Asali aazadi wali aazadi - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

असली आज़ादी वाली आजादी - (भाग-6)

भाग -5 से आगे

अगली सुबह मैं थोड़ी जल्दी घर से निकला। रात भर सो तो नही पाया था फिर भी सुबह अपने आप ही नींद जल्दी खुल गयी। सोंचा कि पहले अस्पताल में मनोरमा बिटिया को देख लूंगा फिर गांव जाके रोज़ाना का काम निपटा लूंगा। ये भी तो देखना है कि आज चौहान साहब के दिल्ली से वापिस आने पर कौन सी नई कहानी शुरू होती है।

मैं थोड़ी गई देर में अस्पताल पहुंचा। वहाँ पहुंच कर मैं मनोरमा के कमरे की तरफ़ जाने लगा कि देखा पुलिस वाले उसी कमरे से बाहर निकल रहे है। मैंने मन ही मन सोंचा की पता नही नन्नू ने पुलिस वालो को क्या कहा जो मैंने कल समझाया वो इसको समझ मे आया था कि नहीं या आज फिर से बगावत उतर आई इसके दिमाग में। यदि मेरी बात समझ गया होगा तो अच्छा और अगर नहीं समझा होगा तो फिर ये काले दिन लंबे चलेंगे। मै नज़रे चुराता हुआ कमरे की तरफ बढ़ा सोंचा की कहीं इन पुलिस वालों ने मुझे यहाँ नन्नू के साथ देख लिया तो चौहान को खबर लग जायेगी और वो मेरा भी जीना हराम कर देगा।

पुलिस वालों के निकल जाएं के बाद मैंने कमरे में प्रवेश किया। भीड़ तो थी कमरे में पर मनोरमा का बिस्तर देखकर मेरे होश उड़ गए। वो खाली था। मैं घबरा गया। मुझे लगा कि रात को पक्का कुछ अनहोनी हो गयी दोनों पिता और बेटी के साथ। मैं भागता हुआ डॉक्टर के पास पहुंचा और नन्नू और मनोरमा के बारे में पूंछा।

डॉक्टर साहब बोले- दोनों बाप बेटी रात से ही बहुत परेशान थे और डरे हुए थे। सुबह होते ही दोनों पता नही कहा चले गए। आप उनके गांव से है तो देख लीजिए अपने गांव ही गए होंगे। पुलिस के डर और दुनियां के तानों ने शायद उनको भोर होने से पहले ही भागने पर मजबूर कर दिया।

मैंने तुरंत अपनी साइकिल उठाई और गांव की तरफ चल दिया। कानपुर से बिजुरिया गांव 20-22 किलोमीटर तो था ही। फिर भी मैं बिना कुछ सोंचे समझे गांव की ओर चल दिया। साईकल बिल्कुल गोली की रफ्तार से सड़क पर चल रही थी। बस कुछ ही समय मे मैं शहर के बाहर निकल गया और अब आधे से भी कम दूरी रह गयी थी गांव आने में। अब मैं थक भी चुका था। सोंचा कि दो पल कहीं रुक के पानी ही पी लू पास ही एक छोटी से खोपड़ी दिखी। रुक कर वही बैठ गया। बोला- अरे चाची, थोड़ा पानी मिलेगा क्या? अंदर से आवाज़ आयी- हां बेटा रुको लाती हूं। कुछ ही पल में अंदर से एक बुढ़िया लोटे में पानी लेके बाहर आई और मुझे दिया। मैंने जल्दी में पानी पिया और बुढ़िया को लोटा वापिस करते हुए धन्यवाद दिया और फिर साईकल गांव की तरफ मोड़ दी। जैसे ही मैंने साईकल उठाई और पेडल मारा मेरे पीछे से किसी ने आवाज़ लगाई- अरे पोस्टमैन चाचा , रुको। मैंने सुना नही या फिर शायद जल्दी थी इसलिए सुनकर भी अनसुना कर दिया।

पीछे से फिर से आवाज़ आयी- अरे चाचा, बहुत जल्दी में हो, रुको तो सही। मैंने पीछे मुड़ के देखा तो सूरज की चमक से आंखें चौंधिया गयी पर शक्ल कुछ जानी पहचानी थी। मैं रुक गया। एक नौजवान मुस्कुराता हुआ मेरी तरफ़ तेजी से चला आ रहा था। मैंने भी साईकल किनारे की और खड़ा हो गया और उस नज़दीक आने वाले लड़के को पहचानने की कोशिश करने लगा। दोनों हाथों में बैग और पीठ पर बड़ा सा एक और बैग। पास आके सीधे पैर छूकर बोला- चाचा पहचाने नही क्या? मैं पहचान गया था और शायद इसी लिए मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई, आसमान भारी लगने लगा। अभी अभी पिया हुआ पानी उल्टा गले तक आ गया। लगा कि कहीं आँखें निकल कर बाहर न गिर जाए।

पता नहीं किसी को यकीन होता या नही पर सच मे भगवान ने देर नहीं कि थी। वो कोई और नही नन्नू का शहीद हुए लड़का शैलेन्द्र ही था। हाँ, सच पढ़ा आपने- शैलेंद्र जिसे सबने शहीद हुए समझ लिया था और उसके बाद जाने कौन कौन सी नौटंकी पूरे गांव और कई लोगो की जिंदगी में हुई। शैलेंद्र को देख कर पहली नज़र में तो मैं डर के उल्टे पांव घर की तरफ भागने वाला था। पर मैं रुका और अपने आप को संभाला।

साईकल का हैंडल जोर से पकड़ के मैंने शैलेंद्र से काँपती हुई आवाज़ में पूंछा- तुम शैलेंद्र, बिजुरिया गांव वाले नन्नू के लड़के? लेकिन तुम तो.....

शैलेंद्र चहक कर बोला- अरे चाचा, हम वही नन्नू के लड़के। चाचा बचपन से आज तक तो देखते हुए आ रहे हो और आज पहचान ही नही रहे। अरे ख़ुशख़बरी सुनो हम जीत गए दुश्मनों से। बहुत पटक कर मर सभी को। सरकार ने भी बहुत साथ दिया हमारा। छुट्टी लेके सीधा घर आये है। आप गांव ही जा रहे हो ना? हमको भी साईकल पर पीछे बिठा कर ले चलो। कहो तो हम तो आर्मी वाले स्ट्रांग मैन है साईकल हम ही चला के ले चले। आओ चाचा पीछे बैठो अब हमको भी सेवा का मौका दो।

वो ये सब कह तो रहा था पर मैं कुछ भी सुन नही रह था। चिलचिलाती धूप और सर्दी की हवाओ के मिश्रण ने सोंचने की छमता खत्म कर दी थी। मेरे होश उड़े हुए थे। पर अभी ज्यादा सोंचने का समय नही था। मेरी जगह कोई और होता तो शायद भूत भूत चिल्लाता हुआ वहां साइकल छोड़ के भाग जाता पर भूतों पर बहुत ज्यादा विश्वास नही है मुझे इसलिए ये नहीं सोंचा और साईकल पर पीछे बैठ कर गांव की ओर चल दिया। रास्ते भर पिछले आठ दिन में जो जो हुआ वो मन ही मन दोहराता चला जा रहा था। सोंच रहा था कि ये हुआ क्या और अब जो होने वाला है उसका क्या जवाब है ऊपर वाले के पास। ये करिश्मा नहीं है कुदरत का तो और क्या है। कैसे हुआ क्यों हुआ वो सब बाद में देखा जाएगा। पर अगर हुआ है तो अच्छे के लिए ही हुआ होगा क्योंकि मर कर जिंदा हो जाना इंसान के बस की बात तो नही है।

थोड़ी ही देर में गांव आ गया। ऐसा सन्नाटा और मातम छाया हुआ था जैसे शैलेन्द्र नहीं पूरा गांव ही मर गया हो। मैंने शैलेन्द्र को गांव के बाहर ही समझ दिया था कि गांव में किसी से न मिले और न ही बात करे सीधे अपने घर चले और मैं भी सीधे उसके घर ही गया। घर के बाहर साईकल खड़ी करके मैन आवाज़ लगाई- अरे नन्नू, घर पर हो क्या? जल्दी द्वार खोलो। अंदर से कोई आवाज़ न आई तो मैं डर गया। मैने फिर से आवाज़ लगाई- अरे सुलोचना, तुम्हारे बाबूजी है क्या? तनिक बुलाओ तो। पर कोई भी जवाब नहीं आया। अब मेरे साथ साथ शैलेन्द्र भी बहुत घबरा गया। आखिर मैं भी कब तक उसको रोकता।

शैलेन्द्र ने चिंता भारी नज़रों से मेरी तरफ देखा और पूंछा- काका सब कुछ ठीक तो है ना, ये सब दरवाज़ा क्यूं नही खोलते? आप भी वहां मुझे देख कर भौंचक्के रह गए थे। क्या मैने यहाँ आकर कोई गलती की है। कुछ छिपा रहे हो मुझसे?

इससे पहले की मैं कुछ सोच समझ कर बोल पाता। किसी ने अंदर से दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही नन्नू की छोटी बेटी सुलोचना सामने खड़ी हुई थी। बिना कुछ बोले ही वो अंदर जाने लगी।

शैलेन्द्र ने पीछे से पुकारा- जीजी। सुलोचना वही थम गई पर पीछे मुड़ के नही देखा। शैलेन्द्र फिर से बोला- क्या हुआ जीजी आने भाई को पहिचाने नही क्या? ये सुनते ही सुलोचना ने पीछे मुड़ के देखा और उसकी आंखें खुली की खुली रह गयी। कुछ पल के लिए तो शायद समय ही रुक गया। पहले तो वो डर ही गयी कि कही कोई उसके साथ भद्दा मजाक तो नहीं कर रहा। फिर मुझे देखकर वो थोड़ा होश में आई। शैलेंद्र को पहचान कर वो दौड़ के उसके गले लग गई और जोर जोर से रोने लगी और रोती हुई बोली- भैया आप कहाँ चले गए थे? आपको तो पता भी नहीं कि आपके जाने के बाद यहाँ क्या क्या हुआ। हमे लोगो ने किस किस तरह से परेशान किया। पर मुझे पता था कि आप वापिस जरूर आएंगे।

शैलेंद्र ने हंसते हुए पूंछा- अरे बहन क्या हुआ मैं तो बॉर्डर पर था कभी न कभी तो वापिस आना ही था पर मेरे पीछे यह ऐसे क्या हुआ? पोस्टमैन चाचा भी अज़ीब से बर्ताव कर रहे है। आखिर हुआ क्या है ये तो बताओ?

मैं अभी तक तो चुप था पर फिर मैंने माहौल देख कर बोला-सब लोग अंदर चलो और बैठ कर बातें करते है। हम तीनो साथ मे अंदर गए तो वहां नन्नू, उसकी पत्नी और मनोरमा पहले से ही थे। खाट पर मनोरमा लेती हुई थी और नन्नू और उसकी पत्नी उसके सिरहाने पर बैठे थे। शैलेन्द्र को हमारे साथ जीवित देखकर उन तीनों के भी होश उड़ गए और सबने शैलेंद्र को गले लगा लिया। मनोरमा कुछ बोल नही पा रही थी बेहद बीमार , सफेद पट्टी से लपेटी हुई और अपने आंखों में, दिल से बहे हुए आंसुओं के बीच अपने भाई को अपने पास बुला रही थी।

शैलेन्द्र हैरान होता हुआ अपने माता पिता और सुलोचना के पैर छूकर अपनी सबसे बड़ी बहन के साथ बैठकर रोने लगा और फिर पूंछा- क्या हुआ बड़ी जीजी को, कोई बताओ क्या हुआ, आप लोग सब चुप क्यों है आखिर जीजी की हालत कैसे हुई?

परिवार की हैरानी और खुशी देखने ही लायक थी। इसके बीच किसी को इस बात का ख्याल ही नही था कि आखिर पिछले नौ दस दिनों में हुआ क्या है। मैंने शैलेंद्र और उसके परिवार को संभाला और सुलोचना को चाय बनाने को बोला और नन्नू को कहा- नन्नू, अब तुम बिल्कुल परेशान मत हो, अब शैलेन्द्र भी आ गया है। अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। अपना दिमाग ठंडा रखो बस। जिस वजह से सब शुरू हुआ था जब वही सब ठीक हो गया तो फिर अब परेशान होने से कुछ फायदा नहीं। शैलेंद्र ने बीच मे टोंकते हुए पूंछा- बापू हुआ क्या ये बताओ अब मैं आ गया हूँ आपको मेरी कसम सच सच बताओ।

इससे पहले की नन्नू कुछ बोले मैंने बोला- कुछ नहीं बेटा यहां बहूत बड़ी एक गलत फहमी ही गयी थी। कुछ दिन पहले दिल्ली से एक तार आया था कि तुम जंग के दौरान शहीदों ही गए हो। हमको ये खबर मिली और तब से यही हाल है। पूरा गांव यही सोंच रहा है तब से के तुम अब मर चुके हो। इसी लिए मैं भी तुमको देखकर हैरान रह गया था और फिर यहाँ भी सब हैरान ही है।

इतने देर में चाय आ गयी और सभी ने लोटे में चाय ली। मौसम के अनुसार चाय अच्छी लग रही थी। पर मेरे दिमाग मे तो बस वही सवाल चल रहे थे जो आप सभी के दिमाग मे अभी चल रहे है। आखिर ये हुआ क्या है। मैंने शैलेन्द्र को पूरी बात नहीं बताई सोंचा कि कहीं कुछ बवाल न हो जाये। मैंने धीरे से इशारा करके नन्नू को भी शैलेन्द्र को पूरी बात न बताने के लिए मना लिया। शैलेन्द्र भी ये सब सुनके हैरान हुआ कि डिपार्टमेंट से इतनी बड़ी गलत खबर कैसे दे दी। चाय पीते पीते वो ये सब सोंच ही रहा था कि उसकी नज़र फिरसे अपनी बहन पर पड़ी। शैलेंद्र ने फिर से पूंछा- लेकिन इस सब मे जीजी को क्या और कैसे हुआ?

To be continued...भाग 7।

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