जै सियाराम जिया...! vandana A dubey द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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जै सियाराम जिया...!

बहुत दिन से लिखना चाह रही थी उन पर...!
शायद तब से ही, जब से मिली ....!
छोटा क़द, गोल-मटोल शरीर, गोरा रंग, चमकदार चेहरा, बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आंखें, माथे पर गोल बड़ी सी सिन्दूरी बिंदी, गले में एक रुद्राक्ष की और एक स्फ़टिक की माला. सीधे पल्ले की साड़ी. उम्र यही कोई पचपन या छप्पन साल. लेकिन मानती खुद को बड़ा-बुज़ुर्ग हैं. ये है उनकी धज.
उनके आने से पहले उनकी आवाज़ सुनाई देने लगती-
" जै सियाराम भौजी.... बैठीं हौ? बैठौ-बैठो. "
"जै राम जी की बेटा.. खूब पढो, खूब बढो...."
हम जान जाते कि पाठक चाची आ गयीं. कुछ मिनटों में ही वे दरवाज़े पर दिखाई देतीं.
"जिया, जै सियाराम. कैसी तबियत है आज? मौं तौ कुल्ल चमक रऔ..."
जवाब का इन्तज़ार किये बिना ही नल की तरफ़ बढ़ जातीं और हाथ-पैर धो के भीतर आतीं.
" चलौ बताऔ बेटा का बननै है. अच्छा चलो रान्दो. हम देख लैहें. काय जिया, जे लौकी काय हां सूख रई? ऐई हां काट लंय का? हम तौ काटै लै रय. और कछू खानै होय, सो वौ सोई बता दियो बेटा हरौ. "
मम्मी शायद कोई और सब्जी बताने वाली थीं, लेकिन लौकी के बारे में उनका फ़ैसला सुन के चुप हो गयीं. तक़लीफ़ में भी मुस्कुरा दीं .
" काय बेटा हरौ, बताऔ नैंयां तुम औरन ने. फिर कैहो का बना दऔ चाची ने. अच्छा रान्दो. हम बना लैहैं तुम औरन की पसन्द कौ कछू."
खुद सवाल करतीं और खुद ही उसका हल भी खोज लेतीं. हम बस हां में सिर हिलाते रह जाते.
रसोई में मैं श्री के लिये दूध लेने पहुंची, प्रेमा बर्तन रखने और पाठक चाची तो पहलेई से आटा गूंध रही थीं, तो प्रेमा ने कहा-
" चौका ( किचन) में जगह कम सी है. है नई जिज्जी? "
" काय? कितै कम है? को कै रऔ ? इत्ती बिलात जांगा पड़ी है, तुमै नईं दिखात का? काय की कमी? सबरौ काम हो रऔ न? खाना बन रऔ न? फिर काय की कमी? ऐन है खूब बड़ौ है. वौ नैयां छोटो. "
बगल में खड़ी मैं सोचने लगी... यही फ़र्क़ है दो लोगों की सोच का..एक ही जगह के बारे में. एक को कम जगह दिख रही, एक को जगह ही जगह दिखाई दे रही!!
साढे नौ बजे खाना बन के तैयार हो गया.
मम्मी ने कहा- खाना खा के जाना आप
उन्होंने कहा- " अरे आंहां जिया. आज न खैहैं . अबै भागवत सुनवे जाने है. उतै नींद न आहै फिर? खाना कौ का है, काल खा लैहैं, परौं खा लैहैं.. तुम चिन्ता जिन करौ जिया. चलो जै सिया राम...."
उस दिन दोपहर का खाना बनाने के बाद थोड़ा समय था उनके पास. बैठ गयीं हम सबके बीच. मैने पूछा-
"चाची, जब शादियों का सीजन होता है, तब तो आप शादी वाले घर में भी जाती हैं, खाना बनाने, तब घर का खाना कौन बनाता है? कोई है घर में या आप ही जा के बनाती हैं?"
तपाक से बोलीं-" अरे बेटा. जे हमाय पंडित जी पैलां मिठयागिरि करत हतै. इतईं बस अड्डे पे उनकी दुकान हती. सो वे तो सब कछू बना लेत :) अबै खुदई वे रोजई रात कौ खाना बना के धरत हैं ."
फिर भी हमारी जिज्ञासा शांत नहीं हुई. पूछा-
" घर में बहुएं हैं चाची?"
"हओ . काय नैंयां? चार मौड़ा हैं हमाय. लेकिन बेटा भगवान कौ दऔ सब कछू है हमाय पास. जे खाना तौ हम अपने हाथ-गोड़ चलत रंय, ईसैं आ बनाउत. हमने लड़कन की शादी कर-कर कैं तीनन खौं दो-दो कमरा दै दय. कि अपनौ बनाऔ -खाऔ . समारो अपन-अपनी गिरस्ती. अब हमाय पास सोई दो कमरा बचे. सो हम दोई जनन के लाने खूब हैं. दो गैंयां हैं. खेती से दो ट्रॉली गल्ला आउत है. सो भर देत हैं कोठा में. खेती अबै बांटी नैंयां. जिये जित्तो अनाज चाने, लै जाओ भाई. भर लो बोरी अब बस छोटो पढ रऔ पालीटेक्नीक में."
चकित हो गयी उनकी समझदारी पर.
फिर छेड़ा- " कभी आपको नहीं लगता कि बहुएं आपकी सेवा करें?"
" आंहां बेटा. काय हां लगने? और हां, करती हैं वे सेवा. खूब करती हैं. अपनौ अपनौ घर संभार रही न? जेई तो सेवा आय. और का करवानै हमें? सोचो, जब हम बहू हतै, तो हमें कैसो लगत तो? वैसई तो आय इन औरन कौ हाल .सब अच्छे हैं बेटा बहुत अच्छे "
कभी उनके मुंह से कोई नकारात्मक बात निकलती ही नहीं...हर हाल में खुश. किसी चीज़ की कमी उन्हें लगती नहीं. थकान उनके पास फटकती नहीं. लालच किसी चीज़ का है नहीं. हम कहते पच्चीस रोटियां सेंकियेगा ( हम सब बहनें और बच्चे इकट्ठे होते हैं न) तो वे कहतीं- " न. पच्चीस नहीं हम तीस रोटी सेंकेगें. बच्चन कौ घर है. का जाने कब किये भूख लग आये" . रात दस बज जाते तो हम कहते, आपको अकेले जाना है चाची इत्ती दूर, चलिये हम छोड़ आयें घर तक. तो कहतीं-
" आंहा बेटा. हमें तो जाने कितेक साल हो गये ऐसई आत-जात. हमाय संगै तो वे भगवान चलत आंगे-आंगे."
एक दिन हमने पूछा- " चाची आप की उम्र तो ज्यादा नहीं लगती" तो उनका गोरा चेहरा लाल गया. बोलीं- " बेटा अब हमें अपनी उमर तौ पता नैयां,लेकिन पंडित जी सैं हम पन्द्रा साल के छोटे हैं. जब हमाओ ब्याऔ भऔ तौ तो हम दस साल के हतै और पंडित जी पच्चीस साल के.औ अब पंडित जी तो सत्तर के ऊपर गिर गये... सो तुमई लगा लो हमाई उमर..."
जै सियाराम जिया....... वो चली गयीं और हम आज तक पंडित जी के सत्तर के ऊपर गिरने का मज़ा ले रहे...