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हवाओं से आगे - 3

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

साथिन

(भाग 3)

रामप्यारी की उस घर में किसी को जरूरत नहीं थी, हाँ मगर उसका होना फिर भी सबके लिए जरूरी हो चला था | भयंकर बारिश में टपकती छत से सीली हो उठी दीवारें जब ठंड से सिकुड़ने लगती है तो अपने भीतर ज़ज्ब हो चुकी कांपती नमी से बचने के लिए किसी बाहरी आवरण की तलाश करती हैं | अम्मा की स्थिति उस घर के कबाड़खाने में पड़े उसी फटे-टूटे त्रिपाल की मानिंद हो चुकी थी जिसे जरूरत पड़ने पर रफू करके घर की निरंतर कमज़ोर होती आर्थिक स्थिति पर तान दिया जाता था और जरूरत ख़त्म होने के बाद फिर उसी अँधेरे कबाड़खाने में पटक दिया जाता था | अम्मा ने एक भरी-पूरी उम्र गुज़ारी थी । वह अपने अनुभवों की पकी रोटी को ठंडा कर-करके टुकड़ा-टुकड़ा चबा रही थी ताकि आँतों की आंतरिक कुलबुलाहट को शांत करके किसी तरह अपने दिन काट सके | वह दिन-रात बस कान्हा से ही शिकायत करती और गाती रहती । गला अब भर-भर आता है उसका, आवाज़ भर्रा जाती है फिर भी वह निरंतर गुनगुनाती रहती-

मोरे कान्हा लगाओ बेड़ा पार रे

जीवन नैया बिना पतवार रे,

रास रचाते हो गोपियों के सँग में

काहे हमसे ही करो हो तकरार रे ?

मोरे कान्हा... मोरे कान्हा !

रामप्यारी दिन-रात गुनगुनाती हुई कान्हा से मिलन की कामना करती थी । बहुएँ कहती हैं -

“अम्मा पगला गयीं, कान्हा भरी जवानी में ना आए इन्हें सँभालने तो अब इन बूढ़ी हड्डियों को पार लगाने क्या आवेंगें ?

“ना जिज्जी ऐसा ना बोलो ! भगवान ना जाने किस रूप में दरसन दे देवें किसे पतों है ?” छुटकी बहु को भगवान का डर है ।

“चल तू अभी नादान है, पगली ! सारी ज़िंदगी अम्मा भगवान के नाम पर रसोई का पहला भोग जीमती रहीं, क्या तुम नहीं समझती ये सब ?

“हांय... ये चालाकी तो हम बूझ ही नहीं पाईं ?” छूटकी वाकई इन सब से अनजान थी ।

“अब इत्ती भी भोली न बनों । दो बच्चन की अम्मा हो गयीं हों तुम भी, अब !” जिठानी की लताड़ पर छुटकी चुप नहीं रहती वह जिठानी के मुँह लगने लगती है ।

“अब तुम्हारी जैसी चालाकी तो आते-आते ही आवेगी ना, जिज्जी !” वह हँसती है तो जिठानी आँखें तरेरकर उसे कहती -

“हम्म... अब अम्मा का फ़ायदा हम ही तो नहीं लेते अकेले ? तुम लोग भी तो आधी तनख़्वाह बंटवाते हो हर महिना ।”

“चलो जाने दो जिज्जी... अम्मा बनी रहें इतनी सेवा तो हमें करनी ही चाहिए उनकी ।” छुटकी के तर्क में दम था सो बड़की हाँ में हाँ मिलाने लगती है ।

“हाँ... अभी उसी रोज़ भागी जा रही थीं । तुम्हारे जेठजी टेशन से पकड़कर लाए, बड़ी मशक्कत से ।”

“लाए क्या ? बस यूँ कहों कि रिक्शा में भर लाए वर्ना वे तो चल ही दी थीं, जिज्जी !”

“जानती नहीं कि वहाँ साथिनों की क्या दुर्गति होती है ।”

“कहाँ जाना चाह रहीं थीं वे ? द्वारिका ?

“अरी नहीं रे पगली ! द्वारिका में कोई ठौर नहीं है विधवाओं का, ज़े तो जाना माँग रहीं हैं पुरी धाम ।”

“जंन्नाथ पुरी ?

“हाँ जगन्नाथ पुरी... सुना है वहीं विधवाओं को आसरा है । हज़ारों-हज़ार विधवाएँ पल रही हैं वहाँ, मिट्टी के लोटे में उबला भात खाकर उम्र गुज़ार रही हैं बेवाएँ ।”

“तुम्हें कैसे पता जिज्जी ? छुटकी बहु हैरत से पूछती है-

“बचपन में जाना हुआ था मेरा एक दफ़े । मंदिर के पंडे एक बड़े से बाँस की खपच्ची से न जाने क्या सिर पर टक-टक मारते हैं ?

“वे भांपते होंगें जिज्जी कि किस दिमाग के भीतर कित्ता भेजा है या कि कित्ते खाली खोपड़ी लिए वहाँ चले आ रहे हैं ।” छुटकी की ठिठोली पर बड़ी बहु चिढ़ उठती है ।

“चप्प... ऐसा न है, वे उनका आशीर्वाद देने का तरीका होवे है, पगली ! कभी जाओ तो देखो, क्या बेक़द्री है वहाँ ? घर से भाग आई या फिर समाज से दुत्कारी गयीं विधवाओं की... ख़ासकर बाल विधवाएँ, ना घर की न घाट की... ना विधवा ना सुहागिन, बस दासियाँ होकर जिनगी काट रही हैं ।”

“जिज्जी पर अम्मा को क्या डर अब इस उम्र में ? वे करेंगी क्या वहाँ जाकर ?

“जाएँगी और उबला भात खाएँगी ? यहाँ हमपे एतबार ना है उनकों ? अरे उनकी औलादें हैं हम अगर उनका पैसा खा भी लेंगें तो कोई ग़ज़ब हो जाएगा ? आख़िर हमारा भी कोई हक़ है कि नहीं उनके पैसों पर ? उनके बाद हमें ही तो मिलेगा सब ।”

“जिज्जी ! तुम तो अभी से ही हक़ जमाने लगी हो ।”

“क्यों रे छुटकी तू क्या कम निकली ? अम्मा के पैर के कड़े हज़म कर गई, जैसे हमें कुछ खबर ही नहीं ।”

“अब जिज्जी बाँट-चूंट कर खाना और बैकुंठ में जाना ।”

“ऊंह... हमने तो इत्ती-सी जूड़े की पिन ली थी तुम तो बड़े भारी कड़े डकार गयीं ।”

“चलो जिज्जी जैसे हम जानतीं नहीं ? तीन पिनें थी एक गुच्छे में | एक दांत कुरेदने की, दुसरी कान का मैल निकालने की और तीसरी बालों की ।”

“अब रहने दे ! क्यों बात बढ़ा रही हो छोटी ? अब हम दोनों मिल-बैठकर हिसाब कर लेती हैं कि कौन क्या लेगा ? देवर जी और तेरे जेठजी को भी बिठा लेते हैं साथ में, अब पहली फुर्सत में यही करना होगा ।”

“जिज्जी ! एक बात सुन लो वह अम्मा के चांदी वाले कान्हा तो हम ही लेंगीं जो अम्मा अपने मैके से लाई थीं ।”

“ले-ले तू ही ले लेना ! वैसे भी उसे अम्मा से माँगना अपनी सिर कुटाई करना है सो तू ही कर लेना बहन ।” बड़ी बहु किसी झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी ।

“और अम्मा के खाते के कागज़ात तो तुम्हीं रखकर बैठी हो जिज्जी ! हमें भी तो बताओ कि कितना पैसा इकठ्ठा है उसमें ?

“देख लियो, पुराना कुछ पड़ा होगा ? बाक़ी पेंशन तो हम बाँट ही लेवें हैं हर माह आधा-आधा ।”

“अम्मा का खर्चा तो अम्मा के पैसों से ही उठ जाता है । आर्थिक रूप से तो अब तक बोझ न बनीं वे हम पर, भविष्य में बीमार वगैरह पड़ गयीं तो देख लेवेंगें, सहेगें बोझ आधा-आधा ।” छुटकी हमेशा फ़ैसले पर आ जाती है, शायद कम उम्र की जल्दबाज़ी उसकी बातों में भी उभर आती हैं किन्तु वह एकतरफ़ा कभी नहीं सोचती । उसके फैसले में अम्मा को लेकर एक नर्म रुख हमेशा झलकता था जबकि इसके उलट बड़की बहु कुछ सख्ती से पेश आती थीं अम्मा के मामले में |

मुरारी और गोविंदा दुकान से लौटकर दोनों औरतों की आपसी उठा-पटक सुन रहे थे । दोनों भाई चुपचाप इस स्थिति का माजरा ले रहे थे | उनके दिमाग की ख़ुराफातों को औरतों की प्लानिंग ने और पुख्ता बना दिया था | गोविंदा ने मुरारी की तरफ एक अहम प्रश्न उछाला था ।

“अम्मा किसके पाले में आएँगी ?

“तुम्हें हमेशा अम्मा ने मुझसे ज्यादा प्रेम दिया है ।” मुरारी अम्मा की प्रेम तराजू में अपने पलड़े को तौलने लगा था ।

“किन्तु तुम घर के बड़े बेटे हो ये तुम्हारी जिम्मेदारी बनती है ।”

“आज के ज़माने में ये सब फ़ालतू की बातें हैं ।” मुरारी ने अपने विचारों का आधुनिक रूप गोविंदा के समक्ष रखा था ।

“सोच लो समाज क्या कहेगा ? पापा के मरने पर घर के मुखिया होने का जिम्मा उनकी पगड़ी के रूप में तुम्हें ही पहनाया गया था ।” गोविंदा के तर्क में चालाकी थी ।

“सब कुछ आधा-आधा है तो अम्मा भी बाँट ली जाएँगी । छह महीने हमारे साथ और छह महीने तुम्हारे संग रहेंगी ।”

“मंज़ूर है हमें ।” गोविंदा अपने सहमती में सिर हिलाते हुए अम्मा के दरवाजे की ओर देखने लगा जहाँ से अम्मा के कान्हा को टेरने की अटूट ध्वनि सुनाई दे रही थी ।

“ज़े अम्मा का सिर भी नहीं दुखता क्या, कसम से हमारा माथा घूमने लगता है । घर पहुँचकर भी शांति न मिले तो दिन भर का थका-हारा आदमी जाए तो जाए कहाँ ?” गोविंदा जोर-जोर से पैर पटकते हुए अपने कमरे की तरफ चल दिया था, उसके पीछे-पीछे उसकी बीबी भी भीतर दौड़ गई थी ।

“रास-लीला अपने राम को रचानी है और नाम अम्मा का लेकर देखो कैसे लोग-लुगाई दिन-दहाड़े कमरे में बंद हो लिए । तुम भी सीखो कुछ...” बड़ी बहु मुरारी की तरफ़ आँख मारते हुए मुस्कुराई थी ।

“चुहल आ रही तुमको । चलो नहाने का पानी गरम करके हमारा सिर धुलवा दो ।”

“हाँ-हाँ जैसे हम समझती नहीं ? तुम्हारे ये चोंचले भी वैसे ही तो हैं बहाने-बहाने से हमें सताने के, सिर धुलवाने के बहाने हमें....”

“अरे-अरे श... श... कुछ तो शर्म-हया रखो अब हम वह पहले वाले छोरे ना रहे और ना ही तुम नई-नवेली छोरी ?” मुरारी को अपने पुराने दिन याद हो आए थे । किन्तु बँटवारे और अम्मा का मसला उसके दिमाग में अब भी हावी था । अम्मा के पास गहने तो और होने चाहिए, कहीं ऐसा ना हो कि वह छुटके के प्रेम में उसे ही सारा ढंका-छिपा धन या गहने सौंप दें ? कोई तरकीब तो चलानी पड़ेगी... क्यों ना अम्मा का बंटवारा ना किया जाए और पूरे बारह महीने अपने ही पास रख लिया जाए ? कम-अज-कम गहने की पोटली हाथ आने तक तो ये रस्म निभाई ही जा सकती है । बाद में अम्मा छह-छह महीने की क़िस्त बाँध लेंगें ।

“क्यों जी क्या गुसलखाने में ही सो गए क्या ?” बाहर से मुरारी की घरवाली सांकल पीटने लगी तो उसे ख़्याल आया कि वह करीब एक घंटे से अपने ही विचारों में खोया बैठा था । पानी कब का ठंडा हो चुका था, उसने दो-चार लोटे उड़ेले और बाहर निकल आया था । दरअसल इन दो-चार लोटों में भरकर जल ही नहीं उसने वे विचार भी प्रवाहित कर लिए थे जो उसके दिमाग में फिलवक्त पनपे थे... दृढ़ निश्चय अब उसका सुकून बन चुका था | उसकी आँखे भारी होने लगी थी | उस रात वह जल्दी और गहरी नींद सोना चाहता था |

अगली सुबह कुछ अधिक ही नमी समेटे उगी थी । सूरज था कि निकलता ही नहीं था, हाँ... उसके चारों ओर लाल, पीले और नारंगी रंग के धधकते ओरा से जान पड़ता था कि वहीं कहीं बादलों के पीछे से उकस के अभी हाल सूरज बाहर आकर झाँकेगा और जग पर छाए अंधियारे को परे धकेलकर कहेगा कि दूर हटाओ ये उदासी । अरे... चलो देखो कि दिन चढ़ आया है | बच्चे तैयार होकर स्कूल जा चुके थे । सबने नाश्ता निबटाकर चाय के झूठे कपों की मानिंद अपने-अपने हिस्से की चिंताएं भी आँगन पर रख दी थी । मुरारी और गोविंदा दुकान जा चुके थे | बहुए कपड़ों को पछीटते हुए आपस में रोज़मर्रा की तरह बतियाने लगी थी ।

“अम्मा अभी उठी नहीं आज ?

“ना कान्हा-कान्हा की टेर, ना उपरवाले से कोई शिकवा ना शिकायतें ?

“तुमने चाय-नाश्ता तो पहुँचा दिया था न छुटकी ?

“अ... अ... उई मोरी अम्मा मैं तो बिलकुल भूल ही गई, जिज्जी !” छुटकी चिहुंकी तो किन्तु दोनों ही साथ में हाथ से धोंकना और पछीटे कपडे फेंककर एक साथ भागी | बारह बजे और अम्मा की आवाज़ भी नहीं । अजीब सन्नाटा कमरे के बाहर तक आकर फ़ैला पड़ा था | दरवाज़े को छूने भर से वह एक ओर लुढ़क गया था, भीतर अम्मा की सूनी खटिया त्योरियाँ चढ़ाए दोनों बहुओं को ताक रही थी । दीवारों की भोहों पर रात भर का क्रोध अजीब-सा अकड़ा पड़ा था |

“उई अम्मा ! ज़े क्या है जिज्जी ?

फ़र्श में यहाँ से वहाँ सिन्दूर फैला पड़ा था मानो किसी ने सिन्दूर से होली खेली हो !

“अम्मा ! ओ अम्मा... यहाँ तो कोई भी नहीं है जिज्जी ।”

“अम्मा के कान्हा भी गायब है छुटकी और वह देखो... उस संदूक का ताला भी खुला पड़ा है ।” बडकी बहु के चेहरे से हवाइयाँ उड़ने लगी थी अब |

“जांगे एक दिन तो हम जरूर जा के रहेंगे, देख लियो भैया ! तुम सभी को सोते में छोर के कट लेंगे ।” मुरारी के दिमाग में हथोड़े चलने लगे थे । हो न हो अम्मा पुरी गयीं होंगी । कागज़ात गहना-गाँठा सब गायब है, कहीं इसमें गोविंदा कई कोई चाल तो नहीं ? तमाम सवालों से मन ही मन जूझते हुए उसने गोविंदा के साथ पुरी जाकर एक-एक धर्मशाला खँगाल डाली थी किन्तु अम्मा का कहीं कोई अता-पता न चला था | थक-हारकर वे दोनों घर लौट आए थे |

छह माह बाद एक बेनामी पत्र ने उनके द्वार पर दस्तक दी थी ।

“हमऊ ठीक हैं ।"

अपना गुज़ारा खुद चलाना सीख ही लिया होगा अब तक तुम दोनों ने ! हमने सारा रुपया-पैसा धर्मशाला में दान देकर अपने बचे-खुचे जीवन के लिए एक कमरे का इंतज़ाम कर लिया है | बच्चों को बहुत प्यार ! छुट्टियों में उन्हें यहाँ लाना कभी | एक साथिन की कहानी सुनानी है |

साथिन कृष्णाप्यारी |

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