हैं।”

ये कह कर पण्डित चला गया।

हम देर तक ख़ुदा मालूम किन गहराईयों में ग़र्क़ रहे। कि दफ़अतन फ़ज़ल की आवाज़ ने हमें चौंका दिया। दो मर्तबा ज़ोर से थोक कर इस ने अपने हाथों को गीला किया। और बेलचे को संगरेज़ों के ढेर में गाड़ते हुए कहा। “अगर अमीर आदमियों के यही शगल हैं तो हम ग़रीबों की बहू बेटियों का अल्लाह बेली है!”