Pahla Pyar - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

पहला प्यार (भाग:1)

"पहला प्यार" ये वो एहसास होता है जिसे चाहे आप जिन्दगी के जिस मोड़ पर चले जाये, भुला नही सकते। और ये बात मैं अपने छः साल के अनुभव से कह रहा हूँ।

आज से एक महीने बाद उस लड़की की शादी है। ये वही लड़की है जिससे मुझे मेरा पहला प्यार हुआ था। मुझे जाना है उसकी शादी में, पर दूल्हा बन कर नही, बल्कि शादी में काम करने और कमी-बेसी को देखने के लिये।
अब आप सोच रहे होंगे की अभी कुछ देर पहले मैं कह रहा था कि पहले प्यार को भुलाया नहीं जा सकता। और अभी मैं उस लड़की के शादी में जाने की बातकर रहा हु, तो क्या मैं सब कुछ भूल गया। तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। मैं आज भी उससे उसी तरह प्यार करता हु जिस तरह शुरुवात के दिनों में करता था।
मेरे आज को समझने के लिये आपको मेरे साथ उनदिनों में चलना होगा। जब ये सब शुरू हुआ था। आपको अपने उन हसिन यादो को बताते हुए मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है। क्योंकि आज फिर मैं उन लम्हो को जीने जा रहा हूं।
मेरा नाम रोहन है। मैं बाइस साल का हु और गुरुग्राम में रहता हूं। बात उस समय की है जब मैं पंद्रह साल का था और अपने मम्मी पापा के साथ गया (बिहार) में रहता था। तब मैने हाल ही में आठवीं कक्षा पास की थी और नौंवी में पंहुचा था। परीक्षा बिताने के बाद जो छुटिया मुझे मिली थी, उनमे मैं बुआ के घर चला गया और उनके तीन लड़के, जो मेरे हमउम्र ही थे, उनके साथ खूब मस्तिया की। बचपन से मेरा वहा खूब मन लगता था। उनके साथ कब सुबह से शाम हो जाती बिलकुल पता ही नही चलता था।
छुटियां ख़त्म होने के बाद मैं अपने घर चला आया। और अगले दिन से स्कूल जाने लगा। वैसे, बचपन से मैंने उसी स्कूल से पढ़ाई की थी मगर आज पहले दिन जब मैं नौंवी कक्षा में जा कर बैठा तो ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं उस स्कूल, उस क्लास रूम से बिलकुल अंजान हु। और वो शायद इसलिए था की मुझे बुआ के घर से आने का बिलकुल भी मन नही था। मगर पापा की वजह से आना पड़ा था।
क्लास रूम में मुझे इतनी घुटन महशुस हो रही थी की हाजरी लगने के तुरन्त बाद में बाहर आ गया। और विद्यालय की सीढियों पर जा कर बैठ गया।
अभी वहाँ बैठे कुछ ही देर हुऐ होंगे की "एक्सक्यूज मी" कह कर एक मधुर आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
जब मैंने ऊपर देखा तो सामने एक खूबसूरत लड़की खड़ी थी। शायद वो मुझसे कुछ पूछ रही थी। पर मेरी नजरे उसके खूबसूरत चेहरे से हट कर उसके लबो तक गया ही नही। मैं बेबाक उसे देखता रहा। वो दुबारा बिना कुछ कहे वहा से जाने लगी।
उसको जाता देख मैं तूरंत उठा और उसको रोकते हुए बोला "हे...रुको! तुम अभी कुछ पूछ रही थी...?
"हां..... क्या आप बता सकते है कि नौंवी कक्षा का क्लास रूम किधर है" वो एक बार फिर मेरी तरफ देखते हुए बोली।
नौंवी कक्षा का नाम सुन कर मेरा दिल बागबाग हो गया।
"मैं भी नौंवी कक्षा में ही हु। आओ मैं तुम्हे लेके चलता हूं" मैं  अपने आप को उससे परिचित करते हुए बोला। और उसे अपने साथ नौंवी कक्षा मे लेके गया।
अभी हम अपनी सीट पर बैठे ही थे की अघ्यापक जी ने उसे अपना परिचय देने को कहा।
मास्टर जी के इस वाक्या ने दिल जीत लिया। उसके परिचय में पता चला की उसका नाम शीतल है। और वो कोलकता की रहने वाली थी। उसके पिता एक सरकारी मूल्तजिम थे। उनका तबादला गया मे ही हो गया था। इसलिये वो अब यही रहने आये थे।
अगर किसी को पहली नजर देखने के बाद आपको अपना ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ बिताने का मन करे और बीते कुछ हीघण्टों में, आप उसके बारे में इतना सब कुछ जान जाये तो ये अत्यधिक होता है। पर मैं उसे पूरी तरह समझना चाहता था। पता नही लोग परिचय में अपना टेलीफोन नम्बर और घर का पता क्यों नही बताते। और यही सब जानने के लिये मैने तय किया कि छुट्टी होने के बाद वो चाहे जिस रास्ते से जाये मैं उसके साथ ही जाऊंगा। और मैं छुट्टी होने का इंतजार करने लगा। बेसब्री से कई घंटे इंतजार करने के बाद स्कूल की घंटी बजी। सब अपने किताब समेट, बाहर निकलने लगे। मैने क्या समेटा और क्या छोड़ा मुझे याद नही। मेरा ध्यान शिर्फ़ शीतल पर था। स्कूल की गेट पर जब मैं पहुँचा तो देखा, एक आदमी स्कूटर लिये गेट के बहार खड़ा था। शीतल उसके पीछे जा कर बैठ गई। जिसके बाद वो आदमी बिना एक पल रुके चलता बना।
मैंने कई घण्टे बेचैन रह कर जो प्लान बनाया था सब उस आदमी ने अपने स्कूटर के धुंवे के साथ उड़ा दिया था। मुझे पता नही की मुझे उसका नाम, उसके घर का पता क्यों चाहिए था? बस.... चाहिए था। एक पल को तो मैंने सोचा की दौड़ कर उस हुदहुड़ाती स्कूटर का पीछा करू। मगर फिर मुझे एक दिन इंतजार करना ही मुनासिक लगा। वैसे इतना आसान तो नही था इंतजार करना। घर पहुचा तो कुछ सूझ नही रहा था। माँ ने खाना खाने को कहा। पर मैंने मना कर दिया। और अपने कमरे में जा कर सौ गया। तब आँखों में नींद नही था। बहुत कोशिशो के बाद भी मैं सो न सका। तो मैं छत पर चला गया। अँधेरा भी अब धीरे-धीरे पसरने लगा था। और इसका एहसास इसलिए हो रहा था क्योंकि उस समय मोहले में लाईट नही थी। कुछ देर बाद मैंने बगल के घर के बालकनी पर देखा अंधरे में कोई खड़ा था, महशुस हो रहा था कि जैसे धुंधली रौशनी में कोई किताब पढ़ रहा हो। मैंने सोचा इतना कौन पढ़ाकू हो गया हमारे मोहल्ले में, एक हम थे जो किताब भी दिन देख के छूते थे।
तभी लाइट आ गयी। और मैंने उस बालकनी पर गौर किया तो देखा वहाँ कोई लड़का नही बल्कि शीतल खड़ी थी। उसे इस तरह सामने देख मानो मेरा दिल मेरे अंदर ही उछलने लगा था। मुझे शाहरुख़ खान का वो डायलॉग सच लगने लगा था कि "अगर किसी चीझ को दिल से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिस में लग जाती है।"
था तो ये सब संयोग पर संयोग भी ऐसा था कि विस्वास नही हो रहा था। उसको बालकनी पर हाथ में किताब लिए देखना, अभी यही सब चल रहा था की वो नीचे चली गई। पर अब मुझे उसके जाने का दुःख नही था। क्योंकि अब मैं जब चाहू उसे देख सकता था। आज तो इस कदर ख़ुशी हो रही थी जैसे मनो किसी जल बिन मछली को समन्दर का सहारा मिल गया था।


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