Aur guddi bhag gayi books and stories free download online pdf in Hindi

और गुड्डो भाग गई...!


’हरा समन्दर, गोपीचंदर,
बोल मेरी मछली कितना पानी?’
’इतना…….’
गुड्डो ने हाथ सिर के ऊपर ले जा के बताया, कि पानी तो सिर के ऊपर तक आ गया है. सारे बच्चों ने अपने घेरे को और मजबूत बनाया. एक-दूसरे के हाथों पर पकड़ मजबूत की.
’इधर का ताला तोड़ेंगे’
’पचास डंडे मारेंगे’
गुड्डो ने सबसे कमज़ोर हाथों की पकड़ पर ज़ोरदार मुक्का लगाया, और घेरा टूट गया. गुड्डो ये जा-वो जा. सारे बच्चे दौड़ रहे हैं, गुड्डो पकड़ने के लिये दौड़ रही है, कभी इसके तो कभी उसके पीछे.
’हरा समंदर, गोपीचंदर…..’
आवाज़ें फ़िर आने लगीं हैं, यानि गुड्डो ने किसी को छू लिया है, और बच्चों को नई मछली मिल गयी है.
जानते हैं, बहुत छोटा सा कस्बा है ये. बमुश्क़िल पचास हज़ार लोग होंगे जनसंख्या के रूप में. इन पचास हज़ार में से पच्चीस हज़ार तो आप यहां की आर्मी के नाम पर माइनस कर दीजिये. माइनस नहीं समझे? अरे घटा दीजिये भाई. अब कितने बचे? पच्चीस हज़ार न? तो बस इतनी ही जनता है यहां. असल में होना तो इतनी भी नहीं चाहिये. अब आप कहेंगे कि क्यों नहीं होना चाहिये? तो हम बतायेंगे कि इसलिये नहीं होना चाहिये, क्योंकि ये जगह आर्मी कैन्टोन्मेंट है. पहले यहां एक भी सिविलियन नहीं रहता था. सिविलियन तो जान गये न? अब इसकी हिंदी पूछेंगे तो हम न बता पायेंगे, सो इसे ही हिन्दी समझिये. बात समझ में आ जानी चाहिये बस्स. तो अंग्रेज़ों ने इसे पूरी तरह आर्मी कैंटोन्मेंट बनाया था. उनके नौ पोलिटिकल एजेंट्स में से एक यहां रहता था. अब पोलिटिकल एजेंट्स की हिन्दी मत पूछना, क्योंकि आपने जो अभी-अभी मुंह बाया है न, तो हम जान गये हैं कि आप क्या पूछना चाहते हैं.
तो साब! अंग्रेज़ों के जाने के बाद धीरे-धीरे यहां बस्ती बसने लगी. आर्मी के एरिये को छोड़, यहां बाकी हिस्से में जो अंग्रेज़ रहते थे न, वे अपने बंगले, अपने वफ़ादार कारिंदों को औने-पौने दाम में सामान सहित बेच गये. अब साब उन कारिंदों की आदत तो सर्वेंट क्वार्टर में रहने की थी, सो इत्ते बड़े-बड़े बंगले, वो भी साजो-सामान सहित देख के समझ ही न पाये कि इनका करें तो क्या करें? अब तक वे जिस सामान को झाड़ते पोंछते भर थे, अब उसका इस्तेमाल कैसे करें? अंत में उन्होंने ऊहापोह से छुट्टी पाई, इस कस्बे के आस-पास के बड़े आदमियों को ये बंगले बेच के. बंगले बेचने के बाद, वे खुद सर्वेंट क्वार्टर में ही रहते रहे, नये मालिकों की सेवा-टहल के लिये. अब जैसी कि रीत है, नये मालिकों ने बंगले के चारों ओर फ़ैले पांच-पांच एकड़ के अहाते में ही किराये के लिये घर बनवाने शुरु कर दिये, प्लॉट्स बेचने लगे और देखते ही देखते एक नई आबादी वाला नया कस्बा खड़ा हो गया. लेकिन बेहिसाब चौराहों के चलते, और हर बंगले के किनारे-किनारे के प्लॉट्स बिकने के कारण बस्तियां बहुत व्यवस्थित बनीं. साफ़-सुथरा इलाका तो था ही. इसी कस्बे के एक मोहल्ले में ये बच्चे रहते हैं, जो हरा समंदर, गोपीचंदर खेल रहे.
ये जो सामने पीला घर है न, यहां रहती है रिंकी, उसके ठीक बगल वाला घर छोड़ के अगले घर में रहती है गुड्डो और गुड्डो के घर से बस दो घर छोड़ के रहता है मुक्कू. रिंकी-गुड्डो-मुक्कू, यूं तो ये तीनों अभी छह-छह साल की उमर में हैं, लेकिन इनका याराना तब से है, जब ये बोल भी न पाते थे. इन तीनों की मांएं, अपने गपाष्टक टाइम में तीनों बच्चों को एक साथ खिलौने दे, बिठा देतीं थीं. तो अब समझे न आप? हां में सिर हिलाने से क्या होगा भाई? हम ऐसे ही छोड़ देंगे क्या? अरे पूछेंगे नहीं आपसे कि क्या समझ में आया? आप बार-बार भूल जाते हैं कि हम मास्टर भी हैं. बच्चों ने यदि ये कह दिया कि आ गया समझ में, तो हमारा अगला सवाल यही होता है कि क्या आ गया समझ में? तो अभी तो हमने कहानी शुरु की है. अभी से क्या आयेगा आपकी समझ में? बिना समझे सिर हिला देना अच्छी बात नहीं है.
खैर…..! इन तीनों बच्चों ने बोलना भी एक साथ ही शुरु किया. ऐसे में दोस्ती तो पक्की होनी ही थी. तो बस यही सब बच्चे यहां मैदान में अपना खेल जमाये हैं. पांच साल से लेकर बारह साल तक के बच्चे खेल में शामिल हैं. अधिकतर बच्चों की मांएं भी इधर-उधर बालू के ढेरों पर बैठीं गपिया रही हैं. तब टीवी-ईवी नहीं था न बस इसीलिये ये सीन क्रियेट हो पा रहा.
तो साब ! साथ बोलते, पढ़ते, खेलते रिंकी-गुड्डो-मुक्कू साथ ही बड़े भी होने लगे. बड़े सबेरे मुक्कू गुड्डो को आवाज़ लगाता, और फिर ये दोनों रिंकी के घर धमकते. पांच-छह साल के बच्चों को तब स्कूल जाने की चिंता तो रहती नहीं थी. अंग्रेज़ी स्कूल नहीं थे तब, सो प्री-नर्सरी-नर्सरी जैसी क्लासें भी नहीं थीं. बच्चे छह साल तक दुधमुंहे ही बने रहते थे. छह साल पूरे होने पर ही स्कूल का मुंह देखते थे बच्चे. ये इसलिये बताया कि आप ये न पूछ बैठें कि - ’ बड़े सबेरे कैसे धमक जाते थे बच्चे? स्कूल नहीं जाते थे क्या? तो अब समझे न कि कैसे धमक जाते थे? आगे बढ़ायें कहानी? चलिये तो मुक्कू-गुड्डो, रिंकी के घर के बाहर बरामदे में पहुंच के ज़ोर से टेर लगाते- रिंकी sssssss……! और रिंकी अगर मुंह से दूध का गिलास लगाये है, तब भी बताने दौड़ी चली आती कि दूध पी रहे, अभी आते हैं. चड्ढी-बनियान पहने तीनों साथी पहले बरामदे के कोने में ही खेल जमाते. सारे खिलौने जमा कर लिये जाते. यहां से तिकड़ी उठती तो गुड्डो के यहां पहुंचती और फिर मुक्कू के घर. हर घर में खाने-पीने का सिलसिला चलता, और तीनों मांएं इन बच्चों के भूखे होने की फ़िक्र से बेफ़िक्र रहतीं. बहुत तरह के खेल बच्चे खेलते थे. इन खेलों में रेत के ढेर पर घरौंदे बनाने और घर में ’घर-घर’ खेल इन तीनों बच्चों का प्रिय खेल था. खूब देर तक बालू के ढेर पर ठंडी-गीली बालू में पांव के ऊपर रेत दाब-दाब के घरौंदा बनाते. आराम से पांव बाहर निकालते. फिर शुरु होता इस घरौंदे को सजाने का काम. घास-पत्तों, तिनकों से घरौंदा सजता. ये तीन घरौंदे कोई तोड़ने की हिम्मत न करता.
रिंकी की मम्मी प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं. सबेरे स्कूल जातीं. बड़ी दोनों दीदियां ग्यारह बजे स्कूल जातीं. सबेरे रिंकी का ड्रॉइंग रूम इनके ’घर-घर’ का अड्डा होता. लेकिन असली मज़ा दोपहर को आता. रिंकी की मम्मी बारह बजे स्कूल से आतीं, खाना-वाना खा के एक बजे आराम करने कमरे में चली जातीं. अब इस तिकड़ी का असल खेल जमता .दो निबाड़ कसी चारपाइयों को खड़ा कर उन पर चादर डाल के घर बनाया जाता. दीदी के दुपट्टे को लपेट के गुड्डो साड़ी पहनती और मम्मी के रोल में आ जाती. मुक्कू धूप का चश्मा लगा के पापा बन जाता. रिंकी अक्सर या तो इनका बच्चा बनती या फिर सब्जी वाली, कामवाली या ऐसा ही कोई किरदार. खेल खूब जमता. सबके जागने-आने के पहले ही इनका खेल खत्म हो पाता. तो साब! घर-घर’ खेलते-खेलते ये तिकड़ी छह बरस की हो गयी और स्कूल जाने लगी. अब केवल दोपहर में खेल जमता, और उसमें टीचर का किरदार भी शामिल होता. आप समझ ही गये होंगे कि टीचर भी रिंकी ही बनती होगी. उसका परमानेंट किरदार जो कोई न था.
स्कूल में भी तीनों एक साथ बैठते, एक साथ लंच करते और घर लौट के एक साथ ही होमवर्क भी करते. सबेरे ग्वाल टोले से दूध लेने भी तीनों एक साथ ही जा रहे थे पिछले एक साल से, जबसे ज़रा बड़े हुए. स्कूल का दूसरा साल निकल गया, तीसरा साल निकल गया, चौथा साल निकल गया, पांचवा साल निकल गया. तीनों का साथ बना रहा, खेल बने रहे. लेकिन छटवीं में आने के बाद सब गड़बड़ हो गया.
एक शाम जब तीनों साथी पकड़म पकड़ाई खेल रहे थे तो अचानक गुड्डो की अम्मा प्रकट हुईं. ज़रा गुस्से में दिख रहीं थीं. दाम मुक्कू पर था, लेकिन पकड़ लिया गुड्डो की अम्मा ने. ज़रा तेज़ आवाज़ में तीनों को धमकाती सी बोलीं-’ पढ़ाई-अढ़ाई कुछ न है का तुम तीनों के पास? अब बच्चे नहो रहे. बड़े हो गये हो. और जे मुक्कू? पांच हाथ का होने आया लड़कियों के साथ खेलता है. लड़के न मिलते का तुम्हें? चलो जाओ सब अपने-अपने घर. पढ़ो-लिखो बैठ के.’ इतना कहते हुए गुड्डो का हाथ पकड़ा और लगभग घसीटते हुए घर ले गयीं. मुक्कू और रिंकी कुछ समझते उसके पहले ही गुड्डो को घसीट के ले जाया गया. दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. मुक्कू ने आंख के इशारे से पूछा-’ क्या हुआ?’ रिंकी, जिसे सचमुच ही कुछ नहीं मालूम था, ने ’नहीं पता’ के अंदाज़ में कंधे उचका दिये.
उधर गुड्डो खुद अचम्भित थी अम्मा के इस नये व्यवहार पर. घर पहुंचते ही अम्मा पर झल्लाने लगी- ’ क्या है अम्मा, क्यों खेल बंद करवाया? दिन भर में बस एक घंटा ही तो खेलते हैं हम लोग. क्या सोचते होंगे रिंकी-मुक्कू? कैसा ’फ़जीता’ करवाया तुमने हमारा.’ मुंह फुला लिया था गुड्डो ने. अम्मा भी जैसे ताक में ही थीं. –’ अच्छा! फ़जीता हो गया तुम्हारा? कै दिन से मना कर रहे लड़कों के साथ खेलने से? याद है कुछ? अब बच्ची न हो. बारहवें साल में लग गयी हो. अब इस जुलाई से तुम्हारा नाम कन्या शाला में लिखवाना है. बहुत हुंदड़ा लीं लौंडों के संग. अब कायदे से लड़कियों के स्कूल में पढ़ो. जे मुक्कू के साथ खेलना बन्द करो. लड़कियों को केवल लड़कियों के साथ ही खेलना चाहिये. समझीं?’ शुरु में ज़रा तेज़ी से लेकिन बाद में समझाइश वाली आवाज़ में बोलीं गुड्डो की अम्मा.
’लेकिन अम्मा, मुक्कू ही तो हमारा दोस्त है. एकदम से लड़का कैसे हो गया? पहले लड़का न था का? अब काहे नहीं खेलना है उसके साथ?’ गुड्डो की इस दलील पर वहीं तखत पर पांव फैलाये, गोद में ’माधुरी’ रखे दसवीं क्लास में पढ़ने वाले बड़े भैया ने ज़ोर से घुड़का- ’ज़्यादा चबड़-चबड़ नईं. पढ़ाई करो चुपचाप’.
गुड्डो अम्मा की ये अटपटी बात समझ ही नहीं पा रही थी. और कन्या शाला! यानी अब मुक्कू के साथ पढ़ाई भी बन्द. और रिंकी? क्या उसकी मम्मी ने भी ऐसा ही कुछ कहा होगा उससे? नहीं कहा होगा. कहतीं, तो रिंकी की छत पे खेल कैसे जमता? लगता है रिंकी और मुक्कू साथ में ही पढ़ते रहेंगे. बस उसे ही अलग किया जा रहा. गुड्डो का दिमाग़ कुछ समझ ही न पा रहा था. खैर! फिलहाल इस मुद्दे को यहीं छोड़ वो अपने भैया की, छटवीं की पुरानी किताब से गणित लगाने लगी. पढ़ाई तो करनी थी कुछ न कुछ. नई किताबें जुलाई में ही आयेंगीं. लेकिन उसकी अम्मा को कौन समझाये? उन्हें तो बस पढ़ते दिखना चाहिये. खुद पढ़ी नहीं हैं न एक भी क्लास, सो जानती ही नहीं कुछ. अभी कहो कि नई किताबें नहीं आईं, तो तुरन्त पुरानी कोई भी किताब पकड़ा देंगीं और डांटते हुए कहेंगी-’जे किताब नई है का? इसी में से पढ़ो.’ किताब ले के बैठ तो गयी, लेकिन पढ़ने में एक रत्ती मन न लगा उसका. मन में बस यही आता रहा-’ क्या सोचा होगा रिंकी-मुक्कू ने?’
सबेरे छह बजे मुक्कू ने आवाज़ लगाई- ’ गुड्डोsssssss…. निकल जल्दी. छह बज गये.’ थोड़ी देर में गुड्डो निकली, हाथ में दूध का डिब्बा लटकाये. तीनों चल पड़े. अभी छुट्टियां चल रही थीं तो तीनों के गपियाने का ये सबसे अच्छा समय होता था. एक-डेढ़ किलोमीटर का रास्ता कब निकल जाता, पता ही न लगता. तीनों मिलते ही चहकने लगते. लेकिन आज गुड्डो चुप थी. चल रही थी साथ में लेकिन सिर झुकाये, मुंह बन्द किये.
’क्या हुआ गुड्डो? नाराज़ है क्या? कल वाली बात भूली नहीं क्या? अरे जाने दे यार. अम्मा लोग होती ही ऐसी हैं. गुस्सा उन्हें किसी और बात पर आ रहा होगा, उतारा तुम पर. अभी देखना, आज फिर खेल जमेगा, तब कुछ न बोलेंगीं अम्मा.’ मुक्कू ने बड़े बड़ों की तरह ज्ञान बघारा.
’ हां गुड्डो. काहे मुंह लटकाये है? यार तुम्हारा ऐसा मुंह देख के मज़ा नहीं आ रहा. अम्मा की बात पर क्या गुस्सा होना? हम लोगों ने क्या बिगाड़ा यार? हम लोगों से तो बात करो.’ अब रिंकी ने भी मुंह खोला.
अब तक सिर झुकाये चल रही गुड्डो को एकदम से रोना आ गया.
’ अरे यार बात केवल अम्मा के गुस्सा होने तक की होती तो ठीक था. कल तो अम्मा बोलीं कि लड़कों के साथ जितना खेलना था, खेल चुकीं, अब लड़कियों के साथ खेला करो. कल से हम दूध लेने भी नहीं जायेंगे तुम्हारे साथ. हमारा नाम भी कन्या शाला में लिखवायेंगी जुलाई से. अब हम कैसे साथ में खेलेंगे रे मुक्कू-रिंकी………’ गुड्डो अब बुक्का फाड़ के रो पड़ी थी. दोस्तों से अलग होने की टीस उसे स्थिर नहीं होने दे रही थी. बड़ा दुख इस बात का भी था कि अम्मा बिना किसी कारण ऐसा क्यों कर रहीं?
रिंकी-मुक्कू ने गुड्डो की अम्मा का फ़रमान सुना, तो वहीं ठिठके रह गये.
’साथ नहीं खेलेंगे मतलब? मैने तुम्हें कभी मारा क्या? कभी तुम्हारी टॉफ़ी चुराई? तुम्हारी कोई शिक़ायत लगाई? होमवर्क की कॉपी नहीं दी? बताओ तुम्हीं. ऐसा कुछ किया कभी? फिर अम्मा मुझसे क्यों नाराज़ हो गयीं? मेरे ही साथ खेलने में क्या परेशानी है?’ मुक्कू अपनी ग़लती समझ न पा रहा था. रिंकी अवाक थी.
’अम्मा कहती हैं कि लड़कियों को लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिये.’ गुड्डो अभी तक हिचकी ले रही थी.
’लड़कों माने? रिंकी की मम्मी ने तो रिंकी को मना नहीं किया. क्यों रिंकी, तुम्हें मना किया क्या मम्मी ने? रिंकी लड़की नहीं है क्या?’ मुक्कू का दिमाग़ चकराया हुआ था.
’मुक्कू मेरी मम्मी ने तो कुछ नहीं कहा. खेलने को मना भी नहीं किया.’ रिंकी को गुड्डो के सामने ऐसा कहने में भी अपराधबोध सा लग रहा था. बेचारी गुड्डो……!
ग्यारह साल पुरानी ये तिकड़ी अब टूट जायेगी क्या? कहानी में अचानक ये कैसा मोड़ आ गया? हमने तो ऐसा मोड़ लाना ही नहीं चाहा था. अब? अब क्या? देखते हैं क्या होता है. वैसे गुड्डो की अम्मा को अचानक हुआ क्या? एक दिन में ही लड़की बड़ी दिखने लगी क्या? और दिखने भी लगी तो क्या बचपन के साथियों को छुड़वा देंगीं? हमारी समझ में तो ये बात बिल्कुल न आई साब ! हमें तो लगता है कि गुड्डो की अम्मा किसी और की अकल पर काम कर रहीं. बिना पढ़ी-लिखी महिला हैं, सो दूसरे जैसा पढ़ा देते हैं, पढ़ जाती हैं. अपनी अकल लगाती ही नहीं हैं. वैसे भी उन्हें पड़ोसिनों की अकल और किसी भी बात के खिलाफ़ पट से लटका देने वाली उनकी ज़बान पर ज़्यादा भरोसा था, खुद से भी ज़्यादा. अपने बच्चों से भी ज़्यादा. तो हमें तो लगता है किसी पड़ोसन ने ही आग लगाई है. किसी पड़ोसन ने ही लड़की का बड़ा होना बताया है और लड़कों के साथ खेलना ग़लत है, ये भी किसी पड़ोसन ने ही बताया है. वैसे गुड्डो का भाई भी कम नहीं है. मुक्कू का बड़ा भाई और गुड्डो का भाई एक ही क्लास में हैं. मुक्कू का भाई जानता है कि कब गुड्डो का भाई पिटा, कब कितने नम्बर आये, या कब स्कूल से बहाना बना के ग़ायब हो गया. शायद इसीलिये गुड्डो का भाई चाहता होगा, इन दोनों की दोस्ती टूट जाये, और गुड्डो का वो स्कूल भी छूट जाये. लेकिन अपने फ़ायदे के लिये किसी की दोस्ती तुड़वाना!! बहुत ग़लत बात है भाई ये तो!
अंत में वही हुआ, जो गुड्डो की अम्मा चाहती थीं. गुड्डो रिंकी के घर तो जाती, लेकिन मुक्कू के घर के आगे से आंख बचाते हुए निकलती. कई बार उसे निकलता देख मुक्कू दौड़ के आवाज़ लगाते हुए बाहर भी आया, लेकिन ऐसे में गुड्डो दौड़ के वापस अपने घर चली जाती. आखिर घर था ही कितनी दूर? अगल-बगल ही तो था. मुक्कू की मम्मी ने भी गुड्डो की अम्मा को समझाया. उनके सामने तो वे – ’ अरे नहीं बहन जी. बच्चे हैं खूब खेलें न साथ में’ कह देतीं, लेकिन घर पर गुड्डो को सख़्त ताकीद करतीं, कि खबरदार जो मुक्कू के साथ खेलने गयी. लड़कों के साथ भले घर की लड़कियां नहीं खेलतीं.’ गुड्डो सोचती, रिंकी भी तो भले घर की है. उसकी मम्मी क्यों उसे मना नहीं करतीं? एक बात और हुई. रोक केवल लड़कों के साथ खेलने भर की नहीं लगी, बल्कि कहीं भी अकेले जाने पर भी लग गयी. कहीं जाना हो, भाई के साथ जाना. भाई को कहीं ले जाने की फुरसत ही नहीं मिलती थी.
जुलाई से गुड्डो कन्या शाला जाने लगी. सलवार-कुर्ता पहने, तहाया हुआ दुपट्टा कंधों पर पिन-अप किये. सलवार कुरता देख के तो एकबारगी रिंकी का भी मन हो आया कन्या शाला जाने का. क्या दीदियों की तरह सूट पहने है गुड्डो!! लेकिन फिर जल्दी ही मुक्कू का साथ छूट जाने की आशंका ने कन्या शाला जाने के उन्मादी ख़याल पर रोक लगा दी.
ज़िन्दगी चलती रही. गुड्डो कन्या शाला जाती रही. रिंकी-मुक्कू उत्कृष्ट विद्यालय जाते रहे. चार साल बीत गये थे. बारह साल के बच्चे अब सोलह साल के हो रहे थे. दसवीं में आ गये थे. अब तीनों को ही लगने लगा था कि वे सचमुच बड़े हो गये हैं. बड़े होने के साथ-साथ ये समझ भी आ रही थी कि रिंकी-गुड्डो लड़कियां हैं, और मुक्कू लड़का. लेकिन इस समझ के चलते रिंकी-मुक्कू की दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा था. दोनों खुल के मिलते, साथ में पढ़ते और सुबह दूध लेने भी जाते. जैसे बचपन में रिंकी ठहाका लगाते हुए मुक्कू की पीठ ठोक देती थी, वैसे ही अभी भी करती है. उसकी मम्मी ने कभी नहीं कहा कि मुक्कू लड़का है और वो लड़के से दूर रहे. नतीजा ये हुआ कि लड़के रिंकी के लिये कौतुक का विषय नहीं रहे. किसी भी लड़के को देख कर रिंकी शरमाई नज़रों से सिर नहीं झुकाती था. न ही कनखियों से देखती थी. ऐन आंख मिला के देखना और धड़ल्ले से बात करना उसकी आदत में था. लड़के भी रिंकी से उल्टी-सीधी बात नहीं करते थे. एकदम दोस्ताना था उसका लड़कों से. वहीं दूसरी लड़कियां, जिनकी अम्माओं ने गुड्डो की अम्मा की तरह उन पर पाबंदियां लगाई थीं, वे क्लास में पूरे समय कनखियों से लड़कों को देखतीं, और लड़के से नज़र मिलते ही, शर्म के मारे लाल हो जातीं. निगाहें दूसरी ओर फेर लेतीं. इंटरवल में भी इन लड़कियों के पास केवल लड़कों की बातें होतीं. रिंकी उकता जाती. उधर गुड्डो का हाल भी इन्हीं शर्मीली लड़कियों जैसा हो गया था. जबसे मुक्कू का साथ छुड़्वाया गया, लड़के उसे अजूबा लगने लगे, अप्राप्य भी. गुड्डो की अम्मा का पाबंदियों का शिकंजा गुड्डो पर कसता ही जा रहा था. पिछले एक साल से तो गुड्डो अब घर में भी सलवार-कुरता ही पहनने लगी थी. मुक्कू को देख के ऐसे मुंह फेरती, जैसे कभी जानती ही नहीं थी. हां, अम्मा के आस-पास होने का अंदेशा न होता तो मुक्कू को देख एक विवश सी मुस्कुराहट फेंक देती. रिंकी-मुक्कू अक्सर गुड्डो की बातें करते, और एक साथ उदास हो लेते. दसवीं के बाद दोनों ने पॉलीटेक्नीक का टेस्ट देने की सोची थी, सो उसी की तैयारी में जुटे थे. चाहती तो गुड्डो भी थी ये टेस्ट देना, लेकिन उसकी अम्मा ने तय कर दिया था, कि दसवीं के बाद उसे होमसाइंस ही लेना है. एक-एक कर पर नोचे जा रहे थे गुड्डो के. जबकि उसकी अम्मा सोचतीं, कि वे लड़की को सही रास्ते पर ले जा रहीं. बाहरी दुनिया से बचाये हैं, और एक बेहद सुशील लड़की जैसी कि शादी-ब्याह के लिये चाहिये, तैयार कर रहीं.
उस सुबह जब रिंकी जागी, तो बाहर से आती तेज़-तेज़ आवाज़ों ने उसे हैरत में डाल दिया. आंख मलती बाहर निकली तो देखती क्या है, गुड्डो के घर के आगे मजमा लगा है. इधर-उधर भी लोग चार-चार, पांच-पांच के झुंड में खड़े हैं. इतनी सुबह क्या हुआ? अभी तो छह भी नहीं बजे! गुड्डो के यहां कोई बीमार हो गया क्या? तभी मम्मी सामने से आती दिखाई दीं. रिंकी के कुछ पूछने से पहले ही बताने लगीं-’ और रक्खें लड़की को सात तालों में बंद करके. बनवायें केवल रोटी. किसी लायक़ न रहने दें. ये तो होना ही था. अब लड़की को क्या दोष देना? लड़की तो इतनी प्यारी है. पढ़ने में भी कितनी अच्छी थी गुड्डो. लेकिन नहीं. कन्या शाला भेजना है. लड़कों से दूर रखना है. लो अब रक्खो लड़कों से दूर. मैं तो कहती हूं पूरी ग़लती गुड्डो की अम्मा की है. न लड़की पर इतनी पाबंदी लगातीं, न गुड्डो ऐसा कोई कदम उठाती.’ रिंकी का दिल दहल गया. क्या हुआ गुड्डो को? कुछ कर तो नहीं लिया पगलिया ने? कई दिनों से परेशान भी दिख रही थी. लेकिन अब स्कूल का टाइम अलग-अलग होने से दिन भर रिंकी की मुलाक़ात गुड्डो से नहीं होती थी. बल्कि कई-कई दिन निकल जाते थे, मुलाक़ात हुए.
’ मम्मी, किया क्या गुड्डो ने? उसे कुछ हुआ क्या?’ ऐसा पूछते हुए रिंकी की ज़बान लड़खड़ा गयी.
’ गुड्डो घर छोड़ के भाग गयी है. चिट्ठी छोड़ गयी है, कि अब वो इस जेल जैसे घर में नहीं रह सकती.’
’अरेsssssss !!! ‘ रिंकी अवाक! अब तक मुक्कू भी आ गया था. दोनों अपना सिर पकड़ के बैठ गये थे.
भीतर से गुड्डो की अम्मा की धाड़ें मार के रोते हुए विलाप करने की आवाज़ें आ रहीं थी-’ अरे मोरी गुड्डोsssss…. तुम काय चली गयीं…. देखो सब जनें हमें दोस दै रय…… हमने जेल में बंद करो तो का तुमै….. काय लिख गईं ऐसौ… हमें का पता था कि तुम मनई मन में इत्तौ घुल रहीं…… आ जाओ मोरी लाड़ली…अब कछु न कैहैं हम…. ओ मुक्कू…. तुमई ढूंढो ई मौड़ी हां…. तुमाई तो बचपने की दोस्ती है, तुम पता करो उसका…. !! दहाड़ें मारते हुए भी उन्हें संतोष था कि लड़की किसी लड़के के साथ नहीं भागी. लेकिन याद अब उन्हें मुक्कू की ही आ रही थी. जानती थीं, गुड्डो यदि किसी की बात मानेगी तो वो मुक्कू और रिंकी ही हैं.
’चिंता नईं करो चाची. हम हैं न. हम खोजेंगे गुड्डो को. चुटिया पकड़ के घर ले आयेंगे, तुम देखना. अरे बैठी होगी उधर बब्बा जू के मन्दिर के चबूतरे पे. कहां जायेगी आखिर? अकेले जाने का शऊर तो है नहीं उसे, बात करती है…!’
रिंकी और मुक्कू गुड्डो की अम्मा को दिलासा दे रहे थे पूरे भरोसे के साथ
गुड्डो को खोजने रिंकी-मुक्कू निकल पड़े थे अपने पुराने अड्डों पर. उन जगहों पर जहां उनका खेल जमता था, या जहां वे परीक्षा के दिनों में अपना-अपना सबक याद करते थे. शहर से चार किलोमीटर दूर है बब्बा जू का मन्दिर. बब्बा जू यानी हनुमान जी. यहां बड़ा सा चबूतरा है, जिसके दायीं ओर हनुमान जी की मढ़ैया है और बायीं ओर शिवलिंग हैं नंदी बाबा के साथ. दोनों छोटी-छोटी सी मढ़ैयां हैं. बगल में ही खूब बूढ़ा बरगद है जिसकी विशाल शाखाएं मंदिर के चबूतरे पर पर्याप्त छाया बनाये रखतीं हैं. ऐसा लगता है जैसे ये चबूतरा पेड़ के नीचे बनाया गया जबकि ऐसा है नहीं. दूर खड़ा ये पेड़ ही धीरे-धीरे चबूतरे के पास आ गया. इस मन्दिर में सुबह से लेकर शाम तक आवाजाही बनी रहती है. मंदिर के बगल में ही जैसियाराम पंडित जी, जो इस मन्दिर के पुजारी हैं की कुटिया भी बनी है. पुजारी बब्बा इन तीनों को अच्छी तरह जानते हैं, उनके खानदान सहित. आखिर पुजारी बब्बा भी तो इस बरगद जितने ही बूढ़े जो थे. बब्बा जू का ये चबूतरा इन तीनों की प्रिय अध्ययन स्थली, खेल का स्थान, और लड़ाई का मैदान था. पढ़ते समय तीनों बच्चे अपना-अपना कोना चुनते और फिर एक कोने से दूसरे कोने तक घूम-घूम के पढ़ते. मुक्कू-रिंकी जानते थे गुड्डो के भागने की सीमा. सो वे सीधे बब्बा जू के मंदिर पर पहुंचे. पुजारी बब्बा नहा रहे थे हैंड पम्प पर.
’जैसियाराम बब्बा जू.’ मुक्कू ने ज़ोर से टेर लगाते हुए हाथ हवा में ऊपर उठा के जोड़े.
बब्बा जू नहाते समय महामृत्युंजय का जाप करते हैं सो बोलते नहीं. उन्होंने भी दोनों हाथ उठा के आशीर्वाद की मुद्रा बनाई.
ऊं त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम
उर्वारुकमिव बंधनान, मृत्यर्मुक्षिमाम्रताम……
पुजारी बब्बा का स्वर और ऊंचा हो गया.
’बब्बा जू गुड्डो आई है का?’
मंत्र पढ़ते हुए ही बब्बा जू ने मढ़ैया की ओर इशारा कर दिया. यानी ये गुड्डो की बच्ची यहां छुपी बैठी है. दोनों लपके मढ़ैया की तरफ.
उधर गुड्डो बड़े जोश में चिट्ठी लिख के घर से तो निकल आई लेकिन चौराहे से आगे आते ही समझ न पाई कि जायें तो जायें कहां? मुट्ठी में केवल दस रुपये हैं जो कल अम्मा ने टेस्ट की कॉपियां खरीदने को दिये थे. लाल चौराहे से उसे कई बसें निकलती दिखाई दीं, लेकिन उसकी हिम्मत ही न हुई किसी बस में चढ़ने की. एक तो पांच बजे सुबह का धुंधलका, ऊपर से उसे बहुत देर से वहां खड़ा देख, सामने वाली पान की गुमटी पर खड़े दो शोहदों टाइप लड़के उससे ज़रा दूरी बना के खड़े हो गये. गुड्डो जानती थी कि ये दोनों लगातार उसे देख रहे हैं. गुड्डो के बदन में झुरझुरी दौड़ गयी. उसे अम्मा की नसीहत याद आई- ’ गुड्डो, बेटा कभी भी देर-सबेर अकेले न आना-जाना. साथ में कोई न कोई ज़रूर हो. ज़माना भौत खराब है. तुम अभी बहुत छोटी हो सो और तो कुछ न समझोगी, पर इतना समझ लो कि अभी तुम्हारी उमर खराब निगाहों को झेल पाने वाली न है. सो कहीं भी आना-जाना बहुत सम्भल के. और कोई ऐसा मूड़े आ ही जाये, तो फिर घबराना नहीं. मुकाबला करने का हौसला रखना.’ गुड्डो को लगा शायद उसकी अम्मा ठीक ही कहती थीं. आज इन शोहदों की निगाहें उसे बहुत अजीब लग रही थीं. गुड्डो ने आव देखा न ताव, चौराहे पर तुरन्त रुकी एक बस में चढ़ गयी. बस स्टार्ट ही थी सो उसके चढ़ते ही चल दी. लड़के चौराहे पर ही छूट गये.
’कहां जाना है?’ कंडक्टर की आवाज़ से गुड्डो चौंकी. अनायास ही उसके मुंह से निकला-
’कहीं नहीं भैया जी, बस आगे बब्बा जू के मंदिर वाले चौराहे पर उतार दीजियेगा. कंडक्टर आगे बढ़ गया. पांच मिनट बाद ही बस उसे उसके चिरपरिचित मंदिर के पास उतार के आगे बढ़ गयी. चबूतरे पर बैठे बब्बा जू को देख के उसकी जान में जान आई.
’काय गुड्डो…. आज अकेली आई बिटिया? तुमाय साथी कितै हैं?’ दातुन करते हुए ही बब्बा जू ने कई सवाल दागे.
’ आने वाले हैं वे भी बब्बा जू. हम जल्दी आ गये.’ कहते हुए गुड्डो शिवजी की मढ़ैया के अन्दर जा के बैठ गयी, रोज़ की तरह. समझ ही नहीं पा रही थी कि अब घर कैसे जाये? घर में तो मम्मी उठ गयीं होंगी अब तक. और पापा भी. और भैया!! गनीमत है, उसकी पढ़ाई अब दूसरे शहर में हो रही. गुड्डो मना रही थी कि मम्मी आ जायें उसे ढ़ूंढते हुए. मुक्कू-रिंकी तो आ ही सकते हैं. उन्हें भी तो उसके भागने की खबर मिल गयी होगी. घुटनों में सिर दिये गुड्डो अचानक फूट-फूट के रोने लगी. पता नहीं कितनी देर रोती रही….!
’ ये देखो रिंकी…… ये यहां बैठी है. हम न कहते थे? उधर पूरा मोहल्ला परेशान है, और महारानी जी इधर मौज मना रहीं. चल उठ. बहुत हुई नौटंकी. किसने सिखाया था तुम्हें ये भागने का प्लान?’
सामने रिंकी-मुक्कू को पा के गुड्डो को लगा जैसे अब और कुछ नहीं चाहिये उसे.
एक घंटे बाद ही सड़क पर टिकटिकी बांधे गुड्डो की अम्मा को तीन छायाएं आती दिखाई दीं. गुड्डो की अम्मा ने राहत की सांस ली, और अन्दर चली आईं, आखिर अब उन्हें दोबारा गुस्सा जो होना था गुड्डो की हरक़त पर.

समाप्त

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