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पहला प्यार(भाग-2)

आज लगभग दस दिन बीत गये थे। पर जैसा मैंने सोचा था ऐसा कुछ नही हुआ। इतने करीब होने के बावजूद महसूस हो रहा था जैसे मिलो की दुरी हो हम दोनों के बीच।

पर जिस प्रयास में मैं असफल होता जा रहा था, उसमें मेरे पापा ने सफलता पाई। भले ही शीतल की और मेरी अभी एक बार भी बात नही हो पाई थी, पर जल्द ही मेरे पिता और शीतल के पिता अच्छे दोस्त बन गये।
और ये उनका एहसान ही था कि अब मैंने धीरे धीरे शीतल के घर आना-जाना शुरु कर दिया। अब ऐसा कोई दिन नही था कि जिस दिन एक-दो बार मैं उसके घर न जाऊ। मतलब अगर अब-तक का टोटल करू तो कुल मिला कर सौ से भी ज्यादा बार मिल चुका था उससे, पर वो अबभी जबभी मिलती ऐसे व्यवहार करती जैसे पहली बार मिल रही हो मुझसे।।। हमेशा उदास रहती।
इसके बावजूद इतने दिनों में कई बार मिलने के बाद भी, मैंने उसे खुल के हँसना तो दूर कभी उसके चेहरे पर हल्की  मुस्कान तक नही देखि थी।
फिर मैंने शीतल के पिता से उसके बारे में जानने की कोशिस की। और उनसे पूछा उसके इस बर्ताव के बारे में।

तब उन्होंने जो सबसे पहले बताया वो मेरे लिये अविश्वसनीय था। शीतल की माँ नही थी। और अपनी माँ की मौत का कारण वो अपने आप को मानती थी।
ये बात मेरे लिए अविश्वसनीय इसलिए था क्योकि मैं रोज़ उसके घर जाता था पर इस बात का पता मुझे आज चला था की उसकी माँ नही है।
उन्होंने बताया कि शीतल उनके ही वजह से अपनेआप को अपनी माँ की मौत का कारण मानती है।
ये बात मेरे समझ से परे था। भला कौन पिता ऐसा करेगा।
शीतल के पिता आगे बताते हुवे बोले "शीतल के जन्म के कुछ घंटों बाद उसकी माँ की मृत्यु हो गई। मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैं हॉस्पिटल में वार्ड के बाहर बैठा था और मेरी बहन ने ये बात मुझे आ कर बताई। उसने मुझे अपनी बेटी को देखने जाने को कहा।
मैं शीतल की माँ को बहुत प्यार करता था। उसके जाने का गम मेरे लिए असहनीय था। और उस पीड़ा में डूब कर मैंने बिना सोचे समझे अपनी बहन से कह दिया "मुझे नही देखना उस मनहूस का चेहरा जिसने.............


इतना बताने के बाद वो आगे कुछ कह नही पाये। उनकी आंखें अंशुओ से भर गई थी और लब्ज कुछ कहने को तैयार नही थे।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वो बोले "जब मैंने शीतल का चेहरा पहली बार देखा तो मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना गलत था। इसमें उस मासूम की क्या गलती थी। और तब से मैंने शीतल को वो हर ख़ुशी देने की कोसिस की जो मैं उसे दे सकता था। घर वालो ने कई बार कहा दूसरी शादी करने को, पर मैंने मना कर दिया। मैं शीतल को माँ के बदले शौतेली माँ नही देना चाहता था। और शायद मेरा वो फैसला बिलकुल सही था। हम दोनों बहुत खुश थे। मगर इस खुशी की उम्र इतनी कम होगी, मैंने कभी नही सोचा था।
दो साल पहले जब मेरी बहन घर आई थी तब एक दिन शीतल के किसी बात से नाराज हो कर उसने वो सारी बात बता दी जो मैंने हॉस्पिटल में उसके पैदा होने के बाद कहा था। शीतल ने उसकी बातों पर विस्वास नही किया और उसने मुझसे पूछा, उसके जवाब में मैं कुछ न कह सका। मेरी ख़ामोशी में उसने अपना जवाब ढूंढ लिया। और तब से वो मुझसे बात तो रोज़ करती है पर ऐसा लगता हैं कि जैसे कई साल हो गये उससे बात किये। दो दिन बाद रक्षाबंधन है और उसके अगले ही दिन उसका जन्मदिन दिन। रक्षाबंधन को तो वो शुरू से ही उदाश रहती थी। मगर दो साल से उसने अपने जन्मदिन पर भी कुछ नही माँगा। मुझे अब उसकी ख़ामोशी बर्दास्त नही होती। मैं उसे फिर से पहले की तरह खुस देखना चाहता हूँ।" इतना कह वो दुबारा अंशुओ में डूब गये।
अभी हम बात कर ही रहे थे की शीतल चाय लेके आई और हमने अपना बातचीत का विषय बदल लिया। और कुछ देर बाद मै घर चला आया। अब मेरे दिमाग में शिर्फ़ एक ही सवाल  घूम रहा था की क्या मैं शीतल के चेहरे पर इन दो दिनों में मुस्कान वापस ले सकता हूँ। रक्षाबंधन का तो मै वैसे भी कुछ नही कर सकता था। अब उसको खुश करने के लिए उसका भाई तो नही बन सकता था। फिर मैं उसके जन्मदिन के बारे में सोचने लगा।
दूसरे दिन क्लास रूम का माहौल बोहोत गर्म था। और वो इसलिये था कि बोर्ड पर किसी ने क्लास टीचर की तस्वीर बना रखी थी। कुछ विशेष भिन्ता नही थी मास्टर जी में और बोर्ड पर बने उस तस्वीर में, बस मुछो को हटा कर, जो टीचर बचपन से ही गंजे लगते थे उनके बाल लड़कियों की तरह बना रखे थे। पूरा क्लास उसे देख कर खूब हँस रहा था कि इसी बीच क्लास टीचर ने क्लासरूम में प्रवेश किया और बोर्ड पर अपनी भभ्य तस्वीर देख कर गहरे स्वर में बोले "किसने बनायी ये तस्वीर?"
पुरे क्लास में सन्नाटा छा गया। मैं तो भला नही जानता था पर जो जानते थे वो भी चुप रहे।
फिर मास्टर जी ने ठान लीया सबको मारने की। और एक हफ्ते पहले पढ़ाये हुए अभ्यास के प्रश्न पूछने लगे।
अब भला इतना किसको याद होता। फिर एक कर के सबकी पिटाई शुरू कर दी। इस समय सबके अंदर एक ही बात का डर था कि कही उनकी बारी न आ जाए। पर मैं ये सोच रहा था कि मास्टर जी शीतल से न पूछने लगे। और  जिसका मुझे डर था वही हुआ। टीचर ने उसे बोर्ड पर बुलाया और उससे सवाल पूछने लगे।
मगर जैसा हम शीतल से उम्मीद कर सकते थे उसने वो पढ़ रखा था और वो उन सभी सवालों के जवाब देने लगी। ये सब देख मुझे अब अपनी फिकर सताने लगी। सच कहूं तो मैंने एक बार भी नही सोचा था कि शीतल बच जायेगी। मैं तो वैसे भी मास्टर जी का पढ़ाया हुआ बहुत ही कॉपियों में लिखना पसन्द करता था। साल में मुश्किल से एक दो ही कॉपी खरीदता था वो भी पुराना खो जाने की वजह से। फिर मैंने सोचा क्यों न शीतल की ही नोट-बुक ले के देख लू। और मैंने वही किया शीतल जब बोर्ड पर मास्टर जी के सवाल का जवाब दे रही थी। मैं उसकी नोटबुक ले कर चेक करने लगा। उसकी नोट बुक को चेक करते हुए मुझे एहसास हुआ की अगर आपने पढाई नही की हो तो आन्सर शीट में आन्सर भी ढूंढना कितना मुश्किल होता है। मैं बिना उम्मीद बस पन्ने पलटता जा रहा था, कि मुझे उसमे एक औरत की तस्वीर मिली। वो औरत बिलकुल शीतल के ही जैसी थी। वही आँखे, वही रंग। उसे देख कर ये समझना मुश्किल नही था कि ये तस्वीर उसकी माँ की ही है।
मैंने बिना कुछ सोचे वो तस्वीर निकली और उसकी नोटबुक जैसे का तैसा रख दीया। शायद ऊपर वाले की मेहरबानी थी की शिफ्ट चेंजिंग की घंटी बजी और हमारे टीचर जो हिटलर का अवतार ले चुके थे, उनको अपना मिसन अधूरा छोड़ कर जाना पड़ा।।।।।
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