कोरा कागज़ Manjeet Singh Gauhar द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कोरा कागज़

ये ज़िन्दगी है साहब , इम्तहान तो लेती ही है। और ना सिर्फ़ इंसानो का इम्तहान लेती है, बल्कि संसार में जितना भी कुछ है सब ही का इम्तहान लेती है।
यहाँ इस संसार कोई किसी का हो या ना हो, पर कोरे कागज़ का इंसान से बहुत गहरा लगाव होता है। जैसा एक बाप का अपने बेटे से होता है। जिस तरह एक बाप अपने बेटे की खुशी के लिए कोई भी बलिदान देने को हमेशा तैयार रहता है। उसी तरह एक कोरा कागज़ भी इंसान का हर तरह से साथ देता है। वो किसी का मन लगाता है, तो किसी को कामयाब करता है। जो भी इंसान जैसा चाहता है कोरे कागज़ की साहयता से वो उसे पूर्ण रूप से पा लेता है।
इस कहानी में अापको मैं कोरें कागज़ का दर्द बताउगां।
दरअसल, एक कोरा कागज़ हमेशा ये चाहता है कि उसकी वज़ह से किसी को भी किसी तरह का कोई दर्द ना पहुँचे।
एक बार की बात है कि एक कागज़ और कलम आपस में बात कर रहे थे। कागज़ बड़ी खुशी से कलम से कह रहा था कि ' यार, मैं हमेशा इंसानो को हँसते-खेलते देखना चाहता हूँ। और मैं, ना जाने कितने वर्षों से इंसानो की ज़रूरतो को पूरा करता आ रहा हूँ। इस संसार में हर सफ़ल व्यक्ति को सफ़लता मेरी ही वज़ह से मिलती है। मैं लाखों बड़े और बच्चों का मन लगाता आ रहा हूँ।' 
कोरा कागज़ कलम को अपने बारे बताते समय  इतना मायूस हो गया कि बात बताते-बताते ही रोने लगा। कह रहा था कि ' ये इंसान जो अपने आपको बहुत ही ज़्यादा समझदार समझते हैं। मैं उनके लिए इतने वर्षों से सबकुछ करता आ रहा हूँ। और वो एक छोटी-सी ग़लती पर मुझे मोड़-तोड और फाड़कर कचरे में फेंक देते हैं। और वो ग़लती भी इंसान स्वयं ही करता है। लेकिन उसका ख़ामियाज़ा मुझे भुगतना पडता है।'
कागज़ रोते हुए अपनी बात कहता है कि ' ये इंसान तो इंसान इनके बच्चे भी बहुत निर्दयी होते हैं। मुझ पर ज़रा भी रहम नही करते हैं। मुझसे सब तरह के गेम खेलते हैं जैसे कि- सोलह पर्ची का खेल , चोर सिपाई का खेल , डब्बा बनाना , नाम बनाना , गोला बनाकर फिर उन्हें काटना , नाव बनाकर नाली मोरियों में बहाना, और भी ना जाने कितनी तरह के गेम मैं उनको खिलाता हूँ। और खेलने के बाद मुझे फाड़कर कचरे में फेंक देते हैं।
चलो खैर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। यहाँ तो बड़े भी मेरी भावनाओ के साथ खेलते हैं।
मैं हज़ार परेशानियों को सहन करता हूँ कि आख़िर इंसान अपने सपनों को पूर्ण रूप से हकीक़त में बदल सकें। वो मेरा भरपूर इस्तेमाल करते हैं। और उसके बाद मुझे कचरे के डब्बे में फेंक देते हैं।'
फिर अपने आप को शान्त करते हुए कोरे कागज़ ने कहा ' लेकिन मैं अपने आपको ये सोच कर शान्त कर लेता हूँ कि इंसान तो उनका नही हो पाया जिन्होने उसे जन्म दिया है। तो वो मेरा क्या ख़ाक होगा। बुढापा में माता-पिता की सेवा करने में लोग अपना समय व्यर्थ करना समझते हैं। तो ये मेरा सम्मान क्यों करेंगे। जबकि मैं तो एक निर्जीव चीज़ हूँ।

कोरे कागज़ का दर्द तो वो जाने 
जो सफ़लता के लिए किसी का अहसान माने।

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मंजीत सिंह गौहर