टोबा टेक सिंह Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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टोबा टेक सिंह

टोबा टेक सिंह

बटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुस्लमान पागल, हिंदोस्तान के पागल ख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाये और जो हिंदू और सिख, पाकिस्तान के पागल ख़ानों में हैं उन्हें हिंदोस्तान के हवाले कर दिया जाये।

मालूम नहीं ये बात माक़ूल थी या ग़ैर-माक़ूल, बहर-हाल दानिश-मंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कांफ्रेंसें हुईं और बिल-आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुक़र्रर हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वो मुस्लमान पागल जिन के लवाहिक़ीन हिंदोस्तान ही में थे। वहीं रहने दिए गए थे। जो बाक़ी थे, उन को सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूँकि क़रीब क़रीब तमाम हिंदू, सिख जा चुके थे इसी लिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू, सिख पागल थे सब के सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए।

उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चह-मी-गोईआं होने लगीं। एक मुस्लमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बाक़ायदगी के साथ ज़मींदार पढ़ता था, इस से जब इस के एक दोस्त ने पूछा। “मौलबी साब! ये पाकिस्तान क्या होता है?” तो Gस ने बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद जवाब दिया। “हिंदोस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।” ये जवाब सुन कर उस का दोस्त मुतमइन हो गया।

इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा। “सरदार जी हमें हिंदोस्तान क्यों भेजा रहा है....... हमें तो वहां की बोली नहीं आती।”

दूसरा मुस्कुराया। “मुझे तो हनदोसतोड़ों की बोली आती है....... हिंदोस्तानी बड़े शैतानी, अकड़ अकड़ फिरते हैं।”

एक दिन नहाते नहाते एक मुस्लमान पागल ने पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसल कर गिरा और बे-होश हो गया।

बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। उन में अक्सरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिन के रिश्तेदारों ने अफ़िसरों को दे दिला कर, पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जाएं। ये कुछ कुछ समझते थे कि हिंदोस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और ये पाकिस्तान क्या है। लेकिन सही वाक़ियात से वो भी बे-ख़बर थे। अख़्बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरा-दार सिपाही अन-पढ़ और जाहिल थे। उन की गुफ़्तुगूओं से भी वो कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उन को सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मोहम्मद अली जिन्नाह है जिस को क़ाइद-ए-आज़म कहते हैं। उस ने मुस्लमानों के लिए एक अलाहिदा मुल्क बनाया है जिस का नाम पाकिस्तान है....... ये कहाँ है, इस का महल-ए-वक़ूअ क्या है, इस के मुतअल्लिक़ वो कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल-ख़ाने में वो सब पागल जिन का दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मुख़समे में गिरफ़्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिंदोस्तान में....... अगर हिंदोस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहाँ है!

अगर वो पाकिस्तान में हैं तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए भी हिंदोस्तान में थे!

एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदोस्तान। और हिंदोस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया झाड़ू देते एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा जो पाकिस्तान और हिंदोस्तान के नाज़ुक मसले पर थी। सिपाहीयों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उस ने कहा। “मैं हिंदोस्तान में रहना चाहता हूँ न पाकिस्तान में....... मैं इस दरख़्त पर ही रहूँगा।”

बड़ी मुश्किलों के बाद जब उस का दौरा सर्द पड़ा तो वो नीचे उतरा और अपने हिंदू सिख दोस्तों से गले मिल मिल कर रोने लगा। इस ख़याल से उस का दिल भर आया था कि वो उसे छोड़ कर हिंदोस्तान चले जाऐंगे।

एक ऐम.ऐस.सी पास रेडीयो इंजनीयर में जो मुस्लमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग थलग, बाग़ की एक ख़ास रविश पर, सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, ये तबदीली नुमूदार हुई कि उस ने तमाम कपड़े उतार कर दफ़अदार के हवाले कर दिए और नंग धड़ंग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू कर दिया।

चैनयूट के एक मोटे मुस्लमान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में पंद्रह सौ मर्तबा नहाया करता था, यक-लख़्त ये आदत तर्क कर दी। उस का नाम मोहम्मद अली था। चुनांचे उस ने एक दिन अपने जंगले में ऐलान कर दिया कि वो क़ाइद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह है। उस की देखा देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया। क़रीब था कि इस जंगले में ख़ूनख़राबा हो जाये मगर दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर अलाहिदा अलाहिदा बंद कर दिया गया।

लाहौर का एक नौ-जवान हिंदू वकील था जो मोहब्बत में नाकाम हो कर पागल हो गया था। जब उस ने सुना कि अमृतसर हिंदोस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे मोहब्बत हुई थी। गो उस ने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वो उस को नहीं भूला था। चुनांचे वो उन तमाम हिंदू और मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था जिन्हों ने मिल मिला कर हिंदोस्तान के दो टुकड़े कर दिए....... उस की महबूबा हिंदूस्तानी बन गई और वो पाकिस्तानी।

जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वो दिल बुरा न करे, उस को हिंदोस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदोस्तान में जहां उस की महबूबा रहती है। मगर वो लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था इस लिए कि उस का ख़याल था कि अमृतसर में उस की प्रैक्टिस नहीं चलेगी।

यूरोपियन वार्ड में ऐंगलो इंडियन पागल थे। उन को जब मालूम हुआ कि हिंदोस्तान को आज़ाद कर के अंग्रेज़ चले गए हैं तो उन को बहुत सदमा हुआ। वो छुपछुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते कि पागल-ख़ाने में अब उन की हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाती तो ज़हर मार नहीं करना पड़ेगी।

एक सिख था जिस को पागलखाने में दाख़िल हुए पंद्रह बरस हो चुके थे। हर-वक़्त उस की ज़बान से ये अजीब-ओ-गरीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे। “ओपड़ दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल उफ़ दी लालटैन।” देखता था रात को। पहरादारों का ये कहना था कि पंद्रह बरस के तवील अर्से में वो एक लहज़े के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबत्ता कभी कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।

हरवक़्त खड़ा रहने से इस के पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गई थीं, मगर इस जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद लेट कर आराम नहीं करता था। हिंदोस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअल्लिक़ जब कभी पागलखाने में गुफ़्तुगू होती थी वो ग़ौर से सुनता था। कोई उस से पूछता था कि उस का क्या ख़्याल है तो वो बड़ी संजीदगी से जवाब देता। “ओपड़ दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी वाल आफ़ दी पाकिस्तान गर्वनमैंट।”

लेकिन बाद में “आफ़ दी पाकिस्तान गर्वनमैंट“ की जगह “ऊफ़ दी टोबा टेक सिंह गर्वनमैंट” ने ले ली और उस ने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वो पाकिस्तान में है या हिंदोस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, ख़ुद इस उलझाओ में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदोस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है, क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदोस्तान में चला जाये। या सारा हिंदोस्तान ही पाकिस्तान बन जाये और ये भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदोस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जाएं।

इस सिख पागल के केस छिदरे हो कर बहुत मुख़्तसर रह गए थे। चूँकि बहुत कम नहाता था, इस लिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे, जिस के बाइस उस की शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आदमी बे-ज़रर था। पंद्रह बरसों में उस ने कभी किसी से झगड़ा फ़साद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वो उस के मुतअल्लिक़ जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उस की कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया।

उस के रिश्तेदार लोहे की मोटी मोटी ज़ंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाख़िल करा गए।

महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए ये लोग आते थे और उस की ख़ैर ख़ैरियत दरयाफ़्त कर के चले जाते थे। एक मुद्दत तक ये सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान, हिंदोस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उन का आना बंद हो गया।

उस का नाम बिशन सिंह था मगर उसे टोबा टेक सिंह कहते थे। उस को ये क़तअन मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उस के अज़ीज़-ओ-अका़रिब उस से मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफ़अदार से कहता कि उस की मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वो अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता, अपने कपड़े जो वो कभी इस्तिमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज कर मिलने वालों के पास जाता। वो उस से कुछ पूछते तो वो ख़ामोश रहता या कभी कभार “ऊपर दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी वाल आफ़ दी लालटैन” कह देता।

उस की एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती बढ़ती पंद्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंह उस को पहचानता ही नहीं था। वो बच्ची थी जब भी अपने बाप को देख कर रोती थी, जवान हुई तब भी उस की आँखों से आँसू बहते थे।

पाकिस्तान और हिंदोस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उस ने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है। जब इत्मिनान बख़्श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उस के दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उसे उन की आमद की ख़बर दे दिया करती थी।

उस की बड़ी ख़्वाहिश थी कि वो लोग आएं जो उस से हमदर्दी का इज़हार करते थे और उस के लिए फल, मिठाईयां और कपड़े लाते थे। वो अगर उन से पूछता कि टोबा टेक सिंह कहाँ है? तो वो उसे यक़ीनन बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदोस्तान में क्योंकि उस का ख़याल था कि वो टोबा टेक सिंह ही से आते हैं, जहां उस की ज़मीनें हैं।

पागल-ख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था। उस से जब एक रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदोस्तान में तो इस ने हस्ब-ए-आदत क़हक़हा लगाया और कहा वो पाकिस्तान में है न हिंदोस्तान में। इस लिए कि हम ने अभी तक हुक्म नहीं दिया।

बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म देदे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ़ था इस लिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आ कर वो उस पर बरस पड़ा: “ओपड़ दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल आफ़ वाहे गुरू जी दा ख़ालिसा ऐंड वाहे गूरूजी की फ़तह....... जो बोले सो निहाल, सत सिरी अकाल।”

इस का शायद ये मतलब था कि तुम मुस्लमान के ख़ुदा हो....... सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते।

तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुस्लमान जो उस का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया। पहले वो कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा, मगर सिपाहीयों ने उसे रोका। “ये तुम से मिलने आया है.......तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है।”

बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़लदीन ने आगे बढ़ कर उस के कंधे पर हाथ रखा “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुर्सत ही न मिली....... तुम्हारे सब आदमी ख़ैरीयत से हिंदोस्तान चले गए....... मुझ से जितनी मदद हो सकी, मैं ने की.......तुम्हारी बेटी रूप कौर....... ”

वो कुछ कहते कहते रुक गया। बिशन सिंह कुछ याद करने लगा। “बेटी रूप कौर!”

फ़ज़लदीन ने रुक रुक कर कहा “हाँ.......वो.......वो भी ठीक ठाक है....... उन के साथ ही चली गई।”

बिशन सिंह ख़ामोश रहा। फ़ज़लदीन ने कहना शुरू किया उन्हों ने मुझ से कहा था “कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछता रहूं....... अब मैं ने सुना है कि तुम हिंदोस्तान जा रहे हो....... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना....... और बहन अमृत कौर से भी....... भाई बलबीर से कहना फ़ज़लदीन राज़ी ख़ुशी है....... दो भोरी भैंसें जो वो छोड़ गए थे, इन में से एक ने कटा दिया है....... और दूसरी के कटी हुई थी पर वो छः दिन की हो के मर गई....... और.......मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो कहना, में हरवक़्त तैय्यार हूँ....... और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरोंडे लाया हूँ।”

बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा। “टोबा टेक सिंह कहाँ है?”

फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा। “कहाँ है.......वहीं है जहां था।”

बिशन सिंह ने फिर पूछा। “पाकिस्तान में या हिंदोस्तान में?”

“हिंदोस्तान में.......नहीं नहीं, पाकिस्तान में।” फ़ज़लदीन बौखला सा गया।

बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया। “ओपड़ दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल आफ़ पाकिस्तान ऐंड हिंदोस्तान आफ़ दी दरफ़टे मुँह।”

तबादले की तैय्यारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फ़हरिस्तें पहुंच गई थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।

सख़्त सर्दियां थीं, जब लाहौर के पागलखाने से हिंदू, सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुईं। मुतअल्लिक़ा अफ़्सर भी हम-राह थे। वाहगा के बॉर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिन्टेन्डेन्ट एक दूसरे से मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।

पागलों को लारियों से निकालना और उन को दूसरे अफ़िसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ा मंद हुए थे, उन को सँभालना मुश्किल हो जाता था क्यों कि इधर उधर भाग उठते थे, जो नंगे थे, उन को कपड़े पहनाए जाते वो फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियां बक रहा है। कोई गा रहा है। आपस में लड़ झगड़ रहे हैं। रो रहे हैं, बिलक रहे हैं। कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी.......पागल औरतों का शोर-ओ-गोगा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दाँत से दाँत बज रहे थे।

पागलों की अक्सरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इस लिए कि उन की समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़ कर यहां फेंका जा रहा है। वो चंद जो कुछ सोच समझ सकते थे। पाकिस्तान ज़िंदाबाद और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे। दो तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा क्यों कि बाज़ मुस्लमानों और सिखों को ये नारा सुन कर तैश आ गया था।

जब बिशन सिंह की बारी आई और वाहगा के उस पार मुतअल्लिक़ा अफ़्सर उस का नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो इस ने पूछा। “टोबा टेक सिंह कहाँ है....... पाकिस्तान में या हिंदोस्तान में?”

मुतअल्लिक़ा अफ़्सर हंसा। “पाकिस्तान में।”

ये सुन कर बिशन सिंह अच्छी कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी-मांदा साथियों के पास पहुंच गया।

पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उस ने चलने से इनकार कर दिया: “टोबा टेक सिंह यहां है....... ” और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। “ओपड़ दी गड़ गड़ दी अनैक्स दी बे ध्याना दी मंग दी दाल आफ़ टोबा टेक सिंह ऐंड पाकिस्तान।”

उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेक सिंह हिंदोस्तान में चला गया है.......अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा, मगर वो ना माना। जब उस को ज़बरदस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वो दरमयान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहां से नहीं हिला सकेगी।

आदमी चूँकि बे-ज़रर था इस लिए उस से मज़ीद ज़बरदस्ती न की गई। उस को वहीं खड़ा रहने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा।

सूरज निकलने से पहले साकित-ओ-सामित बिशन सिंह के हलक़ से एक फ़लक शि्गाफ़ चीख़ निकली....... इधर उधर से कई अफ़्सर दौड़े आए और देखा कि वो आदमी जो पंद्रह बरस तक दिन रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है। उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदोस्तान था.......इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमयान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था|