लानत है ऐसी दवा पर Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लानत है ऐसी दवा पर

लानत है ऐसी दवा पर

कामिनी के ब्याह को अभी एक साल भी न हुआ था कि उस का पति दिल के आरिज़े की वजह से मर गया और अपनी सारी जायदाद उस के लिए छोड़ गया। कामिनी को बहुत सदमा पहुंचा, इस लिए कि वो जवानी ही में बेवा हो गई थी। उस की माँ अर्सा हुआ उस के बाप को दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे गई थी। अगर वो ज़िंदा होती तो कामिनी उस के पास जा कर ख़ूब रोती ताकि उसे दम दिलासा मिले। लेकिन उसे मजबूरन अपने बाप के पास जाना पड़ा जो काठियावाड़ में बहुत बड़ा कारोबारी आदमी था।

जब वो अपने पुराने घर में दाख़िल हुई तो सेठ घनशाम दास बाहर बरामदे में टहल रहे थे। ग़ालिबन अपने कारोबार के मुतअल्लिक़ सोच रहे थे। जब कामिनी उन के पास आई तो वो हैरान से हो कर रह गए।

“कामिनी !”

कामिनी की आँखों से आँसू छलक पड़े, वो अपने पिता से लिपट गई और ज़ारो क़तार रोने लगी। सेठ घनशाम दास ने उस को पुचकारा और पूछा “क्या बात है?”

कामिनी ने कोई जवाब न दिया और रोती रही। सेठ जी की समझ में नहीं आरहा था कि बात क्या है। उन्हों ने सिर्फ़ एक ही चीज़ के मुतअल्लिक़ सोचा कि शायद मेरी बेटी के पति ने इस से कोई ज़्यादती की है जिस के बाइस उस को बहुत बड़ा सदमा पहुंचा है। चुनांचे उन्हों ने उस से पूछा “क्यों बेटी क्या रणछोड़ ने कोई ऐसी वैसी बात की है?”

इस पर कामिनी और भी ज़्यादा रोने लगी। सेठ घनशाम दास ने बहुत पूछा मगर कामिनी ने कोई जवाब न दिया। आख़िर तंग आगए और झुँझला कर कहा “मुझे एक ज़रूरी काम से जाना है। तुम ने मेरा आधा घंटा ख़राब कर दिया है। बोलो क्या बात है?”

कामिनी ने अपनी आँसू भरी आँखों से अपने बाप की तरफ़ देखा और कहा “उन का देहांत होगया है।”

सेठ घनशाम ने अपनी धोती का लॉंग दरुस्त किया और पूछा। “किस का?”

कामिनी ने साड़ी के पल्लू से आँसू ख़ुश्क किए। “वही जिन से आप ने मेरा ब्याह किया था।”

सेठ घनशाम सकते में आगए। “कब?”

“परसों”

“तुम ने मुझे इत्तिला भी न दी”

कामिनी ने कहा “मैंने आप को तार दिया था। क्या मिला नहीं आप को?”

उस के बाप ने थोड़ी देर सोचा “कल तार तो काफ़ी आए थे। मगर मुझे इतनी फ़ुर्सत नहीं थी कि उन्हें देख सकूं। अब में पीढ़ी जा रहा हूँ। होसकता है इन तारों में तुम्हारा तार भी हो।”

कामिनी दो दिन अपने बाप के पास रही इस के बाद वापसी बंबई चली आई और अपने शौहर की जायदाद अपने नाम मुंतक़िल करवाने में मशग़ूल होगई। रणछोड़ का सिर्फ़ एक भाई था मगर उस का जायदाद पर कोई हक़ नहीं था, इस लिए कि वो अपना हिस्सा वसूल कर चुका था।

कामिनी जब इस काम से फ़ारिग़ होगई तो उस ने इत्मिनान का सांस लिया। काठियावाड़ गुजरात में दस मकान, अहमदाबाद में पाँच, बंबई में सात, उन का किराया पर माह उसे मिल जाता जो पाँच हज़ार के क़रीब होता ये सब रुपय वो अपने मुनीम के ज़रीये से वसूल करती और बैंक में जमा करा देती। एक बरस के अंदर उस के पास एक लाख रुपया जमा होगए इस लिए कि उस के शौहर ने भी तो काफ़ी जायदाद छोड़ी थी।

वो अब बड़ी मालदार औरत थी। दौलत के नशे ने उस के सारे ग़म दूर कर दिए थे। लेकिन उस को किसी साथी की ज़रूरत बड़ी शिद्दत से महसूस होती थी। रात को अक्सर उसे नींद न आती। घर में चार नौकर थे जो उस की ख़िदमत के लिए चौबीस घंटे तैय्यार रहते। हर क़िस्म की आसाइश मयस्सर थी। लेकिन वो अपनी ज़िंदगी में ख़ला महसूस करती थी। जैसे मोटर का टायर तो है साबित-ओ-सालिम मगर उस में हआ कम है। पिचक पिचक जाता है।

एक रोज़ वो बड़ी अफ़्सुर्दा हालत में बाहर बरामदे में लटके हुए पंघोड़े पर बैठी थी कि उस का मुनीम आया। कामिनी उसे सिर्फ़ मुनीम जी कहती थी। वो आम मुनीमों जैसा बूढ्ढा और झड़ोस नहीं था। उस की उम्र यही तीस बरस के क़रीब होगी। साफ़ सुथरा। धोती बड़े सलीक़े से बांधता था। ख़ुश शक्ल और तंदरुस्त-ओ-तवाना था।

पहली मर्तबा कामिनी ने उसे ग़ौर से देखा और झूला झूलते हुए उस के परिणाम का जवाब दिया और उस से पूछा। “क्यों मुनीम जी आप कैसे आए?”

मुनीम ने अपना बस्ता जो उस की बग़ल में था निकाला। खोलने ही वाला था कि कामिनी ने उस से कहा “रहने दीजिए हिसाब किताब, चलिए चाय पियें”

दोनों अंदर चले गए। चाय तैय्यार थी, गुजराती अंदाज़ की। मुनीम कुछ झेंपा, इस लिए कि वो उस का मुलाज़िम था और दो सौ रुपय माहवार लेता था मगर कामिनी ने इसरार किया कि उस के सामने कुर्सी पर बैठे। चाय के साथ नमकीन बिस्कुट, खारी सींग (नमक लगी मूंगफली) और दाल मोंठ और कुछ इसी क़िस्म की तीन चार चीज़ें और थीं।

कामिनी ग़ौर से मुनीम को देख रही थी जो पहली मर्तबा इस नवाज़िश से दो चार हुआ था।

कामिनी ने चाय का एक घूँट पी कर उस से पूछा “मुनीम जी आप का नाम क्या है?”

नौजवान मुनीम के हाथ से बिस्कुट गिर कर चाय की प्याली में डुबकियां लगाने लगा “जी मेरा मेरा नाम रणछोड़ दास है।”

कामिनी के हाथ से चाय की प्याली गिरते गिरते बची।

“रणछोड़ दास”

“जी हाँ”

“ये तो मेरे स्वर्ग बाशी पति का नाम है।”

मुनीम ने कहा “मुझे मालूम है अगर आप कहें तो मैं अपना नाम बदल लूंगा।”

कामिनी ने एक बार फिर मुनीम को ग़ौर से देखा “नहीं नहीं। ये नाम मुझे पसंद है।”

चाय का सिलसिला ख़त्म हुआ तो मुनीम ने अपनी आमद का मक़सद बयान किया। एक बिल्डिंग पाँच मंज़िला बनाने का ठेका उन्हें मिल सकता था। उस ने कामिनी से कहा कि इस सौदे में कम अज़ कम पच्चास हज़ार रुपय बल्कि इस से ज़्यादा बच जाऐंगे।

कामिनी के पास काफ़ी दौलत मौजूद थी उस को किसी क़िस्म का लालच नहीं था। लेकिन मुनीम के मश्वरे को वो न टाल सकी। इस ने कहा “हाँ मुनीम जी। मैं ये ठेका लेने के लिए तैय्यार हूँ इस लिए कि आप चाहते हैं।”

मुनीम की बाछें खुल गईं “बाई जी। ठेका किया है बस सोना ही सोना है”

“सोना हो या लोहा। आप को रुपया कितना चाहिए?”

“दस हज़ार।”

“कुल दस हज़ार?”

“जी नहीं। ये तो फोकट में जाएगा। मेरा मतलब है कि रिश्वत में। जब ठेका मिल जाएगा तो हम उसे किसी और के हवाले कर देंगे और अपने पैसे खरे कर लेंगे।”

कामिनी की समझ में ये बात न आई “ठेका मिल जाएगा तो आप उसे किसी दूसरे आदमी के हवाले क्यों करेंगे?”

मुनीम हंसा। “बाई जी। ये दुनिया इसी तरह चलती है। हम मेहनत क्यों करें। दस हज़ार देंगे। ये क्या कम है और साला जिस को हम देंगे हज़ारों कमाएगा।”

कामिनी के दिमाग़ में रुपय पैसे नहीं थे वो बार बार मुनीम को देख रही थी। मुनीम को भी इस का इल्म था कि वो उस की ज़ात में दिलचस्पी ले रही है।

थोड़ी देर ठेके के बारे में गुफ़्तुगू होती रही लेकिन बिलकुल ठस और बे-कैफ़। अचानक मुनीम ने कामिनी का हाथ पकड़ लिया और दूसरे कमरे में ले गया।

मुनीम और कामिनी देर तक उस कमरे में रहे। मुनीम अपनी धोती का लॉंग ठीक करते हुए बाहर निकला।

बीड़ी सुलगा कर कुर्सी पर बैठ गया। इतने में ज़रदरू कामिनी आई और उस के पास वाली कुर्सी पर बैठ गई। मुनीम ने उस से कहा “बाई जी तो वो दस हज़ार का चैक लिख दीजिए”

कामिनी उठी। अपनी साड़ी के पल्लू में उड़से हुए चाबियों के छल्ले को निकाला और अलमारी खोल कर चैकबुक निकाली और दस हज़ार रुपय का चेक काट कर मुनीम को दे दिया। मुनीम ने ये चेक अपनी वास्कट में रखा और कामिनी से कहा “अच्छा तो मैं चलता हूँ। कल काम हो जाएगा।”

दूसरे रोज़ काम होगया ठेका मिल गया अब उस को ठिकाने लगाने का काम बाक़ी रह गया था मुनीम कामिनी बाई के पास आया। दोनों कुछ देर दूसरे कमरे में रहे इस दौरान में सब बातें होगईं। अब ये मरहला बाक़ी रह गया कि ठेका किस के नाम फ़रोख़त किया जाये। कोई ऐसी पार्टी होनी चाहिए कि जो यकमुशत रुपया अदा कर दे।

मुनीम होशयार आदमी था। उस ने काफ़ी दौड़ धूप की आख़िर एक पार्टी ढूँड निकाली जिस ने दो लाख रुपया यकमुशत अदा कर दिया और बिल्डिंग का काम शुरू होगया।

मुनीम ने जब दो लाख रुपय कामिनी को दिए तो उसे कोई ख़ास ख़ुशी न हुई। अलबत्ता वो उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गई। जहां वो देर तक ज़ेर-ए-तामीर बिल्डिंग के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू करते रहे।

बिल्डिंग का काम दिन रात जारी था। पाँच सौ मज़दूर काम कर रहे थे। पाँच मंज़िला इमारत बन रही थी। उधर कामिनी और इस का मुनीम दूसरे कमरे में कई मंज़िलें तै कर चुके थे।

मुनीम बहुत ख़ुश था कि उस ने बहुत अच्छा सौदा किया। दो लाख रुपय बग़ैर किसी मेहनत के वसूल होगए लेकिन जिस पार्टी ने ये ठेका ख़रीदा था उस को अपनी दानिस्त के मुताबिक़ ख़सारा ही ख़सारा नज़र आरहा था। मतलब ये है कि उसे ज़्यादा मुनाफ़ा की उमीद नहीं थी।

एक महीना गुज़र गया। बिल्डिंग पांचों मंज़िल तक पहुंच गई। पाँच सौ मज़दूर दिन रात इमारत साज़ी में मसरूफ़ थे। रात को गैस के लैम्प रौशन किए जाते सीमेंट और बजरी को मिला कर मशीन चलती रहती।

मज़दूरों में मर्दों के इलावा औरतें भी थीं जो मर्दों के मुक़ाबले में बड़ी तन-दही से काम करती थीं अपने शीर-ख़्वार बच्चों को जो नीचे ज़मीन पर पड़े हुए दूध भी पिलातीं और सीमेंट बजरी उठा कर पांचवें मंज़िल तक पहुँचातीं।

कामिनी के दूसरे कमरे में एक दिन ये तय हुआ कि वो शादी कर लें। दूसरे दिन सुबह अख़्बार में मुनीम ने पढ़ा कि वो बिल्डिंग जो तामीर हो रही थी नाक़िस मसाला इस्तिमाल करने के बाइस अचानक गिर गई। पच्चास मज़दूर नीचे दब गए। उन की लाशें निकालने की कोशिश की जा रही है।

मुनीम कामिनी के साथ चिमटा हुआ था। जब कामिनी ने ये ख़बर सुनी तो उस ने मुनीम को धक्का दे कर एक तरफ़ कर दिया जैसे वो मलबे का ढेर है।