नदी बहती रही.... - 1 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नदी बहती रही.... - 1

नदी बहती रही....

भाग 1

कुसुम भट्ट

‘‘सलोनी!’’

किवाड़ तो बन्द थे..., अन्दर कैसे घुस गई...! मैंने ही किये थे इन्हीं हथेलियों से .... तुम रोई थी... छटपटाई थी.... तड़फ कर कितना कुछ कह रही थी... आकुल तुम्हारी हिरनी आँखों की याचना...

‘‘...मुझे नहीं सुननी कोयल की कूक... जंगल की हिरनी से बहुत बहुत डर जाती हूँ.... बसंत की अमराई... फूलों की मादक गंध, भौंरो का गुनगुन फूलों पर बैठना, चूसना रस... फूल फूल पर इतराते इठलाते यह कमबख्त बसंत आता ही क्यों है, इस रेत के शहर में...’’ रचना बुदाबुदा रही है किससे बातें कर रही है - अपने आप से... अपने भीतर की उस रचना से जिसने सलोनी के जाने पर खुद को कई कोणों से सजा दी थी...

सलोनी थी तो रचना के दिन आराम से कटरहे थे एक तो हम उम्र थी सलोनी दूसरा मन के तार जुड़ गये थे, सलोनी का अपना दुख-सुख साझा करने के बाद रचना उसे अपनी अंतरंग मानने लगी थी...

यहाँ तो सलोनी किरायेदार थी... पर उसने कभी उसे इस दृष्टि से नहीं देखा ‘‘सलोनी, अपना घर ही समझो इसे... जिस चीज की जरूरत हो... निसंकोच लेकर जाओ... किराया टाइम पर नहीं हुआ तो चिन्तित न हो... जब तुम्हारी जरूरतों के बाद बचे तो दे देना... वैसे भी मालिक को एतराज ही रहता - शाँति के कोलाहल में किसी अन्य का पंख फड़फड़ाना अपनी परिधि के भीतर बर्दाश्त नहीं आग उगलती आँखों से देखा करते पत्नी को’’ किराये से क्या ऐश्वर्य बटोर लेगी...?

इतना तो बिजली फूँक देते हैं कमबख्त...! बिल तो अपने को ही भरना पड़ता है...

सलोनी आई तो रचना को अच्छा लगा था, जब माँ बोली थी ‘‘रचना बेटी, सलोनी के साथ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा... दोनों माँ बेटी हैं... रोली तो मेरे ही पास रहेगी... सलोनी, सुबह की गई शाम को ही लौटती है... दिनेश तो महीने दो महीने पर आ पाता है... वह भी दो-तीन दिन के वास्ते...’’ पांच सौ के चार कड़कड़े नोट रचना की हथेली में पकड़ाते खुरदरे हाथों के स्पर्श से दबी सलोनी के सानिध्य की अनुभूति रचना के अकेलेपन पर बिछलने लगी थी ‘‘आखिर मुझे भी आत्मीयजन से स्नेह पाने का अधिकार तो होना चाहिए। अपने अकेले पन के दंश से मुक्ति पाने का अधिकार तो होना चाहिए... मैं मनुष्य नहीं हूँ...? कि किले में कैद अपने ही अंधेरों से टकराती कोई सुने न मेरी भी चीख...?

मुझे भी साथ चाहिये... अपनेपन का हाथ चाहिए जो कभी-कभी सहलाता जाये मेरा पिघलता हुआ दुख... जिसकी स्नेहिल हथेलियों की आँच अपने बर्फ होते उत्साह-उम्मीदों-आशाओं पर महसूस कर सकूँ....

नींद का लिहाफ उतरते ही एक उदास दिन की शुरूआत - बच्चों को स्कूल भेज कर लंबा खाली वक्त...

सलोनी और उसकी पाँच साल की बिटिया रोली का अपने घर में आगमन पर उसने अपने पतझड़ में बसंत की अनुभूति की थी, पच्चीस-छब्बीस वर्ष की सांवली मध्यम कद काठी की मांसल देह वाली आर्कषक सलोनी (जैसा नाम वैसा रूप) काली चमकदार हिरनी सी आँखें! चेहरे का सांवलापन गायब हो जाता जब वह हँसती खिल खिलाकर अनायास! वजह न भी हो हँसने के लिए... बिना बात... बार-बार... हँसना रचना को भ्रम होता ‘‘कहीं सलोनी एबनार्मल तो नहीं... सामान्य व्यक्ति तो बेबात बेवजह पल-पल खिल खिला नहीं सकता गो कि इस क्रूर समय में चेहरों से हँसी ही गायब हो गई ...! वह तो वर्षो से गोया हँसना ही भूल गई थी... बच्चे भी कहाँ हँसते थे उन्मुक्त हँसी... कभी हँसे भी हों तो किसने हँसने दिया उन्हें...?

... तो सलोनी जब से आई रचना को लगा पत्थरों के बीच झरना फूटने लगा है... जिसका स्पर्श उसके पत्थर होते मन को भिगोने लगा है..., अब रचना का खिंचा खिंचा चेहरा कोमल आवरण में लिपटने लगा वह आइना देखती झुर्रियाँ गायब हो जाती... ‘‘सलोनी कहती ‘‘क्या हालत बना रखी रचना दी, अरे भई पार्लर किसलिये खुले हैं... कुछ देह का कायाकल्प कर भी लो... इतनी छोटी उम्र से चेहरे पर बढ़ती झुर्रियाँ..... सोचो... रचना दी... आगे क्या होगा...?

अब रचना सलोनी को कैसे कहती कि कायाकल्प मन का होना चाहिए... सलोनी...! मन ही बुझा अंगारा हो तो चेहरा चमकदर कैसे हो सकेगा...

सलोनी के आने से रचना के उदास दिनों में धूप की किरणें बिछलने लगी काले डरावने घुमड़ते बादलों के बीच धूप की कुछ किरणें गिरने से अंधेरे कोने उजाले से मरने लगते..., रचना खिड़की के छिद्रों से आती धूप को पकड़ती हथेली में बंद कर चिहुँकती इतनी रोशनी! इसे घर के अंधेरे कोनों में छिटका दूंगी... ‘‘तभी कहीं से एक पैना नाखून उसके भीतर खिलती कली पर पड़ता उसकी पीड़ा से वह तड़फ उठती...! जिन्दगी पठारों रेतीले बियावानां पर चलने का नाम है... यह तो फालतू लोगों के चोंचले हैं, वर्षों की पहली बूंदों को देखकर हर्षित होना धूप को मुट्ठी में भरना हँसी-मजाक खिलखिल कभी गीत का कोई टुकड़ा अनायास गुगुनाना इस सब का अधिकार रचना को नहीं मिला तो सलोनी क्या करे... वह तो अपनी तरह से जियेगी कहीं भी रहे...? उसकी हँसी पर कोई पत्थर नहीं मार सकता... इतनी मारक हँसी कि पत्थर के भी कर दे टुकडे़...!

सलोनी घर के कामों में भी रचना की मदद भी करने लगी थी। कभी मालिक के लिये नानवेज बनाकर खिलाती, अतिथिगण आते तो मिनटों में जायकेदार सब्जी रायता पूरी वगैरह तैयार कर लेती, मछली का शोरबा बनाती तो मालिक उंगलियाँ चाटते रह जाते... मेहमान कहते भई रचना तो सदा की आलसी ठहरी... उसके वश का नहीं है यह सब करना..., मालिक सलोनी को हाजिर करते...

ये हैं हमारी सैफ! सलोनी अपनी प्रशंशा से सकुचा कर अपने कमरे में चली आती...

रचना उस घर में शेर के पंजे में चाहे मेमनी सी रहती लेकिन मालिक की रसोई में मुर्गा बकरा मछली अन्डा लाने की आदत से उस पर चण्डी सवार हो जाती थी! वह रसोई के एक एक बरतन को सड़क में फेंकने पर उतारू हो जाती...! उन क्षणों में मालिक बेहद डर जाते कहते ‘‘इसे साइकैट्रिस्ट को दिखाना पड़ेगा...सलोनी ही बात संभालती ‘‘कोई बात नहीं जीजू मैं बना कर खिला दूँगी आपको... ‘‘वह सब समेट कर अपनी रसोई में ले आती और रचना की रसोई धो कर गंगा जल भी छिड़क आती...’’ लो हो गई आपकी रसोई पवित्र... अब हँस भी दो रचना दी... खिल खिल रसाई में हँसी में उम्ड़े विछलते देख रचना का तनाव कम हो जाता...।

सलोनी का आफिस टाइम दस बजे होता वह नौ बजे तैयार रहती शेखर उसे लेने आता, शेखर का आफिस सलोनी के पास था, शेखर का घर भी कुछ ही दूरी पर थी। शुरू में शेखर उसे लेने आया तो सलोनी ने रचना से मिलाया शेखर शालीन, हंसमुख मददगार सरल सा युवक था, रचना से घुल मिल गया, रचना को सलोनी ने बताया था कि शेखर उसके बचपन का दोस्त है, लेकिन शेखर की माँ सलोनी को इस कदर स्नेह देती है कि शेखर की बीवी सरिता उसका आना बर्दाश्त नहीं करती, फिर भी सलोनी शेखर की माँ-पिताजी के दुख-तकलीफ में अपमान सहते हुए भी सेवा करने पहुँच जाती है, कभी-कभी दो बूढ़ों को जबरन उनकी पसंद की चीजें बनाकर भी खिला देती है।

सलोनी के पति दिनेश शुरू में तीन दिन के वास्ते आये तो सलोनी बाहर नहीं निकली रचना ने मुश्किल से काटे थे वे तीन दिन! अगले दिन उलाहना दिया ‘‘क्या... सलोनी... दिनेश के प्रेम ने बाहर भी न आने दिया...।’’

सलोनी बुझी बुझी सी... आवाज दबी-दबी सी... अस्त व्यस्त उसका हुलिया’’ ‘‘कमबख्त! ने अंग-अंग तोड़ कर रख दिया... इतना भूखा भेड़िया... घिना जाता है मन... ‘‘सलोनी की आँखों से धुआँ सा उड़ने लगा..., रचना को लगा मजाक कर रही होगी... पर सलोनी तो रोने ही लगी’’ लाटा (मंद बुद्धि) है न... सौतेली माँ ने औघड़ से तन्त्र विद्या करवा कर इसे विकृत बना दिया...

‘‘... लेकिन क्यों?’’ लगभग चीख ही पड़ी थी रचना..., सलोनी की देह पर नाखूनों अनगिनत खरोंचे! काफी बनाकर ले आई थी रचना, फिर गरम पानी से सिंकाई... जख्मों पर मलहम लगाया, शाम को शेखर आया, सलोनी के वास्ते दवा फल खाना लेकर रोली का होमवर्क भी करवाया, उसकी कापियों में कवर चढ़वाइये रोली को पार्क में घुमाने ले गया कुछ देर बाद सलोनी के खिलखिलाने का स्वर गूँजने लगा तो रचना को राहत मिली, उसने रोली की आवाज सुनी’’ शेखर अंकल, यहीं सो जाइये न... देखो न... अंकल मम्मी कितनी तो खुश दिख रही है...

शेखर रोली को रूलाने लगा...‘आज नहीं रोली... कल मुझे कहीं जाना है... तुम्हारी मम्मी की नौकरी के वास्ते...’’ सलोनी ने बताया था कि शेखर उसकी लेक्चरर शिप को लेकर मंत्रियों से गुजारिश कर रहा है, हलाँकि वह फस्र्ट क्लास बी.एड, एम काम थी..., लेकिन बिना सोर्स के बात नहीं बन रही! इस छोटी सी नौकरी में मुश्किल से गुजारा होता है।’’ ‘‘दिनेश नहीं भेजता, सलोनी शांतचित्त बोली...? उसने पूछा था ‘‘मैने कभी मांगी नहीं... तो उसने दी भी नहीं... लाटे को पता ही नहीं कि सलोनी को पैसे की जरूरत पड़ती है..., बीच में उसकी नौकरी छूट गई थी... मैंने ही उसे पाला...’’ एक दोपहर सलोनी की माँ रोली को स्कूल लेने आई, उदास लगी तो रचना ने पूछ लिया ‘‘मौसी जी कुछ परेशान लग रही हैं...?’’

सलोनी की माँ का गुब्बार फूट पड़ा रचना की आँखों में धूल उड़ने लगी... उस अंधड़ में उसे सलोनी की छाया नजर आने लगी - रात को उसका दरवाजा पीटता गुण्डा ‘‘दरवाजा खोल... दरवाजा क्यों खोलती नहीं... कोठा खोलकर भली बनने का स्वांग रच रही है छिनाल... देखता हूँ कब तक नहीं खोलती...? गुन्डा रात भर दरवाजे पर चिपका रहता!

सलोनी ने घर छोड़ दिया...

‘‘दिनेश के पिता ने बैंक बैलैन्स भी काफी छोड़ा है... पर क्या करें... कागजातों पर सारे नागिन कुंडली मार कर बैठी है।‘’ सलोनी कभी माँ का कातर स्वर रचना को भीतर तक हिला गया’’ आपने शादी से पहले छानबीन नहीं की थी...? सलोनी की माँ पाश्चाताप से भर उठी’’ हमने बड़ी कोठी देखी... दिनेश भी ठीक ठाक दिखा... नौकरी थी ही उसकी... पालीटेक्निक करके आॅटोमोबाइल कम्पनी में था... गलती हुई हमसे कि सलोनी की राय नहीं ली... सोचा उसे एतराज क्यों होगा...’’ सौतेली माँ ने दिनेश पर तान्त्रिक प्रयोग किये शमशान की मिट्टी खिलाई अब सही-गलत सोचने समझने की क्षमता भी खो चुका है...

इस सच से रू-ब-रू होते हुए रचना को अपना दुख मामूली सा लगने लगा, गुन्डों से बलात्कार होने की कल्पना से रचना बहुत डर गई थी। उसे शालिनी पर करूणा आाने लगी ‘‘निष्ठुर भाग्य ने एक प्रतिभा संपन्न लड़की की कैसी हालत कर दी...! हे ईश्वर!.... सलोनी पर करूणा कर.... ‘‘वह प्रार्थना करती’’।

सलोनी की माँ बेटी के साथ मजबूती से खड़ी थी, ...पर सलोनी को तो उधर से विरक्ति ही हो गई, कोर्ट के झमेले में पड़ना नहीं चाहती, ‘‘जिन्दगी बहुत छोटी है रचना दी... इसे लड़ने झगड़ने में ही गंवा दिया तो... जीने का आनन्द कब लेंगे...’’ जिन्दगी यूं ही रेत सी सरकती जायेगी...

लबोलुबाव यह है कि सलोनी कुछ भी अवांछित बात नहीं चाहती, वह जीना चाहती थी रस से सराबोर जिन्दगी...! सलोनी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहती थी... इसलिए उसने माँ को हिदायत दी थी कि वह उस घर की कोई बात न करे... सलोनी हरी डाल पर झूलती चहकती चिड़िया थी, जिसे खुला आसमान चाहिए था... इतना खुला कि हवा रूख जिधर भी ले जाये वह उड़ने लगी...

शेखर आता तो सलोनी रचना को बुला लेती, सर्दी के दिन होते शेखर काफी बनाता तीनों पीते, दुनिया जहाँ की बातें करते शेखर गजलें सुनाता, शेखर फिल्मी गीत सुनाता, शेखर चुटकुले सुनाता, शेखर कहता जिन्दगी जिंदा दिली का नाम है। दोस्तों! मुर्दामन भी खाक जिया करते हैं, शेखर कहता ‘‘रचना दी, मुझे गैर न समझो, मैं हूँ न तुम्हारा भाई अपने दुखों को बांटना सीखो किसी काम आ सकूँ, तो धन्य समझूंगा खुद को...’’ शेखर रचना को अपने घर आने का न्यौता देता, लेकिन रचना कभी जा न सकी, कुछ देर बाद गोया दो पंछी पत्थरों के जंगल में चहचहा कर उड़ जाते...! रचना को महसूस होता दो हरे जंगल के पंछी रेत के टीलांे पर चहचहा कर उसमें प्राणों का संचार कर गये! देर तक उन पंखों को हवा में वह सांस लेती तो धूल के गर्द गुब्बार से मुक्ति पाती, रचना खुद को रूई के फूल सी हल्की पाने लगती उसे लगता, उसके आस-पास हरियाली उग आई है...! आस-पड़ोस में ठूंठ पेड़ों देखकर उसे सम्बन्धों से विरक्ति हो गई थी - बार-बार वही घरेलू जिम्मेदारियों की बात दाल-चावल-नून तेल की बात या दूसरों पर पत्थर फेंकने की आदतों से उसेे तंज होता था, कहने को मोहल्ले में अनगिनत स्त्रियाँ थीं। सब की सब असहनीय गो कि सड़े तालाब की मछलियाँ - खाने लपकती एक दूसरे को...! आडम्बर में जीती सहृदयता का आवरण ओढ़े अन्दर से बेहद क्रूर... आक्रमक प्रतिद्वन्दिता में जी रही सुखी होने का भ्रम पाले... भीतर से खोखली...!

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