बंद गले का ब्लाउज Dipak Raval द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बंद गले का ब्लाउज

‘बंद गले का ब्लाउज’

-दीपक रावल

(मूल गुजराती से अनुवाद – मदनमोहन शर्मा)

बालूभाई कब से बेचैन थे. आज लीला ने क्यों देरी की होगी ?रोजाना तो समय से आ जाती है. शंका – कुशंकावश बेचैनी बढ़ रही थी. चहलकदमी करने के बाद वे आराम-कुर्सी में बैठ गए. उनकी नज़र सामने के घर पर गई. नारण अखबार पढ़ रहा था. उसने बाबुभाई को देखा तो अजीब सा हंस दिया. बालूभाई ने मुह घुमा लिया. उन्हें नारायण का मुह नहीं सुहाता. हरामखोर....साला. जब भी हँसता है तो मुंह टेढ़ा कर लुच्चाई से हँसता है. पिछले कुछ दिनों से तो .....शायद उसने भांप लिया है....खड़े होकर उन्होंने खिड़की बन्द कर दी.

तकिये के निचे से घडी करके रखा हुआ गुलाबी रंग का बंद गले का गरम ब्लाउज निकाला. हाथ से कुछ देर सहलाया. सुहावने स्पर्श का अहेसास था. नटुभाई की पसंद का भी जवाब नही. इसीलिए तो उन्होंने नटुभाई को यह कम सौपा था. यहाँ गाँव भर में ऐसा ब्लाउज नहीं मिलेगा. उपर से सभी दुकानदार पहचानते है तो पूछेंगे ही ‘साहब, आप किसके लिए ब्लाउज खरीद रहे है ?’ इसी डर से नटुभाई को कहा था ‘साहब, आप हरिद्वार जा रहे है, मेरा एक काम नहीं करेंगे ?’

‘अरे कहो तो, क्या काम है ?’ नटुभाई ने पूछा था.

‘मैंने एक कामवाली रखी है. बिचारी गरीब विधवा है. आप तो जानते ही है कि घरवाली ने तो खाट पकडली थी. घर के सारे कम मुझे करने पड़ते थे. ऊपर से नौकरी करनी. बेबस था. मुझे काम से रहत मिली और उसे चार पैसे का सहारा. घरवाली के गुजरने के बाद भी उसे रखा क्यों की उसे छोड़ दूँ तो फिर खाने- पिने के लाले पड़ जाएंगे. घरवाली के सारे कपड़े उसको दे दिए है पर बिचारी ठण्ड में सिहरती रहती है तो मैंने सोचा कि उसे एकाध गरम ब्लाउज दिलवा दूँ. मुझे पता चला की आप हरिद्वार जाने वाले है इसी लिए आप से कहा’.

‘अरे, जरुर ले आऊंगा. इसमें क्या है ?’

‘बन्द गले का लाना. जो पैसे होंगे, दे दूंगा.’

‘अरे सा’ब, यह क्या बात हुई ? ब्लाउज किस साइज़ का लाऊं ?’

‘लगभग चालीस के आसपास उम्र है, माध्यम डील-डौल है’. बालूभाई ने सकुचाते-सकुचाते खा. नटुभाई को थोड़ी हंसी आ गई पर रोके रहे. बालूभाई बड़े थे और उनके बेटे को ट्यूशन पढ़ाते थे तो लिहाज करना भी जरुरी था. नटुभाई गुलाबी रंग का बन्द गले का गरम ब्लाउज ले आये थे और जब पैसे देने को कहा तो उन्होंने मन कर दिया था.

बालूभाई ने ब्लाउज की तहे खोलीं और देखने लगे. नाप तो ठीक होगी. छाती पर शायद कसा हुआ रहे पर दो-चार बार पहनने के बाद ढीला हो जाएगा. उन्होंने ब्लाउज की घड़ी कर फिर से तकिए के निचे रख दिया और लीला का इंतजार करने लगे.

बालूभाई का असली नाम बालाशंकर है पर सब उनको बालू के नाम से ही पहचानते है. बिचारे करम के फूटे थे, वैसे सरे दुःख लेकर ही जन्मे थे. घर भी गरीब. छोटी-सी खेती. गाँव में चार दर्जे तक पढ़े. आगे की पढाई इदर जाकर नहीं कर सकते थे. खर्च कहाँ से आता ? इदर में उनके फूफा रहते थे. विधवा माँ ने हाथ-पैर जोड़कर उनके यहाँ पढ़ने भेजा. वहां बालूभाई का समय पढ़ने से ज्यादा घर के कामों को करने में बीतता. घर की सफाई, कपड़े धोना, रसोई में हाथ बटाने में जाता था. अगर कोई भूलचूक हो जाय या देर-अबेर हो जाय तो ढोर की तरह मार खानी पड़ती थी. इस सबके बीच किसी तरह फाइनल यानी की सातवीं कक्षा पास की. उस ज़माने में फाइनल पास करने के बाद शिक्षक या पटवारी की नौकरी मिल जाती थी. बालूभाई के एक शिक्षक बालूभाई की स्थिति से वाकिफ थे. उन्होंने शिक्षण अधिकारी से सिफारिश की और उन्हें एक आदिवासी गाँव की पाठशाला में शिक्षक की नौकरी मिल गई. उस समय आवागमन के ज्यादा साधन न थे. खेडब्रह्मा तक बस जाती थी. वहां से पंद्रह किलोमीटर पैदल चलके नौकरी की जगह पहुंचे थे. गाँव के सरपंच ने पाठशाला की ही एक कोठारी में उनके रहने की व्यवस्था कर दी थी. एक कमरे की पाठशाला में दुसरे ही दिन से बालूभाई ने पांच विद्यार्थियो को पढ़ना शुरु किया था.

जैसे ही बालूभाई को नौकरी मिली, उनकी माँ ने उनकी शादी की तैयारी शुरू करदी. सगाई तो बचपन में हो गई थी. विधवा माँ ने अपनी सामर्थ्य के हिसाब से खर्चा कर शादी की. बालूभाई ने लड़की को कभी देखा न था. सुना था की हर समय बीमार रहती है. नाम था – कान्ता. सोलह साल की उम्र में बालूभाई उमंग से ब्याहे गए. शुरू के कुछ वर्षो तक बालूभाई नौकरी की जगह अकेले ही रहे. कान्ता उनकी माँ के साथ रहती थी. सास-बहु में खटपट बनी रहती. रोज क्लेश होता. छुट्टी में जब बालूभाई घर आते ट दोनों का खटराग मिलता. बालूभाई माँ से कुछ कह नहीं सकते थे. कान्ता को बहुत समजाते पर सब बेकार. कभी-कभी तो क्लेश से उबकर छुट्टी बची होने पर भी वापस चले जाते. परन्तु, माँ की मौत के बाद जबरन कान्ता को अपने साथ ले जाना पड़ा. कान्ता गाँव में ही पली-बढ़ी थी फिर भी आदिवासी गाँव में उसको रुचता न था. बात बात में झगड़ती. उसकी बीमारी तो जाती ही न थी. बालूभाई जैसे-तैसे घर-गृहस्थी चला रहे थे. उस बिच कान्ता गर्भवती हुई. लगा की संतान होने पर उसका स्वभाव बदल जाएगा पर दुर्भाग्यवश गर्भपात हो गया. उसका स्वभाव और भी बिगड़ गया. दुसरे साल वह फिर से गर्भवती हुई पर फिर वही गर्भपात. बालूभाई ने नजदीकी शहर के डॉक्टर को दिखाया तो उसने कहा कि ‘अब संतान नहीं होगी और अगर फिर से गर्भवती हुई तो जान का जोखिम भी है.’ बालूभाई उदास हो गए. उधर कान्ता का क्लेश और बढ़ता चला गया. ऊपर से उसकी बीमारी में दवा-दारू का खर्चा भी बढ़ता गया. शहर के अस्पताल तक उसे ले जाने-लाने में बड़ी तकलीफ थी सो उन्हों ने अपनी बदली तहसील की पाठशाला में कराली. दुर्भाग्य पीछा छोड़ता ही न था. कान्ता को डील का दौरा पड़ा और लकवा हो गया. काफी इलाज कराया पर अंततः उसने खाट पकडली. बालूभाई ने इस हालात को इश्वर इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया. संसार का सुख मनो नसीब में था ही नहीं. कान्ता की हालत दयनीय थी. उसके मुँह से दुर्गन्ध आती रहती. ऐसे में, धीरे धीरे बालूभाई की इच्छाए भी जैसे मर गई.

निवृत्त होने में अभी दो-चार साल थे. जीवनक्रम यथावत् था. कान्ता की तबियत फिर बिगड़ी. दिन में कई बार बिस्तर बिगड़ देती. बालूभाई की चिंता बढ़ चली थी. एक दिन सामने रहने वाला नारण आया. वह गाव का वाहियात आदमी था. बालूभाई को फूटी आँख सुहाता न था. उसके आने पर उन्होंने ‘आओ’ भी नहीं कहा. वह बैठ कर कान्ता के बारे में पूछने लगा फिर धीरे से बोला-‘मेरी बात मानो तो कामवाली बाई रख लो.’

‘कौन इस तरह की सेवा करने को राजी होगा ?’ बालूभाई ने पूछा.

‘मेरी नजर में है एक. वह शांतिलाल की विधवा है न ? बेचारी को खाने के भी लाले हैं. पति कर्ज छोड़ गया है. मेरे भी दस हजार रुपये निकलते है. तुम्हारे घर काम करेगी तो उसे दो वक्त का खाना मिलेगा. तुम पर काम का बोज़ कम होगा और उसके वेतन से मेरे पैसे भी निकल आएंगे. तुम कहो तो बुला दूं ?’

बालूभाई के हामी भरने पर वह उसे बुला लाया. वह आकर कड़ी हो गई. नाजुक- रूपवती. सदी फटी थी. चेहरे पर चमक.....सांवली-नाजुक देह ढंके ढँक नहीं रही थी.

‘क्या नाम है तुम्हारा ?’ बालूभाई ने पूछा.

‘लीला’ नारण बिच में ही बोल पड़ा – ‘यह गूंगी है, मैंने इसे कम के बारे में समज़ा दिया है. मन लगाकर काम करेगी, इस बात की गेरेंटी है.’ फिर लीला की और मुखातिब हो कर बोला – ‘मैंने कहता न की काम दिला दूंगा. दिला दिया न ? और हाँ, साहब की हाजिरी में कहे देता हूँ कि हर महीने आधी तनख्वाह मुझे दे देना, भुलाना मत.’ बोलते समय नारण ने आंख मिचकाई थी फिर टेड़ा मुँह करके बोला – ‘मै अब चलता हूँ, अब तुम जानो और यह जाने.’

उसके जाने के बाद लीला खड़ी रही. बालूभाई ने कान्ता से उसकी पहचान करवाई. घर दिखाया. कम बताया. लीला जटपट कम में जुट गई. स्टोव पर पानी गर्म कर दिया. घर की साफ-सफाई की. कान्ता को नहला-धुलाकर कपड़े बदले. बिस्तर ठीक किया. ज़टपट रसोई कर डाली. कान्ता को खिलाया फिर बालूभाई को. गरमागरम खिचड़ी, बैगन की सब्जी, मकई की रोटी बालूभाई ने जी भरकर खाई. लीलने बरतन साफ किए. घर जाने लगी तो बालूभाई ने पूछा -‘तुमने खाया ?’ उसने सर हिलाकर हामी भरी.

‘रोज समय से खा लेना . संकोच न करना. अपना ही घर मानना. और किसी चीज की जरुरत हो तो बताना, सकुचाना नहीं’. लीला मुँह निचा किए सुन रही थी. बालूभाई का बोलना जरी था- ‘सुबह जरा जल्दी आ जाना, पानी जल्दी चला जाता है.’ लीला ने फिर हामी भरी और धीमे कदमों से चली गई.

बालूभाई काफी देर तक जूले पर बैठकर उसके बारे में सोचते रहे. सोने के लिए उठ खड़े हुए. बिस्तर तैयार था. धुली चादर और धुले हुए अस्तरवाला तकिया. लेटते ही आंख लग गई. सपने में लीला सामने खड़ी थी. वही हँसता-खिलखिलाता चेहरा, वही आंखे. वे निहारते रहे. फिर चेहरे को दोनों हथेलियों में लेकर चूमने गए कि आंख खुल गई. शरीर पसीना-पसीना हो गया. काफी देर तक बिस्तर पर बैठे रहे- ‘ अरे रे, मेरे मन में ऐसी सोच ? मै ऐसा कर सकता हूँ ? किसी को पता चला तो क्या कहेगा ?’ वे पूरी रात माला जपते हुए बैठे रहे परन्तु माला के साथ स्मरण तो लीला का ही बना रहा.

दिन बित रहे थे. लीला मन लगाकर काम करती थी. बालूभाई को अब घर की चिंता न थी. नियमित भोजन मिलता, नीद भी अच्छे से आती. अब अगर सपने में लीला आए तो जागते न थे बल्कि सपने का आनंद उठाते. शरीर भी अच्छा हो चला था. लीला जब घर में काम कराती तब उससे नजरें चुराकर उसे निहारते रहते. यदि कभी नजरें मिल जाती तो तुरंत नजर जुका लेते. किसी काम से लीला पास आती या पास से गुजरती तो डील की धड़कन बढ़ जाती. लीला को देख कर उन्हें अपार सुख की अनुभूति होती.

इस बिच एक दिन कान्ता की तबियत और बिगड़ गई. बालूभाई डॉक्टर बुलाकर लाए. डॉक्टर ने जाँच कर सर हिलाते हुए कहा -‘नहीं बचेगी. कुछ घंटो की मेहमान है’ डॉक्टर चला गया. लीला लगातार सेवा कर रही थी. रात हुई तो उन्हों ने लीला से कहा- ‘तुम्हें जाना है तो जाओ, मै हूँ न !’ लीला ने सर हिला कर मन कर दिया और कान्ता की सेवा करती रही. कान्ता की कराहें बढाती गई. शरीर खिंचने लगा. ख़त में उछलने-सी लगी. लीला और बालूभाई उसे दबाए रखते थे. देर रात गए उसने प्राण छोड़ दिए. बालूभाई ने विलाप किया. आस-पास से सब लोग आ गए. सुबह अग्निदाह हुआ. बालूभाई ने विधि-विधान से मरणोत्तर क्रिया-करम किया. सबको भोज दिया. यथा शक्ति दान-पुण्य किया. उस बिच लीला ने घर की साड़ी जिम्मेदारी संभाली थी.

सब कुछ निपट चुका था. एक दिन बालूभाई बिस्तर में आँखे बंद किए पड़े थे और कान्ता के साथ बीते वर्षों को दु:स्वप्न की तरह याद कर मन ही मन रो रहे थे. इस बिच नारण आ धमका.

‘बालूभाई आराम फरमा रहे हैं ?’

बालूभाई जवाब दीऐ बिना बिस्तर में बैठे हुए, अपने मुंडाए सर पर हाथ फिराया. नारण कुर्सी पर बैठ गया.

‘बेचारी कान्ताबेन...मुक्त हुई...और तुम भी मुक्त हो गए नहीं ?’ उसने आदतन ताली मारने के लिए हाथ लम्बा किया. बालूभाई के कुछ न बोलने पर थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला – ‘श्यामली नहीं आई ?’

‘कौन सांवली ?’

‘अरे....लीला..’ नारण ने आंख मिचकाई.

‘अभी-अभी काम करके गई’ बालूभाई ने ठंडा उत्तर दिया.

‘भाभी तो रही नहीं. बचे तुम अकेले. अपना काम तो कर ही लेते हो फिर बेकार में तनख्वाह क्यों देनी ? लीला को भी मुक्त कर दो.’ उसने धीमे से कहा.

बालूभाई को उलज़न हुई. तुरंत कोई उत्तर नहीं सूजा. लीला को काम से छुड़ाने की बात से ही वे कांप उठे. उसके आने के बाद से घर भरा-भरा सा लगता था. जीवन अच्छा लगता था. उसकी आदत पड़ गई थी. घर की एक एक चीज पर उसका स्पर्श मौजूद है. अगर वह काम पर नहीं आती तो घर बिलकुल वीरान हो जाएगा. नारण ने लीला से काम बंद करवाने की बात इस तरह की थी मानो लीला उसके कब्जे में थी ! बालूभाई को गुस्सा आया था पर क्या करते ? चुपचाप बैठे रहे.

‘क्या सोचने लगे ?’

‘सोचना क्या है ? वैसे तो तुम्हारी बात सच है पर आजकल मेरी तबियत नरम-गरम रहती है. पहेले सा काम नहीं होता. भले ही वह काम पर लगी रहे. उस बेचारी को भी काम की तो जरुरत है ही न ! अभी तुम्हारा कर्जा भी बाकि है...’ बालूभाई ने अपने मन की बात छिपाकर सावधानी से जवाब दिया.

‘मेरे कर्जे की चिंता मत करो. मुझे वसूलना आता है. अपनी बात करो. तुम कहते हो की तबियत ठीक नहीं रहती पर लोग तो कहते है कि तुम अब जवान लगने लगे हो.’ नारण ने कुछ ज़ुककर कहा -‘तबियत के बहाने और कोई बात तो नहीं है न ?’

‘देखो संभल कर बोलो, तुम्हारी बात का ढंग मुझे अच्छा नहीं लगता.’ बालूभाई अपना गुस्सा रोक नहीं पाए.

‘ठीक है, नहीं पसंद तो नहीं कहेंगे. उसे सहारा तो मेरे यहाँ से भी मिल जाएगा. अपने पैसे तो में अपने यहाँ काम कराकर भी वसूल लूँगा. मै उससे बात कर लिंग. मेरा कहना तो उसे मानना ही पड़ेगा न ! चलता हूँ. आराम करो, जयश्री कृष्ण.’

नारण चला गया पर बालूभाई की बेचैनी बढ़ गई. उन्हें चिंता हुई कि कही उस बेचारी को फँसा न दे ! रातभर सो नहीं पाए. अगले दिन जब लीला आई तो बालूभाई ने नारण के घर की और देखा. वह नहीं था. बालूभाई धीमे कदमो से रसोई में गए. लीला बरतन रख रही थी.

‘एक बात करनी है. कल नारण आया था. यहाँ से तुम्हारा काम छुड़वाने की बात कर रहा था. बेकार का आदमी है. उसकी बातों में मत आना’. वे धीमे स्वर में कह रहे थे और लीला चुपचाप सुन रही थी.उसने सिर हिलाकर हामी भरी तो उन्हें चैन पड़ा. वे लीला के कुछ और करीब गए- ‘तुम्हे ठंड नहीं लगती ? सुबह गरम कपड़े पहनो तो ? मैंने तुम्हारे लिए बंद गले का गरम ब्लाउज मंगवाया है. तुम्हारी छाती खुली रहती है तो मुझे नहीं सुहाता. बंद गले का ब्लाउज पहनोगी तो छाती ढंकी रहेगी और ठण्ड भी नहीं लगेगी.’ बोलते हुए बालूभाई को पसीना आ गया था. दर था की लीला क्या करेगी ? पर वह तो वैसे ही कड़ी रही तो उनकी हिम्मत बढ़ गई. उन्होंने आहिस्ते से लीला के कंधे पर हाथ रखा. लीला वैसे ही ऊपर से निचे तक कांप गई जैसे गाय के शरीर पर कोई पंखी आ बैठने पर वह सिहर उठती है. उसने ऊपर की और देखा और दोनों हाथों से रसोई का प्लेटफोर्म पकड़ लिया.

‘तुज़े किसी बात की चिंता करने की जरुरत नहीं, मै हु न ?’ बालूभाई ‘तुम’ से ‘तू’ पर आ गए थे. लीला एकटक देख रही थी मानो आँखों से सुन रही हो. बालूभाई ने आज लीला के चेहरे को बिलकुल नज़दीक से देखा था. विधाता ने फुरसत से गढ़ा है. थोड़ी पैनी नाक, हिरानी जैसी आंखे, व्यवस्थित होठ....उन्हें चूमने का मन हुआ पर साहस न हुआ. कही भाग न जाय....नहीं नहीं ऐसा नहीं कर सकती. वरना, क्या इस तरह बिलकुल नज़दीक कड़ी रहती ? उसकी आँखों में बालूभाई का प्रतिबिम्ब दिखता है. वह पलक भी नहीं मारती. अतिशय रोमांच हुआ. नाभि से निचे शरीर में सरसराहट-सी हुई...ना...ना...शरीर अभी मरा नहीं है. इच्छाएँ अभी भी जीवित है. उन्हें मन हुआ कि सारे जन्म की कामना अभी पूरी कर लूँ. उन्होंने हाथ उसकी कमर पर रखा. इस बिच कोई बरतन गिरा....बालूभाई चौंक गए और दौड़ कर रसोई से बाहर निकल गए. पलंग पर बैठ कर अखबार पढ़ने का ढोंग करने लगे. देखा कि आगे का दरवाजा बंद था, पीछे का खुला था...कोई देख गया होगा...तो ? नारण होगा ? वह तो पुरे गाँव में बात फैला देगा. इन तर्क-वितर्कों के बिच दूध लगे मुँह वाली बिल्ली दरवाजे के पास आ कड़ी हुई. बालूभाई को हुआ कि धत्त तेरे की...वैसे ही डर रहा था. बिल्ली रसोई में चली गई. लीला ने उसे जोर से लात मारी और वह म्याऊं-म्याऊं कराती भाग निकली. बालूभाई को रसोई से धीमे-धीमे सिसकने की आवाज़ आई. शायद वह रो रही थी. उनकी इच्छा हुई कि जाकर उसके आंसू पोंछें, उसे गले लगा कर उसकी पीठ सहलाएं, पर वे जा न सके. उन्हें खुद पर धिक्कार आया. कब जाएगा यह डर ? जीवन भोग नहीं, जनम बेकार गया. आज सुख हाथ में था पर नहीं पाया. लीला क्या सोचेगी ? बालूभाई के मन में घमासान जारी था और उधर रसोई से जोर-जोर से बरतनों की आवाज़ आ रही थी.

थोड़ी देर के बाद लीला पल्लू से हाथ पोंछते हुए चली गई. बालूभाई के सामने देखा तक नहीं. जाते समय दरवाजा भी जोर से बंद किया और वह जैसे बालूभाई के सिर में लगा हो. बालूभाई काफी देर तक आँखें बन्द कर पड़े रहे. खाना नहीं खाया. याद आया की नटुभाई हरिद्वार से आ गए होंगे. उनके यहाँ जाकर ब्लाउज ले आए. तकिए के निचे रखकर सो गए. उन्हें लगा कि वे लीला कि छाती पर सिर रखकर सो रहे हैं.

आज तड़के ही नित्यकर्म निपटाकर इंतज़ार कर रहे थे. कब वह आए और कब उसे ब्लाउज दें. पर आज वह अभी तक आई नहीं थी. उन्हें चिंता हुई. बालुभाई ने देखा कि नारण वहीँ बैठा है. लगा कि लीला आएगी ही नहीं. कल कि घटना से नाराज हो गी होगी. शायद उसे मेरी कायरता अच्छी नहीं लगी होगी. शायद डर गति हो. हो सकता है नारण ने बहकाया हो. वह भी इंतज़ार करके बैठा है. वह वाहियात कुछ भी कर सकता है. इस सोच विचार के बिच उन्हों ने लीला को आते देखा तो उन्हें चैन पड़ा. वे उठकर बैठ गए. पर उन्होंने देखा कि लीला को आते देख नारण खड़ा हो गया है. उन्हें शक हुआ. जरुर कोई बात है, अब क्या होगा ?

लीला रोजाना कि तरह धीमे-धीमे चलकर आ रही थी. नारण के घर के सामने आई तो उसने इशारा किया. लीला ने बालुभाई के घर कि तरफ एक नज़र डाली और नारण के घर में चली गई. पीछे-पीछे नारण ने घर में घुस कर दरवाजा बंद कर दिया.

बालुभाई को काटो तो खून नहीं. तकिए के निचे तहकर रखे ब्लाउज को मुट्ठी में पकड़ा तो मुट्ठी छूट गई. वे निराश होकर रो पड़े.

इस बिच जोर से आवाज़ आई. धड़ाक से नारण के घर का दरवाजा खुला. बालुभाई उठ खड़े हुए. देखा तो लीला तेजी से आ रही थी. हांफते-हांफते आकर बालुभाई के पास खड़ी हो गई. बहार नारण चिल्ला रहता-‘देख लूँगा.....ये थप्पड़ तुज़े बहुत मंहगा पड़ेगा....तेरे पति को रूपए उधर दिए थे उन्हें वसूल करना मुज़े आता है...हाँ.....’

बालुभाई ने दरवाजा बंदकर दिया. लीला अब भी डर से थरथरा रही थी. उसकी छाती पर नाखूनों के निशान थे. बालुभाई ने तकिए के निचे से ब्लाउज निकाला और उसकी छाती पर ढँक दिया. लीला बालुभाई से लिपट गई. बालुभाई ने उसे दोनों बांहों में ले लिया ......

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डा.दीपक रावल

ए-५०२, सत्त्व फ्लेट्स,

कुणाल चोकड़ी के पास, गोत्री

बडौदा – ३९००२१

गुजरात

मोबाईल:०९९९८४०२२५४