आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 8 Subhash Neerav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 8

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद

हरमहिंदर चहल

अनुवाद : सुभाष नीरव

(8)

अक्तूबर 1995 में अमजद अमेरिका पहुँचा। उसी नई-नवेली दुल्हन आफिया चिकागो एअरपोर्ट पर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वहाँ से वह अमजद को लेकर फौज़िया के अपार्टमेंट में आ गई। फिर, वे होटल चले गए। लगभग दो हफ़्तों का वक़्त उन्होंने होटल में गुज़ारा। अगले करीब दो महीने फौज़िया के घर रहे। फिर वो बॉस्टन, मैसाचूसस चले आए। यहाँ आकर उन्होंने किसी बड़ी इमारत के निचले हिस्से का छोटा-सा अपार्टमेंट ले लिया और अपनी ज़िन्दगी शुरू कर दी। अमजद को यह छोटा-सा अपार्टमेंट बिल्कुल भी नहीं भाया। वह एक बड़े परिवार और अच्छे खाते-पीते घर से आया था। पाकिस्तान में वे तीन भाई, माँ-बाप के साथ भरे-पूरे परिवार में रहते थे। यहाँ यह गूठ-सी जगह उसको अच्छी नहीं लगती थी। समय पाकर उन्होंने शहर से बाहर छोटे-से कस्बे मालडेन में बड़े हाई-वे 95 से थोड़ा आगे हटकर काफी बड़ा और खुला अपार्टमेंट ले लिया। यहाँ आकर अमजद बहुत खुश हुआ। उसकी ब्याहता ज़िन्दगी बहुत बढ़िया ढंग से शुरू हुई थी। वह आफिया को जी-जान से चाहने लगा था और आफिया भी अमजद को गहरी मुहब्बत करने लगी थी। दोनों को लगता था कि वे एक-दूजे के लिए ही बने हैं। इन दिनों दोनों के मध्य प्यार-मुहब्बत की बातें ही खत्म होने का नाम न लेती थीं। अमजद को लगता था कि यह भोली भाली-सी लड़की कभी गुस्सा तो होती ही नहीं होगी। पर फिर एक दिन बातें करते हुए आफिया ने अचानक कुछ ऐसा कहा कि अमजद के मुँह में कड़वाहट घुल गई। वह बोली, “अमजद, मुझे पिछली गर्मियों में एफ.बी.आई. खोजती रही थी।”

“किस बात के सिलसिले में ?“ वह हैरान होकर आफिया की ओर देखने लगा।

“यह तो मालूम नहीं, पर मैं एक बात बता देती हूँ कि अगर ऐसा कभी दुबारा हुआ तो मैं अमेरिका में नहीं रहूँगी।”

“लेकिन पता तो चले कि बात क्या है। कोई तो वजह होगी कि एफ.बी.आई. तेरे पीछे आई। तू जो कह रही है कि अगर वे दुबारा आए तो तू यहाँ नहीं रहेगी, तुझे थोड़ा-बहुत तो शक होगा ही कि वे किसी बात पर तुझे तलाश रहे थे।”

“मैंने कह दिया न कि मुझे नहीं मालूम।” इतना कहकर आफिया उठकर चल दी। अमजद भौंचक-सा उसकी ओर देखता रहा। पहली बार वह आफिया को गुस्से में देख रहा था। दो दिन वह इस तरह चुप चुप-सी रही। कुछ दिनों के बाद वह फिर घुलमिल गई। अमजद भी यह बात भूल गया। परंतु अगली बार उसने आफिया का और भी अधिक भयानक रूप देखा। असल में, इससे पहले अमजद दाढ़ी बढ़ाकर और ट्रिम करके रखता था। पर उसने पाकिस्तान में रहते हुए सुन रखा था कि अमेरिका में पाकिस्तानी चेहरे-मोहरे वाले व्यक्ति को अलग ही निगाह से देखा जाता है। वैसे वह रोजे भी रखता था और नमाज भी पढ़ लेता था, पर वह कट्टर नहीं था। इसलिए उसने अपनी सुविधा के लिए एक दिन शेव करवा ली। वह घर आया तो पहले तो आफिया उसको पहचान ही न सकी। फिर एकदम भड़ककर बोली, “तुम्हें शर्म नहीं आई दाढ़ी कटवाते हुए ?“

“क्यों, इसमें शर्म वाली कौन सी बात है। मैंने क्या गुनाह कर दिया ?“

“एक मुसलमान होकर तुम सफाचट करवाए घूमते हो और अभी पूछते हो कि क्या गुनाह कर दिया।”

“मैंने एक मज़हबी नेता की सलाह ली थी। उसका कहना है कि किसी अच्छे काम के लिए तुम्हें दाढ़ी कटवानी पड़े तो तुम कटवा सकते हो। जब मौका मिले तो फिर रख लो।”

“तुम ऐसा कौन-सा नेक काम करने लग पड़े कि तुम्हारे दाढ़ी रखने से वो काम नहीं हो सकता था।”

“आफिया, मैंने पढ़ाई शुरू कर ली है। हर रोज़ कालेज जाता हूँ। मैं नहीं चाहता कि वहाँ लोग मुझे दूसरी नज़रों से देखें।”

“अच्छा ! तुम्हें मुसलमान होने के कारण शर्म महसूस होती है।”

“यह बात नहीं है। तुम मेरी बात को समझने की कोशिश करो।”

बहस आगे ही आगे बढ़ती गई। आफिया कोई बात सुनने की बजाय आग-बबूला होती गई। आखि़र, वह इतने गुस्से में आ गई कि करीब होकर वह अमजद की छाती पर मुक्के मारती हुई चीखने-चिल्लाने लगी। पहले तो अमजद को बहुत गुस्सा आया, पर जब उसने देखा कि आफिया अपने छोटे छोटे हाथों से उसको बच्चों की तरह पीट रही है तो मन ही मन उसको हँसी आ गई। उसने विरोध करना छोड़ दिया। आखि़र, आफिया मुक्के मारते मारते हाँफ गई। उसने पलभर अमजद की तरफ देखा और फिर उसकी छाती से लगकर उसको अपनी बांहों में भरकर ज़ोर-ज़ोर से रोने गी। अमजद ने उसको छाती से कस लिया। उनके बीच की सारी कड़वाहट चली गई। इसके साथ ही अमजद को उसके रूठने और इस तरह खुद मान जाने का निराला ढंग बहुत ही प्यारा लगा। ज़िन्दगी अपने ढंग से फिर चलने लगी। मगर आफिया ने अमजद से यह वायदा ले लिया कि वह शीघ्र ही फिर से दाढ़ी बढ़ा लेगा। कुछ ही सप्ताह बीते थे कि एक दिन वह नई स्कीम लेकर घर आई।

“अमजद, मैं और सुलेमान अहमर ने एक बहुत बढ़िया काम सोचा है।”

“यह सुलेमान कौन है ?“

“यह बैनेवोलैंस इंटरनेशनल संगठन का डायरेक्टर है। तुम्हें पता है कि मैं चैरिटी के काम के सिलसिले में ऐसे लोगों से मिलती रहती हूँ।”

“क्या है तुम्हारा यह नया ख़याल ?“ अमजद ने सोचा कि आफिया उसको फिर से दाढ़ी बढ़ाने या कोई ऐसा ही काम कहेगी।

“क्यों न हम दोनों बॉस्निया चलें ?“

“बॉस्निया ? वह क्यों ?“

“मैं वहाँ जाकर अनाथों के लिए स्कूल खोल लूँगी और तुम कोई अस्पताल चला लेना। कुछ देर बाद हम सचमुच के जिहाद में शामिल हो जाएँगे।”

उसकी बात सुनकर अमजद के पैरों तले से धरती खिसक गई। उसको कोई भी बात न सूझी। उसके तो यह सुनकर ही होश गुम हो गए कि उसकी घरवाली जिहाद के प्रति इतनी समर्पित है। वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “आफिया, मैं यहाँ पढ़ने के लिए आया हूँ, न कि लड़ने। मेरी ज़िन्दगी का लक्ष्य पढ़ाई करके मेडिकल के क्षेत्र में प्रैक्टिस करने का है। मैं ऐसे कामों में हिस्सा लेने वाला इन्सान नहीं हूँ।”

“पर विवाह से पहले तुमने जिहाद में शामिल होने की हामी क्यों भरी थी फिर ?“

उसकी बात सुनकर अमजद को धक्का लगा। उसको वह वक़्त स्मरण हो आया जब मुफ्ती साहिब ने उससे पूछा था कि ज़रूरत पड़ने पर क्या वह जिहाद में हिस्सा लेगा और उसने इसे विवाह से पहले की एक मज़हबी रस्म समझकर हाँ कर दी थी। मगर आज उसको लगा कि मुफ्ती साहिब ने यह बात आफिया के कहने पर ही उससे पूछी होगी।

“तुम बोलते क्यों नहीं ? क्या सांप सूंघ गया तुम्हें ?“ आफिया गरम होने लगी तो अमजद चुपचाप घर से बाहर निकल गया। अगले दो दिन उनके बीच तनाव जारी रहा। लेकिन तीसरे दिन आफिया को पता चला कि वह गर्भवती है। इस बात ने उनके बीच सारी कड़वाहटें दूर कर दीं। आफिया बॉस्निया जाने वाली बात भूलभुला गई। अमजद ने आफिया के गर्भवती होने के बारे में अपने और उसके माता-पिता के घर में जब बताया तो सब तरफ खुशी फैल गई। इसी दौरान आफिया की माँ ने अमजद के साथ आफिया के भविष्य को लेकर बात शुरू की, “अमजद, आफिया कह रही है कि अब उसको आगे पढ़ना है ?“

“क्या ! इस हालत में ? अम्मी, अब तो उसको आराम करना चाहिए।”

“अमजद, तुम नहीं जानते इस लड़की में कितनी एनर्जी भरी हुई है। तुम इसकी जिद्द भी जानते हो। अगर इसने तय कर लिया है कि इसको अब पढ़ाई शुरू करनी है तो यह शुरू करके ही रहेगी।”

“मैं तो चाहता था कि बच्चे के जन्म तक इसको आराम करना चाहिए।”

“नहीं अमजद, यह जो करना चाहती है, करने दे। तुम देखना, यह इन हालात में भी क्लास में टॉप करेगी। मगर तू एक बात ज़रूर कर।”

“हाँ, बताओ।”

“मैं चाहती हूँ कि यह डॉक्टर बने। कम से कम इसके नाम के साथ डॉक्टर अवश्य लगे।”

“पर इसका प्रारंभिक क्षेत्र तो दूसरा है। फिर इस स्टेज पर आकर...।”

“तू इसको कह कि यह न्यूरो-साइंस के क्षेत्र में आगे की पढ़ाई करे।”

“अम्मी, उस क्षेत्र में तो दिमागी मेहनत बहुत करनी पड़ेगी।”

“जब इसके सामने चैलेंज होता है तभी इसकी सारी शक्ति प्रयोग में आती है। बस तू इसको मेरी कही बात मनवा।”

इसके पश्चात् अमजद ने आफिया के साथ बात की। उसने पहली बात तो यही कही कि उसको आगे पढ़ने से न रोका जाए, मगर साथ ही यह भी बता दिया कि उसको अम्मी की चाहत का पता है। इसलिए उसने न्यूरोसाइंस के कागनेटिव क्षेत्र में पी.एच.डी. करने का मन बना लिया है। अमजद हैरान रह गया, जब उसे पता चला कि आफिया ने अपने तौर पर इसके लिए दाखि़ला भी ले लिया है और पढ़ाई प्रारंभ होने वाली है। उसको अपनी पत्नी की कुशलता पर गर्व महसूस हुआ।

“आफिया, तुमने इसके लिए कौन-सा कालेज चुना है ?“

“मैंने ब्रैंडीज़ यूनिवर्सिटी चुनी है। उन्होंने मेरा पढ़ाई का रिकार्ड देखते हुए ही मुझे दाखि़ला दिया है। तुम्हें पता ही है कि ऐरे-गैरे को तो वे करीब भी नहीं फटकने देते।”

“पर आफिया, तुम वहाँ कैसे अडजस्ट करोगी ? तुम्हें पता ही है कि वह यूनिवर्सिटी तो यहूदियों की है।”

“हाँ, मुझे पता है। पर मुझे भी वहीं काम करने में मज़ा आता है, जहाँ आगे विरोध हो। तुम देखना तो सही, मैं उनकी यूनिवर्सिटी की ऐसी की तैसी कैसे करती हूँ।”

“तेरी मर्ज़ी है। वैसे मुझे पता है कि तुम्हारे लिए दुनिया में कुछ भी कठिन नहीं है।”

बहस समाप्त हो गई और आफिया ने यूनिवर्सिटी जाना प्रारंभ कर दिया। ब्रैंडीज़ यद्यपि अपने तौर पर धर्म-निरपेक्ष रहने की कोशिश करती थी मगर उसके सारे ताने-बाने पर यहूदी संस्कृति भारी थी। विशेषतौर पर आफिया जैसी कट्टर मुसलमान के लिए तो वहाँ एडजस्ट करना बहुत ही कठिन था। परंतु आफिया अंदर से खुश थी। क्योंकि ऐसे विरोधाभास में ही उसको आनंद आता था। खै़र, जब उसने यूनिवर्सिटी जाना शुरू किया तो उस वक़्त वह सात माह की गर्भवती थी। पढ़ाई शुरू होते ही आफिया ने यहूदी सभ्याचार के विषय में पढ़ना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उसने इज़राइल की इंटैलीजेंस एजेंसी, मुसाद के बारे में भी जानकारी एकत्र करना प्रारंभ कर दी। शायद वह अपने होने वाले दुश्मन के बारे में पूरी जानकारी ले लेना चाहती थी। वह पूरी तरह इस्लामी लिबास में लिपटी हुई पहले दिन कालेज पहुँची। उसका इस प्रकार का पहरावा या उसका मुसलमान होना उसके लिए कोई कठिनाई पैदा नहीं करता था, अपितु इसके लिए एक बात और थी। आफिया का विचार था कि यह यूनिवर्सिटी अपने आप को धर्म निरपेक्ष कहती है जबकि अंदर से यह बिल्कुल यहूदी रंग में रंगी हुई है। बस, इसी बात को आधार बनाकर वह यूनिवर्सिटी के साथ पंगा करने के लिए तैयार हो रही थी। इसका पहला रंग उसने अपने पहले लैक्चर में ही दिखा दिया। दूसरों की भाँति उसको भी किसी ख़ास क्षेत्र में रिसर्च करके पर्चा लिखने और पढ़ने के लिए कहा गया। उसके पर्चे का विषय था - ‘प्रेगनेंट वुमन एंड अल्कोहल।’ उसने अपने पर्चे में कहा कि गर्भवती स्त्री के शराब पीने से होने वाले बच्चे के दिमाग पर असर पड़ता है। यहाँ तक तो ठीक था, पर उसने आगे कहा कि इसीलिए तो अल्लाह ने कुरान में शराब पीने की मनाही की हुई है। उसके प्रोफे़सर इस बात से नाराज़ हो गए। वह उसको समझाते हुए बोले, “देख आफिया, हम साइंसटिस्ट हैं। हम वही बात कह सकते हैं जिसे सिद्ध कर सकते हों। डॉक्टरों द्वारा शराब पीने वालियों और न पीने वाली गर्भवती स्त्रियों पर स्टडी की गई है। यहीं से यह बात साबित होकर सामने आई कि शराब पीने वालियों के बच्चे दिमागी तौर पर सही डवलैप नहीं होते। हम इसी स्टडी के आधार पर यह बात कह सकते हैं कि गर्भ के दौरान शराब बच्चे पर बुरा प्रभाव डालती है।”

“नहीं, यह इस तरह नहीं है...।” वह उनकी बातों का उत्तर देते हुए पलभर रुकी और फिर कहने लगी, “जो कुछ भी है, वह सब कुरान में दर्ज़ है। हम साइंसटिस्टों को चाहिए कि कुरान की पढ़ाई करके उसी हिसाब से आगे के कामों को दिशा दें।”

उसकी बात सुनकर प्रोफेसर और अधिक अपसेट हो गए। उन्होंने उसको समझाने की काशिश की, पर वह टस से मस न हुई। आगे भी वह अपने परचों में कुरान में से लिए गए कुटेशन प्रयोग करती रही। इससे उसका डिपार्टमेंट उसके साथ और नाराज़ होता गया। इससे भी आगे बढ़ते हुए आफिया ने इस युनिवर्सिटी के बारे में लिखना शुरू कर दिया कि स्वयं को धार्मिक निरपेक्ष बताने वाली यह युनिवर्सिटी अति दर्ज़े की कट्टर धार्मिक है। आख़िर उसको उसके डिपोर्टमेंट की ओर से नोटिस मिल गया कि वह अपनी सीमा में रहे, नहीं तो उसके विरुद्ध एक्शन लिया जाएगा। वह डरी नहीं अपितु सीधी डीन के दफ़्तर में जा पहुँची। डीन ने उसको समझाने का यत्न किया, मगर वह चिढ़कर बोली, “या तो मुझे चुपचाप मेरी डॉक्टरीन करने दो, नहीं तो फिर मैं आपके खिलाफ़ ऐसा मोर्चा खोलूँगी कि आपकी रेपूटेशन की ऐसी-तैसी फेर दूँगी।”

उसकी बात सुनकर डीन ने पल भर सोचा और फिर बोला, “मिस आफिया, यदि तू वायदा करे कि चुपचाप अपनी पढ़ाई तक ही सीमित रहेगी तो मैं तेरे डिपार्टमेंट को हिदायत कर दूँगा कि तुझे नाजायज़ तंग न किया जाए।”

आपसी सहमति के बाद बात ठंडी तो पड़ गई, पर डीन ने उसके डिपार्टमेंट को अंदरखाते कह दिया कि जैसे तैसे करके वक़्तकटी करो और इस आफत से पीछा छुड़वाओ। तभी, आफिया की माँ इस्मत पाकिस्तान से उनके पास आ गई। वह आफिया के होने वाले बच्चे के कारण उसकी मदद के लिए आई थी। इस कारण आफिया का भी ध्यान बंट गया। इस्मत को बच्चे की देखरेख के लिए स्पेशल वीज़ा मिला था जिसके कारण आगे चलकर उसको ग्रीन कार्ड भी मिल गया। आफिया ने निश्चित समय से पहले ही अपनी पढ़ाई अच्छे नंबरों से पास कर ली। उसका सिर्फ़ लैबोटरी वाला काम शेष रहता था। इसके लिए वह रात की शिफ्टों में आतीं या फिर रविवार के दिन आ जाती। यहाँ उसका जो इंचार्ज़ था, वह पुराने विचारों वाला बड़ी आयु का यहूदी था। उससे आफिया ने कहा कि बच्चे की आमद के कारण उसके लिए दिन के समय आना कठिन है। उसने आफिया को अपना लैब वर्क रात की शिफ्ट में अथवा वीकएंड पर करने की अनुमति दे दी। आफिया ने उसका तहेदिल से धन्यवाद करते हुए कहा, “सर, आपकी बड़ी मेहरबानी जो आपने मेरी मदद की।”

“कोई बात नहीं आफिया, तू मेरी बेटी जैसी है। तेरी मदद करना मेरा फर्ज़ बनता है।”

“सर आप, अपनी सोच के कारण किसी बहुत ही धार्मिक मुसलमान जैसे लगते हैं।”

“अच्छा ! मुसलमान धर्म में भी इस तरह ही सोचा जाता है ?“

“हाँ सर, आप इस्लाम के बारे में कोई किताब पढ़कर तो देखो।”

“अच्छा कभी तुझे कोई अच्छी-सी किताब मिले तो मेरे लिए लेते आना। मैं ज़रूर पढ़ूँगा।”

इसके बाद आफिया ने उसके घर बड़े बड़े मुसलमान स्कॉलरों की किताबों के ढेर लगा दिए। पर उसको पढ़ने की फुर्सत कहाँ थी। उधर आफिया समझती थी कि यह सारी किताबें बहुत ही रोचकता से पढ़ रहा है। एक दिन उसने पूछ लिया, “सर, आपको कैसी लगीं ये किताबें ?“

“अच्छी हैं, अच्छे विचार है इन लेखकों के।” उसने पढ़ी यद्यपि एक भी किताब नहीं थी, पर उसने आफिया का दिल रखने के लिए यह बात कह दी। इस बात से उत्साहित होकर आफिया उसके घर जाने लग पड़ी। टीचर को उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था, पर उसको उसका भोलापन अच्छा लगता था। वह उसको अक्सर ही कह देता कि तू तो मेरी बेटी है। जब लैबवर्क खत्म हो गया तो आफिया एक दिन उसके घर गई। आम बातें करते हुए बोली, “सर, आप मुझे अपनी बेटी समझते हो, आपको मुसलमान धर्म भी अच्छा लगता है।”

“हाँ, मैं तुझे अपनी बेटी समझता हूँ।”

“फिर सर अपनी बेटी की एक बात मान लो।”

“हाँ, बोल बेटे।”

“आप इस्लाम मज़हब अपना लो।”

“क्या ?...“ यह बात उसका सुनकर रंग उड़ गया। उसका पलभर कोई बात ही न सूझी। वह भौंचक -सा आफिया की तरफ देखने लगा। वह मुस्करा रही आफिया के चेहरे की ओर देख रहा था। साथ ही वह इस मासूम मुस्कराहट के पीछे छिपे क्रूर चेहरे को पहचान चुका था।

“मिस आफिया अब तू जा सकती है। अपना लैबवर्क खत्म हो गया है। अपना अध्यापक और विद्यार्थी का नाता भी खत्म हो चुका है। मैं चाहूँगा कि तू मुझे भविष्य में कभी न मिले।” इतना कहते हुए वह उठा। आफिया दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली तो टीचर ने भड़ाक-से दरवाज़ा बंद कर लिया।

उधर अफगानिस्तान में बहुत कुछ बदल रहा था। सोवियत यूनियन के वहाँ से निकल जाने के बाद भिन्न भिन्न दलों के वार लोर्ड मिलजुल कर सरकार चला रहे थे। परंतु फिर वहाँ एक नया ही संगठन पैदा हो गया। इस नए संगठन का नाम था - तालिबान। तालिबान अर्थात विद्यार्थी। अफगानिस्तान से आए रिफ्यूजियों के बच्चों के लिए, पाकिस्तान में जो मदरसे खोले गए थे, उनमें उन्हें मज़हबी तालीम देने के अलावा लड़ाई के लिए तैयार किया गया था। अफगानिस्तान के जिस जाने-माने मज़हबी रहनुमा की अगुवाई में यह काम हुआ था, उसका नाम था - मुल्ला उमर। मुल्ला उमर ने सोवियत यूनियन के साथ लड़ाई के समय बड़ी भूमिका अदा की थी। मुल्ला उमर के तालिबानों को पाकिस्तान के अलावा सउदी अरब सरकार का पूरा समर्थन हासिल था। खै़र, जब उसने अपने तालिबानों की फौज अफगानिस्तान के अंदर उतारी तो वहाँ वार लोर्डों में भगदड़ मच गई। तालिबान नौजवान बहुत ही जोशिले थे जो इन वार लोर्डों की फौजों को हर फ्रंट पर मात देते चले गए। आखि़र 1995 में आकर तालिबानों ने वार लोर्डों की कमर तोड़कर रख दी और अफगानिस्तान के उत्तर की ओर के थोड़े-से इलाके को छोड़कर सारे अफगानिस्तान पर अपना अधिकार जमा लिया। लोगों को लगा कि अब पुराने लीडरों की वहशी कारवाइयों से पीछा छूट जाएगा। पर यह उनका भ्रम साबित हुआ। तालिबानों ने आते ही ऐसे शरीअत कानून लागू किए कि लोगों का सांस लेना भी कठिन हो गया। इन नए कानूनों ने खासतौर पर औरत का तो गला ही दबा दिया। हर क्षेत्र में उनकी आज़ादी खत्म कर दी गई। औरतों के स्कूल कालेज बंद कर दिए गए। औरतों को नौकरी करने से रोक दिया गया। औरत के अकेली घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। बग़ैर किसी नज़दीकी रिश्तेदार के वह घर से बाहर नहीं जा सकती थी। औरतों पर पाबंदियाँ लग गईं। हार-शिंगार पर पाबंदी, अच्छा पहनने पर पाबंदी, ऊँची एड़ी की सैंडिल पहनने पर पाबंदी, बाहर कहीं भी ऊँचे स्वर में हँसने पर पाबंदी। इसके अतिरिक्त गीत-संगीत के स्टोर वगैरह आग लगाकर राख कर दिए गए। ख़बरों के अलावा रेडियो पर हर प्रोग्राम को रोक दिया गया और सिनेमाघर बंद कर दिए गए। गाना-नाचना बंद, साहित्य-कविता आदि की किताबें बंद। तात्पर्य यह कि कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहाँ मज़हबी पाबंदी न लगी हो। इस तालिबान लीडरशिप को पाकिस्तान की पूरी सरपरस्ती हासिल थी। पाकिस्तान का मज़हबी ग्रुप, संगठन आदि इस सारी मूवमेंट के पीछे था। आफिया के परिवार का इसी संगठन के साथ संबंध था। सो, आफिया इस सबको बड़े रोमांच-से देख रही थी। जब तालिबानों ने मानवीय अधिकारों का क़त्ल करने में कोई कसर न छोड़ी तो यू.एन.ओ. ने अफगानिस्तान को सारी मदद बंद कर दी। इससे चिढ़कर कट्टर लीडरों ने अल रशीद नाम का संगठन शुरू कर लिया जिसका काम तालिबानों के लिए फंड आदि का प्रबंध करना था। इसने अपने अख़बार भी निकाले। आफिया इस सबके हक में थी। उसने इन अख़बारों के लिए लेख भी लिखे। इस दौरान अमेरिका ने अफगान सरकार को आगाह किया कि वह सउदी अरब के करोड़पति इंतहापसंद ओसामा बिन लादिन को पनाह देना बंद करे। मगर तालिबान सरकार ने इस बात की कोई परवाह नहीं की। आफिया इस बात के कारण भी तालिबानों के हक में खड़ी हुई। उसके लिए ओसामा बिन लादिन हीरो था।

ओसामा बिन लादिन पहली बार अमेरिका की नज़रों में 1993 में तब आया जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के नॉर्थ टॉवर के अंदर रम्ज़ी यूसफ द्वारा किए गए बम धमाके वाला केस शुरू हुआ। जांच के दरम्यान पता चला कि अपनी रूपोश ज़िन्दगी के दौरान रम्जी यूसफ, ओसामा बिन लादिन के गैस्ट हाउस में ठहरता रहा था। यहीं से ही ओसामा बिन लादिन के विषय में पूरी जानकारी एकत्र की गई तो पता चला कि वह सउदी अरब का एक अमीर और इंतहापसंद व्यक्ति है जो कि अफगानिस्तान की लड़ाई के समय अपनी निजी फौज से सोवियत यूनियन के खिलाफ लड़ता रहा है। बाद में उसको उसकी सरकार यानी सउदी अरब ने उसकी बगावती कार्रवाइयों के कारण देश से बाहर निकाल दिया। वह कुछ समय सूडान में रहा और मुल्ला उमर की तालिबान सरकार के अस्तित्व में आने के बाद उसने अफगानिस्तान में आकर स्थायी तौर पर डेरा जमा लिया।

आफिया को ओसामा बिल लादिन की जीवनशैली ने बहुत प्रभावित किया। जब वह नीचे ज़मीन पर बैठकर खा रहा होता या अपने साथयों के साथ जंगलों में भटक रहा होता तो आफिया की आँखें भर आतीं। वह सोचती कि यदि यह चाहे तो एक शहजादे की ज़िन्दगी व्यतीत कर सकता है। पर इसने सब कुछ धर्म के नाम अर्पित कर दिया है। आफिया के दिल में मुहम्मद साहिब के बाद यदि किसी की इज्ज़त थी तो वह ओसामा बिन लादिन की थी।

(जारी…)