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उजड़ता आशियाना

अनहोनी की निशानी होती है कि हमें अंदाजा नहीं होता,और जो हो जाता फिर उस से उबरने के कोई रास्ता नहीं होता।
लेकिन अक्सर जिसे हम अनहोनी कहते या समझते है वह अनहोनी नहीं हमारे द्वारा जानबूझकर की गयी गलतियों या उन्हें नजरअंदाज करते रहने का परिणाम होता है।
वक़्त अपनी रफ्तार से गुजर जाता है और छोड़ जाता है कुछ सवाल जो हमें सालों साल सताते रहते है ,उन सवालों के घेरे में न जाने जिंदगी कब अपना रास्ता बदल लेती है समझ नहीं आता।
कुछ इसी तरह का अफसाना होता है हर किसी की जिंदगी का।कुछ लम्हे जो हमें खुशी से सरोबार। कर देते है तो कुछ ओ जिन्हें हम कभी दुबारा याद करना नहीं चाहते।
आज एक ऐसा घटना  घटा जिसने मुझे विवश कर दिया कि मैं अपने अतीत में झाँक कर देखूँ क्या मैंने पाया और क्या खोया।
एक मध्यम वर्ग का परिवार आज कमोबेश इन सारी विवशताओं से दो चार होता है जिस पर उसका कोई वश नही होता।अपनी जवानी के दिनों में जिस सुरक्षित भविष्य की कामना करते हुए अपना सबकुछ अपने बच्चों और उनके भविष्य निर्माण में लगा देता है वही उम्र के उस मोड़ पर जब किसी सहारे की जरूरत होती तो खुद में इतने व्यस्त हो जाते है कि पीछे मुड़कर देख भी नही पाते।
धन की भूख और उसे अधिक से अधिक पाने की कमान मानव के मस्तिष्क को इतना संक्रमित कर चुका है कि आज मानवीय संवेदना, सामाजिक जुड़ाव और नैतिक मूल्यों का दिन प्रतिदिन नाश होते जा रहा है।ऐसा लगता है हम पुनः मानसिक रूप से आदिमानव बनते जा रहे हैं।
विकास की ये विनाशक गति हमें मानवता की मूल सिद्धांतों एवं आदर्शों से दूर करते जा रहा है अगर ये सब इसी तरह चलता रहा तो वो दिन दूर नही जब इंसान एक रक्त और मांस से निर्मित पुतला मात्र बनकर रह जायेगा।
आधुनिकता  का ये मतलब कदापि नही हो सकता कि हम अपने मूल स्वरूप को ही खत्म कर लें।आधुनिक विचारधारा पूवर्जों की सोच को परिष्कृत करने के लिए है ना कि आधुनिकता के नाम पर मानवीय मूल्यों  को नष्ट करते रहना।लेकिन यह बहुत ही कटु एवं दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि हम उन चीजों के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं जो हानिकारक है।हमारी यही प्रवृत्ति मानव सभ्यता के लिये अभिशाप बनते जा रही है  और एक असुरक्षित भविष्य की ओर ले जा रही है।बुद्धिमत्ता तो इसी में है कि हम समय से पूर्व सचेत हो जाएं।
प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, अतार्किक उपयोग ,प्रकृति के विरुद्ध  किये गए कार्यों का दुष्परिणाम हमारी कल्पना से ज्यादा भयंकर और घातक होता है ये हम बार बार महसूस कर भी रहे हैं।इतना तो तय है चाहे हम कितना भी यांत्रिक अविष्कार कर लें परन्तु जब प्रकृति अपना प्रचंड रूप में  विनाश करने पर तूल जाती है तो हम उसे रोकने में अक्षम रहते हैं और हमेशा उसके  सामने बेबश नजर आते है।
समय के साथ बदलाव नितातं आवश्यक है अगर ऐसा नही हुआ तो समय मानव सभ्यता को इतिहास के पन्नों तक सीमित कर देगा।आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित धरती प्रदान करना हम सब का सामूहिक दायित्व है।जिसका निवर्हन हर मानव को करना चाहिए।

  

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