हवाओं से आगे
(कहानी-संग्रह)
रजनी मोरवाल
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जोगिया-छबीली
(भाग 1)
दिन ख़ूब चढ़ आया था, आसमान में सूरज कड़ककर धूप उगल रहा था, छबीली सुस्ताने के बहाने चौपाल के बीचोबीच बूढ़े हो आए पीपल की छाँव में आ बैठी थी | वह सीप, मोती और कौड़ियों के आभूषण बनाती है और आस-पास के गांवों और कस्बों में घूम-घूमकर उन्हें बेचती है, साथ ही वह रंग-बिरंगी काँच की चूड़ियाँ और शृंगार का अन्य सामान भी रख लेती है, औरतों को खूब सुहाता है यह रंग-बिरंगे समान से भरा टोकरा | “चूड़ी लो...बिंदी लो...काजल लो... माला लो... आओ-आओ छबीली आई ताबीज़ भी लाई” जब भी वह टेर लगाती है तो औरतें उसे घेरकर खड़ी हो जाती है, छबीली का बापू टोना-टोटका भी जानता है सो छबीली इन औरतों को अपने-अपने मर्दों को वश में करने का नुस्खे वाला वशीकरण मंत्र फूँका ताबीज़ भी बेच जाती है |
यूँ तो वह हर रोज़ रोटी खाने इसी जगह आ बैठती है पर उस रोज़ गर्मी कुछ ज्यादा ही थी, उससे गर्मी बर्दाश्त नहीं हुई सो उस दिन वह अपने निर्धारित समय से पहले ही पीपल की छाँव में आ बैठी थी | अकेली बैठी-बैठी वह खुद से ही बातें करने लगती है “आज तो कड़ी धूप है, आज जादा काम बी नी मिला और टेम भी घणा खोटी हो गया, आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया” वह बिक्री न होने की वजह से झुंझला उठी थी, कोई खास त्योहार या उत्सव हो तो उसकी बिक्री खूब होती है वरना गुज़ारे लायक तो सामान बिक ही जाता है, यूं तो उसे गाँव-गाँव घूमकर सामान बेचने की जरूरत नहीं है फिर भी उसके डेरे की सभी औरतें कुछ न कुछ रोजगार करती ही है सो छबीली ने भी अपने लिए यह काम चुन लिया है | उस रोज़ उसके साथ की बाकी औरतें इकट्ठी नहीं हुई थी, छबीली समय से ज़रा पहले ही वहाँ आ बैठी थी | कुछ देर वह बीजणे(हाथ पंखा) से हवा झलती है फिर गर्मी से राहत मिलते ही बीजणा टोकरे में रखकर आईना निकाल लेती है, समय गुज़ारने के लिए वह आईने में अपना छबि निहारने लगती है, अपनी शक्ल देखकर उसका गुस्सा काफ़ुर हो उठता है, उसे अपने-आप से प्यार है, पहले तो वह मुसकुराती है फिर उसे खुदपर ही रश्क हो आता है | जोगिया के शरारत भरी आँखों की मस्तियाँ छबीली की जेहन में उतर आती हैं और उसके पसीने की पुरुष गंध छबीली के नथुनों में समाने लगती है, जोगिया अपने कुर्ते के तीन बटन हमेशा खुले रखता है, छबीली को उसकी चौड़ी छाती पर मचलती मछलियों को अपनी हथेली में जकड़ने का मन करता है | जोगिया की याद छबीली के मन को तरसा जाती है, उसकी अनुपस्थिति में भी छबीली आसक्त हो उठती है, उसकी मसखरी भरी बातें सोच-सोचकर तो वह अकेले में भी मुस्कुरा उठती है “अपनी हिरणी जैसी आँखों का काजल यूँ न बह जाने दिया कर पगली...इस उजले दिन में भी स्याह रात उतर आएगी” जोगिया की ठिठोली सुनकर छबीली लजा जाती है, आजकल जोगिया उसके पास न होकर भी उसके आस-पास ही मँडराता रहता है |
अकेली बैठी-बैठी छबीली अपना रूप सँवारने लगती है, वह काजल की डिबिया खोलकर अपना काजल गाढ़ा करने लगती है, चेहरे पर ढुलक आई भूरी लटों पर उसकी जवानी की उन्मुक्तता इठलाने लगी थी, उन्हें सँवारने के लिए वह अपने टोकरे में से लकड़ी की कांगसी ढूँढने लगी तभी पेड़ के आड़ में से जाने कबसे छुपा हुआ जोगिया अचानक उसके सामने आ धमकता है, वह पीछे से छबीली की चोटी खींचकर भाग जाता है फिर कुछ ही दूरी पर उगी घेर-घुमेर पुरानी खेजड़ी के गोबर लिपे चबूतरे पर आड़ा पसर जाता है, छबीली बनावटी गुस्से से घूरकर उसे देखने लगी, उसे देर तक हो-हो करके हँसता हुआ देखकर वह आंखे निकालकर उसे डराती है, जोगिया उसे जीभ चिढ़ा देता है, कुछ देर तक छबीली उसे नज़रअंदाज़ करती रहती है किन्तु जोगिया उसे परेशान करना नहीं छोड़ता तो छबीली मुट्ठी भींचकर उसे मारने दौड़ती है | छबीली के पास आते ही जोगिया उसे अपनी बाहों में भींच लेता है और पहले से भी ज्यादा ज़ोर से हंसने लगता है, जोगिया हमेशा इसी ताक में रहता है कि छबीली उसके पास आए और वह उसे अपनी आगोश में जकड़ ले, ऐसे मौकों पर छबीली अक्सर कुछ देर तक कुनमुनाती है...कसमसाती है फिर धीरे-धीरे अपने-आपको जोगिया के सुपुर्द कर ही देती है, जोगिया उसकी ना में छिपी उसकी हाँ को खूब पहचानता है | उन दोनों की रोज़मर्रा होने वाली ये चुहलबाजियाँ कोई नई नहीं है, वे दोनों इसी तरह एक-दूजे को सताते रहते हैं, उनके पीछे बिरादरी वाले तरह-तरह की कानाफूसी करते हैं कि जरूर उन दोनों के बीच कोई चक्कर है किन्तु न तो जोगिया न ही छबीली दोनों में से कोई भी कुछ नहीं कहता ...वे तो बस बह रहे हैं उन्माद के उस दरिया में जो बीते कुछ महीनों से उन दोनों के शरीरों से होकर आत्मा तक निरंतर बह रहा है, आँखों की भाषा से छबीली बतियाती है तो जोगिया अपने हाव-भाव से सबकुछ जतला देता है | सब पहचान रहे हैं कि कुछ तो जरूर चल रहा है उन दोनों के बीच जो उनकी कमसिन उम्र की गवाही दे रहा है और जिसे गाहे-बगाहे बिरादरी वाले भी देख जाते हैं |
जोगिया और छबीली दोनों कालबेलिया जोगी नामक घुमक्कड़ जाति के हैं, जो जहरीले साँपों को बड़े सलीके से पकड़कर बंधक बना लेती है और इन्हीं साँपों की बदौलत ये लोग अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं | पिछले कुछ महीनों से इस कालबेलिया समूह ने पश्चिमी राजस्थान के एक गाँव के बाहर बनी कच्ची बस्ती से ज़रा दूर हटकर अपना डेरा डाला रखा है | शहर के बीच या बस्तियों के आस-पास बसने के लिए तो अब भी इन्हें ठौर नहीं, लोग आज भी इनसे डरते हैं और इन्हें चोर-उचक्के समझते हैं इसीलिए ये लोग एक जगह टिककर नहीं रहते, ये लोग न जाने कितने बरसों से यूँ ही शहर-शहर घूमते रहते हैं और साँपों के खेल दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं, इनमें से कुछ लोग झाड-फूँक करके और ताबीज़ बेचकर भी अपना गुज़ारा करते हैं | जोगिया अभी-अभी एक साँप पकड़ कर लौटा था, साँप पकड़ने से कई कालबेलियों की मृत्यु तक हो जाती है किन्तु जोगिया साँप पकड़ने में बड़ा सिद्धहस्त है, वह और उसके जैसे ही अनेक नौजवान लड़के हर दिन सुबह होते ही साँप पकड़ने बीहड़ जंगलों में निकल पड़ते हैं, अपने संग पूँगी, ख़ंजरी और ढपली-चंग जैसे वाध्य यंत्र होते हैं, कई-कई दिन तक इन्हें एक अदद साँप पकड़ने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, भरी धूप में भी ये लोग साँपों के बिलों के ढूँढते रहते है फिर बिलों के ईद-गिर्द घूम-घूमकर ज़ोर-ज़ोर से वाध्य यंत्र बजाने लगते हैं, कालबेलिए जानते हैं कि साँपों में श्रवण शक्ति नहीं होती किन्तु इस बात से वाकिफ होते हुए भी वे बिलों के आस-पास विभिन्न प्रकार के वाध्य यंत्र बजाते हैं और सर्प बिलों से बाहर निकल भी आते हैं, दरअसल इनके वाध्य यंत्रों की धुनें धरती में एक प्रकार का कंपन उत्पन्न करती हैं जिसे भाँपकर साँप अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं और उन धुनों को बूझने में इतने लीन हो जाते हैं कि वे फन फैला-फैलाकर नृत्य करने लगते हैं, नृत्य करते सर्प जब मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं तो कालबेलिए इनकी पूँछ पकड़कर एक ज़ोर का झटका देते हैं जिससे साँप अपना संतुलन खो देते हैं और इसी बीच कालबेलिए इन बलखाते साँपों को पकड़कर तुरंत बांस की पिटारी अथवा कपड़े के झोले में बंद कर देते हैं फिर 72 घंटों तक इन साँपों को भूखा-प्यासा रखा जाता है, उसके पश्चात उनके मुख से विष निकालकर एक काली मटकी में जमा कर लिया जाता है | हाँ....कई मर्तबा ऐसा भी होता है जब साँप पकड़ने के दौरान इन्हें साँप डस भी लेता है तो ऐसे में ये अपना इलाज उसी विष से करते हैं जिन्हें ये पकड़े गए साँपों से इकठ्ठा करते हैं और कभी-कभी इलाज़ कारगार सिद्ध न होने की स्थिति में कई कालबेलियों की मृत्यु तक हो जाती है, लेकिन इस पेट की भूख मिटाने की खातिर ये कालबेलिए मौत के साए में रहकर भी शान से जीते हैं, हर गम सहकर भी ये लोग हरदम गाते-बजाते रहते हैं और हर शाम नाचते-गाते हैं, अपने गमों को भुलाकर भी ये लोग अपनी ज़िंदगी खुशी से गुज़ारते हैं |
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