तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 14 Sapna Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 14

तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा

सपना सिंह

(14)

अप्पी को लखनऊ से आये हुये महीना भर से ऊपर ही हो गया था..... आते ही अस्वस्थ हो गई थी..... शायद मन पर जो बोझ धर लेती है उसका असर तन पर दिखने लगता है..... उसने न तो सुविज्ञ को फोन ही किया इस दौरान न तो खत ही लिखा। हर सुबह एक नामालूम सी उम्मीद जगती शायद आज सुविज्ञ का फोन आ जाये...... पर दिन बीत जाने पर फिर वही उदासी भरी खिन्नता सवार हो जाती उस पर! वह अपने को दपटती.... क्यों उसने ऐसी बेजा ख्वाहिशें पाल रखी हैं...... ये तो अपने को जान बूझकर दर्द के रास्ते पर ले जाना हुआ! एक हफ्ते से मौसा मौसी भी नहीं थे.... गाँव गये थे! अभिनव का भी न कोई फोन न कोई खत ही आया...... सभी व्यस्त हैं..... वही एक खलिहर है..... सबको याद करती हुई पड़ी है! बहुत हुआ.....

आज सुबह से ही अप्पी ने ठान लिया था अधूरी पेंटिंग को पूरी करके ही सांस लेगी। बस, भूत की तरह जुट गई बिना खाये, पीये! टेप रिकार्डर पर किशोर कुमार का गाना बज रहा था..... ओ मेरे दिल के चैन.....।’’ साथ ही खुद भी गुनगुनाती अप्पी दोपहर तक पेंटिंग में ही उलझी रही।

’’अप्पी बिटिया उठो.... अब नहाई खा लो......’’ महाराजिन ने नीचे से आवाज लगाई..

’’..... बस थेाडी देर और..... तब तक चाय ऽ ऽ.....’’ अप्पी ऊपर से चीखी।

’’हम नाई देब..... भिनसारे से चाय पी-पी के आपन आंत जलाबत बालू...,’’ महाराजिन के भुनभुनाने की आवाज ऊपर तक आ रही थी, आये द दुलहिन साहब के..... अइसन भिनभिनाती लडकी हमरे जान को छोंड़ गई हैं......’’ अप्पी ने उनकी झुंझलाहट का अंदाजा लगाया और मुस्कुरा दी! कुछ देर बाद वह चाय लेकर आ गई।

’’ओह..... मेरी प्यारी चाची।’’ अप्पी ने लाड दिखाया,’’ कसम से आपका चित्र हम जरुर बनायेंगे हम......।’’ चाची ने उसे झिड़क दिया, और यह कहते हुए नीचे चल दीं..... अबकी चाय के फरमाइस की तो ठीक नाही होई...... चुपचाप आके खाना खा जाओ....।

अप्पी फिर पेंटिंग में डूब गयी! इसी बीच महराजिन ने फिर आवाज लगाई..... अप्पी बिटिया....।’’ अप्पी ने बीच में ही उनकी आवाज काट दी’’ चाची, आप किचन बंद कर के जाओ आराम करो..... हम बाद में खा लेंगे’’ कहकर पेंटिंग से थेडी दूर हट ध्यान से देखने लगी..... होंठ गुनगुना रहे थे किशोर कुमार के साथ-साथ प्यार दिवाना होता है.... मस्ताना होता है...’’ और दिमाग सोच रहा था.... कौन सा रंग इस्तेमाल करे अंतिम स्ट्रोक के लिये, तभी दरवाजे पर एक मर्दाना स्वर गूँजा.... हर खुशी से हर गम से बेगाना होता है......,

’’अरे.....।’’ अप्पी चिहुंक कर मुड़ी..... और दरवाजे पर सुविज्ञ को खड़ा देख चित्र लिखित सी खड़ी रह गयी! उन्हें अपनी ओर बढ़ता देख कर भी वह नहीं हिली! सुविज्ञ ने आगे बढ़कर उसे बाहों में भर लिया...... अप्पी ने उनके कंधे पर अपना सिर टिका दिया- बस यही एक जगह है, जहाँ वो राहत पाती है.....

’’अप्पी......!’’सुविज्ञ ने उसका चेहरा उठाया..... उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं.....

’’तुमने पूछा नहीं...... मैं यहाँ कैसे.....?’’

’’क्या पूँछूं.....? आये होंगे अपने किसी काम से.....।’’

’’यहाँ मेडिकल काॅलेज में एक काॅन्फ्रेंस है..... वैसे वो सिर्फ बहाना है..... मै तुमसे मिलना चाहता था......।

’’यानी मेरे बारे में सोचते हैं आप।’’ अप्पी सुविज्ञ की बाहों से निकल कर शैतानी से मुस्कुराई..... उसे गहरी नजरों से देखते सुविज्ञ बिस्तर पर अधलेटे हो गये। अप्पी का ध्यान अपने हुलिये पर गया..... बाप रे कैसी फूहड़ सी बनी हुई है आज वो। सुबह से मुँह भी नहीं धुली थी.....

’’चाय पियेंगे......?’’

’’न भाई..... हम तुम्हारी तरह चाय के शौकीन नहीं हैं..... सीधे खाना खायेंगे.....।’’

’’अच्छा..... मैं देख आऊँ नीचे..... चाची ने क्या बनाया है......।’’

’’मै मिल के आ रहा हूँ उनसे..... जो बना है वही खा लूँगा.....।’’

’’अच्छा..... तो फिर मैं नहा लूँ..... सुबह से यूँ ही घूम रही हूँ.....।’’

’’हाँ..... देवीजी आपकी तारीफें मैं नीचे चाची जी से सुन आया हूँ..... खूब बेचारी को परेशान किये हो.....।’’

’’मेरी कोई बड़ाई भी करता है.....? सभी त्रस्त हैं मुझसे.....।’’ अप्पी हंसी थी और कपड़े लेने लगी थी..... नहाने जाने के लिये। उसके कपड़े बिस्तर पर ही पडे़ थे..... और सुविज्ञ उन्हीं पर पसरे थे।

’’उठिये.... मेरे कपड़े....’’ अप्पी ने उनके नीचे से तौलिया खींचा.....’’

’’हे...... भगवान क्या हालत बनाई आई है तुमने कमरे की......’’ अब सुविधा ने कमरे में नजर दौड़ाई.....। किताबें..... नोट्स, कपड़े.... सब आधे बिस्तर पर...... आधे टेबल पर......।

’’आप सोचते होंगे.... अच्छा बचा...... मैं बड़ी फूहड़ बीबी बनूँगी न.....।’’

’’हाँ..... मुझे ईष्र्या होती है उस आदमी के बारे में सोचकर जिसे ये फूहड़ बीबी मिलेगी’’

’’अच्छा जी!..... अब बातें मत बनायें और नीचे जाइये...... मै आती हूँ नहाकर......’’

’’तुम जाओ..... न..... मैं यहीं.....’’ सुविज्ञ शैतानी से मुस्कुाराये.....।

’’प्लीज.....।’’ अप्पी ने मिन्नत की’’

’’ठीक है..... जैसी आपकी आज्ञा..... आज तो हम पूरी तरह आपके रहमो-करम पर हैं...’’ सुविज्ञ ने कमरे से निकलते हुये कहा...... अप्पी नहाने चली गई! नहाकर निकलते ही उसने जल्दी-जल्दी कमरा दुरुस्त किया..... कपड़े उठाकर आलमारी में ठंूसे.....किताबें नोट्स उठाकर स्टड़ी टेबल पर जमाया..... चद्दर झाड़ कर फिर से बिस्तर पर बिछाई..... और जूठे पड़े कप उठाकर नीचे आ गई......सुविज्ञ भी जूते वगैर उतारकर दीवान पर कुशन से टेक लगाये रिलैक्स बैठे अखबार पलट रहे थे। अप्पी किचन में आ गई! उसे बड़ा अजीब लग रहा था सुविज्ञ का यहां होना..... पर, वह सहज रहने की चेष्ठा कर रही थी.....।

खाना खाकर सुविज्ञ मेडिकल कालेज चले गये..... मेरा ड़िनर वहीं रहेगा वेट मत करना...... कहकर! अप्पी पीछे छुटी सोचती रही..... क्या करे.....?

.....वह अलसाई हुई सी हाॅल ही में बैठी थी जब रोमा का फोन आया.....

.....क्या बात है..... आज यूनिवर्सिटी क्यों नहीें आई......?

’’कुछ तबियत ठीक नहीं थी.... और.....’’ अप्पी की आवाज कांप गई.....।’’

’’और क्या.....?’’

’’ड़ाँ0 सुविज्ञ आयें हैं.....।’’

’’अरे.....? लेकिन तूने तो बताया था मौसी-मौसा हैं नहीं.....--

’’ओफ..... अब उन्हें कैसे पता चलता कि वो लोग हैं नहीं...... वो तो किसी काॅन्फ्रेंस में आये हैं......।’’

’’बाई द वे तुम तो बड़ी खुश होगी..... मीरा को श्याम ने दर्शन जो दे दिये.....’’रीमा ने चुहल की.....।’’

’’पता नहीं......’’

’’माने.....’’

’’हाँ..... मुझे खुद नहीं पता की मैं खुश हूँ या फिर डरी हुई हूँ.....।’’

’’अपराजिता..... तुम ठीक तो हो.....।’’ ’’किस बात का डर है.....।’’

’’डर है..... फिर से अपने आपको उस बेचारगी में लिथड़े पाना.... जिसका एहसास..... मुझे उनसे मिलने के बाद..... फिर से उनसे बिछड़ने के बाद होता है..... मुझे लगता है..... मैं कोमा मेंचली जाती हूँ..... किसी काम की नहीं रहती...... लखनऊ से आने के बाद..... मैं जिस अवसाद से गुजरी हूँ...... अपने उस तरह होने से मुझे शर्म आती है! इस प्रेम ने मुझे कितना दयनीय बना दिया है..... रीमा! ’’अप्पी के स्वर का दर्द रीमा तक पहुँचा था.....।’’

’’अप्पी...... प्लीज...... अपने को समेटो...... ये विखराव तुम्हंे सूट नहीें करता...... चिल यार!’’

’’हूँ.... चिल.....!’’ अप्पी हँसी थी’’

’’अब आज तुम अपनी खैर मनाओ रानी..... हम कल बात करेंगे तुमसे.....। कह कर रीमा ने फोन काट दिया.....।’’

’’अब......?’’ अच्छा होता...... यूनिवर्सिटी चली गई होेती...... समय तो जैस केे बीत ही नहीं रहा..... कुछ देर टी0वी0 देखती रही..... फिर बाहर लाॅन में आकर टहलने लगी।’’

’’अप्पी बिटिया..... रात के लिये का बनाये.....,’’ महाराजिन पूछ रही थी,’’ बबुआ, आज रहिय न’’

’’चाची .... वो खाना खा कर आयेंगे आप अपने लिये जो बनाना चाहें.....’’

’’अउर बिटिया..... तू....’’

’’कुछ भी खा लूँगी...... वैसे भी दिन में देर से खाये थे.... तो भूख तो वैसे भी नहीं है.।’’

महाराजिन चली गयीं.....! अप्पी ने आवाज दी..... ’’चाची कटर दे जाइये..... कुछ काट-छाँट कर दूँ......।

फिर अप्पी देर तक पौधों की कटिंग करती रही..... अंधेरा उतरने लगा तो भीतर आ गई..... टी0वी0 खोलकर बैठ गई......! महाराजिन भी आकर वहीं बैठ गई.....

’’चाची..... सब तरफ का दरवाजा देख ली हो न..... अच्छे से बंद हैं.....।’’

’’हाँ बिटिया.....!’’ चाची सीरियल में आंखे गड़ाये बोली। अप्पी यूँ ही पत्रिकायें पलटती रही...... नौ बजे के लगभग उसने वहीं बैठे-बैठे खाना खाया! चाची भी खा-पी कर चैका समेटने चली गयीं.....। वह चैके के सामने वाले बरामदे में ही जमीन पर अपना बिस्तर बिछा कर सोती थीं। बेचारी बाल बिधवा थीं ! मौसा जी के पिता जी ने बेसहारा जान कर शरण दे दिया था। ब्राम्ह्मण थीं तो...... उन्हे चैका ही सौंप दिया गया...... अप्पी कभी-कभी उनके चेहरे को देख सोच में पड़ जाती...... आज भी उनका चेहरा चमकता था..... जवानी मे तो बहुत सुन्दर रही होंगी...... कैसा रुखा-सूखा जीवन बिताया उन्होंने..... क्या उनके जीवन में कभी किसी ने उसे रससिक्त नजरों से नहीं देखा होगा..... क्या उन्होने जीवन भर किसी पुरुष का प्रेम नहीं पाया...... पता नहीं... पर कुछ फुसफुसाहटें तो उसने भी सुनी हैं कि..... सुविज्ञ की दादी कभी-कभी अपना आपा खो देती थीं...... बौरा जाती थीं और फिर बेसाख्ता दादाजी को गरियातीं... अंग्रजी में.....तब बउराई दादी को यही मतवा संभालती...... बच्चों की देख-रेख उनकी जरुरतों का भी ध्यान रखा। दादाजी ने कुछ बीघा जमीन भी मतवा के नाम कर रखा था..... परिवार में शायद सभी दादाजी के साथ उनके रिश्ते को जानते समझते थे..... पर किसी की हिम्मत नहीं की, उस रिश्ते की आड़ लेकर कोई उनका असम्मान कर पाता...... दादाजी के जीते जी तो कोई ऐसी कल्पना कर भी नहीं सकता था..... उनके मरने के बाद भी किसी नें ऐसी हिमाकत नहीं की! अप्पी ने हमेशा उन्हे आदर पाते ही देखा.....। वो तो उन्होने अपनी परिधि स्वयं निर्धारित कर ली थी.... चैका, भण्ड़ार और उनके ठाकुर जी..... इसके सिवा और किसी से मतलब नहीं......।

अप्पी को उनके खर्राटे सुनाई देने लगे थे। रात में शायद वो किसी तरह का नशा करती थीं..... अफीम जैसा कुछ..... जिसकी पिनक में अच्छी गाढी नींद आती उनको! बाहर जब कार का हार्न बजा तो उंघती हुई अप्पी हड़बड़ा कर उठ बैठी...... घड़ी पर नजर गयी तो साढे दस बज रहे थे..... जल्दी से दरवाजा खोला...... गेट खोलने लपकी..... हद है आज कोई नहीं है..... छोटे चाचा भी छावनी पर चले गये।

***