शान्ति
दोनों पीरे ज़ैन डेरी के बाहर बड़े धारियों वाले छाते के नीचे कुर्सीयों पर बैठे चाय पी रहे थे। उधर समुंद्र था जिस की लहरों की गुनगुनाहट सुनाई दे रही थी। चाय बहुत गर्म थी। इस लिए दोनों आहिस्ता आहिस्ता घूँट भर रहे थे मोटी भोरों वाली यहूदन की जानी पहचानी सूरत थी। ये बड़ा गोल मटोल चेहरा, तीखी नाक। मोटे मोटे बहुत ही ज़्यादा सुर्ख़ी लगे होंट। शाम को हिमेशा दरमयान वाले दरवाज़े के साथ वाली कुर्सी पर बैठी दिखाई देती थी। मक़बूल ने एक नज़र उस की तरफ़ देखा और बलराज से कहा। “बैठी है जाल फेंकने।”
बलराज मोटी भोओं की तरफ़ देखे बग़ैर बोला। “फंस जाएगी कोई न कोई मछली।”
मक़बूल ने एक पेस्ट्री मुँह में डाली। “ये कारोबार भी अजीब कारोबार है। कोई दुकान खोल कर बैठती है। कोई चल फिर के सौदा बेचती है। कोई इस तरह रेस्तोरानों में गाहक के इंतिज़ार में बैठी रहती है........ जिस्म बेचना भी एक आर्ट है, और मेरा ख़याल है बहुत मुश्किल आर्ट है........ ये मोटी भूओं वाली कैसे गाहक को अपनी तरफ़ मुतवज्जा करती है। कैसे किसी मर्द को ये बताती होगी कि वो बिकाऊ है।”
बलराज मुस्कुराया। “किसी रोज़ वक़्त निकालो कि कुछ देर यहां बैठो। तुम्हें मालूम हो जाएगा कि निगाहों ही निगाहों में क्यों कर सौदे होते हैं इस जिन्स का भाव कैसे चुकता है।” ये कह कर Gस ने एक मक़बूल का हाथ पकड़ा। “उधर देखो, उधर।”
मक़बूल ने मोटी यहूदन की तरफ़ देखा। बलराज ने उस का हाथ दबाया। “नहीं यार........ उधर कोने के छाते के नीचे देखो।”
मक़बूल ने उधर देखा। एक दुबली पतली, गौरी चिट्टी लड़की कुर्सी पर बैठ रही थी। बाल कटे हुए थे। नाक नक़्शा ठीक था। हल्के ज़र्द रंग की जॉर्जजट की साड़ी में मलबूस थी। मक़बूल ने बलराज से पूछा। “कौन है ये लड़की?”
बलराज ने उस लड़की की तरफ़ देखते हुए जवाब दिया। “अम्मां वही है जिस के बारे में तुम से कहा था कि बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब है।”
मक़बूल ने कुछ देर सोचा फिर कहा। “कौन सी यार तुम, तुम तो जिस लड़की से भी मिलते हो अजीब-ओ-गरीब ही होती है।”
बलराज मुस्कुराया। “ये बड़ी ख़ासुलख़ास है........ ज़रा ग़ौर से देखो।”
मक़बूल ने ग़ौर से देखा। बुरीदा बालों का रंग भूसला था। हल्के बसंती रंग की साड़ी के नीचे छोटी आस्तीनों वाला बिलाउज़। पतली पतली बहुत ही गौरी बांहें। लड़की ने अपनी गर्दन मोड़ी तो मक़बूल ने देखा कि इस के बारीक होंटों पर सुर्ख़ी फैली हुई सी थी। “मैं और तो कुछ नहीं कह सकता मगर तुम्हारी इस अजीब-ओ-ग़रीब लड़की को सुर्ख़ी इस्तिमाल करने का सलीक़ा नहीं है........ अब और ग़ौर से देखा है तो साड़ी की पहनावट में भी खामियां नज़र आई हैं। बाल संवारने का अंदाज़ भी सुथरा नहीं।”
बलराज हंसा। “तुम सिर्फ़ खामियां ही देखते हो। अच्छाईयों पर तुम्हारी निगाह कभी नहीं पड़ती।”
मक़बूल ने कहा। “जो अच्छाईयां हैं वो अब बयान फ़र्मा दीजीए, लेकिन पहले ये बता दीजीए कि आप इस लड़की को ज़ाती तौर पर जानते हैं या........ ”
लड़की ने जब बलराज को देखा तो मुस्कुराई। मक़बूल रुक गया। “मुझे जवाब मिल गया। अब आप मोहतरमा की खूबियां बता दीजीए।”
“सब से पहली ख़ूबी उस लड़की में ये है कि बहुत साफ़ गो है। कभी झूट नहीं बोलती। जो उस ने अपने लिए बना रखे हैं उन पर बड़ी पाबंदी से अमल करती है। पर्सनल हाई जैन का बहुत ख़याल रखती है। मोहब्बत-ओ-हब्बत की बिलकुल क़ाइल नहीं। इस मुआमले में दिल उस का बर्फ़ है।”
बलराज ने चाए का आख़िरी घूँट पिया “कहीए क्या ख़याल है?”
मक़बूल ने लड़की को एक नज़र देखा। “जो खूबियां तुम ने बताई हैं एक ऐसी औरत में नहीं होनी चाहिऐं। जिस के पास मर्द सिर्फ़ इस ख़याल से जाते हैं कि वो उन से असली नहीं तो मस्नूई मोहब्बत ज़रूर करेगी........ ख़ुद फ़रेबी हैं अगर ये लड़की किसी मर्द की मदद नहीं करती तो मैं समझता हूँ बड़ी बेवक़ूफ़ है।”
“यही मैंने सोचा था........ मैं तुम से क्या बयान करूं, रूखेपन की हद तक साफ़ गो है। इस से बातें करो तो कई बार धक्के से लगते हैं........ एक घंटा होगया। तुम ने खुली कोई काम की बात नहीं की........ मैं चली, और ये जा वो जा........ तुम्हारे मुँह से शराब की बू आती है। जाओ चले जाओ........ साड़ी को हाथ मत लगाओ मैली हो जाएगी” ये कह कर बलराज ने सिगरेट सुलगाया। “अजीब-ओ-ग़रीब लड़की है। पहली दफ़ा जब इस से मुलाक़ात हुई तो में बाई गौड चकरा गया। छूटते ही मुझ से कहा। फिफ्टी से एक पैसा कम नहीं होगा। जेब में हैं तो चलो वर्ना मुझे और काम हैं।”
मक़बूल ने पूछा। “नाम क्या है इस का।”
“शांति बताया इस ने........ कशमीरन है”
मक़बूल कश्मीरी था। “चौंक पड़ा कशमीरन!”
“तुम्हारी हम-वतन।”
मक़बूल ने लड़की की तरफ़ देखा। “नाक नक़्शा साफ़ कश्मीरीयों का था। यहां कैसे आई?”
“मालूम नहीं!”
“कोई रिश्तेदार है इस का?” मक़बूल लड़की में दिलचस्पी लेने लगा।
“वहां कश्मीर में कोई हो तो मैं कह नहीं सकता। यहां बंबई में अकेली रहती है।” बलराज ने सिगरेट ऐश ट्रे में दबाया हारिबनी रोड पर एक होटल है, वहां इस ने एक कमरा किराए पर ले रखा है........ ये मुझे एक रोज़ इत्तिफ़ाक़न मालूम होगया वर्ना ये अपने ठिकाने का पिता किसी को नहीं देती। जिस को मिलना होता है यहां पीरे ज़ैन डेरी में चला आता है। शाम को पूरे पाँच बजे आती है यहां!”
मक़बूल कुछ देर ख़ामोश रहा। फिर बैरे को इशारे से बुलाया और उस से बिल लाने के लिए कहा। इस दौरान में एक ख़ुशपोश नौजवान आया और उस लड़की के पास वाली कुर्सी पर बैठ गया। दोनों बातें करने लगे। मक़बूल बलराज से मुख़ातब हुआ। “इस से कभी मुलाक़ात करनी चाहिए।”
बलराज मुस्कुराया। “ज़रूर ज़रूर........ लेकिन इस वक़्त नहीं। मसरूफ़ है। कभी आजाना यहां शाम को........ और साथ बैठ जाना।”
मक़बूल ने बिल अदा किया। दोनों दोस्त उठ कर चले गए।
दूसरे रोज़ मक़बूल अकेला आया और चाय का आर्डर दे कर बैठ गया। ठीक पाँच बजे वो लड़की बस से उत्तरी और पर्स हाथ में लटकाए मक़बूल के पास से गुज़री। चाल भद्दी थी। जब वो कुछ दूर, कुर्सी पर बैठ गई तो मक़बूल ने सोचा। “इस में जिन्सी कशिश तो नाम को भी नहीं। हैरत है कि इस का कारोबार क्योंकर चलता है........ लिप स्टिक कैसे बेहूदा तरीक़े से इस्तिमाल की है इस ने........ साड़ी की पहनावट आज भी ख़ामीयों से भरी है।”
फिर उस ने सोचा कि इस से कैसे मिले। उस की चाय मेज़ पर आचुकी थी वर्ना उठ कर वो उस लड़की के पास जा बैठता। उस ने चाय पीना शुरू करदी। इस दौरान में उस ने एक हल्का सा इशारा किया। लड़की ने देखा कुछ तवक्कुफ़ के बाद उठी और मक़बूल के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। मक़बूल पहले तो कुछ घबराया लेकिन फ़ौरन ही सँभल कर लड़की से मुख़ातब हुआ। “चाय शौक़ फ़रमाएंगी आप।”
“नहीं।”
उस के जवाबों के इस इख़्तिसार में रूखापन था। मक़बूल ने कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद कहा।“ कश्मीरीयों को तो चाय का बड़ा शौक़ होता है।”
लड़की ने बड़े बेहंगम अंदाज़ में पूछा। “तुम चलना चाहते हो मेरे साथ।”
मक़बूल को जैसे किसी ने औंधे मुँह गिरा दिया। घबराहट में वो सिर्फ़ इस क़दर कह सका। “हा........”
लड़की ने कहा। “फिफ्टी रूपीज़........ यस और नौ?”
ये दूसरा रेला था मगर मक़बूल ने अपने क़दम जमा लिए “चलीए!”
मक़बूल ने चाय का बिल अदा किया। दोनो उठ कर टैक्सी स्टैंड की तरफ़ रवाना हुए। रास्ते में उस ने कोई बात न की। लड़की भी ख़ामोश रही। टैक्सी में बैठे तो उस ने मक़बूल से पूछा। “कहाँ जाएगा तुम?”
मक़बूल ने जवाब दिया। “जहां तुम ले जाओगी।”
“हम कुछ नहीं जानता........ तुम बोलो किधर जाएगा? “”
मक़बूल को कोई और जवाब न सूझा तो कहा। “हम कुछ नहीं जानता!”
लड़की ने टैक्सी का दरवाज़ा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। “तुम कैसा आदमी है........ खली पीली जोक करता है।”
मक़बूल ने उस का हाथ पकड़ लिया “मैं मज़ाक़ नहीं करता........ मुझे तुम से सिर्फ़ बातें करनी हैं।”
वो बिगड़ कर बोली “क्या........ तुम तो बोला था फिफ्टी रूपीज़ यस!”
मक़बूल ने जेब में हाथ डाला और दस दस के पाँच नोट निकाल कर उस की तरफ़ बढ़ा दिए। “ये लो घबराती क्यों हो।”
इस ने नोट ले लिए। “तुम जाएगा कहाँ।”
मक़बूल ने कहा। “तुम्हारे घर।”
“नहीं।”
“क्यों नहीं।”
“तुम को बोला है नहीं........ उधर ऐसी बात नहीं होगी।”
मक़बूल मुस्कुराया। “ठीक है। ऐसी बात उधर नहीं होगी।”
वो कुछ मुतहय्यर सी हुई। “तुम कैसा आदमी है।”
“जैसा मैं हूँ। तुम ने बोला फिफ्टी रूपीज़ यस कि नौ........ मैंने कहा यस और नोट तुम्हारे हवाले करदिए। तुम ने बोला उधर ऐसी बात नहीं होगी। मैंने कहा बिलकुल नहीं होगी........ अब और क्या कहती हो।”
लड़की सोचने लगी। मक़बूल मुस्कुराया। “देखो शांति, बात ये है। कल तुम को देखा। एक दोस्त ने तुम्हारी कुछ बातें सुनाईं जो मुझे दिलचस्प मालूम हुईं। आज मैंने तुम्हें पकड़ लिया। अब तुम्हारे घर चलते हैं। वहां कुछ देर तुम से बातें करूंगा और चला जाऊंगा........ क्या तुम्हें ये मंज़ूर नहीं।”
“नहीं........ ये लो अपने फिफ्टी रूपीज़।” लड़की के चेहरे पर झुंजलाहट थी।
“तुम्हें बस फिफ्टी रूपीज़ की पड़ी है........ रुपय के इलावा भी दुनिया मैं और बहुत सी चीज़ें हैं.... चलो, ड्राईवर को अपना एडरैस्स बताओ........ मैं शरीफ़ आदमी हूँ। तुम्हारे साथ कोई धोका नहीं करूंगा।” मक़बूल के अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में सदाक़त थी। लड़की मुतअस्सिर हुई। उस ने कुछ देर सोचा फिर कहा। “चलो........ ड्राईवर, हारिबनी रोड!”
टैक्सी चली तो उस ने नोट मक़बूल की जेब में डाल दिए। “ये मैं नहीं लूंगी।”
मक़बूल ने इसरार न किया। “तुम्हारी मर्ज़ी!”
टैक्सी एक पाँच मंज़िला बिल्डिंग के पास रुकी। पहली और दूसरी मंज़िल पर मसास ख़ाने थे। तीसरी, चौथी और पांचवें मंज़िल होटल के लिए मख़सूस थी। बड़ी तंग-ओ-तार जगह थी। चौथी मंज़िल पर सीढ़ीयों के सामने वाला कमरा शांति का था। उस ने पर्स से चाबी निकाल कर दरवाज़ा खोला। बहुत मुख़्तसर सामान था। लोहे का एक पलंग जिस पर उजली चादर बिछी थी। कोने में डरेसिनग टेबल। एक स्टूल, उस पर टेबल फ़ैन। चार ट्रंक थे वो पलंग के नीचे धरे थे।
मक़बूल कमरे की सफ़ाई से बहुत मुतअस्सिर हुआ। हर चीज़ साफ़ सुथरी थी। तकीए के ग़लाफ़ आम तौर पर मैले होते हैं मगर उस के दोनों तकीए बेदाग़ ग़लाफ़ों में मलफ़ूफ़ थे। मक़बूल पलंग पर बैठने लगा तो शांति ने उसे रोका। “नहीं........ उधर बैठने का इजाज़त नहीं.... हम किसी को अपने बिस्तर पर नहीं बैठने देता। कुर्सी पर बैठो” ये कह कर वह ख़ुद पलंग पर बैठ गई। मक़बूल मुस्कुरा कर कुर्सी पर टिक गया।
शांति ने अपना पर्स तकीए के नीचे रखा और मक़बूल से पूछा। “बोलो........ क्या बातें करना चाहते हो?”
मक़बूल ने शांति की तरफ़ ग़ौर से देखा। “पहली बात तो ये है कि तुम्हें होंटों पर लिप स्टिक लगानी बिलकुल नहीं आती।”
शांति ने बुरा न माना। सिर्फ़ इतना कहा। “मुझे मालूम है।”
“उठो। मुझे लिप स्टिक दो मैं तुम्हें सिखाता हूँ” ये कह कर मक़बूल ने अपना रूमाल निकाला।
शांति ने उस से कहा। “डरेसिंग टेबल पर पड़ा है, उठा लो।”
मक़बूल ने लिप स्टिक उठाई। उसे खोल कर देखा। “इधर आओ, मैं तुम्हारे होंट पोँछूं।”
“तुम्हारे रूमाल से नहीं........ मेरा लो।” ये कह कर इस ने ट्रंक खोला और एक धुला हुआ रूमाल मक़बूल को दिया। मक़बूल ने उस के होंट पोंछे। बड़ी नफ़ासत से नई सुर्ख़ी उन पर लगाई। फिर कंघी से उस के बाल ठीक किए और कहा। “लो अब आईना देखो।”
शांति उठ कर डरेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई। बड़े ग़ौर से इस ने अपने होंटों और बालों का मुआइना किया। पसंदीदा नज़रों से तबदीली महसूस की और पलट कर मक़बूल से सिर्फ़ इतना कहा। “अब ठीक है” फिर पलंग पर बैठ कर पूछा। “तुम्हारा कोई बीवी है?”
मक़बूल ने जवाब दिया। “नहीं।”
कुछ देर ख़ामोशी रही। मक़बूल चाहता था बातें हों चुनांचे उस ने सिलसिल-ए-कलाम शुरू किया।
“इतना तो मुझे मालूम है कि तुम कश्मीर की रहने वाली हो। तुम्हारा नाम शांति है। यहां रहती हो.... ये बताओ तुम ने फिफ्टी रूपीज़ का मुआमला क्यों शुरू किया?”
शांति ने ये बेतकल्लुफ़ जवाब दिया। “मेरा फादर श्रीनगर में डाक्टर है.... मैं वहां होसपीटल में नर्स था। एक लड़के ने मुझ को ख़राब कर दिया........ मैं भाग कर इधर को आगई। यहां हम को एक आदमी मिला। वो हम को फिफ्टी रूपीज़ दिया........ बोला हमारे साथ चलो। हम गया। बस काम चालू होगया.... हम यहां होटल में आगया.... पर हम इधर किसी से बात नहीं करती.... सब रंडी लोग है.... किसी को यहां नहीं आने देती।”
मक़बूल ने कुरेद कुरेद कर तमाम वाक़ियात मालूम करना मुनासिब ख़याल न किया। कुछ और बातें हुईं जिन से उसे पता चला कि शांति को जिन्सी मुआमले से कोई दिलचस्पी नहीं थी। जब इस का ज़िक्र आया तो उस ने बुरा सा मुँह बना कर कहा। “आई डोंट लाइक। इट इज़ बैड।”
उस के नज़दीक फिफ्टी रूपीज़ का मुआमला एक कारोबारी मुआमला था। श्रीनगर के हस्पताल में जब किसी लड़के ने उस को ख़राब किया तो जाते वक़्त दस रुपय देना चाहे। शांति को बहुत ग़ुस्सा आया। नोट फाड़ दिया। इस वाक़े का उस के दिमाग़ पर ये असर हुआ कि उस ने बाक़ायदा कारोबार शुरू कर दिया। पच्चास रुपय फ़ीस ख़ुदबख़ुद मुक़र्रर होगई। अब लज़्ज़त का सवाल ही कहाँ पैदा होता था........ चूँकि नर्स रह चुकी थी इस लिए बड़ी मोहतात रहती थी।
एक बरस होगया था उसे बंबई में आए हुए। इस दौरान में उस ने दस हज़ार रुपय बचाए होते मगर उस को रेस खेलने की लत पड़ गई। पिछली रेसों पर इस के पाँच हज़ार उड़ गए लेकिन उस को यक़ीन था कि वो नई रेसों पर ज़रूर जीतेगी। “हम अपना लोस पूरा कर लेगा।”
उस के पास कोड़ी कोड़ी का हिसाब मौजूद था। सौ रुपय रोज़ाना कमा लेती थी जो फ़ौरन बंक में जमा करा दिए जाते थे। सौ से ज़्यादा वो नहीं कमाना चाहती थी। उस को अपनी सेहत का बहुत ख़याल था।
दो घंटे गुज़र गए तो उस ने पानी घड़ी देखी और मक़बूल से कहा। “तुम अब जाओ.... हम खाना खाएगा और सो जाएगा।” मक़बूल उठ कर जाने लगा तो उस ने कहा। “बातें करने आओ तो सुबह के टाइम आओ। शाम के टाइम हमारा नुक़्सान होती है।”
मक़बूल ने “अच्छा” कहा और चल दिया।
दूसरे रोज़ सुबह दस बजे के क़रीब मक़बूल शांति के पास पहुंचा। उस का ख़याल था कि वो उस की आमद पसंद नहीं करेगी मगर उस ने कोई नागवारी ज़ाहिर न की। मक़बूल देर तक उस के पास बैठा रहा। इस दौरान में शांति को सही तरीक़े पर साड़ी पहननी सिखाई। लड़की ज़हीन थी। जल्दी सीख गई।
कपड़े उस के पास काफ़ी तादाद में और अच्छे थे। ये सब के सब इस ने मक़बूल को दिखाए। इस में बचपना था ना बुढ़ापा। शबाब भी नहीं था। वो जैसे कुछ बनते बनते एक दम रुक गई थी, एक ऐसे मुक़ाम पर ठहर गई थी जिस के मौसम का ताय्युन नहीं होसकता। वो ख़ूबसूरत थी ना बदसूरत, औरत थी ना लड़की। वो फूल थी ना कली। शाख़ थी ना तना। उस को देख कर बाअज़ औक़ात मक़बूल को बहुत उलझन होती थी। वो उस में वो नुक़्ता देखना चाहता था। जहां उस ने ग़लत मलत होना शुरू किया था।
शांति के मुतअल्लिक़ और ज़्यादा जानने के लिए मक़बूल ने उस से हर दूसरे तीसरे रोज़ मिलना शुरू कर दिया। वो उस की कोई ख़ातिर मदारत नहीं करती थी। लेकिन अब उस ने उस को अपने साफ़ सुथरे बिस्तर पर बैठने की इजाज़त दे दी थी। एक दिन मक़बूल को बहुत तअज्जुब हुआ जब शांति ने उस से कहा। “तुम कोई लड़की मांगता?”
मक़बूल लेटा हुआ था चौंक कर उठा। “क्या कहा?”
शांति ने कहा। “हम पूछती, तुम कोई लड़की मांगता तो हम ला कर देता।”
मक़बूल ने उस से दरयाफ़्त किया कि ये बैठे बैठे उसे क्या ख़याल आया। क्यों उस ने ये सवाल किया तो वो ख़ामोश होगई। मक़बूल ने इसरार किया तो शांति ने बताया कि मक़बूल उसे एक बेकार औरत समझता है। उस को हैरत है कि मर्द इस के पास क्यों आते हैं जबकि वो इतनी ठंडी है। मक़बूल इस से सिर्फ़ बातें करता है और चला जाता है। वो उसे खिलौना समझता है। आज इस ने सोचा, मुझ जैसी सारी औरतें तो नहीं मक़बूल को औरत की ज़रूरत है, क्यों न वो उसे एक मंगा दे।
मक़बूल ने पहली बार शांति की आँखों में आँसू देखे। एक दम वो उठी और चिल्लाने लगी “हम कुछ भी नहीं है........ जाओ चले जाओ........ हमारे पास क्यों आता है तुम........ जाओ।”
मक़बूल ने कुछ न कहा। ख़ामोशी से उठा और चला गया।
मुतवातिर एक हफ़्ता दो पीरे ज़ैन डेरी जाता रहा। मगर शांति दिखाई न दी। आख़िर एक सुबह उस ने उस के होटल का रुख़ किया। शांति ने दरवाज़ा खोल दिया मगर कोई बात न की। मक़बूल कुर्सी पर बैठ गया........ शांति के होंटों पर सुर्ख़ी पुराने भद्दे तरीक़े पर लगी थी। बालों का हाल भी पुराना था। साड़ी की पहनावट तो और ज़्यादा बदज़ेब थी। मक़बूल उस से मुख़ातब हुआ। “मुझ से नाराज़ हो तुम?”
शांति ने जवाब न दिया और पलंग पर बैठ गई। मक़बूल ने तुंद लहजे में पूछा। “भूल गईं जो मैंने सिखाया था?”
शांति ख़ामोश रही। मक़बूल ने ग़ुस्से में कहा। “जवाब दो वर्ना याद रखू मारूंगा।”
शांति ने सिर्फ़ इतना कहा। “मारो।”
मक़बूल ने उठ कर एक ज़ोर का चांटा इस के मुँह पर जड़ दिया........ शांति बिलबिला उठी। उस की हैरतज़दा आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे। मक़बूल ने जेब से अपना रूमाल निकाला। ग़ुस्से में उस के होंटों की भद्दी सुर्ख़ी पोंछी। उस ने मुज़ाहमत की लेकिन मक़बूल अपना काम करता रहा। लिप स्टिक उठा कर नई सुर्ख़ी लगाई। कंघे से उस के बाल संवारे, फिर उस ने तहक्कुमाना लहजे में कहा। “साड़ी ठीक करो अपनी।”
शांति उठी और साड़ी ठीक करने लगी मगर एक दम इस ने फूट फूट कर रोना शुरू कर दिया और रोती रोती ख़ुद को बिस्तर पर गिरा दिया। मक़बूल थोड़ी देर ख़ामोश रहा। जब शांति के रोने की शिद्दत कुछ कम हुई तो उस के पास जा कर कहा। “शांति उठो........ मैं जा रहा हूँ।”
शांति ने तड़प कर करवट बदली और चिल्लाई। “नहीं नहीं........ तुम नहीं जा सकते।” और दोनों बाज़ू फैला कर दरवाज़े के दरमयान में खड़ी होगई। “तुम गया तो मार डालूंगी।”
वो हांप रही थी। उस का सीना जिस के मुतअल्लिक़ मक़बूल ने कभी ग़ौर ही नहीं किया था जैसे गहरी नींद से उठने की कोशिश कर रहा था। मक़बूल की हैरतज़दा आँखों के सामने शांति ने तले ऊपर बड़ी स्रात से कई रंग बदले। उस की नमनाक आँखें चमक रही थीं। सुर्ख़ी लगे बारीक होंट हौलेहौले लरज़ रहे थे। एक दम आगे बढ़ कर मक़बूल ने उस को अपने सीने के साथ भींच लिया।
दोनों पलंग पर बैठे तो शांति ने अपना सर नीवढ़ा कर मक़बूल की गोद में डाल दिया। उस के आँसू बंद होने ही में न आते थे। मक़बूल ने उस को प्यार किया। रोना बंद करने के लिए कहा तो वो आँसूओं में अटक अटक कर बोली “उधर श्रीनगर में........ एक आदमी ने........ हम को मार दिया था........ इधर एक आदमी ने........ हम को ज़िंदा कर दिया।”
दो घंटे के बाद जब मक़बूल जाने लगा तो उस ने जेब से पच्चास रुपय निकाल कर शांति के पलंग पर रखे और मुस्कुरा कहा। “ये लो अपने फिफ्टी रूपीज़!”
शांति ने बड़े ग़ुस्से और बड़ी नफ़रत से नोट उठाए और फेंक दिए।
फिर उस ने तेज़ी से अपनी डरेसिंग टेबल का एक दरवाज़ा खोला और मक़बूल से कहा। “इधर आओ........ देखो ये क्या है?”
मक़बूल ने देखा। दराज़ में सौ सौ के कई नोटों के टुकड़े पड़े थे। मुट्टी भर के शांति ने उठाए और हवा में उछाले। “हम अब ये नहीं मांगता!”
मक़बूल मुस्कुराया। हौले से उस ने शांति के गाल पर छोटी सी चपत लगाई और पूछा: “अब तुम क्या मांगता है!”
शांति ने जवाब दिया। “तुम को” ये कह कर वो मक़बूल के साथ चिमट गई और रोना शुरू कर दिया।
मक़बूल ने इस के बाल सँवारते हुए बड़े प्यार से कहा। “रोओ नहीं........ तुम ने जो मांगा है वो तुम्हें मिल गया है।”