पथ भाग ३ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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पथ भाग ३

यदि वे तुम्हें कोई सलाह दे तो अच्छी तरह सोच समझकर ही कोई निर्णय लेना। यदि सच्ची मित्रता और ईमानदारी मिल जाती है तो जीवन के अधिकांश अभाव स्वमेव समाप्त हो जाते हैं।

जीवन में यदि तुम सच्चा मित्र चाहते हो तो तुम स्वयं अच्छे मित्र के गुण अपने में विकसित करो। तुम्हारे दादा जी कहा करते थे कि वह उद्योगपति बहुत भाग्यवान होता है जिसे वकील, डाक्टर एवं राजनीतिज्ञ सच्चे मित्र के रुप में प्राप्त होते हैं एवं उचित समय पर उचित सलाह देते हैं। वे इस कथन को सत्य करके दिखलाते हैं कि परहेज उपचार से बेहतर होता है। वे आपको वर्तमान व भविष्य में होने वाली गलतियों से सचेत कर देते हैं। हम स्वस्थ्य, कानून सम्मत जीवन जियें यही हमारा लक्ष्य रहना चाहिए। जीवन में उद्योग में सफलता के लिये कोई आवश्यक नहीं है कि आपके पास बहुत बड़ी पूंजी का भण्डार हो। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें थोड़े से संसाधन जुटाकर भी कड़ी मेहनत और परिश्रम के बल पर बहुत बड़ी सफलताएं प्राप्त की गईं हैं। नदी अपने उद्गम में एक पतली सी रेखा होती है। वह धीरे-धीरे आगे बढ़कर विशाल रुप लेती है। किसी ने सच ही कहा है-

अगर न देते साथ कहीं निर्झर-निर्झरणी,

तो गंगा की धार क्षीण रेखा रह जाती।।

यदि हमारी नियत साफ हो, हृदय में ईमानदारी हो, तन में परिश्रम करने की क्षमता हो, मन में धैर्य हो, मस्तिष्क में विवेकपूर्ण मनन व चिन्तन की क्षमता हो तो व्यक्ति सकारात्मक सृजन करके मिट्टी से भी सोना बना सकता है। प्रसिद्ध उद्योगपति धीरुभाई अम्बानी का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने बचपन में पैट्रोल पंप पर भी नौकरी की थी। सूत के व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश करके अपने अथक परिश्रम, लगन एवं राष्ट्र-प्रथम की भावना से वे देष के प्रमुख उद्योगपति बने। आज अखिल भारतीय स्तर पर जो भी उद्योगपति जैसे टाटा, विड़ला, बांगड़ आदि स्थापित हैं उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत बहुत छोटे स्तर से की थी। वे लगातार संघर्ष करके आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं। उन सभी ने हमारे देश की सभ्यता, संस्कृति एवं संस्कारों का संरक्षण किया।

मैंने पंकज को अपने अनुभव के अनुसार बताया कि आज से दस वर्ष के बाद तुम्हें श्रमिक मिलना बहुत कठिन हो जाएगा। आज उनके बच्चे भी अच्छे स्कूलों में अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। वे बड़े होकर मजदूरी नहीं करेंगे। इसीलिये हमें अपने उद्योगों का अधिक से अधिक मशीनीकरण करना होगा।हमारी सरकार भी स्वरोजगार को प्रेरित करने के लिये अरबों रूपया खर्च कर रही है परन्तु समुचित मार्गदर्शन के अभाव में इसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है और बेरोजगारी की समस्या वैसी की वैसी बनी हुई है।

मेरे एक मित्र ने स्वरोजगार के संबंध में युवाओं में जन चेतना जागृत करने हेतु बहुत काम किया है। परन्तु उन्हें जितनी अपेक्षा थी उतनी सफलता नहीं मिली। सरकार प्रधानमन्त्री स्वरोजगार योजना में जो पैसा दे रही है उसका एक हिस्सा भ्रष्टाचार के कारण व्यवस्था ही खा जाती है। इसके पश्चात जिन्हें यह रूपया मिलता है वे इसे उपहार समझकर डकार जाते हैं और कुछ दिनों के बाद ही वहीं खड़े होते हैं जहां वे थे। इसके साथ ही वे ब्लैक लिस्टेड भी हो जाते हैं।

सरकारी तंत्र में नौकरियों के अवसर प्रतिवर्ष कम होते जा रहे हैं और यही स्थिति निजी क्षेत्र में भी मशीनीकरण एवं आधुनिकीकरण के कारण होती जा रही है। देश में बेरोजगारी समाप्त करने के लिये स्वरोजगार ही एकमात्र विकल्प है। यदि इस दिशा में सही कदम, सही सोच व सही माध्यम हो तो हमारी युवा पीढ़ी आर्थिक रुप से सम्पन्न हो सकती है। आज केन्द्रिय शासन का करोड़ों रूपया स्वरोजगार योजना के क्रियान्वन में खर्च हो रहा है परन्तु इनके हितग्राहियों द्वारा निर्मित उत्पादन को बेचने के लिये कोई भी शासकीय एजेन्सी नहीं है। इसके कारण प्रतिस्पर्धा में ये बड़ी-बड़ी कम्पनियों के आगे टिक नहीं पाते हैं और अपना अस्तित्व गंवा बैठते हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है कि जिस समय हमारे कारखाने का विवाद समाप्त हुआ था और छटनी के बाद कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी एवं मुआवजे का भुगतान कर दिया गया था उसके कुछ समय बाद ही वे श्रमिक मेरे पास आये और उन्होंने अपनी समस्या बतलाई थी। उनका कहना था कि जो रूपया उन्हें मिला है वह तो धीरे-घीरे समाप्त होता जा रहा है और यदि ऐसी ही स्थिति रही तो वह धीरे-धीरे पूरा समाप्त हो जाएगा और उसके बाद उनके परिवारों का भरण-पोषण कठिन हो जाएगा। वे मुझसे मार्गदर्शन चाहते थे कि वे क्या करें जिससे उनकी रोजी-रोटी की समस्या हल हो जाए। मैंने उन्हें अपने मित्र के पास भिजवाया था। उनकी सलाह और सहयोग से उन श्रमिकों ने छोटे-छोटे काम प्रारम्भ किये। आज वे उन कार्यों को कर रहे हैं और समाज में सम्मान पूर्ण जीवन जी रहे हैं।

हमें उद्योग में अलग से समय देना चाहिए क्योंकि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। हमारा उद्योग के साथ-साथ सर्वांगीण विकास भी होना चाहिए। हमें समय निकालकर साहित्य, कला, संगीत, जनसेवा आदि को भी समय देना चाहिए। तभी हम जीवन के वास्तविक स्वरुप का दर्शन कर सकेंगे। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कनफ्यूसियस ने कहा था कि व्यक्ति अपना आधा जीवन धन कमाने में खर्च कर देता है और शेष आधा जीवन अपने स्वास्थ्य को बचाने के लिये धन को खर्च करने में कर देता है। जब वह मृत्यु शैया पर होता है तब उसे जीवन का कड़ुवा सच समझ में आता है कि वह न ही धन बचा सका और न ही स्वास्थ्य। उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि उद्योग के विकास के साथ-साथ हमें अपना समय जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी देना चाहिए। तभी समाज में हमारा मान-सम्मान के साथ स्थान बन सकता है।

हमारा देश प्राचीन काल से ही उद्योग व्यापार में विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखता था। हमने शून्य का अविष्कार कर विश्व को गणित का ज्ञान दिया। उद्योग गणित का ही खेल है। जिसे गणित का ज्ञान न हो वह उद्योग के क्षेत्र में कभी सफल नहीं हो सकता।

उद्योग को सफलता पूर्वक चलाने के लिये हमें सजग रहकर त्वरित निर्णय लेना पड़ता है। यदि हमारा चिन्तन सही दिशा में नहीं है तो चिन्ता को जन्म देने लगेगा। और चिन्ता चिता की ओर खींचने लगती है। सांसारिक संबंधों में हमें सावधान रहना चाहिए और ईश्वर के प्रति समर्पण और विश्वास होना चाहिए। जीवन में अच्छा और बुरा समय आता और जाता रहता है। यदि हम ईमानदारी से अपना कर्तव्य करें, ईश्वर के प्रति हमारे मन में सच्ची आस्था हो तो हमें उसकी मदद स्वमेव ही मिल जाएगी और इससे हम जीवन की कठिनाइयों को पार करते हुए सफलता की ओर अग्रसर होंगे।

मैंने पंकज को एक गम्भीर एवं गहरी बात समझाई कि हम अपने परिवार के प्रति कितने भी आशावान हों लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे काम वही आएगा जो हम अपने श्रम से प्राप्त करेंगे। मैंने देखा है कि जो लोग यह सोचकर कि जब भी उन्हें आवश्यकता होगी उनकी पत्नी और बच्चे उनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे, ऐसा सोचकर अपना पूरा धन अपनी पत्नी और बच्चों में बांट देते हैं उनको दुख और निराशा ही हाथ लगती है। जीवन की वास्तविकता बहुत कठोर है। पत्नी से भी धन मांगने पर हमको ऐसा उत्तर मिल सकता है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। उस समय हम स्वयं को कितना भी अपमानित अनुभव करें और उन दिनों की याद दिलाएं जब हमारे धन पर पूरा परिवार चलता था और सारे सुखों का उपभोग कर रहा था, यह सुनने के लिये किसी के पास समय भी नहीं होगा और हम ठगा सा अनुभव करते रह जाएंगे। इस संबंध में फिल्म उपकार की ये पंक्तियां आज भी सामयिक हैं-

कसमें, वादे, प्यार, वफा सब

बातें हैं बातों का क्या ?

कोई किसी का नहीं ये झूठे

नाते हैं नातों का क्या ?

इसलिये हमें स्वयं सावधान रहना चाहिए और धन के संबंध में अपनी निर्भरता अपनी संतानों और अपनी पत्नी पर भी नहीं रखना चाहिए। हमको अपनी वृद्धावस्था के लिये अपनी पूंजी अलग जोड़कर रखना चाहिए।

मुम्बई के पैडर रोड में जसलोक हास्पिटल के पास एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक व्यक्ति रहते थे। वे जितने बुद्धिमान थे उतने ही दयालु भी थे। उसी इमारत के पास एक सन्यासी रहता था। वह दिन भर ईश्वर की आराधना में व्यस्त रहता था। मोहनलाल जी के यहाँ से उसे प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा कई दिनों से चल रही थी। एक दिन उस सन्यासी ने भोजन लाने वाले को निर्देश दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह जानकर मोहनलाल जी तत्काल ही उसके पास पहुँचे और उससे उन्होंने बुलाने का प्रयोजन जानना चाहा। सन्यासी ने कहा- आज आपके भोजन के स्वाद में अन्तर था। जो मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं। मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों और पत्नी के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मेरी आवश्यकताएं तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुशी-खुशी कर देंगे। सन्यासी ने यह सुनकर निवेदन किया कि आप अपनी संपत्ति के तीन नहीं चार भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आपको जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

मोहनलाल जी यह सुनकर मुस्कराये और बोले- हमारे यहां सभी में आपस में बहुत प्रेम है। मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बाद मोहनलाल जी वहां से विदा हो गए। बाद में जब उन्होंने संपत्ति का वितरण किया तो उसके तीन ही हिस्से किए और वे अपनी पत्नी और बच्चों में बांट दिये।

कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा। फिर उन्हें अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। मोहन लाल जी की कुछ माह में उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गया और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़कर बाहर आ गए। वे जाने के पहले उस सन्यासी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा कैसे आए ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया- कि मैं प्रकाश से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाश लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त का सकूं। सन्यासी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा- मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाश किरणों के समान प्रकाशवान होकर औरों को प्रकाशित करने का प्रयास करो।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। जिन्होंने तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार किया है उनको भी समुचित शिक्षा मिलनी चाहिए। ऐसा कहकर उस सन्यासी ने लाखों रूपये जो उसके पास जमा थे वह मोहनलाल जी को दे दिये।

मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी तो थे ही बुद्धिमान भी थे। उनकी बाजार में साख भी थी। उन्होंने बाजार में अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया। इस बीच उनके दोनों लड़कों ने अपनी माँ का धन भी हड़प लिया। बाद में आपस में भी उनमें नहीं पटी। अपने व्यापार को चैपट कर लिया। यहां मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। वे उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे। मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा- इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं वे इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उस सन्यासी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उसी सन्यासी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे उस सन्यासी के पास पहुँचे तो सन्यासी ने यह कहते हुए उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया कि जो कुछ तुमने किया है उसका फल भोगो।

सामाजिक उन्नति और क्षेत्रीय विकास में उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में उद्योगों का योगदान होना चाहिए। हमारे नैतिक चरित्र के उत्थान और जनजागृति में भी उद्योगपति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कुछ साल पहले कुछ समाजसेवी नगर में पीने के पानी की समस्या हल करने के लिये तुम्हारे दादा जी के पास आये। वे एक ट्यूबवैल खुदवाना चाहते थे और इसमें लगने वाली राशि दादाजी से चाहते थे। इस जन कल्याण के कार्य के लिये तुम्हारे दादाजी ने ग्यारह ट्यूबवैल खुदवाने का पैसा दे दिया। तुम्हारे दादाजी की सोच थी कि हमारे पास पैसा है तो जनहित के कार्य में उसे खर्च करने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए। अच्छे कार्य पर खर्च करने से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों प्रसन्न होती हैं।

मानवीयता का परिष्कृत स्वरुप होता है कि हमारे द्वारा किसी का हित हो। इससे अच्छी जीवन में दूसरी और कोई बात नहीं होती। इससे हमें आत्म संतोष और मन में प्रसन्नता प्राप्त होती है जिससे असीम शान्ति का अनुभव होता है।

मैंने पंकज को दूसरे उदाहरण के रुप में एक घटना के विषय में बतलाया। हमारे कारखाने में एक बार एक श्रमिक बेहोश हो गया। हमारे जनरल मेनेजर ने तत्काल एम्बुलेन्स को फोन किया। उसी समय अचानक ही तुम्हारे दादाजी कारखाने पहुँचे। उन्होंने कारखाने के मुख्य द्वार पर ही इस दुर्घटना की जानकारी मिल गई थी। वे तत्काल बिना समय गंवाये सीधा अपनी कार में बैठाकर, अपने जनरल मैनेजर को साथ लेकर एम्बुलेन्स की प्रतीक्षा किये बिना उस मजदूर को शासकीय चिकित्सालय में ले गए। वहां चिकित्सकों ने बतलाया कि अगर थोड़ी देर और हो जाती तो उस मजदूर का बचना मुश्किल था। उस मजदूर का परिवार आज भी तुम्हारे दादाजी का एहसान मानता है। उनके इस त्वरित निर्णय का मजदूरों पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार हमें अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।

एक बार सरस्वती जी और लक्ष्मी जी एक साथ भ्रमण पर निकलीं। लक्ष्मी जी को देखकर सभी उनके चरणों में नमन करने लगे और उनकी कृपा पाने के लिये अनुनय विनय में व्यस्त हो गए। यह देखकर सरस्वती जी अपनी उपेक्षा से दुखी हो गईं। माँ लक्ष्मी जी इस बात को भांप गईं। उन्होंने श्रृद्धालुओं से कहा- अरे मूर्खो ! पहले सरस्वती को प्रणाम करो! ये शिक्षा एवं ज्ञान की देवी हैं तथा इनके बिना मैं अधूरी हूँ। मेरा आशीर्वाद उसे ही मिलता है जिस पर इनकी कृपा होती है। आदमी को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। उसने उनसे क्षमा मांगी और उनके चरणों की वन्दना की। ऐसी किंवदन्ती है कि ये दोनों तभी से एक स्थान पर वास नहीं करतीं लेकिन जिन पर प्रभु की कृपा रहती है उन पर दोनों की कृपा रहती है। यह व्यक्ति के जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण सीढ़ी है। जब तक व्यक्ति पर इन दोनों की कृपा नहीं होगी तब तक उसका जीवन अपूर्ण ही रहेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम पर इन दोनों की कृपा हो और तुम्हारा जीवन यशस्वी हो।

उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि तुम्हें हमेशा जागरुक रहना होगा। यह प्रतिस्पर्धा स्वस्थ्य हो तो दोनों ही पक्षों को लाभ होता है। पर ऐसा होता नहीं है। कोई भी एक पक्ष यदि अपनी उन्नति के स्थान पर दूसरे को हानि पहुँचाने की नीयत से कार्य करने लगे तो उससे दोनों ही पक्षों को हानि होती है।

मेरे एक उद्योगपति मित्र हैं। वे दो भाई हैं। उनमें से एक भाई के अनेक उद्योग होने के कारण उसके पास धन की प्रचुरता थी। उसने अपने दूसरे भाई के कारखाने को बर्बाद करने के लिये अपनी उत्पादन लागत से भी कम दामों में माल बेचना प्रारम्भ कर दिया। इससे उसके भाई के कारखाने का माल बिकना बन्द हो गया। दो तीन साल में ही उसका भाई कारखाने की हानि को बर्दास्त नहीं कर पाया और उसे परेशान होकर अपना उद्योग बन्द कर देना पड़ा। इससे दूसरे भाई का उस क्षेत्र पर एकाधिकार हो गया। फिर वह मनमाने दामों पर अपना माल बेचकर और अधिक धन कमाने लगा। व्यापारिक दृष्टि से इसमें कोई बुराई नजर न आती हो पर नैतिक दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता। हमारा दृष्टिकोण जियो और जीने दो का होना चाहिए अर्थात हम भी समृद्ध हों और दूसरे को भी समृद्ध होने दें। जीवन में बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। जब किसी भी क्षेत्र में तरक्की करके ऊंचाई पर पहुँचने लगता है तो उसके निकट संबंधी ही उससे मन ही मन द्वेष रखने लगते हैं। एक उद्योगपति के बेटे को जिसकी बहुत अच्छी आमदनी थी उसके अपनों ने ही धीरे-धीरे जुआ, सट्टा, शराब और व्यभिचार की दिशा में मोड़ दिया। इससे उसका धन तो बर्बाद हुआ ही उसके परिवार में भी विवाद की स्थिति बन गई और उसकी प्रगति रूक गई। इसलिये उद्योग में प्रगति के साथ-साथ इस दिशा में भी सतर्क रहना चाहिए।

हमें देश के मूलभूत कानूनों का भी ज्ञान होना चाहिए और अपने कार्यों का प्रतिपादन कानून की सीमा में रहकर करना चाहिए। उदाहरण के लिये भविष्य निधि, ई एस आई, आयकर, संपत्तिकर, एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि का भुगतान नियत समय पर करना चाहिए। इससे हम निश्चिन्तता के साथ अपना कार्य कर पाएंगे। इनके समय पर भुगतान न होने पर हम व्यर्थ ही कानूनी मामलों में उलझते हैं, जिससे आर्थिक हानि, श्रम व समय की बर्बादी, प्रतिष्ठा पर आघात और तनाव के कारण हमारा दैनिक कामकाज भी प्रभावित होता है। हम कभी भी कोई भी शपथ-पत्र दे तो उसमें यह नहीं लिखना चाहिए कि मेरी जानकारी के अनुसार यह सत्य है वरन् लिखना चाहिए कि मुझे जो जानकारी प्राप्त हुई है उसके अनुसार यह सत्य है। इसी प्रकार किसी भी प्रकार की शंका होने पर गवाही देते समय न्यायालय से और अधिक समय की मांग कर लेना चाहिए। अनुमान से कोई भी गवाही नहीं देना चाहिए। समय मांगकर अच्छी तरह याद कर लेने के बाद ही गवाही देना चाहिए।

उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में हमें महिलाओं को भी आगे आने के लिये प्रेरित करना चाहिए। यह देखा गया है कि आर्थिक प्रबंधन एवं प्रशासन के क्षेत्र में भी महिलाएं पुरूषों से कहीं भी कम नहीं हैं।

पंकज ने कारखाने में नयी परम्परा प्रारम्भ की थी। इसके अंतर्गत अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच माह में एक बार बैठक प्रारम्भ की गई थी। इससे उनके विभिन्न सुझाव, शिकायतें एवं कार्यप्रणाली में परिवर्तन इत्यादी विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। इसका बहुत बड़ा लाभ यह भी होता था कि उनमें आपस में सामंजस्य स्थापित होता था जिससे उनके बीच के संबंधों में निकटता आने लगी। कारखाने की कार्यप्रणाली में भी नये-नये प्रयोग होने लगे। एक दिन हमारे महाप्रबंधक ऐसी ही बैठक के बाद हमारे पास आकर कहने लगे कि लोग अपने अधिकारों के प्रति तो सजग हैं किन्तु वह सजगता अपने कर्तव्यों की पूर्ति में नहीं दिखलाते। यह एक गम्भीर विषय है।

आज सभी जगह ईमानदारी, सच्चाई एवं नैतिकता का द्रौपदी के समान चीर हरण हो रहा है। भ्रष्टाचार और मंहगाई बढ़ रही है। हमारे समाज में युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव जैसे न जाने कितने बुद्धिमान और बलशाली बेबस सिर झुकाकर बैठे हैं। वे न जाने किस उलझन में हैं। द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म और कर्ण जैसे अनेक शूरवीर इस पतन को देखकर भी चुप रहकर मानो उनका समर्थन ही कर रहे हैं। शकुनी मामा घर-घर में पैदा हो चुके हैं और विवादों को जन्म दे रहे हैं। देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे धृतराष्ट्र और गान्धारी के समान अपने अन्धत्व का बोध करा रहे हैं। जनता अपेक्षा कर रही है कि कोई साहसी पराक्रमी अर्जुन के समान रथ पर सवार हो एवं सदाचार सच्चरित्र नैतिकता पर आधारित जीवन का पुनर्जन्म हो। देश में क्रान्ति का शंखनाद हो और भ्रष्टाचार, मंहगाई व हरामखोरी जैसे कौरवों का अन्त हो।

मैंने अपने जी. एम. से कहा- कि पुराने समय में मजदूरों व अधिकारियों का वेतन बहुत ही कम था। समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदलती जा रही हैं। जिससे श्रमिकों को अपने श्रम की जानकारी एवं अधिकारियों को अपनी ड्यूटी की उपयोगिता समझ में आती जा रही है। अब श्रमिकों का आर्थिक शोषण समाप्त हो चुका है। उन्हें उचित मजदूरी प्राप्त हो रही है। वहीं अधिकारी वर्ग भी अपनी कार्यकुशलता के अनुसार वेतन प्राप्त करने लगे हैं। इस प्रकार अधिकारों के विषय में सभी जाग्रत हो गए हैं और धीरे-धीरे कर्तव्य के प्रति भी वे सजग हो जाएंगे। अब हम देखते हैं कि श्रमिक आन्दोलन और कारखानों में हड़तालें कम हो गईं हैं। इस सब का मूल कारण उनके वेतन में समुचित वृद्धि होना ही है। अधिकार और कर्तव्य के संबंध में मेरे एक मित्र ने व्याख्या करते हुए बताया कि गाय बछड़े को जन्म देती है। गाय का दूध वैज्ञानिकों के अनुसार उसका श्वेद होता है एवं इसे सेवन करने का पहला अधिकार उसके बछड़े को ही होना चाहिए किन्तु व्यवहार में हम देखते हैं कि उसका दूध निकालकर या तो बाजार में बेचा जाता है या फिर हम अपने घर में उपयोग में ले आते हैं। वह बेचारा बछड़ा दूध पीने से वंचित रह जाता है। गाय को दुहने पर वह दूध दे देती है मानो अपने कर्तव्य का निर्वाह करती है। परन्तु बछड़े को दूध प्राप्त न होना अथवा कम प्राप्त होना उसके अधिकारों का हनन ही तो है। संत-मुनि अपने प्रवचनो में गाय के विषय में तो बहुत बोलते हैं परन्तु उसका दूध बछड़े को पहले पिलाओ बाद में जो बचे उसका उपयोग तुम करो ऐसी शिक्षा देते हुए कम से कम मैंने तो किसी संत को नहीं सुना। यह अधिकार और कर्तव्य के संबंध मे एक सटीक मीमांसा है।

मैं उद्योग के जीवन दर्शन के विषय में मन्थन कर रहा था कि सफलता के मूल सिद्धांत क्या हैं। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उद्योगपति को उद्योग के संबंध में लिये गये निर्णय में प्रयास करना चाहिए कि उससे किसी को दुख या पीड़ा नहीं पहुँचे। धन का उपार्जन नीतिपूर्ण ईमानदारी एवं सत्यता पर आधारित हो। उद्योग की सफलता के लिये जो भी कर्म करो उसे ईश्वर को साक्षी रखकर सम्पन्न करो। अपनी मौलिकता को कभी समाप्त मत होने दो। इन्हीं में हमारी सफलता छिपी हुई है। पंकज तुम इन सिद्धांतों पर चलोगे तो कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए सफल रहोगे। कभी-कभी बड़ी-बड़ी समस्याओं का निदान भी सरलता से हो जाता है। हमें यह सिद्धांत भी मानना चाहिए कि दान धर्म का मूल है एवं वह कभी व्यर्थ नहीं जाता है।

जीवन में धन का आगमन होता है और वह कुछ समय हमारे पास ठहर कर विभिन्न रास्तों से उसका निर्गमन हो जाता है। यदि यह निर्गमन नीति सम्मत हो तो धन फिर हमारे पास लौटकर आता है किन्तु यदि यह नीति सम्मत न हो तो उसका लौटकर आना मुश्किल ही होता है। इस निर्गमन और आगमन के बीच हमें उस तत्व की प्राप्ति होती है जिसे पुण्य कहते हैं। यह एक अटल सत्य है।

हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है जो कुछ भी है वह उस परमात्मा का है। इसका अर्थ यह है कि सब कुछ प्रभु का है और संसार उसकी मर्जी से चलता है। हमारी भूमिका एक कलाकार की है जो रंगमंच पर आता है अपनी भूमिका निभाता है और चला जाता है।

जब हम स्वयं किसी वस्तु के मालिक नहीं हैं तो हम ट्रस्टी हुए जिसका चेयरमेन भगवान है। हम अपना हाथ लगाकर शास्त्रों के कुछ मंत्र पढ़कर दान करते हैं। जब हम किसी वस्तु के मालिक ही नहीं हैं तो हमे उसे देने का क्या अधिकार है। मैं सिर्फ विधि का विरोध कर रहा हूँ। हम जो कुछ भी देना चाहते हो वह अवश्य दें किन्तु मन मे ट्रस्टी की भावना को रखकर दें। आज के समय में लोग दान करते हैं और उसके शिलालेख लगवाते हैं। ऐसा बखान करना एक अहंकार है और स्वयं को प्रचारित करने का माध्यम है। जीवन में हमें इससे बचना चाहिए। समय सदैव परिवर्तनशील होता है। सुख-दुख जीवन में आते-जाते रहते हैं। हमें समय से डरकर रहना चाहिए। इसका आदर व सम्मान करना चाहिए।

आज राष्ट्र में निर्माण की आवश्यकता है निर्वाण की नहीं। हमें सकारात्मक सृजन करके अपनी कम होती जा रही जी डी पी ग्रोथ को बढ़ाकर दस प्रतिशत के आसपास लाना होगा। तभी देश की बेरोजगारी समाप्त होकर हमारा आर्थिक संकट समाप्त हो सकेगा।

जब हमारा समय अच्छा चल रहा हो। हमारे पास धन की प्रचुरता हो तो हमें आवश्यकता से अधिक धन को ऐसी शासकीय योजनाओं अथवा बैंकों में को लगा देना चाहिए जिनमें हमारा धन भी सुरक्षित रहे और समय आने पर हम उसका सरलता से उपयोग कर सकें। उद्योग के घाटे में आने की स्थिति में यह धन हमारे घाटे को भी पूरा कर सके और हमारी आर्थिक स्थिति पर भी आंच न आये।

शासन द्वारा नये उद्योगों की स्थापना के लिये कई प्रकार की प्रोत्साहन योजनाएं, सुविधाएं एवं रियायतें दी जाती हैं। हमें इनका अध्ययन करना चाहिए और इनका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए। जैसे आप यदि एक लघु उद्योग के अंतर्गत पंजीकृत हैं और एक करोड़ तक की मशीन का क्रय कर रहे हैं तो बैंक लोन के लिये आपको किसी प्रकार की व्यक्तिगत गारण्टी की आवश्यकता नहीं होती है। यह सुविधा लघु उद्योगों के लिये वरदान है।

हमारा प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि यदि हम कारखाने से दूर भी रहते हों तो उसका उत्पादन प्रभावित नहीं होना चाहिए और कारखाना सुचारू रुप से चलते रहना चाहिए। हमें हमेशा यह प्रयास करते रहना चाहिए कि हम निरन्तर अधिकारियों के संपर्क में रहें और हमें वहां की गतिविधियों की जानकारी मिलती रहे। हमें अपने उद्योग में ऐसी व्यवस्था भी रखनी चाहिए जिसके माध्यम से हमें बाजार की गतिविधियों की जानकारी निरन्तर प्राप्त होती रहे। हमारे प्रतिस्पर्धी किस दर पर अपना माल बेच रहे हैं, उनकी गुणवत्ता कैसी है और उनकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं, इसकी जानकारी हमें प्राप्त होते रहना चाहिए। हमारे भविष्य की योजनाओं की जानकारी एवम हम अपने उद्योग में जो भी गुणात्मक परिवर्तन कर रहे हों वह गोपनीय रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हमारे अधिकारी या कर्मचारी ही यह जानकारी हमारे प्रतिस्पर्धियों तक पहुँचा रहे हों। किसी भी उद्योग में सुधार एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसका अन्त कभी नहीं होता इसलिये हमें निरन्तर अपना आन्तरिक अंकेक्षण करवाते रहना चाहिए। इससे हमें अपने धन के आगम और निर्गमन का ज्ञान होता रहेगा और हम अंधेरे में नहीं रहेंगे।

किसी भी उद्योग में सभी दिन एक समान नहीं होते हैं। उतार-चढ़ाव उद्योग में होता ही है। लाभ के साथ-साथ कभी-कभी उद्योग हानि भी देने लगते हैं। कभी-कभी तो ये सदा के लिये बन्द हो जाते हैं। समय पर तकनीकी प्रगति न होता, उत्पादन की मांग का बाजार में समाप्त हो जाना, हमारे उत्पादन का विकल्प बाजार में आ जाना, समय पर कार्यरत पूंजी उपलब्ध न करा पाना, उत्पादन लागत विक्रय मूल्य से अधिक हो जाना, प्रबंधकों एवं श्रमिकों के बीच मतभेदों का उभरना और हड़ताल आदि हो जाना आदि किसी भी उद्योग के बन्द होने के प्रमुख कारण होते हैं। किसी भी उद्योग के बन्द होने की दो स्थितियां होती हैं- पहली वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव होता है और दूसरी वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव न हो। ऐसी स्थिति में उद्योग को बन्द कर देना ही श्रेयस्कर होता है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे किसी बीमार व्यक्ति का तो उपचार किया जा सकता है किन्तु म्रत व्यक्ति का कोई उपचार नहीं किया जा सकता है।

उद्योग घाटे में धीरे-धीरे आता है और हमें उसके भविष्य का पता होने लगता है। जब उद्योग बन्द होने की स्थिति में जा रहा हो तो हमें उसे अचानक बन्द नहीं कर देना चाहिए। इससे दो बातें हो सकती हैं एक तो बाजार में हमारी जो लेनदारियां हैं वे डूब जाएंगी और दूसरा प्रबंधक और कर्मचारियों के बीच तनाव व उपद्रव हो सकता है जो हिंसक भी हो सकता है। किसी भी उद्योग को पुनः प्रारम्भ करने के लिये हमें समझौतावादी दृष्टिकोण से काम लेना चाहिए और उसके कारणों का निदान कर उद्योग को पुनः प्रारम्भ करना चाहिए।

उद्योग प्रमुख रुप से चार प्रकार के होते हैं- कुटीर उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और बड़े उद्योग। कुटीर उद्योग तो अब लगभग समाप्त होते जा रहे हैं। वे उस गुणवत्ता का उत्पादन नहीं कर पाते हैं जिस तरह का उत्पादन तकनीकी साज-सज्जा से सम्पन्न उद्योगों द्वारा किया जाता है। लघु उद्योगों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। क्यों कि प्रशासनिक घूसखोरी, भ्रष्टाचार, कार्यरत श्रमिकों के उच्च वेतन और अन्य भुगतान, गुणवत्तापूर्ण उत्पादन की चुनौती में वे दम तोड़ रहे हैं। वे ही लघु उद्योग चल पा रहे हैं जिसमें मालिक ही अधिकारी है वही कर्मचारी है वही विक्रेता है और वही माल ढोने वाला है। इसके कारण लघु उद्योगों की स्थिति बहुत खराब हो चुकी है और दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है। जबकि हमारे देश में रोजगार का सबसे बड़ा साधन कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योग ही हैं।

कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना एवं उनके सुचारू संचालन के लिये मदद करने हेतु केन्द्र और राज्य के स्तर पर अलग-अलग प्रकोष्ठ हैं। जो कि उद्योगों को तकनीकी और आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिये सहयोग देते हैं। लेकिन वे अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभा रहे हैं। क्यों कि भ्रष्टाचार ने उनकी कार्यशैली को बदल दिया है और सभी कमीशन खाने में लगे हुए हैं। अधिकांश लघु उद्योग केवल कागजों पर चल रहे हैं। लघु उद्योगों के नाम पर परमिट दिये जा रहे हैं जिनका माल बाजारों में अधिक दामों पर बेचकर ऊपर से नीचे तक लोग लूट-खसोट मचाए हुए हैं। इस प्रकार लघु उद्योगों से जो रोजगार का सृजन होना चाहिए था वह हवा हो चुका है और शासकीय सुविधाओं को कागजों पर देकर लोग तिजोरियां भर रहे हैं। ईमानदार उद्यमी ठोकरें खा रहा है और परेशान है। उदाहरण के लिये लघुउद्योग के लिये दिया जाने वाला कोयले का कोटा कागज पर दिया जाता है और अधिक दामों पर वह कोयला बाजार में बेच दिया जाता है। उसका लाभ ईमानदार लघु उद्योगों को नहीं मिल पाता है।

इस स्थिति के कारण आज केवल मध्यम और बड़े उद्योग ही बाजार में चल पा रहे हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी और साधन हैं। वे भ्रष्टाचार और स्पर्धा के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम होते हैं। इनसे रोजगार के अवसरों का उतना सृजन नहीं होता जितनी अपने देश को आवश्यकता है। इसलिये देश में उत्पादन बढ़ने के बाद भी बेरोजगारी तेजी से बढ़ती जा रही है।

उद्योग कहां लगाये जाएं ? जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो पहली बात जो सामने आती है कि उद्योग निजी भूमि पर स्थापित किए जाएं अथवा सरकार द्वारा प्रदत्त भूमि पर। यहां यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि निजी भूमि पर उद्योगों की स्थापना करने से यदि उद्योग नहीं चल पाया तो हम भूमि को बेचकर रकम का बंदोबस्त कर सकते हैं। लेकिन यदि सरकारी भूमि पर उद्योग लगाया जाए तो वह लीज पर मिलती है जिसका हम किसी प्रकार से अन्य उपयोग नहीं कर सकते। उद्योग लगाने में यह भी देखना पड़ता है कि वहां पानी, बिजली, यातायात के साधनों की पर्याप्त सुविधा हो। इसके साथ ही कच्चा माल कितनी दूरी पर उपलब्ध है और उसे प्राप्त करने में कितना खर्च करना पड़ेगा ? इसके साथ ही हमें यह भी देखना आवश्यक है कि श्रमिक जैसा कि हम अपने उद्योग में चाहते हैं, वह उपलब्ध है या नहीं। ये सभी बातें हमारे उत्पादन की लागत मूल्य निर्धारित करती हैं।

हमारे उत्पादन की खपत जिस बाजार और जिस क्षेत्र में है वह हमारे कारखाने से कितनी दूर है यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है। क्योंकि माल को पहुँचाने में लगने वाला समय, भाड़ा और टूट-फूट भी हमारे माल की कीमत में जुड़ जाती है।

देश के अनेक भागों में केन्द्रिय शासन द्वारा कर मुक्त क्षेत्र बनाए गए हैं। जैसे पूर्वोत्तर भारत में आयकर, बिक्री कर, आबकारी कर, केन्द्रिय उत्पाद शुल्क आदि में शत-प्रतिशत छूट दी जाती है। इसका लाभ भी उद्यमी उठा सकते हैं। अच्छा हो यदि शासन द्वारा देश की महिला उद्यमियों को भी इसी प्रकार की छूट दी जाए तो महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कदम होगा।

उद्योगपति को स्थानीय चेम्बर आफ कामर्स से भी निरन्तर संपर्क में रहना चाहिए। शासन द्वारा किये जाने वाल नीतिगत परिवर्तनों की जानकारी उद्योगपति को लगातार मिलती रहना चाहिए जो चेम्बर के माध्यम से ही संभव है। चेम्बर आफ कामर्स प्रायः सभी प्रमुख शहरों में स्थानीय स्तर पर स्थापित हैं। ये कुटीर एवं लघु उद्योगों एवं राज्य सरकार के बीच के सेतु का कार्य करते हैं। मध्यम एवं बड़े उद्योगपति तो स्वयं के साधनों से अपनी कठिनाइयां दूर कर लेते हैं। परन्तु छोटे उद्योग अपनी आवाज एवं सुझाव चेम्बर आफ कामर्स के माध्यम से शासन के पास पहुँचाकर उसका निदान कर पाते हैं। चेम्बर को भी अपने क्षेत्र के एक ही व्यापार या उद्योग में लगे व्यापारियों अथवा उद्योगपतियों को एक निश्चित समय सीमा में एक बार एक साथ बैठाकर सामूहिक रुप से उनकी चर्चा करना चाहिए और उसका निदान भी खोजना चाहिए।

चेम्बर आफ कामर्स का अपना कोई आय का स्त्रोत नहीं होता है। सरकार को चाहिए कि वह व्यापारी अथवा उद्योगपति द्वारा यदि कोई राशि चेम्बर को दी जाती है तो उस राषि पर उसे आयकर में छूट प्रदान करना चाहिए।

देश के सभी चेम्बर आफ कामर्स को इस विषय पर भी चिन्तन करना चाहिए कि वह आगे आने वाले पांच या सात वर्षों में अपने क्षेत्र के व्यापार और उद्योग के विकास की योजना अपने सामने रखकर काम करे। यह योजना देश के विकास के साथ समन्वय स्थापित कर तैयार की जाना चाहिए।

जापान और चीन में किये जाने वाले कुल निर्यात का पचास प्रतिशत से भी अधिक उनके यहां के कुटीर और लघु उद्योगों का उत्पादन होता है। हमें भी इस दिशा में आगे आने की आवश्यकता है। इसके बिना हम देश की बेरोजगारी की समस्या का निदान कभी भी नहीं कर पाएंगे। इस संबंध में यदि हम तुलनात्मक रुप से देखें तो जिस प्रकार हमारे यहां बीड़ी का व्यवसाय कुटीर उद्योग के रुप में चल रहा है उसी प्रकार वहां लाइटर उद्योग कुटीर उद्योग के रुप में चल रहा है और उनके यहां का बना हुआ दस रूपये का लाइटर आज पूरी दुनियां में मिल जाता है और उस पर यह भी नहीं लिखा होता है कि वह मेड इन चाइना है या मेड इन जापान।

किसी भी उद्योग को स्थानीय प्रशासन, आयकर विभाग, उत्पाद एवं वाणिज्य कर विभाग, विक्रय कर विभाग, सेवा कर विभाग, पर्यावरण विभाग, उद्योग विभाग आदि से निरन्तर संपर्क में रहना चाहिए। इसके लिये यदि आवश्यकता हो तो अपने पास एक अधिकारी की नियुक्ति करके यह कार्य उसे सौंपना चाहिए। हमें समय पर चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, विधि सलाहकार आदि की भी आवश्यकता पड़ती है।

हम जब भी कोई नया उद्योग डालें तो कम से कम दो साल तक हम किसी भी लाभ की आषा न करें। जब हम किसी भी वित्तीय संस्थान से ऋण लेते हैं, तो वे आपको आश्वासन दे देते हैं कि आपको वे कुछ ही दिनों में ऋण उपलब्ध करा देंगे किन्तु उनकी जो औपचारिकताएं होती हैं वे काफी समय लेती हैं। इसलिये हमें यह बात किसी भी उद्योग को डालते समय और भविष्य की योजना बनाते समय ध्यान में रखना चाहिए वरना हम परेशानी में पड़ सकते हैं। हमें अपने समस्त कर्मचारियों की बीमा और चिकित्सा बीमा सहित समस्त योजनाओं को क्रियान्वित करना चाहिए क्योंकि ये विपत्ति के समय न केवल श्रमिकों को लाभ प्रदान करती हैं हमें भी ऐसे समय में सहायता पहुँचाती हैं।

एक उद्योगपति को काले धन से सदैव दूर रहना ही चाहिए। तभी वह सुख और शान्ति के साथ अपना काम कर सकता है। वैसे भी इस काम को प्रमुख रुप से हमारे नेता और अफसर घूसखोरी के माध्यम से कर रहे हैं। हमें यह कार्य उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। काला धन एक उद्योगपति के जीवन मे उसकी प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी रूकावट है। आज सरकार ने आयकर कम करके लगभग तीस प्रतिशत कर दिया है। अब काले धन का उद्योगपति या व्यापारी के लिये कोई औचित्य नहीं रह गया है। यदि आप ईमानदारी पूर्वक कर देते हैं तो तीस प्रतिशत कर जाने के बाद भी सत्तर प्रतिशत आपको बचता है। जिससे आप बैंक में या अन्य वित्तीय संस्थानों में अपनी साख स्थापित करके कही अधिक रकम का प्रबंध करने में सक्षम हो जाते हैं। इस रकम से आप उद्योग को विकसित करके अपनी आय को और अधिक बढ़ा सकते हैं। सरकार को भी आयकर को कुछ और भी कम कर देना चाहिए ताकि लोग काले धन के चक्कर में ही न पड़ें। इससे सरकार का राजस्व भी कम नहीं होगा बल्कि वह और बढ़ जाएगा। वैसे भी आज देश में जो कालाधन है वह अधिकारियों और नेताओं के पास ही अधिक है।

हम दिन भर काम के उपरान्त विश्राम एवं मनोरंजन के लिये क्लब आदि जाते हैं तो हमें अपने सहयोगियों से अवसर देखकर उद्योग में आने वाली कठिनाइयों के विषय में विचार-विमर्श अवश्य करना चाहिए।

एक उद्योगपति के विषय में सभी यह जानते हैं कि उसके पास धन होता है। ऐसी स्थिति में चोर-लुटेरों का भय सदैव रहता है। इसलिये हमें अपनी संपत्तियां बैंक लाकर आदि में सुरक्षित रखना चाहिए।

विभिन्न शासकीय संस्थानों से संपर्क के कारण यदि किसी संस्थान के किसी भी प्रकार के विवाद हों तो हमें समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए अपना काम निकाल लेना चाहिए। इससे समय की भी बचत होती है और हम व्यर्थ के विवादों से बचकर न्यायालयीन चक्करों से बच जाते हैं।

हमारा ड्राइवर और रसोइया जो महत्वपूर्ण होते हैं, जब हम किसी से वार्तालाप कर रहे होते हैं तो वे सबसे अधिक करीब होते हैं। इसलिये ड्राइवर और रसोइया ऐसा होना चाहिए जिसे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न हो और उनके सामने या तो हम गोपनीय मुद्दों पर बात ही न करें अथवा करें तो अंग्रेजी में करें ताकि हमारी बात की गोपनीयता बनी रहे।

जीवन में अच्छी और बुरी घटनाएं होती रहती हैं। हमें प्रत्येक घटना का विश्लेषण करना चाहिए। इस विश्लेषण के द्वारा हमें जीवन के प्रत्येक पहलू को ध्यान में रखते हुए इनका सकारात्मक सृजन में उपयोग करना चाहिए।

आज कार्यक्षेत्र इतने व्यापक और विस्तृत हो गए हैं कि हमें लगातार सफर करना पड़ता है। हमें सफर में सदैव सावधान रहना आवश्यक है। हमारा सहयात्री कैसा है इसका ध्यान रखते हुए सतर्क रहने की जरूरत है। सफर मे हमारे महत्वपूर्ण सामान की सुरक्षा का हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए। मैंने पंकज को बताया कि हमारे आसपास का वातावरण हमारे मन व मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता है। इससे हमारे निर्णय लेने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। मैंने उसे एक उदाहरण बतलाया- यमलोक में यमदूतों ने यमराज से निवेदन किया कि महाराज पृथ्वी लोक का वातावरण बहुत खराब हो गया है। पहले लोगों में ईमानदारी, सदाचार एवं विनम्रता थी इसलिये उनका समय पूरा हो जाने पर जब हम उन्हें लातेे थे तो वे सज्जनता के साथ आ जाते थे। अब जब हम जीवों को लाते हैं तो वे रास्ते में हमें बरगलाने का प्रयास करते हैं। तरह-तरह के बहाने बताते हैं, यहां तक कि वे यमलोक की व्यवस्थाओं के प्रति भड़काने तक का प्रयास करते हैं। यमराज बोले- जैसा वातावरण होता है वैसा प्रभाव अवश्य पड़ता है पृथ्वी लोक के ऐसे वातावरण पर मैं अवश्य विचार करुंगा। हमें जीवन में अच्छे लोगों के बीच अच्छे वातावरण में रहना चाहिए। तभी हमारे मन व चेतन में सकारात्मकता आती है और हमें जीवन में सफलता मिलती है।

भारतीय संस्कृति में प्रायः प्रत्येक शुभ अवसर पर दीपक प्रज्ज्वलित किये जाने की परम्परा है। मिट्टी के बने दीपक में तेल भरकर जब बाती प्रज्ज्वलित की जाती है तो वह प्रकाश बिखराती है। वह अंधेरे को दूर करती है। जब तक तेल रहता है बाती जलती रहती है जब तेल समाप्त हो जाता है तो दीपक बुझ जाता है। मानव जीवन भी किसी जलते हुए दीपक के समान होता है। जन्म के बाद हमारी स्थिति मिट्टी के दीपक के समान होती है। हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारे संस्कार इस दीपक में डाले गये तेल के समान होते हैं। हमारे कर्म बाती के समान हैं जिनमें हमारी शिक्षा और संस्कारों के तेल का प्रभाव होता है और समाज को प्रकाशित करता है। यह हमारे जीवन के अंधकार को दूर करता है। बाती जल जाए या तेल खत्म हो जाए तो जीवन भी समाप्त हो जाता है। इसी तरह एक दिन यह शरीर कार्य करना बन्द कर देता है और जीवन समाप्त हो जाता है। यह एक निरन्तर चलने वाली स्वाभाविक क्रिया है। मानव एक दिन यह तन छोड़कर अपने धर्म और कर्म को साथ लेकर अनन्त में विलीन हो जाता है। मानव जीवन और दीपक का जीवन एक समान है। हमारा जीवन दीपक के समान ज्योतिपुंज बनकर समाज एवं राष्ट्रहित के काम में आये यही अपेक्षा है।

जीवन में बुद्धिमानी एवं अवसरवादिता में टकराव होता है। समय और भाग्य भी ठहर गये हैं ऐसा प्रतीत होता है। मानव अपने उद्देश्यो से भटककर कल्पनाओं में खो जाता है और वास्तविकता के धरातल से दूर होकर खुशी व प्रसन्नता से विमुख हो जाता है। इसे ध्यान से समझो- बुद्धिमानी आकाश के समान विशाल है, जिसका प्रारम्भ एवं अन्त हम नहीं जानते। परन्तु अवसरवादिता का प्रारम्भ एवं अन्त दोनों हमारे हाथों में ही रहते हैं। अवसरवादिता बुद्धिमानी पर कभी हावी नहीं हो सकती। केवल वह कुछ क्षण के लिये मानसिक तनाव कम कर सकती है। क्योंकि बुद्धिमानी एवं चतुराई हमारा पूरा जीवन सुखी एवं समृद्धशाली बनाती है। यह जीवन के अन्त तक हमारा साथ देती है। बुद्धिमत्ता जहां पर है वहां पर आत्मा में ईमानदारी व सच्चाई रहेगी। जहां ये गुण हैं वहीं पर लक्ष्मी जी व सरस्वती जी का वास होगा। इससे यह स्पष्ट है कि हमें चतुराई एवं बुद्धिमानी पर निर्भर रहना चाहिए तथा अवसरवादिता का त्याग करना चाहिए। यही जीवन का यथार्थ है।

मैंने पंकज को बतलाया कि वक्त एवं वाणी की मार तलवार की धार से भी तेज होती है। तलवार की चोट तो तन पर लगती है जो ठीक भी हो सकती है परन्तु वाणी की मार दिल पर लगती है और यह चोट आजीवन कसकती है। यदि हम समय रहते हुए नहीं संभल सके तो यह निकल जाता है और हम असफलताओं को सफलताओं में परिवर्तित नहीं कर पाते। इसलिये इन दोनों से सावधान रहो तथा अपने विवेक एवं चिन्तन मनन से इनको अपने ऊपर हावी मत होने दो। जीवन चिन्ताओं से मुक्त रखकर चिन्तन तुम्हारा मित्र बन जाता है। चेतना तुम्हे नयी दिशा का मार्गदर्शन देगी और तुम अपने ध्येय में अवश्य सफल होगे।

जीवन में मस्तिष्क से ज्ञान मन में इसके मन्थन से दिषा और हृदय और आत्मा से जीवन जीने के सिद्धांतों का उदय होता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कितने वर्ष जीवित रहते हैं महत्व इस बात का है कि हमारी सांसें कितने समय तक सद्कार्यों में व्यस्त रहती है। यदि इस पर गम्भीरता पूर्वक सोचोगे तो तुम पाओगे कि जीवन का दस प्रतिशत समय ही जीवन जीने पर तुमने दिया होगा। बाकी नब्बे प्रतिशत समय ऐसा बीतता है जिसका कोई उपयोग एवं उद्देश्य हमारे स्वयं के लिये एवं समाज के लिये नगण्य रहना है। इसका अर्थ यह है कि समय कम है और काम बहुत अधिक। इसलिये प्रत्येक क्षण का उपयोग करो। जीवन में तीन महत्वपूर्ण परिस्थितियां आती हैं। जिनसे प्रभावित होकर जीवन परिवर्तित हो सकता है। ये हैं शिक्षा, विवाह और धनोपार्जन की कला।

शिक्षा एवं जीवन की वास्तविकता में बहुत अन्तर होता है। जीवन वास्तविकता में एक कर्मभूमि है। जिसमें तुम्हें आघात एवं प्रतिघात करने एवं सहने का ज्ञान होना चाहिए। यह किताबों में पढ़ने से प्राप्त नहीं होता है। यह जीवन में घटित होने वाली घटनाओं एवं अनुभवों से प्राप्त होता है। विवाह में सिद्धांतों से समझौता कभी मत करना। अन्यथा तुम्हारा व्यवहारिक जीवन कभी सफल नहीं होगा और उसका दुष्परिणाम आजीवन तुम्हारी सुख-शान्ति एवं समृद्धि पर पड़ेगा। धनोपार्जन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। इसकी प्राप्ति उसका अपने ऊपर उपयोग तथा परहित में व्यय इन तीनों में समन्वय होना आवश्यक है। धन एक ऐसी मृगतृष्णा है जिसका अन्त कभी नहीं होता है। इसकी वृद्धि के साथ-साथ हमारी भौतिक आवश्यकताएं बढ़ती जाती हैं। हमें बुद्धि समय की आवश्यकता समाज में मान-सम्मान इन सभी का ध्यान रखते हुए धन खर्च करना चाहिए। तभी जीवन सफल होगा।

जीवन में कर भला तो हो भला यह जीवन का यथार्थ है। तुम किसी का भला करोगे तो उसका आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त होगा। यही तुम्हारे जीवन में समय आने पर तुम्हारा भला करेगा। इसको सदैव जीवन में याद रखना एवं किसी का भला कर सकते हो तो तुम कभी पीछे मत हटना। उसकी मदद अवश्य करना।

मैंने पंकज को बताया कि एक दिन रात्रि का समय था। चांद की दूधिया चांदनी मन को प्रसन्न कर रही थी। मैं अपने विचारों पर चिन्तन कर रहा था कि परोपकार व सदाचार का जीवन यापन करना हमारा कर्तव्य है। हमारे मन में ऐसी भावना का आना धर्म के प्रति आस्था है एवं इसे कार्य रुप में परिवर्तित करना धर्म है। धर्म कर्म और कर्तव्य में सामन्जस्य हो तभी जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह विलक्षण रुप से सकारात्मक रहती है। एवं नकारात्मकता को समाप्त कर देती है। तुम्हारे मन में अब नया प्रश्न आएगा कि मैं कौन हूँ चेतना हूँ या चेतन मन की कल्पना हूँ धर्म से कर्म है या जीवन में कर्म ही हकीकत में सुख है धर्म एक सिद्धांत है इसका जीवन में अनुसरण करना धर्मपथ है। यह कर्मपथ को मोक्ष की ओर मोड़ता है। धर्म के लिये हम आपस में लड़ते हैं। विश्व में अनेक संग्राम धर्म के लिये धरती पर हुए हैं। किन्तु कर्म के लिये सोचने का समय किसी के पास नहीं है। ऐसी परिस्थिति में धर्म व कर्म दोनों मानव पर उपहास करते हैं। धर्म एक शाश्वत सत्य है जिसकी हार नहीं होती है। तुम यदि धर्म एवं कर्म को समझदारी के साथ सम्पन्न करो तो यह जीवन में यह सुख समृद्धि व शान्ति का आधार बनेगी। मेरे विचार एवं चिन्तन कठिन थे किन्तु उनमें सत्यता एवं गम्भीरता थी ।

किसी भी उद्योग में सबसे अधिक महत्वपूर्ण समय होता है। जब एक उद्योगपति अपने उत्तराधिकारी को अपना कार्यभार सौंपकर सेवामुक्त होता है तो उसे यह कार्य अत्यन्त धैर्यपूर्वक और धीरे-धीरे करना चाहिए। वास्तव में यह भूतकाल के द्वारा वर्तमान के हाथों में भविष्य को सौंपने की प्रक्रिया है। यह सुनहरे भविष्य की आधार शिला है।

सागर की गहराई सी गम्भीरता हो

आकाश के विस्तार सा हो धैर्य

वृक्ष और नदी सी हो

हृदय में उदारता

जीवन में हो

कठोर श्रम

लगन में हो सच्चाई

कर्म में हो सकारात्मक सृजन

तो

सुख, समृद्धि, वैभव और यश का

बनता है आधार।

यह आधार जितना सुदृढ़ होगा

उतना ही सफल होगा

जीवन का यथार्थ।

अपनी कल्पनाओं को

हकीकत में बदलकर

अपनी मदद

स्वयं करो।

सृजन को चुनकर

बनो आत्मनिर्भर

बढ़ते चलो

आत्मनिर्भरता की राह पर।