योग महिमा Ajay Amitabh Suman द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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योग महिमा

(१)

योग महिमा

माननीय प्रधानमंत्रीजी,


आपने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इक्कीस जून को योग दिवस के रूप में मान्यता प्राप्त करा कर भारत क़ी महिमा बढ़ाई है . उसके लिए आपको हार्दिक बधाई. मैं ब्रेन हेमरेज के कारण लकवा ग्रस्त हो गया था . विकलांग होने के बावजूद नियमित रूप से योगाभ्यास कर स्वस्थ हूँ . मैं प्रति दिन योगभ्यास करने से पहले स्वरचित प्रार्थना करता हूँ जो मैं आपके पास भेज रहा हूँ . ज्ञातव्य है क़ी ईश्वरवादी , अनीश्वरवादी एवं हर धर्म के व्यक्ति इस प्रार्थना में रूचि लेंगे . कृपया योग दिवस "इक्कीस जून" को आयोजित योगाभ्यास कार्यक्रम में इसे शामिल किया जाये .


आपका प्रशंसक


श्रीनाथ आशावादी
ग्रा.+पो. कोहरा बाजार , भाया-दाउदपुर
छपरा , सारण, बिहार -८४१२०५
मोबाईल-०९९७३५५४१५५


ये मेरे पिताजी श्रीनाथ आशावादी द्वारा रचित रचना है , जो उन्होंने विकलांग होने के बाद लिखी है .


मन तू साथी , सब कुछ भूल कर ,
अंतर्मन से ध्यान करो .

प्रति दिन आयु बढ़ती जाये
ध्यान मगन प्राणायाम करो .

कलुष भाव को सदा मिटाकर
दिल से भय का नाश करो .

अपने को तू स्वस्थ बना कर
निज में ही प्रकाश भरो .

"मैं" ही सबसे ऊँचा है
तू "मैं " में अंतर्ध्यान धरो .

काम , क्रोध ,मद , लोभ हटाकर
स्वयं कि ही पहचान करो .

सारा जगत यह सपना है
तू भली भांति यह देख रहो .

एक दिन सपना टूट जायेगा ,
मानस में यह ज्ञान भरो.

मैं हु सुखी स्वाधीन जगत में
अब तो हूँ उन्मुक्त यहाँ .

यही सोच ना तनिक फिक्र है
मुझको अब निश्चिन्त करो .

(२)

और ये दुनिया क्या :अजय अमिताभ सुमन


अनगिनत ईगो
छोटे छोटे इगो
बड़े बड़े इगो
छोटे इगो का बड़े इगो से
बड़े इगो का छोटे इगो से
तकरार बार बार
आपस में लड़ते इगो
आपस में मरते इगो
छोटी छोटी बातों पे
झगड़ते इगो
बड़ी बड़ी बातों पे
रगड़ते इगो
संभलते इगो
बिगड़ते इगो
और ये दुनिया क्या
इगो मैनेजमेंट.

(३)

प्रार्थना


अज्ञानता की जंजीर में,
जकड़े हुए मन हैं जो।
माया भ्रमित जर्जरता में,
पकड़े हुए तन हैं जो।
अकारण डरे हुए जो,
स्वयं से भयभीत हैं।
अनभिज्ञ हैं सत्य से जो,
स्वयं विस्मरित हैं।
अनगिनत जो जी रहे हैं,
अपने कब्रिस्तान में।
स्वयं निर्मित जाल में,
स्वयं के अज्ञान में।
नचिकेता के सदृश हीं,
इन्हें जीवन दान दो,
मृतप्राय हीं जीवित हैं,
प्रभु अभय ज्ञान दो।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

(४)

तेरा ईश्वर


कुछ रिक्शे से हीं ढ़ोते पूरे एक घर को,
क्षुधा से मुक्ति नहीं मिलती क्षण भर को।
तेरा ईश्वर पर्वत को उंगली पे उठा लेता है।
इन भूखों को रोटी वो क्यूँ न खिला देता है।


कुछ कुत्तों को बिस्कुट खिलाते दुलार से ,
भूखों से घृणा दुत्तकारते फटकार से।
वो भक्तों के आगे सागर को सुखा देता है।
बुद्धि कलंकित है क्यूँ ना हिला देता है।


पत्थर सी दुनिया मे शीशे का लेेेके दिल।
ख्वाबों की तामील यहाँ होती बड़ी मुश्किल।
तेरा ईश्वर ठोकर से पत्थर को जिला देता है।
इन आँखों के सपनों को क्यों न खिला देता है।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित