सुरजू छोरा - 2 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सुरजू छोरा - 2

सुरजू छोरा

भाग - 2

आकाश छूने की कोशिश में है कमबख्त! ‘‘पवित्रा उन विस्फारित आँखों को देख रही है।

‘‘माँ, मुझे बुखार क्यों नी आता?’’ लाटे ने एक रात पूछ ही लिया था बचपन में, वह एक ठण्डी शाम थी, जब गांव में बर्फीली हवा चलने से कई बच्चे और बड़े बीमार हो रहे थे। पवित्रा उन घरों में सेवा करने जाती स्त्रियाँ पूछती’’ तेरा सुरजू तो ठीक है न...? ‘‘उन्हें विश्वास ही नहीं होता जब गांवों में बीमारी, महामारी सी फैली हो, एक अकेला सुरजू कैसे अछूता रहा सकता है। सुरजू ने भी वही सवाल दागा, पवित्रा ने सुरजू के उजले चेहरे को देखा‘‘ बिमार हों तेरे दुश्मन! सूरज तो काले बादलों को चीर कर चमकता है छोरा.... देखा नी तूने आकाश में...?’’ पवित्रा ने ठण्डी रात को सुरजू को अपनी सूखी छाती से लगाया था ‘‘सबको सब कुछ नी मिला करता सुरजू, भगवान गरीब को रोग क्यूं देगा? उसे पता है न, इनके पास दमड़ी नहीं सिर्फ चमड़ी है बाबा... पवित्रा उसे कस कर गले लगाती।

सुरजू चाय का घूंट भरता है, ‘‘गहरी साजिश!’’ स्मृति के पन्ने घायल पंछी के परों से फड़फड़ाने लगे हैं। पीड़ा का सैलाब उसके भीतर रेशे-रेशे में भरने लगता है। वह पंचायती चैक में बच्चों के साथ छुपमछुपाई खेल रहा था। छुपने के लिए वह पुश्ते के नीचे करौंदा के झाड़ के पीछे पुस्ते पर अड़स सा गया था। ताकि बच्चे उसे असानी से खोज न सकें उसकी आँखें बन्द थी, वह बच्चों के आने की कल्पना कर रहा था कि सड्ाक-सड्ाक उसकी कोमल पीठ पर भीमल की सोटी पड़ी, वह बिलबिला कर खड़ा होने को हुआ तो मंदिर के पुजारी शंकराचार्य ने उसे पकड़ लिया और दो सोटी और जमा दी ‘‘क्यों बे हथनी के लाल, हमारी ककड़ी कब चुराई तूने?’’ वह बिलखने लगा और अपने को छुड़ाने की असफल कोशिश करने लगा था ‘‘ना... ना... नाना मैंने कहाँ चुराई ककड़ी, मैं तो बस देख रहा था, माँ की कसम! सच्ची बोल रहा हूँ, उसने सुबकते हुए अपने गले की घुघ्ँाटी पकड़ी ‘‘नानी कसम देख ही रहा था, तीन हरी गुदगुदी ककड़ी थी, वह बिलख्ते हुए बोला था।

‘‘साले झूठ बोलता है, तेरे सिवा गांव में और कौन चोर हो सकता है?’’ पुजारी को सात वर्ष के मासूम बच्चे को वहशियों की तरह पीटने पर भी चैन न पड़ा तो काँटों के झाड़ में ही रेतने लगे थे उसे.....! सुरजू हे ना.... नी...... हे.... माँ.... पुकारता रहा। उसकी पुकार सुनकर ऊपर से बच्चे आ गये थे। लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई कि वहशी पुजारी के चंगुल से उसे छुड़ा सके। पुजारी ने बच्चों से पूछा क्यों बच्चों सुरजू ने झाड़ से ककड़ी चुराई हमारी?

बच्चों ने एक स्वर में कहा कि सुरजू ककड़ी देख तो रहा था, पर चुराते हुए हमने नहीं देखा। पुजारी ने आवेश में आकर उसके बाल मुट्ठी में भींच लिये थे, देखा अब तो बच्चे भी गवाह हैं, तू तो हथनी केे लाल अब मुकर नहीं सकता बल। सुरजू अपने बाल छुड़ाने के निरर्थक कोशिश करता रहा था, उसकी नाक और आँखें साथ-साथ बह रही थीं। पुजारी चेतावनी देकर गया तो बच्चों के शोर - सुरजू छोरा चोर है, सुरजू छोरा चोर है’’ के बीच से जख्मी देह को समेट कर लड़खड़ाते हुए सुबक-सुबक कर नानी के पास पहुँचा, उसकी पीठ पर सोटी के निशान थे, कुर्ते के साथ चमड़ी भी छिल गयी थी। सुरजू को पुजारी के मारने से ज्यादा बच्चों के चोर-चोर उच्चारने की पीड़ा सता रही थी।

ना... नी... वह भरभराकर नानी की गोद में गिर कर बुक्का फाड़कर रोने लगा था। उसकी देह पर कई खरोचे टीस रही थी, जब खूब रो चुका तो सुबकते हुए बोला नानी संकरू नाना ने मारा मुझको....!

तिन क्या करी बल....? नानी की दिनचर्या में सर्दी-गर्मी दोनों की मौसम में टिन शेड के नीचे बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा कर शोक गीत का आलाप लगाना शामिल था। वह हुक्का पीते पीते रोती, रोते रोते हुक्का पीती उसकी आँखां से निकले आँसू चेहरे की अनगिन झुर्रियों में ऐसे बिला जाते जैसे रेत में पानी, वह लय में गाने लगी थी। ‘‘हे मेरा सन्तु देख धौं बल देबतौं का पुजारी भगबान तैं पिटणा छना - देख मेरा बाबा कनु कलयुग अैगे बल...! तू सब जणदू छै मेरा सन्तू तिन बोली छौ बाबा बच्चा होंदा न बल भगवान का रूप.... (हे मेरे सन्तू देख तो जरा देवता के पुजारी भगवान को पीट रहे हैं।)

सुरजू ने झपटकर हुक्का खींच लिया था ‘‘नानी, मामा सच्ची में नागराजा हुआ बल?’’

‘‘हाँ बाबा’’ बूढ़ी ने हुक्का छीनकर गुड़गुड़ाना शुरू किया उसकी आँखें देख रही थी जमीन पर रेंगता हुआ नाग उसकी गरदन में लिपटने आ रहा था।

सुरजू की बालबुद्धि ने पहले तो विश्वास नहीं किया फिर उसे लगा नानी झूठ नहीं बोल सकती उसकी माँ भी तांबे के नाग पर धूप दिया करती है और मामा के हाथ का कड़ा भी वहीं रखा है उसकी आँखें चमक उठीं ‘‘...तो मामा देख रहा होेगा पुजारी को मेरी पीठ में सोटी मारते....?’’

‘‘हाँ बाबा’’ नानी धुंध के बीच थी..... जवान बेटे को टी॰बी॰ निगल गई थी, तबसे वह विक्षिप्त सी हो गई थी और उसने मृत बेटे के साथ एक अलग दुनिया इजाद कर ली थी।

सुरजू के मासूम चेहरे पर धूप की चिड़िया फुदकने लगी थी ‘‘तब मामा इस काणे पुजारी को जरूर काटेगा जब वह मुँह अन्धेरे पूजा लगाने जायेगा....’’ नानी पुजारी हमारे बगीचे के पेड़ों में मूतता है बल... पेड़ों पर तो पंछियों के घर होते हैं न नानी? इस काणे पुजारी को पाप चढ़ेगा... ‘‘सुरजू की आँखें फैलने लगी थीं नानी ने बुझते अंगारों में फूँक मारी थी - फू... राख उड़कर उसकी आँख की किरकिरी बन गई थी आँखें भींचते भी वह खिलखिल हँस दिया था ‘‘ही ही ही काणा पुजारी अब मरेगा तू...’’ रात को मामा सपने में आ गया था ‘‘ककड़ी चाहिये थी भानजे?’’ मामा ने हाथ आगे किये थे एक झपनीली बेल लहराने लगी थी उस पर ढेर सारी हरी गुदबुदी छोटी छोटी ककड़ियाँ झूलने लगी थी। सूरजू के मुँह में पानी आने लगा था उसने झपट कर तोड़ती चाही थी ककड़ियाँ... लेकिन वह ऊपर होती गई और आसमान में झूलने लगी थी। सुरजू चिल्लाने लगा था ‘‘मामा... नीचे करो बेल को... मुझे ककड़ी खानी है मामा। ‘‘तो तुझे ककड़ी खानी है भान्जे। हाँ मामा बहुत भूख लगी है, मामा हंसने लगा था’’ ककड़ी तोड़ने के वास्ते हाथ लम्बे करने पड़ते हैं भान्जे....

सूरजू हाथों को लम्बा करते पांवो से उछाल मारने को हुआ था तो मामा गायब! सुरजू के होंठ बुदबुदा रहे थे ‘‘मामा..... मेरी ककड़ी...!!

तभी माँ ने उसकी बन्द आँखों में पानी के छींटे मारे थे ’’अब ककड़ी का रोना बन्द भी कर दे सूरज... आज तुझे पाठशाला जाना है’’ पहली मर्तबा पवित्रा ने उसके उलझे रूखे बालों में कड़वे तेल की एक बूँद चुपड़ी थी और तबीयत से कंघी भी की थी, सुरजू के हाथ में पाटी और कमेड़े की दवात देकर दरांती से घिसी एक कच्ची भीमल की टहनी पकड़ाई थी ‘‘इससे लिखना पाटी में अक्षर’’

सुरजू ने कोदो की रोटी का टुक्ड़ा निगलते हुए पूछा ‘‘इसकी कलम तो बनी नहीं?’’

पवित्रा ने लाड से एक मारी पीठ पर ‘‘अब तेरे मास्टर जी छिलेंगे’’ वह खिल खिल हंसती हुई खूँटे पर बंधी बकरियांे की रस्सी खोलने लगीे थी। सुरजू ने पाटी उठाई और कमेड़े की दवात लेकर उतर गया था पहाड़ी। आज उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। पाठशाला जाना गोया आसमान में चमकते सूरज को छूना था। गांव के बच्चे पाठशाला जाते वह हसरत भरी आँखांे से उन्हें टोहता।

पहाड़ी पर फिसलन थी। चीड़ के पेड़ों के बीच से टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर वह मुदित मन से पहाड़ी उतर रहा था। पहाड़ी पर पिरूल के नीचे कहीं-कहीं पानी के डबरे बने हुये थे। उसने पिरूल के ऊपर पांव रखा तो फिसल गया और कुछ दूरी तक नीचे घिसटने लगा। एकाएक बच्चों का झुण्ड उसे देख कर हंसने लगा। अबे पहले ही दिन फिसल गया? हा हा हू हू ही ही अरे देखो तो सुरजू छोरा पाठशाला जाते हुए फिसल गया रे। अबे छोरे तेरे बाप ने भी कभी देखी थी पाठशाला? एक लड़का बोला तो दूसरा आगे आया - तेरे बस का नहीं है बे कमेड़े के अक्षर लिखना..... हा हा ही ही’’ बच्चों का झुण्ड पहले से ही गुफा में छुपा था। जैसे ही उन्हंे पता लगा था कि सुरजू पाठशाला जा रहा है, उसकी माँ ने उसका नाम लिखा दिया है, तो उन्होंने पिरूल की पत्तियाँ इक्ट्ठा कर पानी के डबरे के ऊपर बिछा दी थी। सुरजू की निक्कर मिट्टी पानी से लथपथ व कमर की पीड़ा दबा कर पुस्ता पकड़ कर उठने लगा, तो बच्चे फिर चिढ़ाने लगे थे, तू तो छोरा पहले ही फिसल गया रे......! कपड़े भी कीचड़ से भर गये। अब तो तू पाठशाला जा नहीं सकता। अबे जा अब घर जा.....’’ तीसरा बच्चा उसके हाथी पांव को देख कर बोला जिनमें खरोंचे लगने से खून टपक रहा था। सुरजू ने पीड़ा घूँटते हुए कपड़ों पर लगी कीचड़ साफ की और बच्चों को ठंेगा दिखाता हुआ पहाड़ी उतर कर सबसे पहले पाठशाला के आंगन में पहुँच गया था। मास्टर जी ने उसका हुलिया देख कर उसे पूछा ‘‘तेरे घर में साबुन नहीं है बे...’’ मास्टर जी ने कड़क आवाज में कहा और उस पर एक सोटी जमा दी, उन्हें लगा जैसे सुरजू चिड़िया घर से छूटा कोई जानवर हो, सुरजू सकपका गया। पीड़ा को जज्ब कर गया।

उसने सिर हिलाया ‘‘नहीं मास्टर जी बाबा साबुन लाता ही नहीं’’

मास्टर जी ने उसके मैले कुरते पर सोंटी कोंची ’’चूल्हे में राख भी नहीं है बे...?’’

पीड़ा से बिलबिलाते कुत्ते की कूं कूं जैसी आवाज निकली ‘‘राख तो बहुत है मास्टर जी.....

‘‘चल भाग.....’’ मास्टर जी ने उसे पाठशाला से भगा दिया। आँसुओं से तर चेहरा लेकर वह घर पहुँचा ।

अगले दिन मास्टर का क्रोध चरम सीमा पर हुआ ‘‘तो हरामी अपनी मुटियार मां से कपड़े क्यूं नहीं धुलाता?’’

कपड़े क्या थे देह पर मोटा कुर्ता नीचे बड़ी मौसी के बेटे की उतरन फटा जांघिया!

‘‘हे हे सुरजू छोरा पाठशाला जायेगा कि रोड़ी कूटेगा बे सड़क में? छाछ झंगोरा खायेगा रात को बल बिधाता ने तेरे माथे पर लिख दिया है रे...’’ बच्चों ने फिर उसे चिढ़ाया था।

सूरजू ने लिखा अ आ सुरजू ने पढ़ा अ आ और खूब हँसा घर आकर। सबके जैसे लिखा मैंने भी! ‘‘माँ पर चिल्लाया ‘‘मां! तू मेरे कपड़े रोज धोया कर राख से ‘‘उसने अपनी पीठ दिखाई थी छिली हुई पीठ, माँ पहुँच गई थी मास्टर जी को डांटने ‘‘गरीब गुरबा का बच्चा पाठशाला नहीं आ सकता? क्यों मास्टर जी?’’ हाथी पांवो को देखकर मास्टर के पसीने छूट गये सुरजू मास्टर जी की प्रताड़ना सहता हुआ तीसरी कक्षा में गया तो उसने लिखा ‘‘मैं सूरज हूँ सूरज चमकता है मैं भी चमकूँगा एक दिन...’’ दस वर्ष के सुरजू को सूरज पर निबन्ध लिखता देख मास्टर ने मारी सोटी मुलायम पीठ पर सड्ाक सड्ाक’’ क्यांे बे... सूरज से तुलना करता है अपनी...?

‘‘नहीं मास्टर जी.......’’ पीड़ा से छटपटाने लगा था, छोरा....

‘‘फिर क्यों लिखा...? ऐसे ही... मन किया... मास्टर जी......’’ सुरजू बिलखते हुए बोला था।

‘‘बालों में जूं पड़ी है तेरे गांव में पानी नहीं है बे...?’’

सुरजू सुबकने लगा था कितना भी दबाये पीड़ा छलक उठती आँखों से ‘‘मास्टर जी मेरी माँ बहुत दूर से पानी लाती है’’

बाबा ने बाल कटवा कर खल्वाट कर दी थी खोपड़ी! मास्टर जी को बैर बढ़ाना ही था ‘‘क्यों बे तेरा बाप मर गया क्या...?’’

सूरज को समझ नहीं आया कि मास्टर जी सिर्फ उसे ही क्यों यातना देते है दूसरे बच्चों में भी कुछ न कुछ कमी तो होती ही है, उसने बाबा से बोला था, बाबा ने छुड़ा दी थी पाठशाला और गांव की नई नवेली बहू को घास काटते देख बोला था’’ देख.... देख... यम ऐ बी.ए भी तो घास ही काटती हैं बल... ‘‘बाबा ने मारी थी उसकी खल्वाट खोपड़ी पर चपत और बिठा दिया था नामी टेलर के साथ - डिगरी धारी जनानी भी एैसा ही कारोबार करती दिखती हैं सिन्नगर में..... तू किस खेत की मूली है बे....?’’

सुरजू ने हामी भरी। उसे किसी काम से गुरेज नहीं। मन लगा कर सीखने लगा था छोरा।

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