EK GADHE KA DARD books and stories free download online pdf in Hindi

एक गधे का दर्द

अपना गधा संपन्न था , पर सुखी नहीं। दर्द तो था , पर इसका कारण पता नहीं चल रहा था। मल्टी नेशनल कंपनी में कार्यरत होते हुए भी , अजीब सी बैचैनी थी। सर झुकाते झुकाते उसकी गर्दन तो टेड़ी हो हीं गई थी , आत्मा भी टेड़ी हो गई थी। या यूँ कहें कि १० साल की नौकरी ने उसे ये सिखा दिया था कि सीधा रहे तो कोई भी खा लेगा। जीने के लिए आत्मा का भी टेढ़ा होना जरुरी है।


गधे ने ये जान भी लिया था और मान भी लिया था। तो फिर ये शोक कैसा ?

इसी उधेड़ बुन में कार ड्राइव करते हुए ऑफिस पहुँचता , सर झुकाता , जी हुजूरी करता , घर लौटता। पैसे तो काफी मिल गए थे, पर साथ में मिले सीने का दर्द भी। डॉक्टर के पास पहुंचा। पूरा चेक अप हुआ। कोई बीमारी नहीं निकली। डॉक्टर ने कहा , कोई बीमारी नहीं है। टी. वी. देखो , सैर सपाटा करो , मोर्निंग वाक करो , सब ठीक हो जाएगा।

रात भर नींद नहीं आई थी । दिन भर बैठे-बैठे उदासी सी छाई हुई थी । सोचा जरा सुबह सुबह मोर्निंग वाक किया जाए । गधा जम्हाई लेते हुए पार्क पहुँच गया। वहाँ जाते हीं उसकी नींद हवा हो गई । वहाँ बड़े बड़े नमूने पहुंचे हुए थे। एक मोटा भाई पेड़ के तने को ऐसे जोर जोर से धक्का दे रहा था , जैसे कि पेड़ को हीं उखाड़ फेकेगा। कोई कमर हिला रहा था । एक शेख चिल्ली महाशय कभी दीखते , कभी नहीं दीखते। कौतुहल बढ़ता गया । निरीक्षण करने में ज्ञात हुआ , दंड बैठक कर रहे थे । अद्भुत नजारा था । मोटी मोटी गधियाँ ऐसे नाजुक मिजाज से चल रही थी , मानो दुनिया पे एहसान कर रहीं हो । तो कुछ "सेल्फी" लेने में व्यस्त थी। १०-१२ गधे बिना बात के जोर जोर से हंस रहे थे। ये नए जमाने का हास्य आसन था। एक गधा गीता का पाठ कर रहा था तो दूजा सर निचे और पैर उपर कर शीर्षासन लगा के बैठा हुआ था।


जब एक सियार बोलता है तो दुसरे को भी सनक चढ़ जाती है। दूसरा सियार कारण नहीं पूछता। जब किसी को छींक आती है तो दूसरी भी आती है , फिर तीसरी भी आती है । अलबत्ता दूसरों को भी आने लगती है । यदि रोकने की कोशिश की जाय तो बात छींक को बहुत बुरी लगती है। वो पूछने लगती है , पहले तो ऐसा नहीं किया । ऐसे तो आप नहीं थे । आज क्या हुआ , ये नाइंसाफी क्यों ? ये बेवफाई क्यों ? पहले तो ना बुलाने पर हमे आने देते थे । कभी कभी तो नाक में लकड़ी लगा के भी हमारे आने का इन्तेजाम करते थे । अब क्या हुआ ? क्यों इस नाचीज पे जुल्म ढा रहे है? छींक की फरियाद रंग लाती है, बंद कपाट खुल जाते हैं और फिर वो नाक के सारे सुपड़ो को साफ करते हुए बाहर निकाल ले जाती है।


गधों की जात सियारों और छींकों के जैसी हीं होती है। एक बोले तो दूसरा भी बोलना शुरू कर देता है। एक छींक आये तो दूसरी , फिर तीसरी। बिल्कुल "वायरल" हो जाती है। दुसरे गधे को शीर्षासन करते हुए देखकर ,अपने गधे भाई को भी सनक चढ़ गई । ये भी अपना सर निचे करने लगा। ज्यों ज्यों सर निचे करने की कोशिश करता , त्यों त्यों दुनिया उलटने लगती और ये सीधा हो जाता। फिर सोचा, दुनिया उल्टी हो जाए , इससे तो बेहतर है , दुनिया पे एहसान कर लिया जाए और इसको सीधा हीं रहने दिया जाए। निष्कर्ष ये निकला की गधे ने शीर्षासन की जिद छोड़ दी।


जिम भी ज्वाइन किया। गधों को कूदते देखा , वजन उठाते देखा। और तो और एक गधी ने 40 किलो का वजन चुटकी में उठा लिया । उसे भी जोश आ गया । उसने एक दम 60 किलो से शुरुआत की । नतीजा वो ही हुआ , जो होना था । कमर लचक गयी । गर्दन और आत्मा तो थे हीं टेड़े पहले से , अब कमर भी टेड़ी हो गई । गधी के सामने बेईज्जती हुई अलग सो अलग।


अब कमर में बैक सपोर्ट लगा कर लचक लचक कर चलने लगा। उसको चाल को देख कर भैंस ने कमेंट मारा , आँखों से ईशारा कर गाने लगी " तौबा ये मतवाली चाल झुक जाए फूलों की डाल,चाँद और सूरज आकर माँगें,तुझसे रँग-ए-जमाल,हसीना!तेरी मिसाल कहाँ "। गधे के लिए बड़ा मुश्किल हो चला था।


घर आकर सर खुजाने लगा , पर "आईडिया" आये तो आये कहाँ से। वोडाफ़ोन वालों ने सारे आइडियाज चुरा रखे थे। कोई संत महात्मा भी दिखाई नहीं पड़ रहे थे जो जुग जुग जिओ का आशीर्वाद देते। सारे के सारे आशीर्वाद तो अम्बानी के "जिओ" के पास पहुँच गए थे । गधे की टेल भी एयर टेल वालों ने चुरा रखा था, बेचारा पुंछ हिलाए तो हिलाए भी कैसे?


टी.वी. खोला तो सारे चैनेल पे अलग अलग तरह के गधे अपनी अपनी पार्टी के लिए प्रलाप करते दिखे। पार्लियामेंट में गधों की हीं सरकार थी , पर गधों की बात कोई नहीं करता। घास की जरुरत थी गधों को। खेत के खेत कंक्रीट में तब्दील होते जा रहे थे। सारे के सारे गधे कौओं की भाषा बोल रहे थे। कोई मंदिर की बात करता , कोई मस्जिद की बात करता। मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में कौओं की चाँदी हो रही थी। मंदिर के सामने बहुत तरह के छप्पन भोगों की बरसात हो रही थी। बड़े बड़े मैदान , खलिहान शहरों में तब्दील हो रहे थे और गधों में भुखमरी बढ़ती जा रही थी। पार्लियामेंट में गधे, कौओं की बातें करते और कौओं से चुनाव के वक्त पोलिटिकल डोनेशन लेते। कहने को गधों की सरकार थी, पर कौओं के मौज थे। सारे चैनेल पे गधे कौओं की भाषा बोल रहे थे।


ऊब कर गधे ने टी. वी. स्विच ऑफ किया और अपनी 40 मंजिली अपार्ट्मेंट के कबुतरखाने नुमा घोसले से बाहर निकल कर नीचे देखने लगा। दूर दूर तक अपार्ट्मेंट हीं अपार्ट्मेंट। कोई पेड़ नहीं , कोई चिड़िया नहीं। चिड़ियाँ भी क्या करे , सारी की सारी "ट्विटर" पे ट्विट करने में व्यस्त थीं । कोई चहचहाहट सुनाई नहीं पड़ती थी।


सारा जमाना डिजिटल हो चला था। उसने मोबाईल खोलकर देखा , उसके सारे मित्र "लिंक्डइन" , जुड़े हुए थे। बहुत सारे पुराने मित्रों से मुलाकात फेस वाले फेसबुक बाबा की मेहरबानी से हुआ था। उसके मित्र आजकल उसकी पूछताछ "व्हाट्स अप" कर करते थे। कहने को तो वो "इन्स्टा ग्राम" पे भी था , पर उसको अपने गाँव के लोगों का पता नहीं था । चैटिंग तो वो दूर बैठे लोगों से भी कर सकता था और करता भी था , पर अपने पड़ोसी का भी नाम नहीं जनता था । बात करने वालों के साधन बढ़ गए थे , पर बात करने वाले नहीं थे। मीलों के सफ़र मिनटों में तय हो रहे थे , पर दिल से दूरियाँ बढ़ गयी थीं। शहर में कोई जगह खाली नहीं था । दिल के सूनेपन को मिटाए तो मिटाए कैसे?


गधों की सरकार कौओं की बात करती थी , और विपक्ष गधों की भाषा समझता नहीं था। एक गधा भला कौओं की भांति काँव काँव कर अपने सीने के गुबार को निकाल सकता है क्या? जो मजा ढेंचू ढेचूं करने में हैं , वो भला काँव काँव करने में मिल सकता है क्या?


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