हवाओं से आगे - 11 Rajani Morwal द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हवाओं से आगे - 11

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

चप्पा

(भाग 2)

शाम तक रामभरोसे का ट्रान्सफर हार्ड स्टेशन पर करवा दिया गया था । रात अंधेरे वह बेबी से विदा लेने गया था । एक उम्मीद थी कि शायद वह रोक लेगी, आखिर लड़कियों को अपनी इज्ज़त सबसे प्यारी होती है । वह अपने प्यार की दुहाई देगा, उसने धीमे से खिड़की खटखटाई,

“अरे कौन तुम रामभरोसे ?”

“जी हाँ बेबी वो आप साहब को बोल दो कि हम दोनों आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं ।”

“आर यू एन इडियट ? तुमको किसने कहा कि मैं प्यार करती हूँ तुमसे, पगले हो तुम ? इट वाज़ एन एडवेंचर, भूल जाओ और चले जाओ यहाँ से और हाँ कल तुम्हारा यहाँ कुछ छूट गया था ।” बेबी ने खिड़की में से उसे चप्पा दिखाया, उसने खनकदार आवाज़ में पूछा-

“ये क्या लिए घूमते हो ? कल बिस्तर पर चुभा तो कितनी बार इस चीज़ से कोंसंट्रेशन टूट रहा था ।’

“जी... ये चप्पा है, वो जूते पहनते वक़्त काम लगता है ।”

“मगर तुम तो चप्पल भी ठीक से नहीं पहनते ! एनीवे ये पकड़ो कहते हुए बेबी ने खिड़की में से चप्पा बाहर फेंक दिया था और उसी अदा से इठलाते उए बोली, गुडबाय एंड... थें...क यू !”

रामभरोसे ने ज़मीन पर पड़े उस चप्पा को उठाया और पेंट की जेब के भीतर सरका लिया और साथ ही अपने टूटे सपनों को भी जिन्हें लेकर उसे आगे की यात्रा करनी थी । वह छुट्टी लेकर गाँव चला गया था । चाचा बीमार थे और रामभरोसे के बिखरे हालातों ने उन्हें बिना पूछे भी काफ़ी कुछ समझा दिया था ।

“ब्याह करेगा ?”

“हुम्म... पर मेरे जैसी गंवार से नहीं और कोई पढ़ी-लिखी मुझसे ब्याह भला क्यों करेगी ?”

“करेगी बबुआ... जरूर करेगी । तू सरकारी मुलाज़िम हो, पढ़ाई-लिखाई को कौन पूछता है ? सबसे बड़ा रुपैया बबुआ !”

“तो देखो मैं अब ब्याह करके ही लौटूँगा । वेसे भी पाँच बरस में एक भी छुट्टी नहीं ली है मैंने ।"

“वो जो पी. डब्ल्यू. डी. साहब हैं न उनकी लड़की से बात चलाऊँ ?”

“वो भला मुझसे क्यों करेगी ब्याह ? चाचा तू भी पगला गया है ?” रामभरोसे हँसने लगा था ।

“अरे बावले तू नहीं समझेगा, पढ़ी-लिखी लड़की है पर है तो लड़की जात और औरतों की पढ़ाई-लिखाई कोई नहीं देखता, औरतों का तो देखा जाता है रूप-रंग ।”

“मैं समझा नहीं ?”

“अरे लड़की को पढ़ाया-लिखाया ही इसलिए है उन्होने क्योंकि लड़की का रंग-रूप ज़रा दबा हुआ है । उम्र भी बढ़ती जा रही है लड़की की, कब तक छाती पे बिठाए रखेंगे । ब्याह तो करेंगे ही और कोई भी पढ़ा-लिखा नौकरी वाला लड़का तो कोई उससे ब्याह करने से रहा ? तू देखने में ख़ासा पट्ठा है, जवानी उमड़ी जाती है तेरी और उस पर भी सरकारी नौकरी ।”

उस पर भी उनको घर-जँवाई चाहिए ।”

“चाचा तू मुझे बेचेगा ?”

“देख तेरे आगे नाथ न पीछे जीवड़ा ! एक ले दे के मैं बचा हूँ सो भी कितने दिन का हूँ, पैर कब्र में लटक रहे हैं और वो भी कोई नुकसान में नहीं रहेंगे ।”

“क्या ज्यादा बदसूरत है लड़की ?”

“बत्ती बुझाने पर न खूबसूरती दिखाई देती है न बदसूरती, अँधेरे में सब औरतें एक जैसी लगती हैं । बबुआ और ढाई इंच की तलाश तो मरद जात अँधेरे में भी बखूबी कर लेते हैं ।” चाचा अपनी तार्किक क्षमता पर खुद ही फ़िदा हुआ जा रहा था मानो ।

“लेकिन घर जँवाई ? उस पर भी तू कहता है कि उनकी शर्त है कि लड़की नौकरी करेगी ।”

“तू फायदे में ही रहेगा, घर जँवाई रहेगा तो उनकी ज़िम्मेदारी होगी कि तेरी पोस्टिंग एक ही जगह बनी रहे उस पर भी बड़े ओहदे का ससुरा तेरी तरक्की भी करवाता रहेगा । लड़की की तंख्वाह तो आएगी तो और भी अच्छा, तेरी तो पांचों अंगुलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में होगी बबुआ !” चाचा उसका सिर सहलाता हुआ आगे की योजना बनाने निकाल पड़ा था और रामभरोसे एक बार फिर नयी रोशनियों से भरे एल. ई. डी. की ट्यूबलाइट जलाने चल दिया था । वह अपने मन का अँधेरा खत्म कर देना चाहता था । एक सफ़्फ़ाक उजियारा भर आया था कमरे में, रामभरोसे ने आईने में बाल संवारते हुए सोचा था कल हुलिया सुधारवाने जाएगा नाई के पास । ज़िंदगी में इतना निराश होने की जरूरत नहीं थी उसे अभी । चाचा सच ही कहता है अपने अनुभवों से, उस रात भी फ़क़त ढाई इंच ही रह गया था अंत में । बेबी तो न उसके पहले थी न बाद में, हाँ... बस एक खिलवाड़ था जिसे उकसाया था उसे इसकी ऐसी-तैसी कि इत्र के थें...क यू कहके तारका दिया ।

उस शाम देशी दारू के साथ चाचा के साथ बैठकर रामभरोसे ने जी भरकर गम गलत किया था और भविष्य में कभी भी देशी दारू न पीने की कसमें खाई थी उसने । आखिर बड़े घर के दामाद को ये सब शोभा नहीं देगा, पीना भी हुआ तो अँग्रेजी पीना... चाचा बोला था ।

चाचा ने वही किया जो उसने सोचा था । अब रामभरोसे बदली होकर शहर में आ गया था । बीबी सरकारी स्कूल में हेड मास्टरनी हो चुकी थी । राम भरोसे की समझौते और कुर्बानी ने उसे जल्दी-जल्दी प्रमोशन दिलवाए थे । एक मर्तबा तो वह अपने पुराने साहब के सामने से भी ऐंठकर गुज़रा था । मन किया था बेबी के विषय में पूछ ले पर उसी वक़्त पिछली जेब से फिसलकर चप्पा नीचे गिर पड़ा था और उसका कोंसंट्रेशन लौट आया था ।

घर में पो बारह थी रामभरोसे की, ज़िंदगी की पतंग खुले आसमान में बांछे फैलाये सरर-फरर करते हुए उड़े जा रही थी । एक-एक कर तीन बच्चों को जन्मते ही बीबी अब उसकी बीबी से अधिक उसके बच्चो की माँ बन चुकी थी । सोसाएटी में बच्चों के साथ-साथ उनकी माँ को भी रामभरोसे का गंवारपन अब खलने लगा था । एक मर्तबा बड़े लड़के ने माँ से पूछ ही लिया था,

“मॉम क्या यही आदमी मिला था तुम्हें ब्याहने को ? इनसे कहो कि तौलिया बांधकर मेरे दोस्तों के सामने न आया करें, बेइज्जती करवा देते हैं ।”

“ये क्या कह रहे हो ? तुम्हारे पिता हैं, गाँव के हैं न सो हमारे कल्चर को समझ नहीं पाते ।”

रामभरोसे को ये अपनी हेटी लगती थी । घर जंवाई बनकर भी वह ससुराल के तौर-तरीके नहीं सीख पाया था । ससुराल में उसे अब भी बाहरी व्यक्ति ही समझा जाता था । ससुर गर्व से अपने सहकर्मियों के सामने अपनी पारखी नज़रों के किस्से सुनाते थे तो उसके सीने में साँप लोटने लगते थे ।

“अरे साहब मैंने तो इसे देखते ही जाल फेंक दिया था, कीचड़ में कमल था ये । मैंने वहाँ से उठाकर इसे अपने बँगले के गुलदान का इंटिरियर बनाकर सजा दिया ।”

“आपने तो पोस्ट डेटेड चेक भुनाया है साहब !” ससुर के सहकर्मी जब हो हो हो करके हँसते तो रामभरोसे चाचा को कोसने लगता किन्तु चाचा अब इस दुनिया में ही कहाँ रहा था जो वह शिकायत करता ।

“तुम गुटका क्यूँ चबाने लगी हो ?” वह अपनी पत्नी पर भड़ास निकालने की कोशिश करता ।

“तुम्हारे पैसों पर नहीं जी रही, खुद कमाती हूँ, मुझे मत बताओ कि मुझे क्या करना है कैसे जीना है समझे !” बीबी से मुंह की खाकर वह बच्चों की ओर प्रेम भरी नज़रों से देखता किन्तु वहाँ उसे अपने लिए हिकारत और अजनबियत के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था । एक ख़लिश उसके जीवन में भरने लगी थी, न बच्चो का बचपन जिया उसने न खुलकर अपनी जवानी । घर के बाहर दो जोड़ी कठपुतलियों की सजा रखी थी उसकी बीबी ने । रामभरोसे को लगता वे कठपुतलियाँ नहीं बल्कि वह खुद है जो घर के बाहर टाँक दिया गया है । उसकी जरूरत बच्चों के कॉलेज की फीस भरने और जेबखर्ची ढोने वाले व्यक्ति से इतर कुछ भी नहीं ।

“तुम अब से अलग कमरे में सोया करोगे, तुम्हारे ख़र्राटे नाकाबिले बर्दाश्त हो चुके हैं । मुझे सुबह नौकरी पर जाना पड़ता है, इसी तरह जागकर तुम्हारे ख़र्राटे सुनती रही तो मैं बीमार पड़ जाऊँगी ।”

“अच्छा...” अपना जरूरी सामान दूसरे कमरे में शिफ्ट करते हुए रामभरोसे को बीबी ने कहा था-

“ये चप्पा भी ले जाओ, क्यूँ रखते हो इसे ? भला इस जमाने में भी इसे कोई तुम्हारी तरह जेब में लिए घूमता है ? पापा भी अजब पीस हैं बाय गॉड !” बीबी की हँसी के साथ तीनों बेटों की हँसी भी आ मिली थी । रामभरोसे ने किसी को कुछ नहीं कहा था । कहता भी क्या ? जाता भी कहाँ ? और कोई दुनिया उसकी बची ही कहाँ थी अब जाने को ? नाते-रिशतेदारों के नाम पर सब मर-खप चुके थे, जो कुछ नाम के बचे भी थे वे उसके नए स्टेटस के सामने छोटा महसूस करते थे सो उन्होने रामभरोसे से दूरी बना ली थी ।

बरस-दर-बरस बीतते गए, रामभरोसे के तीनों बेटे अपनी-अपनी गृहस्थियों में रम चुके हैं । वह दादा बन चुका है पर अँग्रेजी बोलने वाले पोते-पोतियों के समक्ष वह अपना प्यार दर्शाने में सकुचाता है । छूटियों में जब घर बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भर जाता है और रात देर तक हँसी-ठहाकों का दौर चलता है तो रामभरोसे अपने कमरे में पड़ा करवटें बदलता रहता है ।

एक रोज़ अलसुबह मॉर्निंग वॉक पर जाते समय जूते पहनते समय उसके सबसे छोटे पोते ने पूछा था

“व्हाट्स दिस दादा ? वाइ डू यू केरी दिस ऑल द टाइम ?”

“बेटा ये चप्पा है, इससे जूते पहनने में सहूलियत होती है ।”

“वॉटस देट ? व्हाट्स ए चप्पा ?”

“वो चप्पा मीनिंग... मानेकी... यानिकी ?” रामभरोसे जिस चप्पा को सारी ज़िंदगी अपनी जेब में लिए घूमता रहा उसका अर्थ एक नन्ही-सी जान को समझाना उसके लिए बड़ी मुसीबत बन गई थी ।”

“दिस इस शू हॉर्न !” उसकी माँ ने रामभरोसे की दुविधा कुछ कम कर दी थी, तब तक घर के सभी सदस्य वहाँ इकठ्ठा हो चुके थे और फिर एक बार मिलकर रामभरोसे पर हँस रहे थे ।

“पापा भी न न जाने कब मॉडर्न बनेगे ?” छोटा बेटा खिसियाकर बोल उठा था ।

“तुम भी न, अब तो कुछ सुधर जाओ ! या ज़िंदगी भर गंवार ही बने रहोगे ?” बीबी ने बहुओं की ओर बेचारगी से देखा था । तभी रामभरोसे ने अपने पोते को प्यार से गोद में बैठते हुए समझाया था ।

“बेटा यह जो चप्पा है न, ये मैं हूँ ! जिस तरह इस चप्पा के तनिक से सहारे के साथ जूते पहनने में आसानी होती है न ठीक उसी तरह मुझ गंवार ने इस गृहस्थी की गाड़ी चलाने में सहायता की है ।”

“क्या आप मुझे भी एक चप्पा ला दोगे ? मैं स्कूल जाते वक़्त जूते पहनने में अक्सर देर करता हूँ ।”

“हाँ... क्यों नहीं ?” रामभरोसे ने पोते के गाल थपथपाते हुए जवाब दिया था ।

“थें... क यू !” वह बच्चा अब अपनी माँ की ओर दौड़ पड़ा था । रामभरोसे आदतन अपनी पेंट की पिछली जेब में चप्पा सरकाकर घूमने निकल चुका था । बाहर जाते समय उसकी तनी हुई पीठ ने अपने पीछे एक गहरे सन्नाटे की भयंकर चीख़ें सुनी थी ।

***