अचानक एक कठोर आवाज ने उसको अंदर तक हिला दिया। अरे मुर्ख अजय , अजातशत्रु बनने पर क्यों तुला है ? अजय को अपने मास्टरजी की बात समझ नहीं आई। वो जामुन के छोटे से पेड़ को अपने हाथों से उखाड़ने में लगा था । अंत में पसीने से लथ पथ होकर बैठ गया। जामुन और बांस के बहुत सारे छोटे छोटे पेड़ थे। वो उसकी हताशा और निराशा पर हँस रहे थे।
मास्टरजी आये और उसको एक कुल्हाड़ी पकड़ा दिए और कहा , धीरे धीरे इन पेड़ो की डालियों को काटो जो गन्दगी फैला रहे हैं। छोटे छोटे घास और पौधों को तो उखाड़ दिया, पर इनको अपने हाथ से उखाड़ न पाओगे। अजय ने मास्टर जी की बात मान ली। धीरे धीरे करके उसने जामुन और बांस की सारी अनावश्यक डालियों को कुल्हाड़ी की सहायता से काट कर हटा दिया । स्कूल के सामने की सारी गन्दगी साफ़ हो चुकी थी। जामुन और बांस के पेड़ों के नीचे गिरी सारी पत्तियों को हटाकर उसने ईँट बिछा दिया। सफाई तो हो हीं गई , छाया मिल रही थी सो अलग। मास्टर जी अजय के परिश्रम से काफी खुश थे।
"बेटा अजय , तुमने आज बहुत बढ़िया काम किया है। बरसात के कारण स्कूल के आस पास काफी गन्दगी जमा हो गई थी। अब काफी अच्छा लग रहा है " मास्टर जी ने अजय की प्रसंशा करते हुए कहा।
मास्टर जी , क्या मैं आपसे एक बात पूछ सकता हूँ, अजय ने हिचकते हुए पूछा?
हाँ हाँ क्यों नहीं , सकुचाओ मत , मास्टर जी ने कहा।
मास्टरजी , जब मैं हाथों से पेड़ उखाड़ रहा था तो आपने मुझसे ये क्यों कहा कि मैं अजातशत्रु बनने की कोशिश कर रहा हूँ, अजय ने पूछा?
जवाब में मास्टर जी ने कहा , कल स्कुल आओ , फिर देखते हैं ।
अजय को लगा , मास्टरजी ने मजाक किया है। खैर अगले दिन जब वो स्कूल गया तो मास्टर जी ने उसे एक किताब पकड़ा दी। उस किताब को लेकर अजय घर आ गया । उसने किताब पढनी शुरू कर दी । किताब का शीर्षक था बुद्ध और अजातशत्रु। कहानी कुछ यूँ थी।
अजातशत्रु गौतम बुद्ध के समय मगध का सम्राट हुआ था। वो अत्यंत क्रूर और प्रतापी राजा था। मगध का सम्राट बनने के लिए उसने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या तक कर दी थी। सारे लोग उससे थर थर काँपते थे। उसके पास बहुत विशाल साम्राज्य था । कोई शत्रु उससे लोहा लेने की बात सोच तक नहीं सकता था। उसको हराने वाला कोई शत्रु पैदा नहीं हुआ था , इसीलिए उसे अजातशत्रु कहा गया था।अजातशत्रु , अर्थात जिसका कोई शत्रु न हो। अपार सम्पदा का मालिक, उसपर से उसकी प्रेमिका आम्प्रपाली अति सुंदरी थी। क्या न था उसके पास , फिर भी एक बेचैनी थी। उसका दिल सुना था। उसकी सुनी आँखे आनंद को तलाशती थी।
एक दिन अजातशत्रु ने एक बौद्ध भिक्षु को अपने महल के सामने देखा । उस बौद्ध भिक्षु के चेहरे की शांति को देख कर वो और बेचैन हो उठा। उसने बौद्ध भिक्षु से पूछा , आपके इस शांति का राज क्या है ?
भंते , मैं तो अपने गुरु बुद्ध के बताए मार्ग पर चलता हूँ , भिक्षु ने कहा।
अजातशत्रु ने अपना मुकुट उस भिक्षु को दे दिया और कहा , अपने गुरु से कहना कि अजातशत्रु ने अपना मुकुट आपके चरणों में समर्पित किया है ?
भिक्षुक ने अजातशत्रु का मुकुट बुद्ध के चरणों में डाल दिया । सारे के सारे भौचक हो गए । मुकुट समर्पित करने का मतलब , राज पाट सबकुछ समर्पित।
बुद्ध मुस्कुराये और चल पड़े अजातशत्रु के पास।
बुद्ध के आते हीं आजातशत्रु उनके चरणों में गिर गया।
मैं ये सारा कुछ छोड़ दूंगा। ये महल , ये राज पाट सब कुछ आपका। मुझे मन की शांति प्रदान कीजिए।
बुद्ध ने कहा: भंते तुम अपना अहंकार नहीं त्याग पाए , मुकुट समर्पित करना हीं था , तो खुद आते। तुम्हारे अहंकार ने ऐसा करने से रोक दिया। तुम्हारे भीतर का सम्राट तुम्हारे अहंकार को जाने नहीं देता।
अजातशत्रु : बुद्ध , आप मुझे अपने शरण में ले लीजिए , मैं अहंकार को भी त्याग दूंगा।
बुद्ध: अहंकार को त्यागने का भी एक अहंकार है।
अजातशत्रु:तब मेरे लिए क्या आदेश है ?
बुद्ध: भंते तुम्हारी विणा की तार बहुत मजबूत है , इसे एकदम से ढीला न करो । इतने दिनों से सम्राट की तरह जीते आये हो , लोगो को मारते आये हो , लोगों का शोषण करते आये हो , एक दम से त्याग न कर पाओगे ।
अजातशत्रु: देव , तब मैं क्या करूं? क्या मेरी मुक्ति न हो सकेगी ?
बुद्ध : नहीं भंते ऐसा नहीं है , तुम कर्म योगी बनो। अब तक स्वयं के लिए जीते आये हो , अब अपनी प्रजा के लिए जीना शुरू करो । अबतक तुमने दूसरों के सुख को छीना है , इसीलिए दुखी हो । अब जनता के लिए सुख बांटों, मन की शांति अपने आप चली आएगी। तुम्हारा रास्ता त्याग का नहीं । तुममे वैराग के बीज नहीं है। तुममें योगी के बीज नहीं हैं। सबकुछ त्याग कर भी , त्याग नहीं कर पाओगे। तुम्हारी शांति का मार्ग परमार्थ में हैं ।
अजातशत्रु के चेहरे पे अजय मुस्कान फ़ैल चुकी थी।
मास्टरजी को अजय ने अगले दिन वो किताब लौटा दिया ।
क्या समझे ? मास्टर जी ने पूछा।
यही की परमार्थ का मार्ग हीं सही मार्ग है,अजय ने कहा।
और ? मास्टर जी ने पूछा।
अजातशत्रु सबको हराकर भी शांत नहीं था , जबतक कि उसने बुद्ध की शिष्यत्व नहीं स्वीकार की , अजय ने सोंचते हुए कहा।
और क्या है इस किताब में , मास्टर जी ने फिर पूछा ?
अजय ने कहा मास्टर जी आप मुझे खुद हीं समझा दीजिए।
मास्टर जी ने कहा : अजातशत्रु अपने भीतर जो सम्राट का पेड़ था , उसे एकदम से उखाडकर फेंकना चाहता था। बचपन से अजातशत्रु ने स्वयं में सम्राट के बीज को पानी दिया और खड़ा किया था। अब एक हीं बार में वो योग के मार्ग पे जाना चाहता था । इसीलिए बुद्ध ने उसे मना किया।
कोई भी आदत किसी व्यक्ति में धीरे धीरे बढ़ती है और पेड़ का रूप धारण करती है। इसे एक झटके में तोड़ा नहीं जा सकता । इसे अच्छी आदतों की कुल्हाड़ी से धीरे धीरे साफ़ किया जाता है। कोई व्यक्ति एक दिन में धुम्रपान नहीं छोड़ सकता। जैसे किसी आदत को बनाने में समय लगता है , उसी तरह उखाड़ने में भी समय लगता है। एक प्रक्रिया से गुजरना होता है।
मास्टर जी ने आगे बताया : अजय तुम कल अजातशत्रु की तरह कर रहे थे। ये जामुन का पेड़ बहुत दिनों से लगा हुआ था और एक पेड़ बन चूका था। ऐसे एक झटके में हाथों से उखाड़ा नहीं जा सकता। इसीलिए मैंने तुमको कुल्हाड़ी दी थी।
अजय को सारी बात धीरे धीरे समझ आ गई।अब अजय अजातशत्रु नहीं था।