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पहचान -

पहचान

एक निहायत ही थर्ड क्लास होटल में देसी विस्की की बोतल ख़त्म करने के बाद तय हुआ कि बाहर घूमा जाये और एक ऐसी औरत तलाश की जाये जो होटल और विस्की के पैदा करदा तकद्दुर को दूर कर सके। कोई ऐसी औरत ढूँडी जाये जो होटल की कसाफ़त के मुक़ाबले में नफ़ासत-पसंद और बदज़ाइक़ा विस्की के मुक़ाबला में लज़ीज़ हो।

फ़ख़्र ने होटल की ग़लीज़ फ़िज़ा से बाहर निकलते ही मुझ से और मसऊद से कहा। “कोई दानेदार औरत हो...... अच्छे गवय्ये के गले की तरह उस में बड़े बड़े दाने हों.... ख़ुदा की क़सम तबीयत साफ़ हो जाये।”

विस्की दानों से बिलकुल ख़ाली थी। सोडा भी बिलकुल बेजान था। ग़ालिबन इसी वजह से फ़ख़्र दानेदार औरत का क़ाइल हो रहा था। हम तीनों औरत चाहते थे। फ़ख़्र दानेदार औरत चाहता था। मुझे ऐसी औरत मतलूब थी जो बड़े सलीक़े से वाहियात बातें करे...... और मसऊद को ऐसी औरत की ज़रूरत थी। जिस में बनिया पन न हो। अपनी फ़ीस के रुपय लेकर ट्रंक में जहां उस का जी चाहे रखे और कुछ अर्से के लिए भूल जाये कि सौदा कर रही है।

उस बाज़ार का रास्ता हम जानते थे। जहां औरतें मिल सकती हैं। काली, नीली पीली, लाल और जामनी रंग की औरतें। पेड़ों की तरह उन के मकान एक क़तार में दूर तक दौड़ते चले गए हैं। ये रंग बिरंगी औरतें उन पके हुए फलों के मानिंद लटकी रहती हैं। आप नीचे से ढेला मार कर उसे गिरा सकते हैं।

हमें ये औरतें मतलूब नहीं थीं। दरअसल हम अपने आप को धोका देना चाहते थे। हम ऐसी औरत या औरतें चाहते थे। जो उर्फ-ए-आम में प्राईवेट हों यानी जो मंडी के हुजूम से निकल कर अलैहदा शरीफ़ महल्लों में अपना कारोबार चला रही होँ

हम तीनों में फ़ख़्र सब से ज़्यादा तजरबाकार था। क़ुव्वत-ए-इरादी भी उस में हम सब से ज़्यादा थी। एक तांगे वाला जब हमारे पास से गुज़रा तो उस ने हाथ के इशारे से उसे रोका। और बग़ैर किसी झिजक के मानी ख़ेज़ लहजे में उस से कहा “हम सैर करना चाहते हैं...... चलोगे?”

तांगे वाले ने जो संजीदा और मतीन आदमी मालूम होता था। हम तीनों की तरफ़ बारी बारी देखा। मैं झेंप सा गया। ख़ामोशी ही ख़ामोशी में वो हम से कह गया था। तुम जवानों को शराब पी कर ये क्या हो जाता है?

फ़ख़्र ने दुबारा उस से कहा: “हम सैर करना चाहते हैं........ चलोगे? ” फिर तो वाक़ई उसे कुछ ख़याल आया और अपना मतलब और ज़्यादा वाज़ेह कर दिया। “कोई माल वाल है तुम्हारी निगाह में?”

मसऊद और मैं दोनों एक तरफ़ खिसक गए मसऊद ने घबरा कर मुझ से कहा। “ये फ़ख़्र कैसा आदमी है इसे कुछ समझाओ।”

मसऊद से में कुछ कहने ही वाला था। कि फ़ख़्र ने आवाज़ दी। “आओ भई आओ....... बैठो तांगे में।” हम तीनों तांगे में बैठ गए। मुझे अगली नशिस्त पर जगह मिली।

दिसंबर के आख़िरी दिन थे। वक़्त के आठ बज चुके थे। विस्की पीने के बावजूद हमें सर्दी महसूस हो रही थी। (मैं) चूँकि अगली नशिस्त पर था। और तीनों में से सब से कमज़ोर था। इस लिए मेरे कान सुन हो रहे थे। जब ताँगा डफरिन ब्रिज के नीचे उतरा तो मैंने मुफ़लर निकाल कर कानों और सर पर लपेट लिया। और ओवरकोट का कालर भी ऊंचा कर लिया।

सांस घोड़े के नथनों से भाप बन कर बाहर निकल रहा था हम तीनों ख़ामोश थे। तांगे वाला मोटे और खुरदरे कम्बल में लिपटा ख़ामोशी से अपना ताँगा चला रहा था। मैंने उस की तरफ़ ग़ौर से देखा। संजीदगी उस के चेहरे पर ठिठुर सी रही थी। जो मुझे बहुत बुरी मालूम हुई। चुनांचे मैंने फ़ख़्र से कहा। “फ़ख़्र ये आदमी कैसा है........ कोई बात ही नहीं करता। ऐसा मालूम होता है कासटरोल पी कर बैठा है।”

तांगे वाला मेरे इस रेमार्क पर भी ख़ामोश रहा। फ़ख़्र ने कहा। “ज़्यादा बातें करने वाले आदमी ठीक नहीं होते। हमारा मतलब समझ गया है। ले चलेगा। जहां अच्छी चीज़ हुई।”

मसऊद सिगरेट सुलगा रहा था। एक दम बोला। “वल्लाह औरत कितनी अच्छी चीज़ है........ औरत औरत कम है चीज़ ज़्यादा है।” मैंने उस को ज़रा और ख़ूबसूरत बना कर कहा।

“मसऊद चीज़ नहीं...... चीज़ सी।”

शायर आदमी था भड़क उठा। “वल्लाह क्या बात पैदा की है। चीज़ नहीं चीज़ सी.....सौ मियां तांगे वाले चीज़ और चीज़ सी में जो फ़र्क़ है। इस का ध्यान रखना।” तांगे वाला ख़ामोश रहा।

अब मैंने उस की तरफ़ ज़्यादा ग़ौर से देखा। मज़बूत जिस्म का आदमी था। उम्र पैंतीस साल के लग भग होगी। पतली पतली मूंछें थीं। जिन के बाल नीचे को झुके हुए थे। सर्दी के बाइस चूँकि उस ने कम्बल का ढाटा सा बना रखा था। इस लिए इस का पूरा चेहरा नज़र न आता था।

मैंने उस की तरफ़ देख कर फ़ख़्र से पूछा। “कहाँ ले जा रहा है हमें? ” फ़ख़्र ने जो ज़्यादा सोच बिचार का आदी नहीं था। जवाब दिया। “इतने बेताब क्यों होते हो?........ अभी थोड़ी देर के बाद चीज़ तुम्हारे सामने आ जाएगी।”

मसऊद ने इस पर फ़ख़्र से कहा। “तुम से क्या बात हुई है इस की? ”

फ़ख़्र ने जवाब दिया। “रोशन आरारोड पर....... कुछ मेमें रहती हैं। कहता है हमारे काम की हैं।”

मेमों का नाम सुन कर मसऊद को अपने एक दोस्त की नज़्म याद आ गई। उस का हवाला देकर उस ने कहा।

“तो चलो आज लगे हाथों अरबाब-ए-वतन की बेबसी का इंतिक़ाम भी ले लिया जाएगा।”

“वल्लाह! ऐसा मालूम होता है कि ये तांगे वाला साहब-ए-ज़ौक़ है। वो नज़्म ज़रूर पढ़ी हो गई इस ने।”

इस के बाद देर तक मेमों के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू होती रही। मैं और मसऊद मेमों के बिलकुल क़ाइल नहीं थे। लेकिन फ़ख़्र को औरतों की ये क़िस्म पसंद थी। इन का इल्म साइनटीफ़िक होता है यानी ये औरतें बड़े साइनटीफ़िक तरीक़े पर अपना कारोबार चलाती हैं। उन के मुक़ाबले में मशरिक़ी औरतों को रखिए तो वही नज़र आएगा जो हमारे यहां की रीवड़ी और वहां की टॉफ़ी में है। भई दरअसल बात ये है कि इन मेमों का पैकिंग बड़ा अच्छा होता है।

मैंने कहा। “फ़ख़्र! मुम्किन है तुम्हारा नज़रिया दरुस्त हो मगर भाई में ऐसे मौक़ों पर ज़बान की मुश्किलात बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैं अपने दफ़्तर में बड़े साहब के साथ अंग्रेज़ी बोल सकता हूँ। मैं यहां दिल्ली में रह कर इस तांगे वाले से उर्दू में बातचीत करना गवारा कर सकता हूँ। मगर इस मौक़ा पर अंग्रेज़ी मैं गुफ़्तुगू नहीं कर सकता। मेरी पतलून अंग्रेज़ी, मेरी टाई अंग्रेज़ी, मेरा शो अंग्रेज़ी....... ये सब चीज़ें अंग्रेज़ी में हो सकती हैं। मगर ख़ुदा के लिए वो चीज़ मुझ से अंग्रेज़ी में कैसे हो सकती है।”

फ़ख़्र अपना नज़रिया भूल कर हँसने लगा। मसऊद शायद अभी तक अपने दोस्त की लिखी हुई नज़्म पर ग़ौर कर रहा था। जिस में शायर ने एक फ़िरंगी औरत के होंट चूस कर अरबाब-ए-वतन की बे-बसी का इंतिक़ाम लिया था....... दफ़अतन चौंक कर उस ने कहा। “क्यों भई ये ताँगा कब तक चलता रहेगा?”

तांगे वाले ने एक दम बागें खींच कर ताँगा ठहरा दिया। और फ़ख़्र से कहा। “वो जगह आ गई साहब। आप अकेले चलिएगा या....... ”

हम तीनों तांगे वाले के पीछे पीछे चल दिए।

एक नीम रोशन गली में वो हमें ले गया। दिल्ली की दूसरी गलियों से ये गली कुछ मुख़्तलिफ़ थी। इस लिए कि बहुत चौड़ी थी। दाएं हाथ को एक मंज़िला मकान था। जिस की खिड़कियों, दरवाज़ों पर चक़ें लटकी हुई थीं। एक दरवाज़े की चक़ उठा कर तांगे वाला अंदर दाख़िल हो गया। चंद लम्हात के बाद बाहर आया। और हमें अंदर ले गया।

कमरे में घुप अंधेरा था। मैंने जब कहा। “भाई हम कहीं औंधे मुँह न गिर पड़ें।” तो दूसरे कमरे से किसी औरत की भद्दी आवाज़ सुनाई दी। “लालटैन तो ले गया होता तू” और थोड़ी ही देर के बाद तांगे वाला एक अंधी सी लालटैन लेकर नुमूदार हुआ। चलिए अन्दर तशरीफ़ ले चलिए। हम तीनों अन्दर तशरीफ़ ले गए। दो काली भजनगी इंतिहाई बदसूरत औरतें नज़र आईं। जिन्हों ने ढीले ढीले फ़राक़ पहन रखे थे....ये मेमें थीं। मैंने अपनी हंसी रोक कर फ़ख़्र से कहा। “क्या लज़ीज़ टॉफ़ियां हैं।”

मेरी ये बात सुन कर उन मेमों में से एक जिस का स्याह चेहरा सुर्ख़ी लगाने के बाइस ज़्यादा पकी हुई ईंट की सी रंगत इख़्तियार कर गया था। हंसी..... मैं भी हंस दिया और बड़े प्यार से पूछा “क्या नाम है आप का?”

बोली। “लूसी”

शायर मसऊद ने आगे बढ़ कर दूसरी से पूछा। “आप का?”

उस ने जवाब दिया। “मेरी।”

फ़ख़्र भी आगे बढ़ आया। “क्यों साहब आप काम क्या करती हैं?”

दोनों लज्जा गईं। एक ने अदा से कहा। “कैसा बात करता है तुम?”

दूसरी ने कहा। “चलो जल्दी करो। रहना मांगता है या नहीं हमें रोटी पकाना है।”

मैंने उस के हाथों की तरफ़ देखा। तो गीले आटे से भरे हुए थे। और वो उस की मरोड़ियाँ बना रही थी। तांगे वाला क़तई तौर हमें ग़लत जगह ले आया था मरोड़ियाँ उस के हाथों से कच्चे फ़र्श पर गिर रही थीं। और मुझे ऐसा मालूम होता था कि अनाज रो रहा है और ये मरोड़ियाँ उस के आँसू हैं।

हम तीनों के तीनों उस मकान में आकर सख़्त परेशान हो गए। मगर हम अपनी परेशानी इन दो औरतों पर ज़ाहिर करना नहीं चाहते थे। हमें सख़्त नाउमीदी हुई थी। अगर हम उन से साफ़ लफ़्ज़ों में कह देते कि तुम हमारे मतलब की नहीं हो तो ज़रूर उन के जज़्बात को ठेस पहुंचती। औरत जिस के हाथ आटे से लुथड़े हों ऐसे जज़्बात से आरी नहीं हो सकती।

मैंने उन दोनों की तारीफ़ की। फ़ख़्र ने भी मेरा साथ दिया। फिर हम तीनों जल्द वापस आने का वाअदा करके वहां से निकल आए। तांगे वाला हमारा मतलब समझ गया था। चुनांचे उसे चंद लम्हात के लिए वहां ठहरना पड़ा। जब वो बाहर निकला। तो फ़ख़्र ने इस से कहा। “तुम इन्हें मेमें कहते हो?”

तांगे वाले ने बड़ी मितानत के साथ जवाब दिया। “लोग यही कहते हैं साहब”

“लोग झक मारते हैं....... मैंने ख़याल किया था कि तुम मेरा मतलब समझ गए होगे.......... अब ख़ुदा के लिए किसी ऐसी जगह ले चलो, जहां हम चंद घड़ियां अपना दिल बहला सकें।”

मसऊद ने तीनों का इज्तिमाई मक़सद और ज़्यादा वाज़ेह करने की कोशिश की। “देखो हम ऐसी जगह जाना चाहते हैं। जहां कुछ अर्से के लिए बैठ सकें..... हमें ऐसी औरत के पास ले चलो जो बातें करने का सलीक़ा रखती हो........ भाई हम कोरे नहीं हैं किसी फ़ौज के सिपाही नहीं हैं। तीन शरीफ़ आदमी हैं। जिन्हें औरत से बातचीत किए बरसों गुज़र चुके हैं........ समझे? ”

तांगे वाले ने इस्बात में सर हिला दिया। “तो चलिए बीठिए आप को सदर बाज़ार ले चलता हूँ...... ”

फ़ख़्र ने पूछा “कौन है वहां?”

तांगे वाले ने घोड़े की बागें थाम कर जवाब दिया। “एक पंजाबन है बहुत लोग आते हैं उस के पास।”

तांगे ने पंजाबन के घर का रुख़ किया।

रास्ते में इन दो मेमों का ज़िक्र छिड़ गया। हम में से हर एक को वहां जाने का अफ़सोस था। इस लिए कि हम सब से ज़्यादा वो नाउमीद हुई थीं। मैंने उन को कुछ रुपय दे दिए होते। मगर ये भीक हो जाती..... फ़ख़्र ने हमारी इस गुफ़्तुगू में ज़्यादा हिस्सा न लिया। वो चाहता था कि उन का ज़िक्र न किया जाये। लेकिन जब तक ताँगा पंजाबन के घर तक, न पहुंचा उन का ज़िक्र होता रहा।

ताँगा एक फ़राख़ बाज़ार में फुटपाथ के पास रुका। तवीले के साथ वाला मकान था। जिधर का हम चारों ने रुख़ किया। ज़ीना तय करके हम ऊपर पहुंचे। सामने पैखाना था। दरवाज़े से बेनयाज़...... इस के साथ ही पुरानी वज़ा का मुग़लई कमरा था। जिस में हम चारों दाख़िल हुए। इस कमरे के आख़िरी सिरे पर चार आदमी बैठे फ्लाश खेलने में मसरूफ़ थे। जो हमारी आमद से ग़ाफ़िल रहे। अलबत्ता वो औरत जो उन के पास खड़ी थी। और एक आदमी के पत्तों में दिलचस्पी ले रही थी। आहट पाकर हमारी तरफ़ आई।

यहां भी लालटैन की मद्धम रोशनी थी। जिस को फ्लाश खेलने वाले चारों तरफ़ से घेरे हुए थे। जब वो फ़ख़्र के पास आई और कूल्हे पर हाथ रख कर खड़ी हो गई। तो मैंने ग़ौर से उसे देखा....... उस की उम्र कम अज़ कम पैंतीस बरस के क़रीब थी। छातियां बड़ी बड़ी थीं। जो उस ने बेहूदा और फ़हश अंदाज़ से ऊपर को उठा रखी थीं। तंग माथे पर नीले रंग का चांद खुदा हुआ था जब वो मसऊद की तरफ़ देख कर मुस्कुराई। तो मुझे उस के सामने के दो दाँतों में सोने की कीलें नज़र आईं.... बड़ी ख़ौफ़नाक औरत थी। उस का मुँह कुछ इस अंदाज़ से खुलता था। जैसे लेमूँ निचोड़ने वाली मशीन का खुलता है।

उस ने फ़ख़्र को आँख मारी और पूछा। ”कहो क्या बात है?”

फ़ख़्र ने बच्चे की तरह कहा। “आप का नाम?”

उस ने कूल्हे पर हाथ रखे हम तीनों को बारी बारी देखा। “गुलज़ार”

फ़ख़्र ने फ़ौरन ही माज़रत की। “हम गुलाब के यहां आए थे। ग़लती से इधर चले आए। माफ़ कर दीजिएगा।”

ये सुन कर वो फ़ख़्र के हाथ से सिगरेट छीन कर कश लगाती फ्लाश खेलने वालों के पास चली गई। जो अभी तक हमारी आमद से ग़ाफ़िल थे। नीचे उतर कर हम तीनों ने तांगे वाले को फिर अपना मतलब समझाया और उस को बताया कि हम किस क़िस्म की औरत चाहते हैं। उस ने हम तीनों का लेक्चर सुना और कहा। “आप थोड़े लफ़्ज़ों में मुझे बताईए कि आप कहाँ जाना चाहते हैं? ”

मैंने तंग आकर फ़ख़्र से कहा। “भई तुम ही इसे इन थोड़े लफ़्ज़ों में समझाओ जो तुम्हारे पास बाक़ी रह गए हैं।”

फ़ख़्र ने उसे समझाया “देखो हमें किसी लड़की के पास ले चलो.... ऐसी औरत के पास जो सोला सतरह बरस की हो। इस से ज़्यादा हरगिज़ न हो। समझे?”

तांगे वाले ने कम्बल की बुकल मार के बागें थामीं और कहा। “आप ने पहले ही कह दिया होता। चलिए.... अब आप को ठीक जगह पर ले चलूंगा।”

आधे घंटे के बाद वो ठीक जगह भी आ गई...... ख़ुदा मालूम कौनसा बाज़ार था दूसरी मंज़िल पर एक बैठक सी थी जिस के दरवाज़े पर मोटा और मेला टाट लटक रहा था। जब हम अंदर दाख़िल हुए तो सामने आंगन में एक देहाती बढ़िया चूल्हा झोंक रही थी...... मिट्टी के कून्डे में गुंधा हुआ आटा पास ही पड़ा था। धूवां इस क़दर था। कि अंदर दाख़िल होते ही हमारी आँखों में आँसू आगए।

बढ़िया ने चूल्हे में लकड़ियां झाड़कर हमारी तरफ़ देखा। और तांगे वाले से देहाती लहजे में कहा। “इन्हें अंदर ले जाओ।”

तांगे वाले ने अंधेरे कमरे में दिया सिलाई जला कर हमें दाख़िल किया और कील से लटकी हुई लालटैन को रोशन करके बाहर चला गया। मैंने कमरे का जायज़ा लिया। कोने में एक बहुत बड़ा पलंग था जिस के पाए रंगीन थे। उस पर मैली सी चादर बिछी हुई थी। तकिया भी पड़ा था। जिस पर सुर्ख़ रंग के फूल कड़े हुए थे। पलंग के साथ वाली दीवार की कांस पर एक मैली बोतल और लकड़ी की कंघी पड़ी थी। उस के दाँतों पर सर का मेल और कई बाल फंसे हुए थे। पलंग के नीचे एक टूटा हुआ ट्रंक था। जिस पर एक काली गुरगाबी रखी थी।

मसऊद और फ़ख़्र दोनों पलंग पर बैठ गए। मैं खड़ा रहा। थोड़ी देर के बाद एक पस्तक़द लड़की अपने से दोगुना दुपट्टा ओढ़ने की कोशिश करती अंदर दाख़िल हुई। फ़ख़्र और मसऊद उठ खड़े हूए। जब वो लालटैन की रोशनी में आई। तो मैंने उसे देखा। उस की उम्र ब-मुश्किल चौदह बरस के क़रीब होगी। छातियां आड़ू के बराबर थीं मगर उस के चेहरे से मालूम होता था कि वो अपने जिस्म को पीछे छोड़कर बहुत आगे निकल चुकी है, बहुत आगे। जहां शायद उस की माँ भी नहीं पहुंच सकी। जो बाहर आंगन में चूल्हा झोंक रही थी। इस के नथुने फड़क रहे थे। और इस अंदाज़ से अपना एक हाथ हिला रही थी। जैसे मक्कार दूकानदार की तरह डंडी मारेगी। और कभी पूरा तोल नहीं तोलेगी।

हम तीनों उस को हैरत भरी नज़रों से देखते रहे। फ़ख़्र शर्म भी महसूस कर रहा था। मसऊद की सारी शायरी सिमट कर शायद उस के नाखुनों में चली आई। क्योंकि वो बुरी तरह उन्हें दाँतों से काट रहा था।

मैंने एक बार फिर उस की तरफ़ देखा। जैसे मुझे अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं आया। ठिंगनी सी लड़की थी। जो एक बहुत बड़ा मेला दुपट्टा ओढ़ने की कोशिश कर रही थी। रंग गहरा साँवला। बदन की साख़त से मालूम होता था कि वो बड़ी तेज़ी से चली हुई गाड़ी है। जो अब एक दम रुक गई है। इस पहियों में ब्रेक लग गए हैं। और वहीं खड़े खड़े उस का रंग व रोग़न धूप और बारिश में उड़ गया है। इस उम्र में भद्दी से भद्दी लड़की के जिस्म पर जो एक क़िस्म की शोख़ जाज़िबियत होती है उस में बिलकुल नहीं थी। कपड़ों के बावजूद वो नंगी दिखाई देती थी। बहुत ही बेहूदा और न वाजिब तरीक़े पर नंगी...... उस के जिस्म का निचला हिस्सा क़तई तौर पर ग़ैर निस्वानी था।

मैं इस से कुछ कहने ही वाला था कि उस के अक़ब से एक बूढ्ढा नुमूदार हुआ। बिलकुल सफ़ैद दाढ़ी। सर ज़ोफ़ के बाइस हिल रहा था। लड़की ने देहाती ज़बान में उस से कुछ कहा। जिस का मतलब में सिर्फ़ इस क़दर समझा कि वो बूढ्ढा उस का नाना है।

हम तीनों सही माअनों में उठ भागे। नीचे बाज़ार में पहुंचे तो हमारा तकद्दुर कुछ दूर हूआ। बूढे और लड़की को देख कर हमारे जमालियाती ज़ौक़ को बहुत ही शदीद सदमा पहुंचा था। देर तक हम चुप चाप रहे।

फ़ख़्र टहलता रहा। मसऊद एक कोने में पेशाब करने के लिए बैठ गया। मैं ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले ऊपर आसमान की तरफ़ देखता रहा। जहां ना-मुकम्मल चांद बिलकुल उस ज़र्द बीसवा लौंडिया की तरह जिस के जिस्म का निचला हिस्सा क़तई तौर पर ग़ैर निस्वानी था। बादल के एक बहुत बड़े टुकड़े का दुपट्टा ओढ़ने की कोशिश कर रहा था..... उस से कुछ दूर छोटा सफ़ैद टुकड़ा उस के नाना के ज़ईफ़ सर की तरह लरज़ रहा था....... !

मेरे बदन पर झुरझुरी तारी हो गई।

हम ग़ालिबन दस बारह मिनट तक बाज़ार में खड़े रहे। उस के बाद तांगे वाला नीचे उतरा। फ़ख़्र के पास जा कर उस ने कहा। “आप ने आठ बजे ताँगा लिया था...... अब ग्यारह बज चुके हैं। तीन घंटों के पैसे दे दीजिए।”

फ़ख़्र ने कुछ कहे बग़ैर दो रुपय उस को दे दिए। रुपय लेकर वो मुसकराया “बाबू जी आप को कुछ पहचान नहीं........ऐसी करारी लौंडिया तो शहर भर में नहीं मिलेगी आप को...... ख़ैर आप को इख़्तियार...... तांगे में बीठिए मैं अभी आया।

उस को ऊपर जाने की ज़हमत न उठाना पड़ी। क्योंकि सफ़ैद रेश बूढ्ढा उस के पीछे पीछे चला आया था। और मोरी के पास खड़ा अपना ज़ईफ़ सर हिला रहा था। उस को दो रुपय दे कर जब टांगे वाले ने बागें थामीं तो उस की संजीदगी ग़ायब थी। “चल बेटा।” कह कर उस ने अपनी भद्दी मगर मुसर्रत भरी आवाज़ में गाना शुरू कर दिया।

“साइन के नज़ारे हैं......... लाला।”

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