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बेटे की मा

बेटे की मा

कुसुम भट्ट

माँ के चेहरे पर धूप की चिड़िया फुदक रही है, मन नही मन ढेरों मन्सूबे बनाती माँ बेटियों के बीच उदारमता हो रही है। इतनी कोमल और मीठी आवाज में माँ को ये पहली बार सुन रही है। पूर्वी माँ का लगातार निरीक्षण करने पर तुली है, बीच मं उसे ऐसा सोचना नागवार भी लगता है। धत! माँ का भी कोई निरीक्षण करवाता है माँ तो माँ होती है बस्स... उसके बारे में इस तरह की सोच उसे कटघरे में खड़ा करती है। कल माँ ने अपनी सभी बेटियों को बुला लिया था, खबर ही ऐसी थी जिस पर खुशी मनाई जाये। उन्होंने उम्मीद भी नहीं की थी कि इतनी जल्दी वह आ सकेगा, वह यानि चार बहनों का इक्लौता भाई नरेश, जिस के कारण वे चारों इस घर में थीं वरना घर घर थोड़े ही होता, जिस घर में दीपक न जले वह घर शमशान के बरक्स होता है, ऐसा माँ का मानना था, नरेश हुआ तो वे रहीं, नरेश न होता तो वे कहाँ होती? पूर्वी सोचती क्या माँ उन्हें बचपन में ही मार देती या माँ को उम्मीद थी कि नरेश को आना ही है आना ही होगा अलबत्ता दो-दो नरेश को आना हाता क्योंकि माँ की नजर दो पुत्र होने ही चाहिए थे सुखी जीवन के वास्तें जैसे भी हो दो पुत्रों को धरती पर लाना ही होगा सो माँ का भगीरथ प्रयास के बावजूद एक ही पुत्र हुआ जो नरेश बन गया, पूर्वी को याद आ रहा है नरेश के सामने उनकी क्या औकात रही, पूर्वी के विवाह की बात चली तो माँ ने तपाक से पूर्वी के मुँह पर कहा था ‘‘नरेश के कारण तेरा रिश्ता जुड़ रहा है पूर्वी वरना ये लोग कहाँ शादी करते तुझसे तो ‘‘छाया बैठ डाली’’, इस उक्ति का मतलब भी पूर्वी को समझाया गया था कि जिन लड़कियों के भाई नहीं होते माता-पिता स्वर्ग सिधारने पर वह उसका परिवार किससे मिलने आयगा। घर ता उजड़ ही चुका होगा, ‘उफ!’ पूर्वी ने इसकी कल्पना भी कहाँ की थी। तभी तो नरेश उनके बीच हीरो बना था। पूर्वी सोचने लगी है चलो इतने पर भी गनीमत माँ तो उसे इतना उछाला करती कि वह आकाश पर टंगा रह जाता सूरज चांद सा जिसके वजूद के आगे सब शून्य, माँ की इसी सोच के कारण बहनों को जैसा भी रिश्ता आया, गाय बकरी सा रस्सी खोल पकड़ा दिया, उस पर भी नीचा दिखाने से बाज नहीं आती खिल-खिल कर हँसते हुए कहती ‘‘बेटी दी है एक रीछ को एक सियार को और एक सुअर को... और पहलौटी को बाघ की माँद में भेज दी थी बल’’ पूर्वी से छोटी सिद्धि माँ के साथ खूब हँसती डफर को पता नहीं, उसकी खिल्ली उडाई जा रही है। स्कूल पढ़ने भेजा तो कहने लगी थी माँ के साथ खेतों में काम अरना अच्छा लगता है। कम्बख्त पांचवी से ज्यादा एक दर्जा भी ऊपर नहीं गई और माँ की लाडली बन गई बाकी तीनों बहनों ने लड़-झगड़ कर बी॰ए॰ कर ही लिया था, माँ की नजर में वह भी गोबर था, नरेश को जब स्कूल भेजती तो वह स्कूल की दीवार कूद कर भाग जाता खेतों में यहाँ वहाँ पेड़ों पर चिडियों के घोंसले खोजा करता अन्डे हुए तो उन्हें फोड़ देता चूजे हुए तो थैली में भर कर घर ले आता बहनों को दिखा कर कहता ‘‘चलो इसकी शिकार पकाओ... ’’नरेश जो ठहरा उसे कौन रोक सकता था। किसी के गोठ में घुसकर बैल खोल देता किसी की गाय का थन सिर्फ रोमांच के लिए दुहने लगता, लोग शिकायत करते तो माँ मासूमियत से कहती ‘‘कान्हो भी तो चोरी करते थे, उन्हें तो सब प्यार करते थे बल! पता नहीं मेरे इक्लौते नरेश से लोगों को इतनी डाह क्यों है’’ गांव में अपनी इन्हीं हरकतों से वह सब की आँख की किर किरकिरी बन गया तो पिता जी उसे शहर ले आये थे। साथ ही बहनों को भी उसकी आया बनाकर...। यहाँ भी नरेश सारे दिन उद्धम मचाता, स्कूल से भी चैकीदार की नजरें बचा कर भाग आता, बहने पूछती तो कहता ‘‘आज तो छुट्टी हो गई थी...’’ कभी टीचर के पिता जी की मौत पर शोकशभा होने का बहाना गढ़ता, तो कभी किसी बच्चे को दुर्घटना में मृत्यु होना बताता! जो माँ बेटियों की फीस नाम मात्र देने को उन्हें कई मर्तबा कोसा करती ‘‘छाती पर मूंग दलने को पैदा हुई हैं, ये चुडैलें कहाँ से लाऊँ इतना पैसा कि चार चार की फीस जुटा सकूँ’’ वहीं माँ शहर आते समय पिताजी को आदेश देती रही थी ‘‘हमारे नरेश को अंगे्रजी स्कूल में पढ़ाना पूर्वी के पिताजी! फीस ज्यादा हो तो भी डरना नहीं मैं एक भैंस और पाल लूँगी, दो चार बकरियाँ भी पाल लूंगी...’’ पिताजी भी खूब खुश दिखते ‘‘ तू ठीक ही कहती है पूर्वी की माँ...। बहनों के हृदय में शब्द हथौड़े की चोट करते। पूर्वी सोचती कि शहर के सबसे मंहगे स्कूल में उसे भरती किया जाता तो वह आज अपने पांवों पर खड़ी होती और परिवार का पोषण भी कर सकती, पूर्वी के समय में शहर जानें पर माँ ने पिताजी को ललकारते हुए कहा था, लड़की जात है... आस-पास गिद्दों चीलों की आँखें! तुम कब-तक चैकीदारी करते रहोगे इसकी..? तुमको तो नौकरी भी करनी है पूर्वी के पिताजी...? कुछ ऊँच-नीच हो जाये तो मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे...’’माँ का चेहरा गुंस्से में और काला पड़ गया था, पिताजी उसके बाद चुप लगा गये थे, उन्होंने किसी बेटी की शिक्षा को लेकर कभी कुछ नहीं कहा। माँ जैसे-जैसे कहती गई थी, वे करते रहे थे, माँ की आँखों में सिर्फ नरेश था, उसके कुल का दीपक! जिसकी रोशनी में उसे और पूरे खानदान को वैतरणी पार करने वाली गाय की पूँछ पकड़नी थी, वरना वे अंधेरी नदी में डूब कर नर्क मंे जाकर यमराज के दूतों द्वारा सताये जाते......! जो माँ को गवारा नहीं था, माँ की हिदायत होती ‘‘नरेश को वे रोके-टोके नहीं वह बेटा है नरेश अपनी मर्जी का मालिक बहनों के रोक-टोक लगाने पर वह विद्रोही हो जायेगा और कहीं भाग गया तो...?’’ इस तो.... पर बहनें सहम जातीं, वैसे भी वह इतना उदण्ड होने लगा था कि उसकी पसंद का खाना न मिलने पर थाली उछाल देता और कमरे में बिखरे अन्न के ऊपर पांव रख कर अदा से कहता ’’ओड लड़कियांेे नरेश को ऐसा-वैसा खानी नहीं चलेगा... नरेश को जंगली मुर्गी का टंगड़ी कबाब, हिरन का नरम-गरम मांस, लगोठे की रान और बासमती चावल चाहिए, समझी क्या...?’’ बारह तेरह वर्ष में वह विलेन की एक्टिंग करके बहनों को हँसाता भी और रूलाता भी था, पिताजी उसकी फरफाइश पूरी करते, शाम आफिस से आने के बाद गरम-गरम टंगड़ी कबाब या मछली के पकौड़े लेकर आते और अपने हाथों से उसेे खिलाते, बहने टुकर-टुकर ताकती, बाद में उसके झूठन से उनको उनका हिस्सा मिलता। आखिर वह नरेश था सबका हिस्सा खाने वाला राक्षस तो नहीं वह शान से थोड़ा खाना थाली मंे बचा कर सबसे छोटी बहन को पकड़ाते हुए कहता ‘‘लो बिल्लियों खाओ... और मौज करो तुम भी क्या याद करोगी कि किस भाई से पाला पड़ा है... ’’वह अट्टहास करता’’ कल मैं तम्हें जंगली मुर्गी की शिकार पकाकर खिलाऊँगा...’’ पिता जी खूब हँसते वे सोचते जरूर नरेश पिछले जन्म में राजा कोई रहा होगा...! अब इस समय राजा तो वह हो नहीं सकता पर नेता जरूर बनेगा.....! वे अपने परिचित नेताओं छुटभैयों के बीच ले जाकर उसे आर्शीवाद दिलाते, नरेश बल्लियों उछलता उसका दिल! किसी तरह नकल करके पास हुआ नरेश मैट्रिक में लगातार फेल होने लगा तो पिताजी की पेशानी पर बल पड़ने लगे थे, ‘‘कहीं कुछ गड़बड़ है...’’ वे कारण खोजते परन्तु उन्हें अपनी ओर से कोई कारण का महीन कांटा भी नजर नहीं आता था। वे अब नरेश को समझाने लगे थे, गांव से माँ के लम्बे-लम्बे पत्र जो किसी अनगढ़ हाथों लिखाये रहते उन्हें मिलते तो वे समझ ही न पाते कि उत्तर दें, उन्होंने तो पत्नी को वचन दिया था कि नरेश को राजकुंवर सा पालेंगे उसे खूब पढ़ायेंगे ताकि वह पूरे जिले में उनका नाम रोशन कर सके। अब नरेश रातों को आधी रात में घर आने लगा था। पिताजी टोकते तो कहता ‘‘फलां नेता के घर मीटिंग थी’’ कभी कहता आज मंत्री के साथ कहीं गया था। कभी कालेज में छात्रों का विवाद निपटाने नेता जी के साथ गया था। पिताजी सोचते चलो राजनीति में इसने पंख तो पसारने शुरू कर दिये हैं, पढ़-लिख कर भी क्या करता राजनीति में तो अनपढ़ भी चमक रहे हैं। उन्हें कई नेताओं के चेहरे याद आते देश भर में कई चेहरे गुन्डे-मवाली हत्यारे थे और सत्ता को काबिज किये बैठे थे, क्या पता उनके नरेश को भी कभी न कभी चांस मिल ही जाये वैसे भी स्त्री का चरित्र और पुरूष का भाग्य कब बदले कोई नहीं जानता। चिंतागस्त्र पिता को इस विचार ने राहत पहुँचाई थी तभी एक रात पुलिस उनके कमरे का दरवाजा ठोकने लगी थी, वे बदहवाश बाहर निकले तो उनके होश उड़ गये थे, जब उन्हें पता चला कि अभी-अभी राजनीति में चमके एक दबंग नेता की छाती में उनके नरेश ने तमंचे से वार किया, जिससे घायल होकर वह अस्पताल आई॰सी॰यू॰ में आक्सीजन का मास्क लगायें जीवन-मृत्यु से जूझ रहा है। पिताजी के सीने में असहय पीड़ा होने लगी थी, वे कुछ ही देर में छटपटा कर गिर पड़े थे। बहने डरी हिरणी सी परदे के पीछे छुपी थर थर कांपने लगी थी... इधर पिता की मौत उधर पुलिस के जाँबाज उन्हें नरेश का पता बताने को कह रहे थे। अगले दिन नरेश ने आत्मसमर्पण कर दिया था। माँ आई तो बेटियों को ही कोसने लगी थी कि तुमने भाई का ख्याल रखा होता तो ये नौबत न आती, माँ कारगार में नियमित नरेश से मिलने जाती, वैसे ही नियमित मन्दिर और पीर-फकीरों, ओझाओं के चक्कर काटती उनके लाडले पर किसी ने टोना कर दिया होगा, वरना वह हिंसक नहीं होता, बाद में पता चला कि वह तो फिल्मी हीरो की गिरफ्त में आ गया था, वह भी तो अत्याचारी को मारता है।

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साले नेता ने भी तो उसके दोस्त की बहन पर बुरी नजर डाली थी! मरता नही ंतो क्या करता तिरंगे पर चढ़ाता उसकी फोटो...?’’ वह अफसोस के बोल, बोल रहा था कि उसे जिंदा नहीं रहना चाहिये था....। माँ ने माथा पीट लिया था ‘‘दुनिया में जाने कितने अपराधी होंगे, तूने ठेका ले रखा है नरेश कि उन्हें तू ही सजा देगा-?’’ नरेश के पास कोई जवाब नहीं था, समय का चक्का चलता रहा। माँ ने नेताओं से ही गुहार लगा कर कुछ साल बाद उसे छुड़ा दिया था, वैसे भी पन्द्रह वर्ष के नाबालिक को सजा देना न्यायाधीष भी उचित नहीं मानते थे और फिर नेताजी भी स्वस्थ हो गये थे, उन्होंने अपने नरेश को माफ किया या नहीं अभी वह रहस्य ही था। मकड़ी के जालों के बीच पड़ी मक्खी को उन्होंने पूरी तरह आजाद नहीं किया था।

बहरहाल माँ बेटे को लेकर सन्तुष्ट थी, उसने उसका विवाह कर दिया था और खुद को सत्संग के हवाले कर दिया था, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, राज्य बना तो कोर्ट दूसरी जगह हस्तांतरित हुआ बहुत दूर पहाड़ों में माँ भी जा नहीं पाई थी, किससे पूछती कि केस रफा-दफा हुआ कि नहीं?

फाइलें दुबारा खोली गईं तो नरेश को सात वर्ष के लिए दुबारा सलाखों के पीछे जाना पड़ा था, तभी से माँ ने बेटियों की सूखी जमीन पर अपने सच्चे आँसुओं की झड़ी लगा दी थी।

पूर्वी देख रही है, लम्बे समय बाद माँ के चेहरे पर धूप का फैलना, अभी नरेश को आने मंे वक्त है, माँ घड़ी देख रही है तब तक सारे पकवान तैयार हो जाने चाहिये। बहू उड़द के पकौड़े तल रही थी, माँ बेटियों के बीच उठकर लपकी..., हींग जीरे की खुशबू उडाते पकौड़ों की थाली मेज पर रखी, बेटियाँ पकौड़े उठा कर दूंगने लगी। माँ फुसफुसाई ‘‘नरेश को नया काम-धन्धा शुरू करने के लिए रूपयों की जरूरत है...

सिद्धि चिहुँकने लगी है..., ‘‘मेरे पर्स में फिलहाल पचास हजार हैं... अभी दे दूँ क्या...?

पूर्वी के गले में काली उड़द का दाना अटकने लगा है, वह खाँसने लगी है, उसकी आँखों में जाल बिछने लगा है, उसके बीच हठी सा वह क्षण उसे चिढ़ाने लगा है..., जिंदा चूजों की लिसड़ती टांगों को झुलाता नरेश का चेहरा फैलता जा रहा है’’ ‘‘ए! लड़कियों इनकी शिकार पकाओ......’’

पूर्वी की चेतना में धुंध छाने लगी है.......

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