रिश्वत Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रिश्वत

रिश्वत

अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था अपने हम-उम्र लड़कों में सब से ज़्यादा ख़ुश-पोश माना जाता था लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिलकुल ख़स्ता हाल हो गया।

उस ने बी ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की वो बहुत ख़ुश था उस के वालिद ख़ान बहादुर अताउल्लाह का इरादा था कि उसे आला तालीम के लिए विलायत भेजेंगे। पासपोर्ट ले लिया गया था सूट वग़ैरा भी बनवा लिए गए थे कि अचानक ख़ान बहादुर अताउल्लाह ने जो बहुत शरीफ़ आदमी थे, किसी दोस्त के कहने पर सट्टा खेलना शुरू कर दिया।

शुरू में उन्हें इस खेल में काफ़ी मुनाफ़ा हुआ वो ख़ुश थे कि चलो मेरे बेटे की आला तालीम का ख़र्च ही निकल आया मगर लालच बुरी बला है। उन्हों ने ये समझा कि उन की पुश्त पर चौगुनी है जीतते ही चले जाऐंगे।

उन का वो दोस्त जिस ने उन को इस रास्ते पर लगाया था बार बार उन से कहता था:

“ख़ान साहब माशा-अल्लाह आप क़िस्मत के धनी हैं मिट्टी में भी हाथ डालें तो सोना बन जाये।”

और वो इस क़िस्म की चापलूसियों के ज़रिये ख़ान बहादुर से सौ दो सौ रुपय ऐंठ लेता। ख़ान बहादुर को भी कोई तकलीफ़ महसूस न होती इस लिए कि उन्हें बगै़र मेहनत के हज़ारों रुपय मिल रहे थे ।

अहमद दीन ज़हीन और बा-शुऊर लड़का था उस ने एक दिन अपने बाप से कहा:

“अब्बा जी! ये आप ने जो सट्टा बाज़ी शुरू की है माफ़ कीजिएगा, उस का अंजाम अच्छा नहीं होगा ”

ख़ान बहादुर ने तेज़ लहजे में उस से कहा:

“बरखु़र्दार ! तुम्हें मेरे कामों में दख़ल देने की जुर्रत नहीं होनी चाहिए मैं जो कुछ कर रहा हूँ ठीक है जितना रुपया आरहा है, वो मैं अपने साथ क़ब्र में लेकर नहीं जाऊंगा। ये सब तुम्हारे काम आएगा ”

अहमद दीन ने बड़ी मासूमियत से पूछा:

“लेकिन अब्बा जी, ये कब तक आता रहेगा हो सकता है कल को ये जाने भी लगे ”

ख़ान बहादुर भिन्ना गए।

“बको मत आता ही रहेगा।”

रुपया आता रहा

लेकिन एक दिन ख़ान बहादुर ने कई हज़ार रुपय की रक़म दाओ पर लगा दी लेकिन नतीजा सिफ़र निकला दस हज़ार हाथ से देने पड़े

ताव में आकर उन्हों ने बीस हज़ार रुपय का सट्टा खेला उन को यक़ीन था कि सारी कसर पूरी हो जाएगी लेकिन सुबह जब उन्हों ने अख़बार देखा तो मालूम हुआ कि ये बीस हज़ार भी गए।

ख़ान बहादुर हिम्मत हारने वाले नहीं थे उन्हों ने अपना एक मकान गिरवी रख कर पच्चास हज़ार रुपय लिए, और सब का सब अल्लाह का नाम लेकर चांदी के सट्टे पर लगा दिए।

अल्लाह नाम तो ख़ैर अल्लाह का नाम है वो चांदी और सोने की मार्कीट पर क्या कंट्रोल कर सकता है सुबह हुई तो ख़ान बहादुर को मालूम हुआ कि चांदी का भाव एक दम गिर गया है उन को इस क़दर सदमा हुआ कि दल के दौरे पड़ने लगे।

अहमद दीन ने उन से कहा

“अब्बा जी छोड़ दीजिए इस बकवास को ”

ख़ान बहादुर ने बड़े ग़ुस्से में अपने बेटे से कहा:

“तुम बकवास मत करो मैं जो कुछ कर रहा हूँ ठीक है।”

अहमद दीन ने मोअद्दबाना कहा:

“लेकिन अब्बा जान ये जो आप को दिल की तकलीफ़ शुरू हो गई है, इस की वजह क्या है?”

“मुझे क्या मालूम अल्लाह बेहतर जानता है ऐसे आरिज़े इंसान को होते ही रहते हैं।”

अहमद दीन ने कुछ देर सोचने के बाद कहा:

“जी हाँ इंसान को हर क़िस्म के आरिज़े होते रहते हैं लेकिन उन की कोई वजह भी तो होती है। मिसाल के तौर पर अगर आप कोई ऐसी चीज़ खा लें जिस में हैजे़ के जरासीम हों और ”

ख़ान बहादुर को अपने बेटे की ये गुफ़्तुगू पसंद नहीं थी।

“तुम चले जाओ यहां से मेरा मग़्ज़ मत चाटो मैं हर चीज़ से वाक़िफ़ हूँ ”

अहमद दीन ने कमरे से बाहर निकलते हुए कहा :

“ये आप की ग़लत-फ़हमी है कोई इंसान भी हर चीज़ से वाक़िफ़ होने का दावा नहीं कर सकता।”

अहमद दीन चला गया।

ख़ान बहादुर अंदरूनी तौर पर ख़ुद को बहुत बड़ा चुग़द समझने लगे थे। लेकिन वो अपने इस एहसास को अपने लड़के पर ज़ाहिर नहीं करना चाहते थे।

बिस्तर पर लेटे उन्हों ने बार बार ख़ुद से कहा:

“ख़ान बहादुर अताउल्लाह तुम ख़ान बहादुर बने फिरते हो लेकिन अस्ल में तुम अव़्वल दर्जे के बेवक़ूफ़ हो।”

“तुम अपने बेटे की बात पर कान क्यों नहीं धरते जबकि तुम जानते हो कि वो जो कुछ कह रहा है सही है।”

“जितना रुपया तुम ने हासिल किया था, उस से दुगुना रुपया तुम ज़ाए कर चुके हो क्या ये दरुस्त है?”

ख़ान बहादुर झुँझला गए और बड़बड़ाने लगे:

“सब दरुस्त है सब दरुस्त है एक मैं ही ग़लत हूँ लेकिन मेरा ग़लत होना ही सही होगा बाअज़ औक़ात गलतियां भी सेहत का सामान मुहय्या कर देती हैं।”

पंद्रह दिन बिस्तर पर लेटे और ईलाज कराने के बाद जब वो किसी क़दर ही तंदरुस्त हुए तो उन्हों ने अपना एक और मकान बेच दिया ये पच्चीस हज़ार रुपय में बिका ।

ख़ानसाहब ने ये सब रुपय सट्टे पर लगा दिए। उन को पूरी उम्मीद थी कि वो अपनी अगली पिछली कसर पूरी कर लेंगे मगर क़िस्मत ने यावरी ना की और वो इन पच्चीस हज़ार रूपों से भी हाथ धो बैठे।

अहमद दीन पेच-ओ-ताब खा के रह गया उस की समझ में नहीं आता था कि अपने बाप को किस तरह समझाए वो उस की कोई बात सुनते ही नहीं थे।

अहमद दीन ने आख़िरी कोशिश की।

और एक दिन जब उस का बाप अपने कमरे में हुक़्क़ा पी रहा था और मालूम नहीं किस सोच में ग़र्क़ था कि उस से डरते डरते मुख़ातब हुआ:

“अब्बा जी ”

ख़ान बहादुर साहब सोच में इस क़दर ग़र्क़ थे कि उन्हों ने अपने लड़के की आवाज़ ही नहीं सुनी।

अहमद दीन ने आवाज़ को ज़रा बुलंद क्या:

“अब्बा जी अब्बा जी !”

ख़ान बहादुर चोंके।

“किया है ”

“अहमद दीन काँप गया ”

“कुछ नहीं अब्बा जी मुझे मुझे आप से एक बात कहना थी”

ख़ान बहादुर ने हुक़्क़े की नड़ी अपने मुँह से जुदा की।

“कहो, क्या कहना है।”

अहमद दीन ने बड़ी लजाजत से कहा:

“मुझे ये अर्ज़ करना है ये दरख़्वास्त करना थी कि आप सट्टा खेलना बंद कर दें ”

हुक़्क़े का एक ज़ोरदार कश लेकर वो अहमद दीन पर बरस पड़े

“तुम कौन होते हो मुझे नसीहत करने वाले मैं जानूँ मेरा काम। क्या अब तक तुम्हारे ही मश्वरे से मैं सारे काम करता रहा हूँ देखो, मैं तुम से कहे देता हूँ कि आइन्दा मेरे मुआमले में कभी दख़ल न देना मुझे ये गुस्ताख़ी हरगिज़ पसंद नहीं समझे!”

अहमद दीन की गर्दन झुकी हुई थी:

“जी मैं समझ गया ”

और ये कह कर वो अपने बाप के कमरे से निकल गया।

सट्टे की लत शराब की आदत से भी कहीं ज़्यादा बुरी होती है। ख़ान बहादुर इस में कुछ ऐसे गिरफ़्तार हुए कि जायदाद सब की सब इस ख़तरनाक खेल की नज़र होगई।

मरहूम बीवी के ज़ेवर थे वो भी बिक गए और नतीजा इस का ये निकला कि उन के दिल के आरिज़े ने कुछ ऐसी शक्ल इख़्तियार की कि वो एक रोज़ सुबह सवेरे ग़ुस्ल-ख़ाने में दाख़िल होते ही धम से गिरे और एक सेकंड के अंदर अंदर दम तोड़ दिया।

अहमद दीन को ज़ाहिर है कि अपने बाप की वफ़ात का बहुत सदमा हुआ वो कई दिन निढाल रहा। उस की समझ में नहीं आता था कि क्या करे बी ए पास था आला तालीम हासिल करने के ख़्वाब देख रहा था मगर अब सारा नक़्शा ही बदल गया था। इस के बाप ने एक फूटी कोड़ी भी उस के लिए नहीं छोड़ी थी। मकान जिस में वो तन्हा रहता था रिहन था।

यहां से उस को कुछ अर्से के बाद निकलना पड़ा घर की मुख़्तलिफ़ चीज़ें बेच कर उस ने चार पाँच सौ रुपय हासिल किए और एक ग़लीज़ मुहल्ले में एक कमरा किराए पर ले लिया मगर पाँच सौ रुपय कब तक उस का साथ दे सकते थे। ज़्यादा से ज़्यादा एक बरस तक बड़ी किफ़ायत शिआरी से गुज़ारा कर लेता।

लेकिन उस के बाद क्या होता।

अहमद दीन ने सोचा:

“मुझे मुलाज़मत कर लेनी चाहिए!

चाहे वो कैसी भी हो पच्चास साठ रुपय माहवार मिल जाएं तो गुज़ारा हो जाएगा।”

उस की माँ को मरे इतने ही बरस होगए थे जितने उस को जीते, अहमद दीन ने हालाँकि उस की शक्ल तक नहीं देखी थी न उस को दूध पीना नसीब हुआ था फिर भी वो अक्सर उस को याद कर के आँसू बहाता रहता

अहमद दीन ने मुलाज़मत हासिल करने की इंतिहाई कोशिश की मगर कामयाबी न हुई इतने बे-रोज़गार और बे-कार आदमी थे कि वो ख़ुद को इस बे-रोज़गारी और बे-कारी के समुंद्र में एक क़तरा समझता था।

लेकिन इस एहसास के बावजूद उस ने हिम्मत न हारी और अपनी तग-ओ-दो जारी रखी।

बहुत दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि अगर किसी अफ़्सर की मुट्ठी गर्म की जाये तो मुलाज़मत मिलने का इमकान पैदा हो सकता है लेकिन वो मुट्ठी गर्म करने का मसाला कहाँ से लाता।

एक दफ़्तर में जब वो मुलाज़मत के सिलसिले में गया तो हैड क्लर्क ने उस से शफ़ीक़ाना अंदाज़ में कहा:

“देखो बरखु़र्दार यूं ख़ाली खोली काम नहीं चलेगा जिस असामी के लिए तुम ने दरख़्वास्त दी है, उस के लिए पहले ही दो सौ पच्चास दरख़्वास्तें वसूल हो चुकी हैं मैं बड़ा साफ़ गो आदमी हूँ पाँच सौ रुपय अगर तुम दे सकते हो तो ये मुलाज़मत तुम्हें यक़ीनन मिल जाएगी ”

अब अहमद दीन पाँच सौ रुपय कहाँ से लाता उस के पास बमुश्किल बीस या तीस रुपय थे।

चुनांचे उस ने हैड क्लर्क से कहा:

“जनाब ! मेरे पास इतने रुपय नहीं आप मुलाज़मत दिलवा दीजिए तनख़्वाह में से आधी रक़म आप ले लिया करें।”

हैडक्लर्क हंसा

“तुम हमें बेवक़ूफ़ बनाते हो जाओ, चलते फिरते बनू ”

अहमद दीन बहुत देर तक चलता फिरता रहा मगर उसे इतमिनान से कहीं बैठने का मौक़ा न मिला। जहां जाता , रिश्वत का सवाल सामने होता दुनिया शायद रिश्वत ही की वजह से आलम-ए-वुजूद में आई है

शायद ख़ुदा को किसी ने रिश्वत दी हो और उस ने ये दुनिया बना दी हो।

अहमद दीन के पास जब पैसा भी न रहा तो मज़दूरी शुरू कर दी। बोझ उठाता और हर रोज़ दो रुपय कमा लेता।

महंगाई का ज़माना था गो दोनों वक़्त का खाना भटियार ख़ाने में खाता लेकिन उसे काफ़ी ख़र्च बर्दाश्त करना पड़ता ।

ज़्यादा से ज़्यादा एक आना बच रहता

अहमद दीन मज़दूरी करता मगर उस के दिल-ओ-दिमाग़ पर रिश्वत का चक्र घूमता रहता था ये एक बहुत बड़ी लानत थी और वो चाहता था कि इस से किसी तरह नजात हासिल करे और मज़दूरी छोड़कर कोई ऐसी मुलाज़मत इख़्तियार करे जो इस के शायान-ए-शान हो आख़िर वो बी ए पास था फ़रस्ट क्लास फ़रस्ट।

उस ने सोचा कि नमाज़ पढ़ना शुरू कर दे ख़ुदा से दुआ मांगे कि वो उस की सुने! चुनांचे उस ने बाक़ायदा पाँच वक़्त की नमाज़ शुरू कर दी। ये सिलसिला एक वक़्त तक जारी रहा मगर कोई नतीजा बरामद न हुआ।

इस दौरान में उस के पास तीस रुपय जमा हो चुके थे। सुबह की नमाज़ अदा करने के बाद वो डाक-ख़ाने गया तीस रुपय का पोस्टल आर्डर लिया और लिफाफे में डाल कर साथ ही एक रुका भी रख दिया जिस का मज़मून कुछ इस क़िस्म का था:।

“अल्लाह मियां मैं समझता हूँ तुम भी रिश्वत लेकर काम करते हो। मेरे पास तीस रुपय हैं जो तुम्हें भेज रहा हूँ मुझे कहीं अच्छी सी मुलाज़मत दिलवा दो बोझ उठा उठा कर मेरी कमर दोहरी होगई है।”

लिफाफे पर इस ने पता लिखा :

“बख़िदमत जनाब अल्लाह मियां मालिक-ए-कायनात”

चंद रोज़ बाद अहमद दीन को एक ख़त मिला जो कायनात अख़बार के ऐडीटर की तरफ़ से था। उस का नाम मुहम्मद मियां था, ख़त के ज़रीये उस ने अहमद दीन को बुलाया था। वो कायनात के दफ़्तर गया जहां मुतर्जिम की हैसियत से सौ रुपया माहवार पर रख लिया गया।

अहमद दीन ने सोचा आख़िर रिश्वत काम आ ही गई|