सुरजू छोरा - 1 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सुरजू छोरा - 1

सुरजू छोरा

भाग 1

कुसुम भट्ट

..... तो एक ठहरी जिद के तहत सुरजू ने निर्णय लिया और गांव में मुनादी पिटा दी....

भूकंप आ गया गांव में.....! गोया सुरजू ने पृथ्वी तल पर घुस कर धीरे से खिसका दी हो प्लेट...., गांव के बाशिन्दों की पचतत्वांे की काया थर थर कांपने लगी, प्रत्येक को स्थिर रखना नामुमकिन लगने लगा खुद को.....

- हाथ पांव बर्फ की मांनिद ठण्डे पड़ने लगे और दिल धक धक धक ....! तभी तो बड़ी से बड़ी आपदा में भी न घबराने वाले सयानों (पुरूषों) के होंठांे से थरथराकर कर फूटा’’ साले...... गुबड़े की इतनी हिम्मत! अभी तक गांव में गिनी चुनी कुछ स्त्रियों में बची थी तरल संवेदना की हरी बूंदे.... टप टप गिरने लगी सुरजू की रौखड भूमि पर ‘‘सुरजू रे.... ऐसा गजब तूने सोचा छोरा... हमने तो सपने में भी नी सोचना ठैरा....। देहरी पर अड़स गई कोई’’ ना छोरा ना ..... तू तो हमारी धियाणी का (बेटी) बेटा ठैरा....

सुरजू के होंठ बन्द, गोया लेई चिपका दी हो एक बार उड़ती दृष्टि से उसने रिरियाती कायाओं को देखा ‘‘मैंने भी कहाँ सोचा था सपने में... मुझे भी तो पांव टिकाने को यही जमीन चाहिए थी तथा सिर के ऊपर एक टुकड़ा आसमान...। अब नहीं मिलता तो...? ‘‘उसके पांव मशीन पर चलने लगे खट खट खट खट और नजर कपड़े पर टिक कर भी बहुत दूर...’’ मेरा जो डिसीज़न है.... अब तो बदलने से रहा....’’

हिटलर क्या एक ही हुआ पृथ्वी पर? उसके रक्त बीज फैले हैं चप्पे चप्पे पर..., गांव के तमाम बाशिन्दों का एक स्वर ‘‘उफ! हाथी पांव का वजन! हमारी जमीन धसक रही है रे सुरजू....’’

वक्त बेवक्त सुरजू ने जितना पी सकता था घूंट घंूट कडुवा पिया, उगला नहीं कभी..., गोया भीतर भरते जहर को वह अमृत बनाने की कला सीखता रहा।

अंधेरे जालों के बीच उलझते सुलझते उसके भीतर एक महीन रोशनी की किरण फूटी ‘‘मेरी जमीन क्यूँ नहीं...? गांव मेरा क्यूँ नहीं? यह धरती आसमान मेरा नही ंतो मैं यहाँ क्यूँ हूँ?’’ जिसने भी धरती पर जन्म लिया, धरती के संसाधनों जल जमीन जंगल पर उसका उतना ही हक जितना दूसरे दावेदारों का...’’ उसके दिमाग में प्रश्न उगते तो उत्तर भी साथ-साथ उतरते, उसे समझ नहीं आता कि लोग उसे गांव का निवासी क्यों नहीं समझते जबकि उसका जन्म यहीं हुआ था उसकी माँ नानी कहती ‘‘जहाँ तेरी माँ का गांव वही तेरा गांव हुआ सुरजू’’ सुरजू की समझ में नहीं आता कि शिवाली गांव वाले उसे अपने गांव का बाशिन्दा क्यांे नहीं मानते?

देहरी पर अड़स कर देर तक उसकी जमीन को टप टप टप नकली आँसुओं से भिगाकर वे चली गई तो सुरजू ने चैन की सांस ली, उसने गोल घूमते पांवों को समेटा और बरामदे में अलसाई सी अंगड़ाई लेकर आराम कुर्सी पर बैठ गया बहुत देर से चुप्पी ओढ़े उसके होंठ खुले ‘‘अब आयेंगे ठिकाने पर ......’’

माँ पवित्रा खलिहान में राशन के गेहूँ सुखा रही थी ‘‘हमारी शान सहन नहीं होती उनको... सांप लोटते हैं सीने पर .....

सुरजू चुगद हँस पड़ता है ठठाकर.....

‘‘बड़ी गहरी साजिश है छोरा.... हँसी में क्यूँ लेता है तू .....?’’ पवित्रा मार्बल के फर्श पर हाथी पांवों का वजन उठाकर धम धम धमक करती हुइ उसके कान में फुसफुसाई ‘‘अब लगी है चोट उनके कलेजा पर....’’ वह हँसती हुइ रसोई में गई कजरी ने उसके हाथ दो प्याली चाय पकड़ा दी सुरजू ने माँ के हाथ से प्याली पकड़ी घूंट भरते हुए आंगन के फूलों को देखने लगा, गुलाब गुड़हल गेंदा चमेली कई प्रकार के फूल सुरजू ने बड़ी मशक्कत से उगाये थे, उसने देखा था शहर में उसके कुटुम्बी मामा लोगों के बंगले कोठियों के आगे फूलों की बहार! बस उसने ठान लिया था कि वह भी अपने घर के आगे इससे ज्यादा फूलों के पौधे रोपेगा और जैसे भी अपने घर को बंगला बनायेगा चाहे कोई उसे ‘मिनी बंगला’ कहे, वह अपनी चुप्पी को तोड़ता तो उसके होंठों पर अस्फुट स्वर फूटता ‘‘अपना भी इसटैंण बनेगा... कभी इन्हीं के साहबों के जैसा... देख कर चकरा जायेंगे.....!’’ तो सुरजू की अथक मेहनत रंग लाई थी घर के पिछवाड़े सब्जियों की बहार और घर के आगे फूल ही फूल सुगंधि उडाते सुरजू के बगीचे की सब्जियाँ कभी बाजार बिकने जाती तो सेम फलियाँ गांव के प्रत्येक चूल्हे में चार छह दिनों के अंतराल पर बारी-बारी पकती, सेम की फलियों का स्वाद लेते लोग टोक भी लगाते ‘‘मेरा बाबा! कितनी फलती है सूरजू छोरे की छीमी (सेम) क्या तो खाद डालता होगा छोरा...? हमारी छीमी क्यों नी फलती!’’ वे पूछते जो सुरजू कहता ‘‘मेरी छीमी... वह तो फलनी ही ठहरी ठाकुरों - गरीब गुरबा का पसीना गिरता है न जड़ों पर इसीलिए इतना फलती है मेरी छीमी, पर तुम तो टोक न लगाया करो सेठ लोगों।’’ सुरजू कब पल भर भी बैठा चैन से...? समय के एक एक क्षण को उपयोगी बनाता रहा छोरा। गांव वाले देखते दाँतों तले उंगली दबाते, कड़ाके की ठण्ड हो या चमड़ी झुलसाती गरमी वह मस्त मगन काम में रमा रहता! किसी का मकान बनता सुरजू अपने पुराने रेडियो पर गाना सुनते हुए ईंट बजरी ढ़ोता लोग देखते मिस्त्री के साथ धुर दोपहर में चिनाई करता छोरा! कभी पत्थर तोड़ता! कभी मिस्त्री को पटाकर लोगों की आँख बचाकर अपने घर के टूटे हिस्से को ठीक कराता। जब लोग दोपहर के खाने के बाद नींद की झपकी लेते सुरजू अपने सुख की एक नई दुनिया इजाद करने लगता धीरे धीरे मिस्त्री का काम सीख गया, वह गर्व से कहता ’’अपन तो मामू जूते भी गांठ लेंगे कोई टूटे जूते दे तो सही....’’ खिल खिल हँसने लगता छोरा ‘‘अबे! साले .... हमारा नाम बदनाम करेगा बे....?’’ साथ के लड़के स्कूल कालेज जाते हुए उसे टोकते ‘‘साले दुबारा ऐसी बातें जुबान पर न लाना... मरी भैंस की खाल थमा देंगे...... गांव से निष्काषित कर देंगे साले..... बता दे रहे हैं, वे बारी बारी अपना जूता चप्पल निकाल कर हलके हलके उसके सिर पर मारते ‘‘तेरी हथिनी माँ के साथ पहुँचा देंगे वहीं बाबा आदम के गांव साला टपरा। अबे बामन जूते गाँठता है बे बामन तो पूजा करता है... ज्ञान बांटता है सब को...’’ सुरजू पल भर को सकपका जाता है ‘‘कुछ गलत बोल गया क्या? जूते गांठना उसका काम थोड़े न है’’ वह अपमानित होकर भी हँसता जूते खाकर भी संयमित होकर लड़कों को खुश करने की अदा में मीठी बाणी से समझाता ‘‘नहीं भाई मजाक करता हूँ बामन जूते क्यूं गांठेगा भला..... मैं भी पंडिताई का काम सीखूंगा भाइयों’’ वह अपनी बेढंगी देह से जूते चप्पलों की धूल झाड़ता।

लड़कों को उसकी एंेठ से हुमक चढ़ती ‘‘अबे क्या तू बोला बे....? तू बामण...? चेहरा देखा आइने में कभी... मोटे मोटे होंठ बिन्दी आँखें टेढ़ी कमर दस दस किलो से कम पांवों का वजन क्या होगा.... तराजू मिले तो कोई ऐसा...! जिसमें तुल सकें तुम्हारे पांव..... हा हा ही ही हू हू सभी हंसते और उसे चिढ़ाते’’ तेरा बाप उससे तो कई गुणा सुन्दर है कमलू दास है शाले .....‘‘बाप के बारे में अनाप-शनाप सुनकर वह बिसूरने लगता और रिरिया कर कहता’’ देखो भाइयों बाप पर मत चढ़ो तुम मुझे कुछ भी कह लो पर मेरे बाबा को बक्श दो....

सुरजू को अपने बाबा का चेहरा दिखता चपटा मूँह चपटी नाक आँखों के कोर कीच से भरे सफेद दाढ़ी खिचड़ी बाल आपस में लटें उलझी मोटा तोंदियल कई महिनों से नहाता नहीं शरीर भक-भक बाश मारता, लोग रास्ते में मिलने पर दस कदम दूर हट जाते, अशुभ संकेत की तरह वह जब भी दिखता लोग, थू थू करते, लेकिन सुरजू को अपने बाबा में कोई कमी नजर नहीं आती, क्या हुआ कि बाबा नहाता नहीं बेचारे को टैम ही कहाँ मिलता है। गांव से बहुत दूर एक बरसाती नदी के किनारे पहाड़ पर कारतूस लगा कर उसने झोपड़ी बनाई पहाड़ को अथक मेहनत से तोड़ फोड़ कर समतल जमीन बनाई उस पर सब्जियाँ उगाता, कुछ खट्टे फलों के पेड़ भी उगाये, चार बकरियाँ खरीदी, सब्जी और फलों को जंगल के बंदर आकर खाने लगे तो वह बैठा रहता, दोपहर में लोग खाना खाते आराम करते वह अपना खाना नदी के किनारे चट्टान पर खाता, वहाँ से भालू का आना दिखाई देता, वह अपने साथ लम्बा डण्डा रखता और तेज धार की दंराती भी सुरजू का बाप किसी से नहीं डरता, वह ढेर सारी चीजों का झोला भरकर आधी रात को घर आता, गांव में सात बजे सोने वालों के लिये दस ग्यारह बजे आधी रात हो जाती। उसके पांव की आहट और छलछलाते पसीने की बूँदें गांव की मीठी नींद में खलल डालती। ‘‘लोग कहते ये आदमी है या प्रेत मसाण!’’ इतनी रात को जंगल के बाटे आते हुए इसे जरा भी डर नहीं लगता। सुरजू का बाप झोले में हरे पत्तों का साग मक्की खट्टे मीठे आम अन्डे भिन्डी और ढेर सारी फलियाँ गुआर, लोभिया बरसाती सब्जियाँ सर्दियों में राई, पालक, आलू आदि कभी भारी बारिश के चलते उसकी झोपड़ी बहने को होती ऊपर से पहाड़ दरकता उसका साम्राज्य धरती में बिला जाता, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारता बरसात बीत जाने पर विध्वंस का नये सिरे से सृजन करता गांव वाले सुरजू के बाप को चाहे आधी कौड़ी का न मानें तो भी सुरजू अपने बाप को राजा जैसा मानता, उसके एकछत्र साम्राज्य से सुरजू के परिवार को किसी प्रकार की बदहाली का सामना नहीं करना पड़ता। सुरजू की माँ गांव में लोगों के साथ खूब काम करती कुटाई, पिसाई से लेकर बच्चा जनने में भी उसकी मदद ली जाती। हाथी पांवों के बावजूद वह जाने कैसे सुघड़ता से काम निपटाती लोग दांतों तले उंगली दबाते, घर में किसी ठोस आर्थिक संसाधन के गृहस्थी की गाड़ी सुगमता से पटरी पर चलती रही, वह भी माँ की सूझ-बूझ की कारामात ठहरी एक बकरी शुरू कर उसने चालीस बकरियों की भीड़ जुटा ली, जब भी कोई बड़ा खर्चा आ धमकता एक बकरी खूँेटे से खुल कर जिबह होती।

देश से लोग दीवाली को घर आते मांसाहारी बाशिन्दों की आँख सुरजू के गोठ को भेदती - कौन बकरा मोटा ताजा हुआ...? किसका मांस नरम-नरम हुआ? पवित्रा के बेढंगे हाथों पर करारे नोट थमाये जाते, पवित्रा का चिंपांजी जैसा मुखड़ा उस वक्त खिल खिल जाता उसके पंख होते तो वह उस क्षण उड़कर सूरज को चिढ़ा आती कि अंधेरी किस्मत मिली हमें सूरज देवता! फिर भी हम अपने रस्ते में घाम लाकर रहेंगे एक दिन....., इन साहबों के साथ जिन्दगी के मैदान में कदम से कदम मिला कर चल कर दिखायेंगे, ‘‘लेकिन अभी वह होंठों को सिये रहती किसी की बात का जवाब नहीं देती उसका अपमान भी होता तो भी सहन कर लेती, सुरजू को भी गांव का हर व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष बूढ़ा हो या जवान अपनी अपनी तरह से लंगड़ी मारता, सुरजू मोटे लटकते होंठों को खोलता उसके चैड़े दांत चमकते’’ ही ही ही मेरा बाबा अब तो बामण हुआ न मेरी माँ से शादी करके। लड़के उसे घुड़कते ‘‘मजबूरी थी साले.... तेरी माँ के हाथी पांव न होते तो तेरे बाप को अपने गांव की सीमा में भी घुसने देते छि चिंपांजी जैसा तेरा बाबा ही ही ही हा हा हा हु हु हु।

पवित्रा दंराती या कुदाली लेकर खेतों में जा रही होती झगड़ा सुनकर पांवों को घिसटते आती ‘‘बस्स भी करो तुम सब... अरे तुम तो मेरे लाडले भतीजे हो, मैंने ही सबसे पहले तुम्हारा बाल मुख देखा, वह दाँतों से होठों को दबाती ‘‘सुनो भतीजों मैंने तुम्हारी छुछी भी देखी थी, लड़के शरमा कर पवित्रा की तरफ पीठ फेर देते। तुम्हे जन्म दिलाने में मेरे इन्हीं हाथों ने तुम्हें सबसे पहले छुआ था.... मैं ही लाई थी तुम्हें इस धरती पर खींच कर मत करो मेरे सुरजू को तंग... न सही इसका बाप बामण... पर मैं तो हूँ न.... तुम्हारी अपनी माँ जैसी फूफू (बुआ)’’ पवित्रा को स्मृति की डगालों से लहराते शब्द चाबुक मारते हैं’’ ये सुरजू छोरा इसे कभी छींक भी नी आती.... एक हमारे बच्चे हैं आये दिन बीमार कभी जुखाम कभी बुखार.... नमोनिया कभी दादरा (खसरा) तो कभी ठीक भी हैं तो चोट फटाख! ये सुरजू छोरा क्या खाके जना इस हथिनी ने! ऊँचे पेड़ों में बन्दर सा चढ़ जाता छोरा और एक खंरोच भी नी लाता! ताड़ से लम्बा हर घड़ी बढ़ता ही जाता है...!’’

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