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पढ़ने का धैर्य


कौशलेंद्र प्रपन्न
शायद दुनिया में यदि कोई कठिन और श्रमसाध्य कार्य है तो वह पढ़ना ही है। कोई भी पढ़ना नहीं चाहता। हर कोई पढ़ाना चाहता है। हर कोई लिखना चाहता है। और हर कोई कहना भरपूर चाहता है लेकिन पढ़ना नहीं चाहता। वह चाहे किसी भी पेशे में क्यों न हो। उस पर यदि कोई शिक्षण पेशे से आता है तो उसे भी इस बात की ज्यादा होती है कि वह बच्चों को पढ़ाना सीखा दे। बच्चे लिखना शुरू करें। शिक्षकों की बड़ी गंभीर चिंता यह होती है कि उसके बच्चे लिखना और पढ़ना नहीं जानते और न ही चाहते हैं। कभी इन सवालों का चेहरा शिक्षकों की ओर मोड़ दें। क्या देखेंगेघ् देखेंगे कि शिक्षक स्वयं पढ़ने की प्रक्रिया से दूर रहना चाहता है। वह स्वयं पढ़ात हुआ कम ही दिखाई देता है। बच्चे अपने समाज में किसे पढ़ते हुए देखते हैं। हमारे बच्चे अपने दादा जीए कभी कभार पापा या मम्मी को किताबें उलटते पलटते देख पाते हैं। वो भी तब जब उनके घर में मम्मी पापा पढ़ने.पढ़ाने से जुड़े हों। वरना घर में हर आधुनिक सामान होता हैं यदि नहीं होतीं तो किताबें ही हमारे घरां में नहीं होतीं। ऐसे में हमारे बच्चे तो बच्चे बड़ों में भी पढ़ने का धैर्य कम होता है।
किसी से भी यह सवाल पूछ लीजिए क्या आप पढ़ते हैंघ् पढ़ते हैं तो क्या पढ़ते हैंघ् जैसे जैसे इस सवाल की गहराई में उतरेंगे वैसे वैसे ऐसे ऐसे उत्तर मिलेंगे जिसे सुनकर ताज्जुब होना लाजमी है कि हम पढ़ते ही नहीं हैं। अपने पास के स्मार्ट फोन पर सिर्फ सूचनाओं और ख़बरों को सरका कर देख लिया करते हैं। कई बार देखकर आगे खिसका देते हैं। कुछ लोग इसे ही पढ़ना मान लेते हैं। कुछ यह भी कहते हुए मिलेंगे कि मैं तो अपने फोन पर ही पूरा की पूरी किताबए ख़बरेंए डॉक्यूमेंट पढ़ता हूं। हालांकि यह भी पढ़ना ही है। इससे इंकार नहीं कर सकते। क्योंकि जैसे जैसे पेपर लेस सोसायटी की बुनियाद रखी है वैसे वैसे किताबें छप तो रही हैं साथ ही उनका डिजिटल रूप भी वेबकास्ट किया जाता है। यानी जो किताबें कागजों पर छपी हैं वैसे ही उस किताब को सॉफ्ट वेयर के ज़रिए डिजिटल फॉम में छापते हैं। यही कारण है कि आज देश भर में ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में है जो डिजिटल कंटेंट यानी अख़बारए पत्रिकाएंए किताबें एवं रिपोर्ट आदि पढ़ते हैं। डिजिटल फॉम में छपने वेबकास्ट होनी वाली किताबें मुद्रित किताबों के लिए चुनौतियां पैदा करती हैं। लेकिन फिर भी डिजिटल फॉम के बरक्स मुद्रित किताबें भी खूब पढ़ी और लिखी जा रही हैं। लिखने के पेशे में आने वाले युवा लेखक दरअसल प्राचीन लेखकीय स्कूलों के एक कदम आगे से सीख कर आ रहे हैं। युवा लेखक कागजों पर नोट्स बनाने की बजाए सीधे सीधे लॉपटॉप पर काम किया करते हैं। अपने लैपटॉप पर ही पूरी किताब लिख दिया करते हैं। वही कॉपी व फाइल जितनी बार एडिट करना चाहे कर सकते हैं। फाइनल कॉपी किसी दूसरे व्यक्ति को समीक्षा के लिए भेज देते हैं। रीव्यू करने वाले के कमेंट को देख कर अपनी फाइल को दुरुस्त कर देते हैं। किताब लिखनेए अख़बार छापने के काम को इस डिजिटल तकनीक ने आसान कर दिया। हालांकि एक सवाल यहां यह उठा सकते हैं कि क्या डिजिटल किताबों ने पढ़ने की संख्या को भी क्या आसान किया। संभव है कि जिस रफ्तार से लिखी जा रही हैं उस रफ्तार से पढ़ने वालों की दिलचस्पी नहीं बढ़ी।
पढ़ने की तालीम हमारी मुख्य शिक्षा से हाशिए पर जा चुकी हैं। यही वज़ह है कि तकरीबन तिरपन फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। यह आंकड़े मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हालिया रिपोर्ट में दर्ज़ की गई हैं। इस रिपोर्ट के एत्तर भी अन्य अध्ययन की रिपोर्ट भी हमें बताती हैं कि हमारे बच्चे कक्षा पांचवीं या छह में पढ़ने वाले भी अपनी कक्षानुसार हिन्दी नहीं पढ़ पाते। क्यों नहीं पढ़ पाते यह सवाल हमें नहीं कोचते। इसलिए यह स्थिति बनी हुई है। हमारी शिक्षा और सीखने.सिखाने की प्रक्रिया में पढ़ने पर ज्यादा जोर नहीं देते बल्कि बच्चों को लिखना आ जाए यह अपेक्षा ज्यादा मजबूत होती है। बच्चे पढ़ें कैसेघ् क्या पढ़ें और क्यां पढ़ें इन सवालों को चिंता की परिधि में लाना होगा। पढ़ना एक कला है तो इसे सीख और सिखा भी सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे शिक्षक भी पढ़ने की बारीकि से वाकिफ नहीं हैंं। पढ़ा कैसे जाए और पढ़ने के विभिन्न चरण क्या हों आदि। बच्चे क्या और कैसे पढ़ते हैं इस पैटर्न को भी समझना होगा। यदि आयु और कक्षा स्तरानुसार कंटेंट मुहैया नहीं कराएंगे तो शायद बच्चा पढ़ने से दूर जाने लगे। यदि बच्चे को वर्णए शब्द आदि की पहचान है यदि वह वाक्य तक की यात्रा का आनंद ले सकता है तो वह किसी भी किस्म के टेक्स्ट पढ़ सकता है। यहां तक कि बच्चा अपने पाठ्यपुस्तक के अलावा भी मांग और तलाश कर पढ़ने लगता है। यदि अपना बचपन याद करें तो हम आसानी से पढ़ने के धैर्य और उतावलेपन को समझ और महसूस कर सकते हैं। गर्मी की छृट्टियों में चाचा चौधरीए शॉबूए डॉयमंड कॉमिक्स बुक्स आदि छीन झपट कर एक दिन में दो तीन किताबें पढ़ जाया करते थे। शायद यहां पढ़ने पर पाबंदी नहीं थी। बल्कि कई बार घरों में बड़ों से प्रोत्साहन भी मिला करता था कि जो जितनी ज्यादा किताबें पढ़ेगा उसे उतनी चवन्नी मिलेगी। और हम चवन्नियों की लालच में भर भर गरमी पत्रिकाएं पढ़ जाते थे। मुख्य बात यही है कि यदि हम अपने बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक और उत्साह पैदा कर सके तो पढ़ने का धैर्य भी समय के साथ पैदा हो जाएगा।
न शिक्षा में और न पढ़ने में धैर्य जैसी बात रह गई है। हम हमेशा रफ्तार में होते हैं। हमें बहुत जल्द परिणाम चाहिए होता है जिसे लर्निंग आउट कम के नाम से जानते हैं। लर्निंग आउटकम के अनुसार स्तरानुसार बच्चों में भाषाए गणितए विज्ञान आदि विषयों में बच्चे किस कक्षा में किस स्तर की भाषा कौशल सीख ले इसकी मैपिंग और इंडिकेटर एनसीईआरटी की ओर बनाई जा चुकी है। इसके किस चरण में हमारा बच्चा कहां है यह तय करता है कि हमारे बच्चे भाषा के किस कौशल में कहां ठहरते हैं। हम सभी को इस प्रकार के इंडिकेटर हमें ताकीद करती हैं कि हम भाषा के किस कौशल पर और कितना धैर्यपूर्वक काम करने की आवश्यकता है।
पढ़ने की धारणा पर जब गंभीरता से मंथन करते हैं तो पाते हैं कि हम देखने को भी पढ़ना मान बैठते हैं। मसलन देखा नहीं। यहां यह स्पष्ट है कि वो कहना चाह रहे हैं कि जो भी आपने भेजा व किताब थी उसे उन्होंने अभी पढ़ा नहीं है। बल्कि महज देखा भर है। ठीक उसी प्रकार पढ़ना और अध्ययन में भी बुनियादी अंतर है। इस अंतर को समझना होगा। जब हम पढ़ना कहते हैं तो संभव है उसमें अध्ययन की ख़ासियत कम हो। सिर्फ हम लिखने हुए शब्दों, वाक्यों भर का पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जब हम कहते हैं अध्ययन कर रहा हूं तब उसमें सिर्फ पढ़ना भर ही शामिल नहीं होता बल्कि पढ़ने से एक कदम आगे बढ़कर चिंतन-मनन और बहुआयामी अर्थों का गहन िंचत शामिल होता है। आज की तारीख में पढ़ने की कला शायद उन तमाम लोगों के पास हैं जिन्होंने दसवीं बारहवीं की है। किन्त यह कहना सरलीकरण होगा कि उन्हें अध्ययन भी करना आता है। सामान्य बोलचाल में भी हम कह देते हैं मैं इनदिनों फलां पुस्तक का अध्ययन कर रहा हूं। यानी वो सामान्य पढ़ भर नहीं रहे हैं।
पढ़ना और अध्ययन दोनों ही क्रियाएं गंभीरता और धैर्य की मांग की करती हैं। अफ्सोस कि आज हमारे पास धैर्य की कमी है। न हम पढ़ना चाहते हैं और न अध्ययन। यही दो क्रियाएं शिक्षा में इन दिनों कम होती जा रही हैं। पढ़ने और अध्ययन करने वाले कम होते जा रहे हैं। यदि हमारा शिक्षक स्वयं पढ़ता हुआ या अध्ययन से जुड़ा नहीं है तो वह शिक्षा जगत में होने वाले नावचारों और अध्ययनों से परिचित नहीं हो पाएगा। एक बार जब वह अध्ययन से दूर चला जाता है तब वह अपनी पूर्व की पठित सामग्रियों के आधार पर ही शिक्षण करता है। पढ़ाने के लिए पढ़ना भी उतना ही ज़रूरी है जितना खाना पकाने से पूर्व की तैयारी।

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