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हमारी बद्रीनाथ धाम की यात्रा

आज दिनांक,19 मई 2018 , मैं और मेरे 4 मित्र बद्रीनाथ यात्रा पर निकले हैं।
उमंगित ,उल्लासित, भक्तिरस में डूबे।
सुबह 4 बजे है, मैं , योगेश, मनोज, प्रियांक, और रजत, हमने काशीपुर , उत्तराखंड से जो कि कुमाऊं और गढ़वाल का प्रवेश द्वार है।
से अपनी आल्टो कार से  बद्रीविशाल की जय घोष  के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की।
40 मिनट में हम रामनगर पहुंच गए, जहां से शिवालिक पर्वत श्रंखला शुरू होती है।
रामनगर व्यापार का नगर है, और जिम कार्बेट पार्क का केन्द्रविन्दु।
जिम कार्बेट को नेशनल टाइगर रिजर्व भी कहा जाता है।
मनभावन सुंदर नगर, जहां से सात आठ किमी चलने पर कोसी नदी की बीच धारा में माता गर्जिया देवी का प्राचीनतम मंदिर है। 
जो एक पर्वत खंड की बहुत छोटी सी चोटी पर स्थापित है। माता गर्जिया के दर्शन को बर्ष भर श्रद्धालु भारी संख्या में आते रहते हैं।
वहाँ से आगे हमे सड़क के एक ओर शिवालिक पर्वत एवं दूसरी  ओर गहरी कोसी नदी के बीच से गुजरना था , ऐंसा लग रहा था कि सड़क नही एक बड़ा मोटा अजगर लेटा है और हम उसके ऊपर चल रहे हैं।
ऐंसे ही टेढ़े मेढ़े  घुमावदार ऊंचे नीचे, रास्ते से चलते हम मोहान पहुंच गए।
वहां हमने कुछ जलपान किया, और बढ़ गए अपनी धर्म यात्रा पर।
आगे, सुराल, टोटाम ,मझोड़ होते हुए हम भतरोज खान पहुंचे, जहां से एक रास्ता वाई ओर रानीखेत को जाता है।
दूसरा सीधा जोशीमठ मार्ग, जो बद्रीनाथ का रास्ता है।
वहाँ से सीधे चलकर हम भिकियासेन ,जेनल, मासी होते हुए चौखुटिया पहुंचे।
चौखुटिया अच्छा बाजार है और प्राकिर्तिक द्रश्य से शोभित ।
उस से थोड़ा आगे  एक रास्ता द्वाराहाट को जाता है जहां से दुनागिरी माता के मंदिर को जाते हैं।
आगे पांडुवाखाल से निकल कर हम , ग़ैरसैंड पहुंचे यहां पहाड़ो के बीच सुंदर समतल मैदान है।
गैर मतलब गहरा एव सेड मतलब समतल।
उसके आगे कर्ण प्रयाग है जो पांच प्रयाग में एक है।
कर्ण प्रयाग एक प्राचीन तीर्थस्थल है, जहां पिंडर जिसे कर्ण गंगा भी कहते हैं , और अलकनंदा नदियों का पवित्र संगम है।
यहां पर कहते  हैं कि कर्ण ने भगवान शिव और माता उमा भगवती की तपस्या की थी जिन्होंने प्रकट होकर कर्ण को वरदान दिया था।
यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय स्थल हैं।
एक किवदंती के अनुसार श्रीक्रष्ण ने एक पर्वत  की नोक(करणशीला)जो जल के बाहर निकली हुई थी उसी पर कर्ण का अंतिम संस्कार किया था।
वहाँ से थोड़ा आगे हमने नदी के किनारे भोजन किया। थोड़ा विश्राम कर पुनः आगे यात्रा प्रारंभ की।
उसके आगे हम नंदप्रयाग पहुंचे जहां गंगा की 12 सहायक नादियीं में एक नंदाकिनी और अलखनन्दा का पावन संगम है।नंदाकिनी का एक प्राचीन नाम कंदासू भी है।
यहीं पुरतन काल मे ,कंडव हृषी का आश्रम था, यहीं पर शकुंतला के गर्भ से भारत के प्रतापी सम्राट भारत का जन्म हुआ था।
कर्ण प्रयाग से 17 किमी आगे प्राचीन मंदिरों का समूह है जिसे आदि बद्री कहा जाता है। ये पांच बद्री में एक है।
देव भूमि में पंचकेदार पंच बद्री और पंच प्रयाग हैं।
आदि बद्री के बारे में कहा जाता है कि पांडवो ने अपने स्वर्गारोहण के मार्ग में इन मन्दिरो का निर्माण स्वम् किया था। यहां पर कभी 16 मंदिर थे अभी 14 मन्द्रिर ठीक स्थिति में हैं।
सारे मंदिर पत्थरो के एक विशेष शैली में बनाये गये हैं।
मुख्य मंदिर श्री विष्णु भगवान का है ,और इसके ठीक द्वार पर उनके वाहन गरुण विराजमान हैं।
बाकी में शिव पार्वती हनुमान गणेश इत्यादि के विग्रह हैं। मन्दिरसमूह बहुत आकर्षक और दर्शनीय है।
उसके आगे चमोली जो एक जिला है। वहां से एक रास्ता गोपेश्वर होकर श्री केदारनाथ धाम को जाता है।
केदार नाथ धाम को एक रास्ता कर्ण प्रयाग से रुद्र प्रयाग होकर भी जाता है।
रुद्र प्रयाग भी वहुत प्रसिद्ध स्थल है। यहां पर श्री केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी और श्री बद्रीनाथ धाम से आने बाली अलखनंदा नदियों का पावन संगम है।
इसही रुद्रप्रयाग में नारद जी ने कठिन तपस्या की थी यहीं उन्हें महती नामक वीणा प्राप्त हुई थी। रुद्रप्रयाग में रुद्रेश्वर महादेव चामुंडा देवी के मंदिर हैं। यहाँ से ऋर्षिकेश की दूरी 139 किमी है।
उस से आगे चल कर हम जोशी मठ पहुंचे इसे ज्योतिर्मठ या ज्योतिष मठ भी कहा जाता है।
ये कतुरी राज्यवंश की राजधानी था इस का प्राचीन नाम कार्तिकेयपुर भी बताया जाता है।
यहीं पर 8वी शताव्दी में श्री आदि शंकराचार्य ने नरसिंग भगवान के मंदिर की स्थापना की , जो कि विष्णुजी के नरसिंग रूप को समर्पित है।
यहां नरसिंह भगवान को दूधाधारी नरसिंग भी कहा जाता है।
कहते हैं नर्सिंग  भगवान की वायी कलाई प्रतिदिन क्षीर्ण होती जा रही है।
जिसदिन उनका हाथ गिर जाएगा उसी दिन , जय और विजय पर्वत गिर कर बद्रीनाथ धाम का रास्ता बंद कर देंगे।
जोशी मठ से 13 किमी आगे विष्णु प्रयाग है।यहां पर अलखनंदा और विष्णुगंगा(धौलीगंगा) का पवित्र संगम है।यहां पर अलखनंदा में 5 और विष्णु गंगा  5 कुंड बने हैं।
इसी के दोनों ओर विसनुजी के द्वारपाल जय और विजय पर्वत रूप में विराजित हैं।
कहते हैं यही पर नर और नारायण ने तप किया था।
उसके आगे हनुमान चट्टी में श्री हनुमान जी के पावन दर्शन होते हैं। हनुमान चट्टी मुख्यमार्ग पर ही स्थित है।
यहां पहुंचते पहुंचते हमे शाम हो गई।
वहां से थोड़ा ही आगे थी हमारी मंजिल श्री बद्रीनाथ धाम।
शाम 7 वजे हम बद्रीनाथ पहुंच गए मन अपार प्रसन्न और यात्रा की सारी थकावट गायब।
वहां हमने श्रीमस्तनाथ जी की धर्मशाला में ठहरने की व्यवस्था की। और चले गए श्रीबद्रीनाथ जी की संध्या आरती में दर्शन करने।
हमने दो बार श्री बद्रीनाथ के दर्शन किये। और उनकी दया को महसूस किया।
बद्रीनाथ धाम में श्री विष्णुजी का चतुर्भुजी रूप विग्रह शालिग्राम शिला से निर्मित है। उनका सरंगार देखते ही बनता है।
कहते हैं यहां पर शिव का ही स्थान था, एक दिन विष्णु जी अपने ये तपस्थली खोजने निकले, उन्हें ये स्थान भा गया।
विष्णु जी एक वाल रूप लेकर क्रन्दन करने लगे रोने लगे। माता पार्वती का ह्रदय उनके रुदन से द्रवित हो गया । और उन्होंने पूछ लिया कि अपको क्या चाहिये वस्तु विष्णु जी ने ये स्थान उनसे अपने लिए मांग लिया।
जहाँ विष्णु जी ने अपने चरण रखे थे वहां पर उसके चिन्ह बन गए, इस स्थान की चारने पादुका कहते हैं।
वहीं पर शेषनाग का चिन्ह भी है।
बद्रीनाथ नाम पड़ने की कथा इस प्रकार कही जाती गई कि,
जब श्री हरि गहन तपस्या में लीन हो गए तो वहां पर भारी हिमपात होने लग गया।
माता लक्ष्मी ने ये देखा तो एक बेर (बदरी)वृक्ष बन कर उनकी छाया बन गईं।
जब विष्णु जी तप से जागे तभी उन्होंने मां लक्ष्मी से कहा कि, आज से तुम बद्री और मैं बद्री का नाथ हुआ अब ये स्थान बद्रीनाथ नाम से जाना जाएगा।
जहां विष्नु जी ने तप किया था वह स्थान अब तप्तकुंड कहा जाता है जहां पर हमेशा गर्म जल उपलब्ध रहता है।
बद्रीनाथ मंदिर से श्री नीलकंठ पर्वत के दर्शन होते हैं जिसपर बर्फ की अनेक सरंखलाये शेसनाग का स्पस्ट रूप बनाती हैं।
हमने तो वहाँ पर पर्वत पर ओम की भी आकृति स्पस्ट देखी।
अगले दिन हम माना गांव गए जो भारत तिब्बत सीमा पर भारत का अंतिम गांव है।
ये स्थान बद्रीनाथ से 3 किमी आगे है।
वहां पर गणेश गुफा व्यास गुफा हैं यहां पर व्यासदेव जी ने महाभारत की रचना की थी।
जिसको कलमबद्ध श्री गणेश जी ने किया था।
यहाँ पर सरस्वती नदी को स्पस्ट देखा जा सकता है।
यही एक बड़ी चट्टान से सरस्वती के ऊपर पूल बना हुआ है जिसे भीमपुल कहा जाता है।
भीम पुल से लगभग 100 मीटर आगे सरस्वती नदी अलखनंदा में समा जाती है।
कहते हैं जब पांडव यहाँ आये थे तब नदी पार करने के लिए भीम ने ये पत्थर रखा था।
यहां पर सरस्वती का एक मंदिर भी है।
कहते हैं माणा नाम शिव भक्त मणिभद्रवीर के नाम पर पड़ा है।
जिन्हीने यह वरदान मंगा था कि यहाँ उसने बाला कभी दरिद्र ना रहे।
यहाँ से 4 -5 किमी आगे वसुधारा नामक स्थान है जहां पर वसुओं ने तप किया था।
कहते हैं इस जल के छींटे पड़ने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
बोलो जय श्री बद्रीनाथ।

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