पाँच दिन Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पाँच दिन

पाँच दिन

जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाईए तो कद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी पुरफ़िज़ा जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सीने टोरीम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रोमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअल्लुक़ नहीं।

छः सात महीने हुए मुझे बटोत में अपने एक दोस्त की बीवी को देखने के लिए जाना पड़ा जो वहां सीने टोरीम में ज़िंदगी के आख़िरी सांस ले रही थी। मेरे वहां पहुंचते ही एक मरीज़ चल बसा और बेचारी पदमा के सांस जो पहले उखड़े हुए थे और भी ग़ैर यक़ीनी होगए। मैं नहीं कह सकता वजह क्या थी लेकिन मेरा ख़याल है कि महज़ इत्तिफ़ाक़ था कि चार रोज़ के अंदर अंदर इस छोटे से सीने टोरीम में तीन मरीज़ ऊपर तले मर गए जूंही कोई बिस्तर ख़ाली होता या तीमारदारी करते करते थके हुए इंसानों की थकी हुई चीख़ पुकार सुनाई देती, सारे सैनी टोरीम पर एक अजीब क़िस्म की ख़ाकसतरी उदासी छा जाती और वो मरीज़ जो उम्मीद के पतले धागे के साथ चिमटे होते थे, यास की अथाह गहिराईयों में डूब जाते।

मेरे दोस्त की बीवी तो पदमा बिलकुल दमबख़ुद हो जाती। उस के पतले होंटों पर मौत की ज़रदीयाँ काँपने लगतीं और उस की गहिरी आँखों में एक निहायत ही रहम अंगेज़ इस्तिफ़सार पैदा हो जाता। सब से आगे “एक ख़ौफ़ज़दा क्यों?” और इस के पीछे बहुत से डरपोक “नहीं”

तीसरे मरीज़ की मौत के बाद में बाहर बरामदे में बैठ कर ज़िंदगी और मौत के मुतअल्लिक़सोचने लगा...... सीने टोरीम एक मर्तबान सा लगता है जिस में ये मरीज़ प्याज़ की तरह सिरके में डले हूए हैं। एक कांटा आता है और जो प्याज़ अच्छी तरह गल गई है, उसे ढूंढता है और निकाल कर ले जाता है। ये कितनी मज़हकाख़ेज़ तशबीह थी। लेकिन जाने क्यों बार बार यही मेरे ज़ेहन में आई। मैं इस से ज़्यादा और कुछ न सोच सका कि मौत एक बहुत ही भोंडी चीज़ है...... यानी आप अच्छे भले जी रहे हैं, एक मर्ज़ कहीं से आन चिमटता है और मरजाते हैं। अफ़सानवी नुक़्ता-ए-नज़र से भी ज़िंदगी की कहानी का ये अंजाम कुछ चुस्त मालूम नहीं होता।

बरामदे से उठ कर अंदर दाख़िल हुआ। दस पंद्रह क़दम उठाए होंगे कि पीछे से आवाज़ आई।

“दफ़ना आए आप नंबर बाईस को!”

मैंने मुड़ कर देखा। सफ़ैद बिस्तर पर दो काली आँखें मुस्कुरा रही थीं।

ये आँखें जैसा कि मुझे बाद में मालूम हुआ। एक बंगाली औरत की थीं जो दूसरे मरीज़ों से बिलकुल अलग तरीक़े पर अपनी मौत का इंतिज़ार कररही थी।

उस ने जब ये कहा “दफ़ना आए आप नंबर बाईस को?” तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि हम इंसान को नहीं बल्कि एक अदद दफ़ना कर आरहे हैं। और सच पूछिए तो उस मरीज़ को क़ब्र के सपुर्द करते हुए मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के किसी कोने में भी ये एहसास पैदा नहीं हुआ था कि वो एक इंसान था, और उस की मौत से दुनिया में एक ख़ला पैदा होगया है।

मैं जब मज़ीद गुफ़्तुगू करने के लिए उस बंगाली औरत के पास बैठा जिस की स्याह फ़ाम आँखें ऐसी होलनाक बीमारी के बावजूद तर-ओ-ताज़ा और चमकीली थीं तो उस ने ठीक उसी तरह मुस्कुरा कर कहा। “मेरा नंबर चार है।” फिर उस ने अपनी सफ़ैद चादर की चंद सलवटें अपने इस्तिख़वानी हाथ से दुरुस्त कीं और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा। “आप मुर्दों को जलाने दफ़नाने में काफ़ी दिलचस्पी लेते हैं।”

मैंने यूंही सा जवाब दिया। “नहीं तो...... ” इस के बाद ये मुख़्तसर गुफ़्तुगू ख़त्म होगई और मैं अपने दोस्त के पास चला गया।

दूसरे रोज़ में हस्ब-ए-मामूल सैर को निकला। हल्की हल्की फ़ुवार गिर रही थी। जिस से फ़िज़ा बहुत ही प्यारी और मासूम होगई थी, यानी जैसे उस को उन मरीज़ों से कोई सरोकार ही नहीं जो इस में जरासीम भरे सांस ले रहे थे...... चीड़ के लाँबे लाँबे दरख़्त, नीली नीली धुन्द में लिपटी हुई पहाड़ियां, सड़क पर लुढ़कते हूए पत्थर...... पस्तक़द मगर सेहत-मंद भैंसें...... हर तरफ़ ख़ूबसूरती थी... एक पर एतिमाद ख़ूबसूरती जिसे किसी चोर का खटका नहीं था।

मैं सैर से लोट कर सीने टोरीम में दाख़िल हुआ तो मरीज़ों के उतरे हुए चेहरों ही से मुझे मालूम होगया कि एक और अदद चल बसा है...... ग्यारह नंबर, यानी पदमा।

उस की धंसी हुई आँखों में जो खुली रह गई थीं मैंने बहुत से ख़ौफ़ज़दा “क्यों” और उन के पीछे बेशुमार डरपोक “नहीं” मुंजमिद पाए...... बेचारी!

पानी बरस रहा था, इस लिए ख़ुश्क ईंधन जमा करने में बड़ी दिक़्क़त का सामना करना पड़ा। बहरहाल, उस ग़रीब की लाश को आग के सपुर्द कर दिया गया। मेरा दोस्त वहीं चिता के पास बैठा रहा और मैं उस का सामान ठीक करने के लिए सीने टोरीम आगया...... अंदर दाख़िल होते हूए मुझे फिर उस बंगाली औरत की आवाज़ आई।

“बहुत देर लग गई आप को!”

“जी हाँ बारिश की वजह से ख़ुश्क ईंधन नहीं मिल रहा था इस लिए देर होगई।”

“और जगहों पर तो ईंधन की दुकानें होती हैं, पर मैंने सुना है यहां इधर उधर से ख़ुद ही लकड़ियां काटनी और चुननी पड़ती हैं।”

“जी हाँ।”

“ज़रा बैठ जाईए।”

मैं उस के पास स्टूल पर बैठ गया। तो उस ने एक अजीब सा सवाल किया। “तलाश करते करते जब आप को ख़ुशक लकड़ी का टुकरा मिल जाता होगा तो आप बहुत ख़ुश होते होंगे?”

उस ने मेरे जवाब का इंतिज़ार न किया और अपनी चमकीली आँखों से मुझे बग़ौर देखते हुए कहा। “मौत के मुतअल्लिक़ आप का क्या ख़याल है?”

“मैंने कई बार सोचा है लेकिन समझ नहीं सका।”

वो दानाओं की तरह मुस्कुराई और बच्चों के से अंदाज़ में कहने लगी। “मैं कुछ कुछ समझ सकी हूँ...... इस लिए कि बहुत मौतें देख चुकी हूँ...... इतनी कि आप शायद हज़ार बरस भी ज़िंदा रह कर न देख सकें...... मैं बंगाल की रहने वाली हूँ जहां का क़हत आजकल बहुत मशहूर है...... आप को तो पता ही होगा। लाखों आदमी वहां मर चुके हैं...... बहुत सी कहानियां छप चुकी हैं। सैंकड़ों मज़मून लिखे जा चुके हैं। फिर भी सुना है कि इंसान की इस बिप्ता का अच्छी तरह नक़्शा नहीं खींचा जा सका...... मौत की उसी मंडी में मौत के मुतअल्लिक़ मैंने सोचा।”

मैंने पूछा। “क्या?”

उस ने उसी अंदाज़ से जवाब दिया। “मैंने सोचा कि एक आदमी का मरना मौत है...... एक लाख आदमीयों का मरना तमाशा है...... सच कहती हूँ मौत का वो ख़ौफ़ जो कभी मिरे दिल पर हुआ करता था, बिलकुल दूर होगया...... हर बाज़ार में दस बीस अर्थीयां और जनाज़े नज़र आएं तो क्या मौत का असली मतलब फ़ौत नहीं हो जाएगा...... मैं सिर्फ़ इतना समझ सकी हूँ कि ऐसी बेतहाशा मौतों पर रोना बेकार है...... बेवक़ूफ़ी है...... अव़्वल तो इतने आदमीयों का मरना ही सब से बड़ी हमाक़त है।”

मैंने फ़ौरन ही पूछा। “किस की।”

“किसी की भी हो...... हमाक़त, हमाक़त है...... एक भरे शहर पर आप ऊपर से बम गिरा दीजीए...... लोग मर जाऐंगे...... कुओं में ज़हर डाल दीजीए।

......जो भी इन का पानी पीएगा । मर जाएगा...... ये काल, क़हत, जंग और बीमारीयां सब वाहीयात हैं...... उन से मर जाना बिलकुल ऐसा ही है जैसे ऊपर से छत आगरे। लेकिन दिल की एक जायज़ ख़्वाहिश की मौत बहुत बड़ी मौत है...... इंसान को मारना कुछ नहीं, लेकिन उस की फ़ित्रत को हलाक करना बहुत बड़ा ज़ुल्म है।

ये कह कर वो कुछ देर के लिए चुप होगई। लेकिन फिर करवट बदल कर कहने लगी। “मेरे ख़यालात पहले ऐसे नहीं थे। सच पूछिए तो मुझे सोचने का वक़ूफ़ ही नहीं था। लेकिन इस क़हत ने मुझे एक बिलकुल नई दुनिया में फेंक दिया।” रुक कर एक दम वो मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुई। मैं अपनी कापी में यादाशत के तौर पर उस की चंद बातें नोट कर रहा था।

“ये आप क्या लिख रहे हैं?”

मैंने साफगोई से काम लिया और कहा। “मैं अफ़्साना निगार हूँ...... जो बातें मुझे दिलचस्प मालूम हों, नोट करलिया करता हूँ।”

“ओह! तो फिर मैं आप को अपनी पूरी कहानी सुनाऊंगी।”

तीन घंटे तक नहीफ़ आवाज़ में वो मुझे अपनी कहानी सुनाती रही। मैं अब अपने अल्फ़ाज़ में उसे बयान करता हूँ। ग़ैर ज़रूरी तफ़सीलात में जाने की ज़रूरत नहीं। बंगाल में जब क़हत फैला और लोग धड़ा धड़ मरने लगे तो सकीना को उस के चचा ने एक ओबाश आदमी के पास पाँच सौ रुपय में बेच दिया जो उसे लाहौर ले आया। और एक होटल में ठहरा कर उस से रुपया कमाने की कोशिश करने लगा। पहला आदमी जो उस के पास इस ग़रज़ से लाया गया एक ख़ूबसूरत और तंदरुस्त नौजवान था। क़हत से पहले जब रोटी कपड़े की फ़िक्र नहीं थी, वो ऐसे ही नौजवान के ख़्वाब देखा करती थी जो उस का शौहर बने। मगर यहां उस का सौदा किया जा रहा था। एक ऐसे फ़ेअल के लिए उसे मजबूर किया जा रहा था जिस के तसव्वुर ही से वो काँप काँप उठती थी...... जब वो कलकत्ता से लाहौर लाई गई तो उसे मालूम था कि इस के साथ क्या सुलूक होने वाला है। वो बाशऊर लड़की थी। अच्छी तरह जानती थी कि चंद ही रोज़ में उसे एक सिक्का बना कर जगह जगह भुनाया जाएगा। उस को ये सब कुछ मालूम था लेकिन इस क़ैदी की तरह जो रहम की उम्मीद न होने पर भी आस लगाए रहता है, वो किसी नामुमकिन हादिसे की मुतवक़्क़े थी...... ये हादिसा तो न हुआ लेकिन ख़ुद उस में इतनी हिम्मत पैदा होगई कि वो रात को कुछ अपनी होशियारी से और कुछ उस नौजवान की ख़ामकारी की बदौलत होटल से भाग निकलने में कामयाब होगई।

अब लाहौर की सड़कें थीं और उन के नए ख़तर। क़दम क़दम पर ऐसा लगता था कि लोगों की नज़रें उसे खा जाएंगी। लोग उसे कम देखते थे, लेकिन उस की जवानी को जो छुपने वाली चीज़ नहीं थी, कुछ इतना ज़्यादा घूरते थे, जैसे बर्मे से इस के अंदर सूराख़ कररहे हैं। सोने चांदी का कोई ज़ेवर या मोती होता तो वो शायद लोगों की नज़रों से बचा लेती। मगर वो एक ऐसी चीज़ की हिफ़ाज़त कर रही थी जिस पर कोई भी आसानी के साथ हाथ मार सकता था।

तीन दिन और तीन रातें वो कभी इधर कभी उधर घूमती भटकती रही। भूक के मारे उस का बुरा हाल था मगर उस ने किसी के आगे हाथ न फैलाया क्योंकि उसे डर था कि उस का ये फैला हुआ हाथ उस की इस्मत समेत किसी अंधेरी कोठरी में खींच लिया जाएगा...... दुकानों में सजी हुई मिठाईयां देखती थी। भटियार ख़ानों में लोग बड़े बड़े नवाले उठाते थे। उस के हर तरफ़ खाने पीने की चीज़ों का बड़ी बेदर्दी से इस्तिमाल होता था...... लेकिन जैसे दुनिया में इस के मक़सूम का कोई दाना ही नहीं रहा था।

उसे ज़िंदगी में पहली बार खाने की एहमीयत मालूम हुई। पहले उस को खाना मिलता था, अब वो खाने से मिलना चाहती थी। चार रोज़ के फ़ाक़ों ने उसे अपनी ही नज़रों में एक बहुत बड़ा शहीद तो बना दिया। लेकिन उस के जिस्म की सारी बुनियादें हिल गईं। वो जो रुहानी तसकीन होती है एक वक़्त आगया कि वो भी सिकुड़ने लगी।

चौथे रोज़ शाम को वो एक गली में से गुज़र रही थी। जाने क्या जी में आई कि एक मकान के अंदर घुस गई। अंदर चल कर ख़याल आया कि नहीं, कोई पकड़ लेगा...... और तमाम किए किराए पर पानी फिर जाएगा। अब उस में इतनी ताक़त भी तो नहीं। लेकिन सोचते सोचते वो सहन के पास पहुंच चुकी थी...... मलगिजे अंधेरे में उस ने घड़ौंचियों पर दो साफ़ घड़े देखे। और उनके साथ ही फलों से भरे हुए दो थाल...... सेब...... नाशपातीयां...... अनार...... उस ने सोचा अनार बकवास है...... सेब और नाशपातीयां ठीक हैं...... घड़े के ऊपर चीनी के बजाय एक पियाला पड़ा था...... इस ने तश्तरी उठा कर देखा तो मलाई से पुर था।

उस ने उठा लिया और बेशतर इस के कि वो कुछ सोच सके, जल्दी जल्दी उस ने नवाले उठाने शुरू किए सारी मलाई उस के पेट में थी...... कितना राहत बख़्श लम्हा था। भूल गई कि किसी ग़ैर के मकान में है...... वहीं बैठ कर उस ने सेब और नाशपातीयां खाना शुरू करदीं...... घड़ौंची के नीचे कुछ और भी था...... यख़्नी...... ठंडी थी लेकिन उस ने सारी पतीली ख़त्म करदी...... एक दम जाने क्या हुआ। पेट की गहिराईयों से गुबार सा उठा और उस का सर चकराने लगा। वो उठ खड़ी हुई। कहीं से खांसी की आवाज़ आई। भागने की कोशिश की मगर चकरा कर गिरी और बेहोश होगई।

जब होश आया तो वो एक साफ़ सुथरे बिस्तर में लेटी थी। सब से पहले उसे ख़याल आया। कहीं मैं लूटी तो नहीं गई...... लेकिन फ़ौरन ही उसे इत्मिनान होगया कि वो सही सलामत थी...... कुछ और सोचने ही लगी थी कि पतली पतली खांसी की आवाज़ आई। एक हड्डियों का ढांचा कमरे में दाख़िल हुआ।

सकीना ने अपने गांव में बहुत से क़हत के मारे इंसान देखे थे मगर ये इंसान उन से बहुत मुख़्तलिफ़ था। बेचारगी उस की आँखों में भी थी मगर उस में वो अनाज की तरसी हुई ख़्वाहिश नहीं थी। उस ने पेट के भूके देखे थे जिन की निगाहों में एक नंगी और भोंडी ललचाहट थी लेकिन उस मर्द की निगाहों में उसे एक चिलमन सी नज़र आई...... एक धुँदला पर्दा जिस के पीछे से वो डर डर कर उस की तरफ़ देख रहा था।

ख़ौफ़ज़दा सकीना को होना चाहिए लेकिन सहमा हुआ वो था...... उस ने रुक रुक कर कुछ झेंपते हुए अजीब क़िस्म का हिजाब महसूस करते हुए उस से कहा। “जब तुम खा रही थीं तो मैं तुम से दूर खड़ा था...... उफ़! मैंने किन मुश्किलों से अपनी खांसी रोके रखी कि तुम आराम से खा सको और मैं ये ख़ूबसूरत मंज़र ज़्यादा देर तक देख सकूं। भूक बड़ी प्यारी चीज़ है। लेकिन एक मैं हूँ कि इस नेअमत से महरूम हूँ। नहीं, महरूम नहीं कहना चाहिए क्योंकि मैंने ख़ुद उस को हलाक किया है।”

सकीना कुछ भी समझ न सकी...... वो एक पहेली थी। जो बूझते बूझते एक और पहेली बन जाती थी लेकिन इस के बावजूद सकीना को उस की बातें अच्छी लगीं जिन में इंसानियत की गर्मी थी। चुनांचे उस ने अपनी सारी आपबीती उसको सुना दी। वो ख़ामोश सुनता रहा जैसे उस पर असर ही नहीं हुआ। लेकिन जब सकीना उस का शुक्रिया अदा करने लगी तो उस की आँखें जो आँसूओं से बेनयाज़ मालूम होती थीं एक दम नमनाक होगईं और उस ने भराई हुई आवाज़ में कहा। “यहीं रह जाओ सकीना...... मैं दिक़ का बीमार हूँ...... मुझे कोई खाना...... कोई फल अच्छा नहीं लगता। तुम खाया करना और मैं तुम्हें देखा करूंगा...... ” लेकिन फ़ौरन ही वो मुस्कराने लगा। “क्या हमाक़त है......कोई और सुनता तो क्या कहता...... यानी दूसरा खाया करे और मैं देखा करूंगा...... नहीं सकीना...... वैसे मेरी दिली ख़्वाहिश है कि तुम यहीं रहो...... ”

सकीना कुछ सोचने लगी। “जी नहीं...... मेरा मतलब है आप इस घर में अकेले हैं और मैं......नहीं नहीं...... बात ये है कि में...... ”

ये सुन कर उस को कुछ ऐसा सदमा पहुंचा कि वो थोड़ी देर के बिलकुल खो सा गया। जब बोला तो उस की आवाज़ खोखली थी। मैं दस बरस तक स्कूल में लड़कीयां पढ़ाता रहा होऊं हमेशा मैंने उन को अपनी बच्चियां समझा...... तुम...... तुम एक और हो जाओगी।”

सकीना के लिए कोई और जगह ही नहीं थी! चुनांचे इस प्रोफ़ैसर के हाँ ठहर गई।

वो एक बरस और चंद महीने ज़िंदा रहा। इस दौरान में बजाय इस के कि सकीना उस की ख़बरगीरी करती, उल्टा वो जो कि बीमार था, उस की आराइश-ओ-आराम पहुंचाने में कुछ इस बेकली से मसरूफ़ रहा जैसे डाक जाने वाली है और वो जल्दी जल्दी एक ख़त में जो बात इस के ज़हन में आती है लिखता जा रहा है। उस की इस तवज्जा ने सकीना को जिसे तवज्जा की ज़रूरत थी। चंद महीनों में निखार दिया। अब प्रोफ़ैसर उस से कुछ दूर रहने लगा। मगर उस की तवज्जा में कोई फ़र्क़ न आया।

आख़िरी दिनों में अचानक उस की हालत ख़राब होगई। एक रात जब कि सकीना उस के पास ही सो रही थी, वो हड़बड़ा कर उठा और ज़ोर से चिल्लाने लगा। “सकीना सकीना।”

ये चीख़ें सुन कर सकीना घबरा गई। प्रोफ़ैसर की धंसी हुई आँखों जो चिलमन सी हुआ करती थी मौजूद नहीं थी। अब एक अथाह दुख सकीना को उन में नज़र आया...... प्रोफ़ैसर ने काँपते हुए हाथों से सकीना के हाथ पकड़े और कहा। “मैं मर रहा हूँ...... लेकिन इस मौत का मुझे दुख नहीं...... क्योंकि बहुत सी मौतें मेरे अंदर वाक़्य हो चुकी हैं। तुम सुनना चाहती हो मेरी दास्तान...... जानना चाहती हो मैं क्या हूँ...... सुनो...... एक झूट हूँ...... बहुत बड़ा झूट...... मेरी सारी ज़िंदगी अपने आप से झूट बोलने और फिर उसे सच बनाने में गुज़री है...... उफ़ कितना तकलीफ़देह ग़ैर-फ़ित्री और ग़ैर-इंसानी काम था...... मैंने एक ख़्वाहिश को मारा था। लेकिन मुझे ये मालूम नहीं था कि इस क़तल के बाद मुझे और बहुत से ख़ून करने पड़ेंगे...... सकीना! ये मैं जो कुछ कह रहा हूँ फ़लसफ़ियाना बकवास है, सीधी बात ये है कि मैं अपना कैरेक्टर ऊंचा करता रहा और ख़ुद इंतिहाई पस्तियों के दलदल में धंसता चला गया। मैं मर जाऊंगा और ये कैरेक्टर...... ये बेरंग फ़रेरा मेरी ख़ाक पर उड़ता रहेगा...... वो तमाम लड़कीयां जिन्हें में स्कूल में पढ़ाया करता था...... कभी मुझे याद करेंगी तो कहेंगी एक फ़रिश्ता था जो इंसानों में चला आया था। तुम भी मेरी नेकियों को नहीं भूलोगी...... लेकिन हक़ीक़त ये है कि जब से तुम इस घर में आई हो...... एक लम्हा भी ऐसा नहीं गुज़रा जब मैंने तुम्हारी जवानी को दज़ दीदा निगाहों से न देखा हो...... मैंने तसव्वुर में कई बार तुम्हारे होंटों को चूमा है...... कई बार मैंने तुम्हारी बान्हों पर अपना सर रखा है...... लेकिन हर बार मुझे इन तस्वीरों को पुरज़े पुरज़े करना पड़ा।

फिर इन पुर्ज़ों को जला कर मैंने राख बनाई कि इन का नाम-ओ-निशान तक बाक़ी न रहे। मैं मर जाऊंगा...... काश मुझ में इतनी हिम्मत होती कि अपने इस ऊंचे कैरेक्टर को एक लंबे बांस पर लंगूर की तरह बिठा देता। और डुगडुगी बजा कर लोगों को इकट्ठा करता कि आओ देखो और इबरत हासिल करो।

इस वाक़िया के बाद प्रोफ़ैसर सिर्फ़ पाँच रोज़ ज़िंदा रहा...... सकीना का बयान है कि मरने से पहले वो बहुत ख़ुश था...... जब वो आख़िरी सांस ले रहा था तो उस ने सकीना से सिर्फ़ इतना कहा। “सकीना! मैं लालची नहीं...... ” ज़िंदगी के ये आख़िरी पाँच दिन मेरे लिए बहुत हैं...... मैं तुम्हारा शुक्र गुज़ार हूँ।"