वह भूखी और गन्दी लड़की Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • जंगल - भाग 12

                                   ( 12)                       ...

  • इश्क दा मारा - 26

    MLA साहब की बाते सुन कर गीतिका के घर वालों को बहुत ही गुस्सा...

  • दरिंदा - भाग - 13

    अल्पा अपने भाई मौलिक को बुलाने का सुनकर डर रही थी। तब विनोद...

  • आखेट महल - 8

    आठ घण्टा भर बीतते-बीतते फिर गौरांबर की जेब में पच्चीस रुपये...

  • द्वारावती - 75

    75                                    “मैं मेरी पुस्तकें अभी...

श्रेणी
शेयर करे

वह भूखी और गन्दी लड़की

वह भूखी और गन्दी लड़की

कुसुम भट्ट

पहली नजर में मैंने उसे पहचाना ही नहीं, पहचानती भी कैसे उसकी तब्दीली की तो सपने मंे भी कल्पना नहीं कर सकती थी मैं, वैसे भी कल्पना करने की जरूरत ही नहीं थी। उसे तो तभी मैं अपनी स्मृति की कन्दरओं से बाहर फेंक चुकी थी गोया पृथ्वी के बाहर...

इस गंदी और भूखी लड़की को पृथ्वी पर आने की क्या जरूरत थी... भगवान ने इसको लड़की क्यों बनाया? चिड़िया क्यों नहीं बना दिया? उड़ती तो रहती हवा के पंखों पर...। मैं मन की मन भगवान से लड़ती ‘‘तुम बहुत बुरे हो... इस नरमदा को मछली ही बना देते जल मंे तैरती कहीं भी किसी लहर के साथ इसे वहाँ कोई टोकने वाला थोड़े ही ठहरा था। मासूम बचपने में जाने कहाँ-कहाँ से कल्पनायें दौड़ी चली आती हैं उलूल-जलूल विचारों के फन्दे उलझाते भी थे। मैंने दादी से पूछी थी बात, दादी बोली थीे’’ भगवान अपनी मर्जी से थोड़े ही किसी जीव की काया बनाते हैं वह तो उसके कर्मों के अनुसार ही भेजते हैं धरती पर...’’ धत! मेरी समझ के परे थी बातें, पर कुछ तो होगा ही...।

नरमदा का घर पहाड की अन्तिम सीढ़ी पर और हमारा गांव चोटी पर... हमारे गांव के लोग कूड़ा करकट पहाड़ी से गिराते मुझे लगता वहीं गिरेगा...। हम चोटी पर थे गांव, घर, परिवार, बुद्धि, विद्या धन, वैभव नियति में... और यह भाव मेरी नन्हीं छाती में धड़कता भी था, जिसे मैं अपने बाल साथियों से जता भी देती। नरमदा जैसे मुझे फटीचर दिखती उसका जंगल के पास खड़ा घर भी दिखता-दयनीय हालत में...! गोया अपनी उधड़ी हुई सीवन देख लजा रहा हो..., भयावह जंगल के पास अकेले उस घर को देखकर दिन में डर लगता जाने कैसे रहते थे वे लोग, नरमदा से मेरी मुलाकात पहले-पहल मेरे घर की नीम दारी में हुई थी, नौ, दस वर्ष की बौनी और थुलथुली सी लड़की पुरानी सी झंगुली (फ्राक) पहने आई तो मेरी नजर उसके पेट पर गई थी, जहाँ से उसकी नाभि दिखने लगी थी और पेट का कुछ हिस्सा, उसके बन्दर के मुँह जैसा लाल और चैड़ा सपाट चेहरा उस पर चपटी नाक बिन्दी जैसी आँखें जिनकी कोरें पकी रहती। वह अपने बाबा के साथ मोटा अनाज झंगोरा कोदों लेने आई थी, उसके बाबा के हाथ में टाट की बोरी थी, उसके हाथ में एक फटी धोती का टुकड़ा, दादी ने कुठार से बोरी में कोदों भर दिया तो उसने धोती फैला दी थी जमीन पर, दादी धोती को देखकर उसे डाँटने लगी थी ‘‘ये छलनी कहाँ से उठा लाई छोरी...? पहाड़ी पर फसल उगायेगी...?’’ उसकी खोपड़ी में हलकी सी चपत मार कर दादी ने अपनी पुरानी धोती फाड़कर एक-एक पाथा गिन चार पाथा से उसकी कुटरी बाँध कर उसकी छोटी सी खोपड़ी रखा तो वह नीचे झुक गई गोया पहाड़ के नीचे दब रही हो उसका बाबा पहले ही सीढ़ियाँ उतर चुका था, उसे बैल भी ले जाने थे। नरमदा खुद को बोझा सहित संभाल रही थी थोड़ा कसमसा वह बोझे का सन्तुलन सिर पर बिठा देगी, तभी माँ शी...शी करते चूल्हे से तत्काल निकाली अधकची रोटी लेकर उसकी छोटी सी हथेली मंे रखने लगी थी ’’खाले नौनी भूख लगी होगी’’, कोदो की मोटी रोटी पर लहसुन धनिया की चटनी की खुशबू उसकी नाक में घुसी तो उसकी भूख दुगने वेग से जागने लगी, वह खड़े-खड़े ही टुकडे़ तोड़ कर मुँह में ढूँसती गई। नीचे से उसका बाबा फटे बाँस के स्वर में चिल्लाने लगा था ‘‘कहाँ ठहर गई तू छोरी... देख तो बैल रस्सा तुड़ाकर भाग गये।’’

बैठ कर खाले...’’ मैंने आँखों से इशारा किया, उसने खड़े-खड़े ही मुन्डी हिलानी चाही जो पहाड़ के बोझ तले दबी ठस ही रही, तो उसने भरे मुँह से कहना चाहा था ‘‘नहीं चाहिये’’ इस उपक्रम मंे उसकी लार लिपटी रोटी का टुकड़ा मेरे चेहरे पर गिरा, पर उसकी भूख को देखकर भी उसके प्रति क्रोध से भरने लगी थी। मैं सोचने लगी थी..., थोड़ी देर वह और ठहरी तो गोया पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना बन्द कर देगी यों कि गड़बड़ा जायेगी सृष्टि की व्यवस्था! हे विधाता तुम सचमुच बुरे हो... मैं उसके सामने खड़ी उससे चिरौरी करने लगी थी ‘‘बैठ जा थोड़ी देर...’’

वह दौड़ती ही रही कभी बकरियों के पीछे जंगल-खेत कभी घास-लकड़ी काटने जंगल-जंगल ढ़गारांे पर... कभी खेतों में बैलों के आगे-पीछे, बीजों की तुम्बी लेकर, ढगारों पर हरी घास के पीछे लपकते हुए उसे गिरने-मरने का भय न हुआ कभी...! उसकी नियति रही सात भाई बहनों मंे बड़ी जो हुई, तो कठिन काम उसे ही करना था, नहीं करती तो भूख उसे निगल जाती, पता नहीं वे लोग इतने गरीब क्यों थे बाबा और माँ दोनों मुँह अंधेरे से लेकर आधी रात तक जुटे रहते कभी खेतों में पानी देना कभी चाँदनी रातों में फसल काटना, फिर भी पेट नहीं भरता था पूरा कमबख्त! मैं उसे देखती हूँ घड़ी भर टक्टकी लगाये और स्मृति की डगाल मुझे झुलाने लगी है ऊपर... नीचे... और बाघ का जबड़ा मुझे दिखने लगता है। उसके जबड़े मंे फँसी बाबा की टांग पीठ पर भय की लहर दौड़ने लगी है। दोपहर में बाबा हल जोत रहे थे, तभी बाघ उसके सामने झाड़ी में तंुगला की पत्ती टूंगती बकरी पर झपट्टा मारने लगा, बाबा दौडे थे हवा की मानिंद बाघ से लड़ बैठे थे, दोनों में समय के बाहर युद्ध होता रहा था। अन्ततः जंगल के राजा ने बाबा की शक्ति के आगे हार मान कर बकरी को छोड़ दिया था, अचरज से बाबा ने देखा था बकरी का जिंदा होना! उसे अपनी टांगों पर अनगिन घाव होने का रंज नहीं हआ था, उस वक्त जहाँ से खून की बूँदों से धरती भीग रही थी, बाबा तो अपनी शक्ति के सामने नतमस्तक था। आस-पास के गांवों मं बात फैली तो लोग पहाड़ के नायक के दीदार को आने लगे थे, लेकिन बाबा बताने में असमर्थ था। यह युद्ध भी प्रेम की तरह गूँगे का गुड़ था या अपनी मृत्यु से साक्षात्कार करने के बाद दुबारा उसी पीड़ा को खोलना था।

***

बहरहाल हम बच्चों की टोली की नजरों मे भी नरमदा का मूल्य बढ़ने लगा मंगलकार्यों में किसी गांव में पंगत में खाना ठूसते हुए वह दिखती तो मुझे लगता ‘‘उसे खूब खाना चाहिए तभी तो लड़ सकेगी बाघ के छौने से...’’

...और फिर एक दोपहर जब उसकी डोली तपेदिक के मरीज की पालकी के साथ उठी तो मुझे उस पर बहुत क्रोध आया था, बस्स उसी क्षण मैंने उसे दुबारा पृथ्वी से फेंक दिया था बाहर शून्य में...

और आज इस वक्त लगा सपना देख रही हूँ.....

एक अंतराल बाद पहाड़ आना हुआ था। पहाड़ जो साया की तरह मेरे साथ चिपका रहा तो भी कहाँ आ पाई थी। शहर के दमघोटू धुंए ने लील ही ली थी मेरी जिंदगी, जैसे श्राप लगा हो...

सामने हिमालय की पिघलती दृष्टि उसके बीच से सूर्योदय होना! नये सिरे से पहाड़ देखा सामने अलकनन्दा की नीली धारा और चीड़ बाग बुरांश के दरख्तों से हरियाये जंगल आंगन में गौरयों के उड़ते झुण्ड उनकी चह चह पुनः अपने बचपन की मिट्टी पर मुग्ध चारों ओर अपनेपन में भीगी आवाजों का गिरना, वर्षों की थकान उतरती गई तो दस बजे ही कलेवा खा कर मीठी नींद की खोह में पहुँची ही थी कि ‘‘ओ...नमः शिवायः जय महा काल...’’ मर्दाना स्वर जैसे वह भी जोगिया जैसी ध्वनि...! मैं अकबका कर उठी देहरी में खड़ी।

‘‘मैं हूँ मोना भुली... नरमदा’’ वह चिहुँकी, उसका दरमिया कद लाल छौही सूरज की आभा वाला भरा भरा चेहरा देह पर हैन्डलूम की कीमती नई नकोर सफेद लाल पाड़ वाली साड़ी, सिर पर बंधा सफेद साफा हँस सा उज्जवल गोया उसके मन-तन की गाथा बयान करता, कलाई पर बंधी रूद्राक्ष की माला दमकते ललाट पर चंदन का जोगिया टीका। सोचा कोई साध्वी है तिब्बत से आई, नदी किनारे जोगणियों की कुटिया भी थी, अब अपनी स्मृति पर सवाल दागती मैं अपनी सीमित बुद्धि से उलझने लगी हूँ ‘‘और गुब्बारे सा फूलता मेरा मैं.... हूँ...‘‘

बहुत आत्मीयता से उसने मुझे गले लगाया था। मेरा चेहरा हथेलियों में थामा, जो मुझे नागवार ही गुजरा था, कटी-छिली इसकी हथेलियों की खुरचन मेरे कोमल चेहरे पर ‘‘हुँ... अभी भी घास लकड़ी छिलती है क्या...?’’

वह मुड़ती है ‘‘अब चलूँ मोना लम्बा सफर है...’’

मैं लपक कर उसकी कलाई पकड़ लेती हूँ ऐसे कैसे...? घड़ी भर बैठ कर...सुख..दुख न किया सांझा... एक प्याली चाय पिलाये बिना कैसे जाने दूँ तूम्हें नर्मदा दी... आज तो तुम्हारे सिर कोई बोझ भी नहीं... मैं हंसती हूँ, खिल खिल जैसे खुद पर...? दरअसल मेरी रूचि और कौतुहल उसकी कोयले से हीरा बनने की जद्दोजहद में है।

वह भी हँसती है बच्चों जैसी निश्छल हँसी ‘‘न मोना अब कोई बोझ नहीं बेटा जर्मनी से एक बार मंे ही इतना भेज देता है कि जरूरतमन्द लड़कियों की फीस देने के बाद इतना बच जाता कि सारे तीर्थों की यात्रा कर चुकी हूँ.... पर खाना लकड़ी तोड़कर चूल्हे में ही बनाती हूँ,’’ वह चाय का घूंट भरती है ‘‘बीस वर्ष मंे विधवा हो गई थी... दो बेटे गोद में डालकर निपट कंगाल बनाकर चला गया वह आदमी......

‘‘फिर...?’’ पूछना चाहती हूँ कि कोई चमत्कार हुआ था?

‘‘खेत थे रौखड़, पहले पहल बाबा ने हल लगाया फिर मैंने हल की मूठ पकड ली थी’’ ‘‘बस्स बाबा... मेरी जिंदगी मुझे ही जूझने दो...’’, पड़ोसियों ने कभी रात में बैल खोल दिये तो कभी कुटिया के आगे मुँह अंधेरे गन्दा करने लगे, ‘‘वह दीवार की टेक लगा कर बैठती है’’ गनीमत होती भुली इतना ही सताते तो..., सांझ घिरने पर भेडिये मुझे दबोचने पर उतारू......! फिर तो उठा ली थी मैंने कुल्हाड़ी। जाने कैसे हिम्मत आ गई...! बाबा जंगली बाघ से लड़ा था, मैं भी नर पशुओं से क्यों नहीं लड़ सकती तो जो भी बलात्कारी हुआ उसके शरीर में गहरा घाव हुआ... इस तरह बचा पाई खुद की जवानी...। बस्स उस दिन के बाद मुझसे डरने लगे थे भेड़िये भी...! तब से मेरी गाय भैंस बकरियों की सेना को कोई खतरा नहीं हुआ, लड़के खूब मेहनती हुए हल लगाने और खेतों को उपजाऊ बनाने की कला से लेकर पढ़ाई मंे अब्बल! बड़े को वजीफा मिला, इंजीनियर बना तो शहर में मेरे वास्ते घर खरीद लिया...’’

‘‘अच्छा!’’ हैरत से मेरी आँखें पलक झपके बिना उस पर टिकी हैं.....!

‘‘... पर मैं क्यूँ रहूँ वहाँ... उस किले जैसे मकान में दम घुटता है मेरा... यहाँ पहाड़ों के साथ लगाव ठहरा’’

‘‘पर तुम अकेली?’’ मेरा मतलब उसकी जरूरी सुविधाओं से रहित उस गांव में रहने से था, जहाँ बरसात मंे पानी के लिये फिसलन भरी पहाड़ी पर डेढ़-दो किलो मीटर पैदल जाकर सिर में बोझा ढ़ोना पड़ता था।

‘‘ऐसे भी क्या जीना... ये तो मूर्खता है नरमदा दी...’’ मैं खीझने लगी हूँ...

वह अविचलित ‘‘अब तो ऐसे ही जीने की आदत पड़ चुकी है मोना... वो कहते हैं न कि मूंझ के नंगे खटोले पर सोने वाले को महल के गुदगुदे बिस्तर पर कई दिनों तक नींद नसीब नहीं होती... बस्स... यही समझले... मेरा समय लम्बा ठहरा...’’ उसने मेरे सिर पर हथेली का स्पर्श किया और लाठी उठाकर ठक ठक सीढ़ियाँ उतर कर गायब हो गई...

फिलहाल मेरे पास कहने को कुछ बचा नहीं है, मेरे ऊपर उसकी अदृश्य आवाज गिरती जा रही है मेरे गांव आयेगी मोना? मेरे बगीचे के खट्टे-मीठे आम चूसने...

गोया जिन्दगी का रस चूसने......

फिरहाल मेरे पास कहने को कुछ बचा नहीं है...

मेरी हीनग्रन्धि में फैलाव होने लगा है...

समय मुझे अंगूठा दिखाकर चिढ़ाने पा आमादा है...

मेरा मन हो रहा है कि जोर से चीखूँ.....

***