Kaushlendra Prapanna
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शादी के इस पार प्रिय! प्रेम विवाह है, उस पार न जाने क्या होगा
शादी लव हो या अरेज क्या कोई ख़्ाास अंतर पड़ता है? क्या साथ रहने,होने,पाने,खोने में कोई फर्क किया जा सकता है? पहली बात तो यही कि शादी और प्यार दोनों एक ही सिक्के को दो पहलू हैं। दुनिया के भूगोल उठा कर देख लें जहां भी जीवन है वहां प्यार है। जहां भी इंसान रहते हैं वहां साथ रहने,जीने मरने की कसमें भी बड़ी ही शिद्दत से खाई और निभाई,तोड़ी और मरोड़ी भी जाती हैं। इससे क्या अंतर पड़ता है कि दो आत्माओं ने साथ रहने की ठानी है। उसमें समाज बीच में आ खड़ा होता है। धर्म,संप्रदाय,जाति,विचार तो गोया हमेशा ही प्रेम की अविरलधार को थोड़ा बाधित करने आ ही जाती हैं। प्रेम के अजस्र धार को थोड़ा गंदला ही कर जाते हैं। आज हम जिस ग्लोबल यानी वैश्विक समाज और दुनिया के नागरिक के तौर पर जी रहे हैं ऐसे में यह प्रश्न बड़ा ही खाली खाली सा लगता है कि आप किस प्रांत,देश,समाज से आते हैं। हमारी सभ्यता,संस्कृति,भाषा—बोली, खान—पान सब वैश्विक हो चुका है। लेकिन हमारी सोच,आचार विचार को एक खास कोटर में बांध कर रखने की जिद्द हमें एक सांस्कृतिक—सामाजिक द्वंद्व में धकेल देती है। यही कारण है कि हम दो छोराें पर बंधी रस्सी पर चलते हैं। दोनों ही छोर प्रिय होते हैं। हमें दोनों ही छोरों का आनंद चाहिए। कोई भी छोर,तार छोड़ना नहीं चाहते। आज के समाज की सबसे बड़ी चिंता,अकेलापन,संत्रास यदि कुछ है तो यही है। हमारे समाज में बदलाव रोज दिन हो रहे हैं। विभिन्न जातियों,संप्रदायों,समाज में हो रही हैं। जो स्वीकार कर आगे बढ़ गए उनका परिवार सुखी है। जिन्होंने नाक मुंह चढ़ाया,नखरे दिखाए वे अकेले,उपेक्षित जी रहे हैं। नई पीढ़ी के निर्णय,चुनाव को नीचा देखा रहे हैं। अपनी जी हुई जिंदगी, चुनाव को हमेशा सही साबित करने की जिद्द ने हमारे वरिष्ठों को कोने में बैठा दिया है।
बात जब शादी की होती है तब दो ही विकल्प क्याें खड़े किए जाते हैंं। क्यों नहीं अन्यान्य विकल्पों पर भी खुले दिमाग और सोच के साथ मंथन होता है। हमारे पास प्रेम विवाह और अरेेंज यानी मां—बाप,समाज के तथाकथित चुने हुए जीवन साथी के बीच विवाह के ही विकल्प आते हैं। हमारी मजबूरी होती है कि हम इन्हीं दो विकल्पों में से एक को चुनते हैं। यदि किसी ने अन्य विकल्प की सोची तो उसे समाज निकाला और हाशिए पर तड़पने के लिए छोड़ दिया जाता है। प्रेमी जोड़ों की बहिष्करण एक आम घटना है जिसे नागर समाज कोई खास तवज्जो नहीं देता। हमारे इसी सुसंस्कृत नागर समाज में मां—बाप, परिवार के सदस्यों द्वारा बेटी को खत्म कर देने जैसे घृणित कदम भी उठाए तो जाते हैं। इस बहिष्करण की प्रक्रिया में क्र्रूरता तब और चरम पर पहुंच जाती है जब कोमलमना मां, पत्नी भी उसमें सहभागी हो जाती हैं। घटनाओं की कमी नहीं है। पूरे देश भर में रेाज ही ऑनर किलिंग की खबरें आती हैं और सेंसेक्स की तरह शाम होते होते उतर भी जाती हैं। केार्ट—कचहरी, थाने में गहमा गहमी भी होती है लेकिन समय के साथ वह घटना भी दम तोड़ देती है। गिनाने को तो दिल्ली, हरियाण की बहुत की खबरें हैं लेकिन यहां खबरों व आंकड़ों का पहाड़ खड़ा मकसद नहीं बल्कि उन खबरों के अंदर दबी चीख, सिसकी के सबब को समझना है।
हमारा समाज लोकतांत्रिक है। देश लेाकतंत्र के चार स्तम्भों पर टिका है। इस लिहाज से न्यायपालिका की ओर आशा भारी निगाहों से देखें तो पाएंगे कि न्यायपालिका ऐसी फाइलों से अटी पड़ी है जिन्हें तलाक चाहिए। शादी के तीन माह भी नहीं हुए और तलाक के लिए उतावले हो जाते हैं। बेचैन हो जाते हैं। इन में प्रेम विवाह से लेकर अरेंज मैरिज दोनों ही किस्म के होते हैं। न्यायाधीश अपनी ओर पूरी कोशिश करते हैं कि घर बना रहे। घर परिवार न टूटे। लेकिन कॉसलर भी हार तब हार जाता है जब दोनों ही प्राणी तलाक को अंतिम विकल्प के तौर पर स्वीकार चुके होते हैं। शादी के बाद घर परिवार की भूमिका भी सीमित ही हो जाती है। विवाह में आकर खा पी कर लोग जा चुके होते हैं। उन्हें इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि जिसकी शादी में इतने मजे किए थे वह परिवार टूटन के दौर से गुजर रहा है। उसे कैसे बचाई जाए इस माथा पच्ची में कम ही अपना पांव डालते हैं। इसमें परिवार के सदस्यों को छोड़ दिया जाए तो समाज वही होता है जिसे सिर्फ बात बनाने और मजाक उड़ाने भर से वास्ता होता है। फलां की लड़की बहुत भाग कर शादी की थी। कहते न थे यह शादी नहीं चल सकती आदि आदि। बातें बड़ी तेजी से आग की तरह फैलने लगती हैंं। ऐसे में मां—बाप को सोचना चाहिए कि इसी समाज के लिए अपनी बेटी व बेटे की खुशियों का गला घोटा था। मैं जब आंखें उठा कर देखता हूं तो मेरे कई दोस्त लड़कियां ऐसी हैं जो तालक के बाद अकेली रह रही हैं। उनमें से कई की शादी अरेंज हुई थी। यह कहना गलत होगा कि अरेंज शादियां प्रेम विवाह से बेहतर होती हैं। यह बेहतरी निर्भर करता है आपसी तालमेल और सामंजस्य से। आपस में दोनों के रिश्ते के समीकरण कैसे बैठे हैं इस पर निर्भर करता है कि शादी चलेगी या बीच राह में दम तोड़ देगी।
सामंजस्य और आपसी तालमेल कहने को तो छोटा सा शब्द है लेकिन व्यवहार में काफी गंभीर है। अमूमन टनमनाहट तब शुरू होती है जब हमारा अहंभाव हमारी रोजमर्रे की जिंदगी में हावी होने लगती है। हमारी अपेक्षाएं ज्यादा और सीमा से आगे बढ़ने लगती हैं। उदाहरण के तौर पर यदि आपकी शादी प्रेम विवाह के खांचे में आती है और आप हमेशा अपनी पत्नी से यह अपेक्षा करें कि वह आपके परिवार के अन्य सदस्यों के तानों को सुने,जवाब न दे। मां—बाप की उम्मीद से ज्यादा अपेक्षाओं को पूरा करे। सिर्फ अपेक्षाओं को पूरा करने का जिम्मा उसी लड़की पर क्यों हो? क्यों न उस लड़की को भी वही दर्जा मिले जो अरेंज मैरिज वाली उसकी जेठानी व देवरानी को मिलती हैं। केवल अपेक्षाएं वही क्याें पूरी करे। यह एक मसला है जहां मनमुटाव व खींच तान शुरू होते हैं। दूसरा अहम खींचाव तब होता है जब पति की सैलरी पत्नी की सैलरी से कम होती है। कुछ समय तक तो पुरुष के मन में यह भाव नहीं आते लेकिन कभी भी पौरुष प्रवृत्ति यदि जाग गई और उसे ठीक से समझा नहीं गया तो एक तनाव यहां भी पैदा होने लगती है। हमें समझना होगा कि आज की तारीख में स्त्री पुरुष सिर्फ नारों,आंदोलनों में ही समान नहीं होने चाहिए। बल्कि वह आम जीवन में भी समान हों। इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि आपकी पार्टनर आपसे ज्यादा कमाती है व अच्छे पद पर है। क्योंकि नौकरी जिंदगी नहीं होती। जिंदगी से बड़ी न तो नौकरी होती है और न पगार बड़ी होती है। आत्मविश्वास और प्रेम सबसे बड़ा है। तभी रिश्ते को बचाया और जीया जा सकता है।
महत्वपूर्ण यह तय करना नहीं है कि दोनाें में से कौन सी शादी प्रमुख और स्थाई होती है व हो सकती है। विमर्श इस पर होना चाहिए कि रिश्ते की आत्मा कहां बसती है। कहां रिश्ते की धुकधुकी चलती है। उस धुकधुकी को कैसे बचा कर रखा जाए और रिश्ते की उष्मा को कैसे आज के माहौल में सुरक्षित रखा जा सकता है। आज आर्थिकतौर पर हर कोई आजाद और निर्भर रहना चाहता है और हो रहा है। ऐसे में किसी पर भी आर्थिक आजादी को छिनने का हक नहीं है। जब लड़कियां भी कमाने जाएंगी तो उन्हें अपने ऑफिस में पुरुष सहयोगी भी मिलेंगे। बातचीत होगी। घूमना फिरना भी लाजमी है। हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा था कि काम पर जाती लड़कियां लड़कों जैसी हो जाती है। यदि आप शक का हवा देने लगे तो आपके रिश्ते को कोई भी डूबने से नहीं बचा सकता। हालांकि यदि आपके रिश्ते मे कोई छोटा सा छेद हो तो उसमें किसी और के द्वारा अंगुली घुसाने की संभावना से इंकार भी नहीं कर सकते। यह खुलापन और वैचारिक के साथ ही स्वीकार के स्पेस को हमेशा बनाए रखना चाहिए। कई बार अरेंज हो या प्रेम विवाह जब भी बंदीशों की घूटन पैदा होने लगती है तब कदम बाहर की ओर निकलने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह प्रक्र्रिया इतनी बारीक और पतली होती है कि स्वयं भी व्यक्ति समझ नहीं पाता कि वह क्या कर रहा है। कब उसके कदम दूसरा राह पर चल पड़े। यह तब एहसास होता है जब हथेली से रेत भूर भूरा कर निकल चुके होते हैं। समाजशास्त्रियों, समाजमनोवैज्ञानिकों मनोचिकित्सकों आदि का मानना है कि समाज,देश व व्यक्ति को कोई भी ऐसा रिश्ता नहीं है जिसे बातचीत और आमने सामने बैठ कर नहीं सुलझाए जा सकते। बल्कि इतिहास गवाह है कि सदियों की रंजिशें, द्वंद्व एवं संघर्ष को आपसी बातचीत से सकारात्मक हल निकाले गए हैं।
प्रेम विवाह व अरेंज मैरिज के फायदे व हानि नहीं लिखूंगा। लेकिन हां ओशो की पंक्ति जरूर उद्धृत करना चाहूंगा कि जब समाज में विभिन्न संप्रदायों, जातियों,धर्मों में शादियां होने लगेंगी तब समाज में धर्म के नाम पर दंगे फसादों में कमी आएगी। यह कितना सच है आजमाया तो नहीं लेकिन इतना जरूर है कि दो संस्कृतियां,दो अलग अलग समाज,बोली भाषा,संस्कार, परिवेश करीब होने लगते हैं। दो व्यक्ति की शादी नहीं होती बल्कि दो समाज,संस्कृति के बीच गठबंधन होता है। इस मसले पर फिल्में तो बनी ही हैं साथ उपन्यास,कहानियां,कविताएं भी लिखी गई हैं। वह चाहे टू स्टेट फिल्म हो या फिर डॉ प्रज्ञा की लिखी कहानी फ्रेम हो, अमृता प्रितम की पिंजर हो। इन कहानियों,उपन्यासों में दो प्रेम करने वाले समाज,व्यक्ति की बेचैनीयतें,छटपटाहटों,संघर्षों को चित्रित किया गया। हालांकि उपन्यास,कहानियां व फिल्में कइ बार अतीरेक में जीया करती हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि साहित्यिक अभिव्यक्ति अपने समाज का आईना हुआ करती हैं।
शादी चाहे प्रेम वाली हो या अरेंज वाली होती तो विवाह ही है। दो परिवार करीब आते हैं। उससे बड़ी बात यह कि हम उस करीबपन को कैसे संभाल पाते हैं। क्या हमारे इसी समाज में दहेज आज भी बड़ा पहाड़ नहीं है जिसे एक आम जन पार करने की सोच कर ही हांफने लगते हैं। किसी तरह जोड़ तोड़ कर दहेज भी जुटाते हैं लेकिन उसके बाद भी उनकी बेटी खुश नहीं, उसे और और लाने के लिए विवश किया जाता हो तो ऐसी शादी से तो बेहतर है न ही किया जाए। बेटियों को अपने घर की हालत ज्यादा अच्छे से मालूम होता है। उन्हें पता होता है कि उसकी शादी में पिता ने कहां कहां से पैसे मांगे हैं। कैसे चुकाए जाएंगे आदि। सब मालूम होता लेकिन वो लाचार हेाती है। लेकिन अब लाचार नहीं हैं लड़कियां। वे आवाज उठा रही हैं। दरवाजे पर आए दुल्हे को भी भगाने लगी हैं लड़कियां। यह सुगबुगाहट अच्छे संकेत हैं। प्रेम विवाह में कम से कम लड़के वालों को उम्मीद नहीं होती। मांग भी नहीं होती। जो मिल जाए व व्यवस्था कर दी जाए उसे स्वीकार कर लिया जाता है। कहते हैं अरेंज मैरिज में मां—बाप,घर परिवार, बड़े़ बुढे सभी होते हैं। उनके नाज नखरे भी होते हैं। जिन्हें उठाना पड़ता है। फुफा जी, मामा जी रूइ रहे हैं तो उन्हें मनाना भी पड़ता है। उनसे उम्मीद होती है कि जब शादी के बाद गाड़ी डमाडोल हो रही हो तो उसे संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं लोगो के कंधे पर आती है। लेकिन वास्तव में वे एक राह पकड़ लेते हैंं। इतना जरूर है कि कुछ समय तक लोक लाज के चक्कर में अंदर की बेचैनीयतें दब तो जाती हैं लेकिन शांत नहीं होतीं। वह आगे चल कर विकराल रूप धारण कर लेती हैं।
एक ओर तथाकथित पूरा परिवार होता है तो दूसरी ओर होते हैं दो प्राणी। लड़ना भी उन्हीं से मानना भी उन्हीं से। झगड़ना—मनान सब कुछ एक ही के साथ होता है। शादी के बाद समाज व परिवार की अपेक्षाएं बढ़ती हैं। जिसे पूरा करने में कई बार दोनों प्राणी कई बार ऐसी स्थिति में आ जाते हैं कि लोकलाज में वेा सब कुछ करना पड़ता है जिसके लिए न तो वे तैयार होते हैं और न स्वयं उसे मानते हैं। मारवाड़ी में एक कहावत है धारो बिना सको कोनी धारे बिना बसो कोनी इसका अर्थ है तुम्हारे साथ रहा भी नहीं जाता और तुम्हारे बिना जीया भी नहीं जाता। यह दो प्राणियों के बीच चला करता है। खासकर प्रेम विवाह में इसे इस रूप में देख समझ सकते हैं कि अब दोनों को ही रहना है चाहे वे हंस कर रहे रो कर रहें।
कौशलेंद्र प्रपन्न
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