नदी बहती रही.... - 2 Kusum Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नदी बहती रही.... - 2

नदी बहती रही

भाग - 2

कुसुम भट्ट

सलोनी-शेखर को एक साथ जाते देखती तो प्रश्नों के तीर मारती, उनके चेहरे की भाव भंगिमा देखकर रचना धीरे से कहती दोनों बचपन से दोस्त हैं... इसीलिए शेखर सलोनी को लेने आता है...

उसको आत्मग्लानि भी होती ‘‘उसे सफाई क्यों देनी पड़ती है गो कि शेखर-सलोनी मुजरिम हों... और ये जज...?

तभी एक अदृश्य आवाज उसकी विचारधारा का गला घोंटने बढ़ती ’’आदिम सभ्यता की सीढ़ी पार चुके हैं हम...

समाज के कुछ नीति-नियम मानने ही पड़ते हैं, इन्हें कैसे समझाऊँ कि शेखर सलोनी का दोस्त है सिर्फ... कैसे कहूँ कि दोस्ती के बीच तंग सोच की औरतें मांसल देह ही देखती हैं...? इससे परे भी जो कुछ है, इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के वास्ते... वह तुम्हें नहीं दिखता... ’’तो सलोनी इस जहाँ से बेखबर ‘‘तालाब तो नहीं बनने दूँगी जिन्दगी ...., घुटन का बोझ सहन नहीं कर पाते मेरे कोमल कंधे...’’ सलोनी तड़फ कर कहती और हर महिने दिनेश की भेड़िया भूख के आगे अपनी कोमल काया तथा सोच का निवाला डालकर सौ-सौ मौत मरती होगी...? रचना सोचती’’ नहीं...रचना दी.... दिनेश पर दया आती है मुझे... अबोध बच्चा सा उसकी हर जरूरत पूरी करनी है मुझे... वरना ‘वह’...!! हश्र से काँपने लगते रोंये... ‘‘उसको जीवन देना मेरा धर्म है... वह मेरी बच्ची का पिता है अनाथ बच्चा! मेरे सिवा इस दुनिया में उसका कोई भी तो नहीं...?’’ रचना देखती शेखर, दिनेश के आने पर रचना को फोन करता, सलोनी उन दिनों आफिस से भी छुट्टी ले लेती..., रचना को लगता कि दिनेश सलोनी के मित्र को पसंद नहीं करता होगा तभी शेखर नहीं आ पाता...

मालिक ने एक-दो बार दोनों को साथ जाता देखा तो रचना को कठघरे में खड़ा कर दिया, इतनी जिरह की, कि रचना आहत होने लगी‘‘ मी लार्ड! दोस्ती दो मनुष्यों के बीच ही है न... क्या हुआ जो शेखर सलोनी लेने चला आता है...’’ रचना को फिर मालिक के आगे सफाई देनी पड़ती बचपन से साथ खेले पढ़े... दोनों के परिवारों में आपसी.... सम्बन्ध मधुर भी हैं अब तक...

...और फिर आई वह काली रात...

बाहर चाँद घटा पर मुक्त चाँदनी लुटा रहा था, रचना के कमरे में अंधेरा था, गहरी नींद में थी रचना, जल्दी सोने पर जल्दी उठने का मन्त्र हमेशा याद रखना था, आदत थी दस बजे सोकर पाँच बजे मंदिर के घड़ियाल जब टन टन पांच बार बजाये तो रचना को बिस्तर छोड़ देना है..., ... तो रचना सपना देख रही थी... वह जाने कौन सा युग है, ऋषि युग है शायद! उसके साथ कोई है... दिव्य सा उसका सौन्दर्य... उसकी हथेली थामें वह हवा में उड़ना चाहता है... रचना कहती है उसके तो पंख ही नहीं... वह उड़ेगी कैसे...? तभी उसके पंख उग आते हैं... ‘‘ए! सेती रहेगी...उठ... उठ...’’ रचना को लगा उसके पंख बेरहमी से मरोड़ रहा है कोई...! पीड़ा से बिलबिलाने लगी, लेकिन उसने आँखें नहीं खोली इतना सुन्दर सपना इसे खोना नहीं...’’ ऊँ... हूँ... नींद आ रही है....’’ रचना कुनमुना कर फिर गहरी नींद में सो गई। वह उड़ना चाहती है... फिर वही स्वर ‘‘ए! उठ

थोड़ी देर बाद वह अकबका कर उठी ‘‘क्यांे सोने नहीं देते मालिक नींद पर इस धरती के तुच्छ प्राणी का भी अधिकार है न....’’ प्रकृति ने दिया है मालिक... आप इसे नहीं छीन सकते...’’ उसने कहना चाहा।

‘‘उठती ही नहीं! घोड़े बेच कर सोती है...? कोई कैसे सकता है।

आशय कि आग लगी है जहाँ मैं...! नीरो बंसी बजा रहा है ......!!

कोंचने से उसकी बाँहें दुखने लगी ‘‘इस कदर क्रूर न बनो मालिक गुलामों की मासूम छाती में एक नन्हा सा दिल धड़कता है... उसी नन्हे से दिल ने एक सपना देखा... वह सपने में खोने लगी नींद और सपना रचना के दोनों ने दुलारे रखा गोद में... कष्टों से मुक्ति दिलाने में सहायक...‘‘अरे.... उठ न... कुत्ते की औलाद... देख न... पीछे क्या हो रहा है...’’ बिजली जल उठी भक्क! दो लाल आँखें उसे जलाने को आतुर...! रचना ने सुनने की कोशिश की मीठी सी लोक गीत की धुन उसके कानों पर पड़ी फिर जल तरंग सी वह हँसी... फिर शेखर का स्वर... जिन्दगी इस कदर हसीन पहले न थी...

थे हम ही जन्मों से साथ आपके... इस जन्म में भी तो है पास आपके..!. इस दुनिया से हमें मिला क्या... इस दुनिया ने हमें दिया क्या... ’’खिल खिल खिल खिलखिलाहटें सन्नाटे को चीरती वियावन से...! अंताक्षरी चल रही थी कुकर सीटी दे रहा था, चिड़िया सी रोली की चहक बीच में... शेखर अंकल, मेरी पोयम सुना... ऊपर आ जाओ न प्लीज शेखर अंकल मच्छर दानी के अन्दर... आओ न...

‘‘छिनाल... तुझे ही मिली...?’’ धीरे से रचना ने फुसफुसाहट सुनी! आशय समझ गई कि ‘‘तू भी होगी... तभी न मिली...’’

रचना का मन हुआ कह दे चींटी पर भी विष होता है मालिक काट दे तो चटक जाये हाथी की सूंड भी...!

रचना को समझ नहीं आया कि शेखर रात को घर क्यांे नहीं गया! कभी वह देर तक रूकता नहीं था, अब्बल वह रात को आता ही नहीं था, बहुत जरूरी काम हो रोली की दवा वगैरह लानी हो तो आता था...

‘‘पता नहीं... शेखर आज क्यां...?’’ रचना बुदबुदा उठी।

‘‘कोठा बना रही है घर को...’’ रचना के हिस्से का पुरूष दहाड़ने लगा था घबरा उठी थी रचना ‘‘तड़फ कर बोली थी’’ ऐसा न कहो मालिक... चला जायेगा शेखर... ‘‘रचना शेखर के लिये कोई अपशब्द सुनने को तैयार न थी, भोली रचना को उनके संबधों के बारे में जानकारी न थी वह तो स्त्री-पुरूष की दोस्ती को मन-बुद्धि के तल पर लेती थी, उसके संस्कारों ने दोस्ती के बीच देह का आदान प्रदान स्वीकार नहीं किया था, सलोनी भी छुपा गई थी, इससे पहले भी शेखर रात को रूकता हो उस जानकारी नहीं थी।

‘‘अभी तो इसका मालिक गया था..., उन दिनों तो इसकी हँसी एक बार भी सुनाई दी...?’’ मालिक चिन्तित मुद्रा में बैठ गये थे गो कि फाँसी लगने वाली हो भय और क्रोध से फनफनाते फिर बाहर भीतर चहलकदमी करने लगे थे ‘‘भुक्खड़ है एक से भूख मिटती नहीं...?’’ उन्होंने निहायत भद्दी बात कह कर रचना की गाल कोंची’’ ए! तू तो भूखी नहीं है न...? संतुष्ट तो होती है न... हमसे...? अभी बता दे... ‘‘रचना को लगा धरती फट जाये वह समा जाये उसमें! उसे मालिक की अश्लील बातों से बेहद तकलीफ होती ऐसे अवसरों पर उसके भीतर की औरत अंगारे सी धधकने को होती जला डालने को आतुर मालिक की छोटी सोच के पुरजे’’ देह से पहले मन का जुड़ाव जरूरी है... मालिक... लेकिन आप नहीं समझोगे...? देह की भूख तो कुत्ते-बिल्ली भी संतुष्ट करते हैं...

रचना बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहती, तो भी उसके भीतर की स्त्री रचना को उकसाती रहती ‘‘ओ कायर! डर डर कर कब तक जियेगी रचना सोचती ‘‘इस पत्थर के आदमी की जगह प्रशांत होता तो... रचना सोचती ‘इस पत्थर के आदमी की जगह सौरभ होता तो... ‘‘कभी उसने प्रशांत और सौरभ की दुल्हन के रूप में देखा था खुद को... वे दोनों भी तो उसके बचपन के दोस्त थे इंटर मीडियेट तक के साथी वह सोचने लगी थी ‘‘वह दोनों की दुल्हन कैसे हो सकती थी... सोच कर उसे धुएं से भरे इस कमरे में भी हँसी आने लगी... उसका मन हुआ खिल खिला कर हँसे...., सलोनी की तरह....

.... तो तेरा भी होगा कोई यार...? मालिक ताड़ गये थे उसके भाव उसके चेहरे पर बिछलता एक एक उजली रेखा पर पैनी नजर कि उधेड़ कर रख दे चमड़ी....!!

पीछे से कूकर सीटी मार रहा था, फिजा में मसालों के साथ चिकन की गन्ध महक रही थी, रचना बाहर आ गई - धरती पर चाँदनी झिर झिर बह रही थी...चाँदनी... ऊपर इठला रहा था चाँद, उसने आवाज दी ‘‘सलोनी!’’ सलोनी हड़बड़ी में बाहर आई ‘‘क्या हुआ रचना दी...?’’

‘‘शेखर, को कहो घर जाये...

‘‘रात के ग्यारह बजे शेखर यहाँ क्यों है सलोनी...?’’ उसने पूछा तो सलोनी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी ‘‘चला जायेगा रचना दी... खाना खाकर चला जायेगा...

‘‘घर में एक और स्त्री है... ठीक तुम्हारे जैसी... उसकी प्रतिक्षा में बैठी भूखी... कुछ सोचो सलोनी...’’ सलोनी की हिरनी आँखें टपकने लगी ‘‘शेखर चिकन लेकर आया था... रचना दी.... उसे मेरे हाथ का कड़ाही चिकन पसंद है...

रचना उसके रोने पर भी नहीं पसीजी थी, सलोनी पहली मर्तबा रचना की फटकार सुन रही थी ‘‘सलोनी..., तुम्हें पता है यह शरीफों का मोहल्ला है... और मेरा घर... को........ठा नहीं है... ’’अन्तिम वाक्य बोलते हुए रचना को बहुत ज्यादा शक्ति जुटानी पड़ी थी।

‘‘सलोनी हाथ जोड़ रही थी...’’ चुप हो जाओ रचना दी... मैं शेखर को भेज रही हूँ... अब वह कभी नहीं आयेगा...

बाद में रचना ने खिड़की से देखा शेखर सलोनी का चेहरा थामें बेतहाशा चुम्बन की बौछार करते हुए रो रहा था’’ डोन्ट वरी सलोनी... दूसरा ठिकाना खोज लेंगे... तुझे रचना दी को पहले बता देना चाहिये....

रचना ने सुना सलोनी अपमान से आहत सुबकते हुए कह रही थी ‘‘मुझे क्या पता था शेखर सड़े तालाब की मछली नदी का पानी नहीं पहचानती! ‘‘सलोनी ने अगले दिन शिफ्ट कर लिया था, ‘पता नहीं शेखर ने एकदम कैसे खोज लिया घर...’’ सलोनी कह रही थी।

रचना ने व्यंग किया था ‘‘किसका घर...? दिनेश का या शेखर का...?

‘‘हम तीनों का अपनी चिड़िया के साथ’’ खिलखिल हँसी थी सलोनी’’ मिलने आती रहुँगी रचना दी... लेकिन...

‘‘लेकिन क्या सलोनी?’’

‘‘शेखर की पत्नी को आप झूठ कहेंगी...’’

‘‘लेकिन क्या?’’ खीझ उठी थी रचना।

‘‘यही कि शेखर यहाँ नहीं आता था... उसने पुलिस में कम्पलेंट की है........’’

‘‘ओह!’’ रचना के माथे पर बल पड़ गये’’ मुसीबत को न्योता दे दिया सलोनी ने ...! पुलिस की कल्पना से ही रचना को कंप कंपी छूटने लगी थी...

अब रचना हर आहट पर भयभीत रहने लगी... मालिक और कस कर उसके गले का फन्दा खींचते, रचना का मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगा..., कुछ दिन बाद वह अस्पताल पहुँच गईं, ठीक होने में उसे कुछ वक्त लगा...

‘‘सड़े तालाब की मछली...’’ ‘‘सड़े तालाब की मछली’’ उनके जेहन में आवाज हथौड़ी सी बजती......

एक शाम हाइवे पर टहल रही थी कि घर्रर उसके पांवो पर एक्टिवा ठहर गई, वह हड़बड़ा कर पीछे हटने वाली थी कि उसके कन्धे पर खनन् न्न चूड़ियों भरी कलाई बज उठी‘‘ रचना दी... ‘‘अपनेपन से लवरेज सुगंध की महक, रचना ने देखा नीले शलवार सूट में इठलाती सलोनी एकदम नई नकोर पहले से भी कमसिन दिख रही थी, कन्धों तक झूलते कर्ली काले बाल, चेहरे का सांवला पन गायब, अब गुलाब सा खिला चेहरा, गुलाबी होठों के बीच सफेद मोतियों की लड़ी सी दंतुलियां ‘बधाई दो... रचना दी इन्टर कालेज में जाॅब लग गई...

रचना को साथ लेकर सलोनी घर आई, वह शेखर के बारे में जानने को उत्सुक थी।

‘‘शेखर!’’ उसका साथ तो वहीं छूट गया था, पुलिस केस था न... रचना दी, बखेड़ा होता...

‘‘...और दिनेश...?’’

पहले से बेहतर है... नौकरी भी अच्छी मिल गई है...

तभी उसका मोबाइल बज उठा।

वह हँसी वहीं धूप सी उजली हँसी...

‘विकास... विशिष्ठ बी॰टी॰सी॰ की ट्रेनिंग में मेरे साथ था...

रचना सनातन प्रश्नों की गठरी लेकर सलोनी की आँखों में देखती रही... वहाँ नीला जल चमक रहा था। नदी की देह इठला रही थी ‘‘शेखर ... छूट गया अंधेरे में... विकास मिल गया... जिन्दगी मेहरबान है रचना दी.... सोचती हूँ विकास न मिलता तो मेरा क्या होता... शेखर का विछोह कैसे सह पाती...? खिल खिल हँसी के टुकड़े रचना के इर्द गिर्द विछलने लगे... रचना उन्हें संभालती हुई पूछने लगी थी’’ शेखर की याद में मन अकुलाता तो होगा न सलोनी...? आखिर वह बचपन का दोस्त था.... और लम्बे समय तक तुम्हारी जिन्दगी में रहा......

‘‘अरे! नहीं रचना दी... उसकी आँखों में गोया महुवा टपकने लगा उसी इठलाती हँसी का फन्दा रचना को लपेटने लगा था’’ भूतो... न... भविष्यति... पीछे मुड़कर देखना गवारा नहीं.... भविष्य की चिन्ता करनी नहीं... कल विकास भी छूट गया तो... कोई गम नहीं.... जिन्दगी रूकती नहीं है रचना दी...

रचना उजबक सी उसे देख कर सोचने लगी बचपन से संस्कारों के प्रेतों का बोझ ढोने... अपने ही अंधेरे में कैद घुट घुट कर जीने की आदी अपनी सोच को सही माने या सलोनी को....?

तभी उसका मोबाइल घनघना उठा, सलोनी उसी कोने से फुसफुसा कर मुस्कराती हुई बातों में डूब गई थी रचना चुपचाप दरवाजा खोल कर निकल गई थी।

***