Afia Sidiqi ka zihad - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 7

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद

हरमहिंदर चहल

अनुवाद : सुभाष नीरव

(7)

वर्ष 1994 को आरंभ हुए तीन सप्ताह हो चुके थे। उस दिन रातभर बर्फ़बारी होती रही थी। आफिया गहरी नींद सोई हुई थी जब उसके सैल फोन की घंटी बजी। उसने अलसाते हुए ‘हैलो’ कहा। दूसरी ओर मार्लेन बोल रही थी। उसने इतना कहकर फोन काट दिया कि वह उसको एक घंटे बाद लेने आ रही है। वह तैयार रहे। आफिया ने धीरे-धीरे बिस्तर छोड़ा और उठकर कमरे में से बाहर आ गई। उसने खिड़की का पर्दा उठाकर बाहर देखा। सूरज की तेज किरणों ने उसकी आँखें चुंधिया दीं। रात यद्यपि बर्फ़ गिरती रही थी, पर इस समय सूरज निकला हुआ था। स्नो पर पड़ती धूप आँखों में चुभ रही थी। वह पर्दा गिराकर वापस कमरे में आ गई। फिर तैयार होने लगी। तैयार होकर उसने अपना बैग उठाया और लम्बा कोट पहनकर नीचे आ गई। उसके नीचे पहुँचने के करीब दो मिनट बाद ही मार्लेन आ गई। आफिया दरवाज़ा खोलकर कार में बैठी तो मार्लेन ने कार आगे बढ़ा ली। बीस मिनट में वे उसके अपार्टमेंट में पहुँच गईं। दरवाज़ा खोलते ही आफिया ने देखा कि सामने सुलेमान अहमर बैठा था। दोनों ने एक दूसरे को आदाब कहा। वे पहले मिल चुके थे। सुलेमान अहमर, बैनेवोलैंस इंटरनेशनल का डायरेक्टर था। उसने पहली मुलाकात में ही आफिया को बता दिया था कि वह जिहाद की ओर कैसे अग्रसर हुआ। उसने बताया था कि वह ओर कुछ अन्य दोस्त जो कि पूरे नबरास्का यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे, टूर लगाने क्रोशिया गए थे। वहाँ उनको जिहादियों ने बंदी बना लिया था। कुछ दिन उन्हें कै़द में रखकर छोड़ दिया गया, परंतु जो कुछ उसने इस दौरान जिहाद के बारे में सुना, उसने उसके दिल में जिहाद के प्रति हमदर्दीभरा आकर्षण पैदा कर दिया। बाहर आकर उसने और खोजबीन की तो उसको लगा कि उसका असली काम जिहाद ही है। फिर वह छोटे सर्किलों में विचरता हुआ इस संगठन के डायरेक्टर के पद पर आ पहुँचा। आज वह यहाँ बैनेवोलैंस की ब्रांच स्थापित करने आया था। सारा दिन वे मीटिंग के विषय में विचार-विमर्श करते रहे। यह एक छोटी-मोटी मीटिंग नहीं थी। बैनेवोलैंस बहुत बड़ा संगठन था। जिसका काम हालांकि चैरिटी ही बताया जाता था, परंतु असल में यह अलकायदा के साथ जुड़ा हुआ था। अलकायदा के लिए बहुत सारा फंड इसी संगठन के जरिये इकट्ठा होता था। शाम के वक़्त मीटिंग हुई तो आफिया हैरान रह गई। इतना जोश उसने किसी भी मीटिंग में नहीं देखा था। इसके अतिरिक्त, यहाँ बहुत बड़े-बड़े जिहादी पहुँचे हुए थे। जिनके इससे पहले आफिया ने सिर्फ़ नाम ही सुने थे। सुलेमान ने बहुत ही प्रभावशाली भाषण दिया। यहाँ आफिया को भी बोलने का अवसर मिला। उसने इस अवसर का इतना अच्छा इस्तेमाल किया कि सभी हैरान रह गए। उसका लैक्चर इतना प्रभावशाली था कि सदस्यों के मुँह बंद हो गए। हरेक को लगा कि इतनी जोशिली लड़की जिहाद में पहले कभी नहीं देखी। उसने सभी की ओर देखते हुए कहा कि किधर गया मुस्लिम मर्द आज। किधर गया उसका स्वाभिमान कि बॉस्निया में हमारी बेटियों-बहनों का कुछ नहीं बचा और उसके कानों पर जूं नहीं रेंगी। उसने कहा कि मैं स्टेज पर क्यों खड़ी हूँ। यहाँ किसी मर्द को होना चाहिए। उसकी बातों का इतना असर हुआ कि कई युवकों ने जिहाद के लिए अपने नाम लिखवा दिए।

वापस लौटते हुए सुलेमान ने बात शुरू की, “आफिया इस संगठन का प्रधान मुझे नहीं, बल्कि तुझे होना चाहिए, पर...।“ आगे कुछ कहते कहते वह रुक गया। वह कहना चाह रहा था कि इस्लाम के अनुसार मर्द संगठन का मुखिया मर्द ही हो सकता है। उसको चुप हुआ देख आफिया बोली, “मैं तुम्हारी बात समझ गई हूँ। पर मैं इस बात के हक़ में हूँ कि इस्लाम ने औरत को जो भी रुतबा दे रखा है, वह सही है। मैं जिस ओहदे पर काम कर रही हूँ, वह ठीक है। बस, काम चलते रहना चाहिए।“

“आफिया, तूने कामीला की बात सुनी है।“ सुलेमान ने बात बदली।

“कामीला कौन ?“

“यह नई घटित घटना है, इसलिए तुझे पता नहीं होगा। कामीला एक जिहादी लड़की है जो कि इंग्लैंड में जन्मी-पली थी। वह अपने बलबूते पर ही बॉस्निया चली गई और जिहादी दलों में शामिल हो गई। लड़ाई में उसने काफ़िरों के छक्के छुड़ा दिए। उसकी बहादुरी की कहानियों से इंटरनेट भरा पड़ा है।“

“अच्छा ! औरत होकर उसने इतनी बहादुरी भरे कारनामे किए हैं, यह तो बहुत ही अहम बात है।“

आफिया उसकी बात सुनकर अपने आप में लीन हो गई। ख़याल में खोई आफिया कामीला की जगह स्वयं को देख रही थी। उसको लग रहा था कि बॉस्निया में कामीला नहीं, बल्कि वह गई हो। दुश्मनों के छक्के कामीला ने नहीं अपितु उसने छुड़ाये हों। उसके विचारों की लड़ी टूट गई जब सुलेमान की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, “पर...।“

“पर क्या ?“ आफिया ने सोच के घेरे से बाहर निकलकर उसकी ओर देखा।

“उसके बारे में बड़े मज़हबी लीडर इस बात से नाराज़ हैं कि वह एक औरत होकर अकेली ही जिहाद में शामिल हो गई है। मेरा मतलब ऐसे समय में उसके साथ उसका महरम होना चाहिए। इस्लाम के मुताबिक अगर कोई औरत जिहाद में हिस्सा लेती है तो वह घरवाले के बग़ैर यह काम नहीं कर सकती।““यह बात तो बिल्कुल ठीक है।“

“मेरा ख़याल है कि तुमने जिहादी वेबसाइट पर आज की ख़बर नहीं पढ़ी।“ अब तक शांत बैठी उनकी बातें सुन रही मार्लेन बोली।

“क्यों, क्या ख़बर है आज की ?“

“उस लड़की ने सूडान के किसी जिहादी के साथ निकाह कर लिया है। अब दोनों पति-पत्नी मुहाज़ पर लड़ रहे हैं।“

“ये हैं फिर सच्चे जिहादी जो सही ढंग से इस्लाम का पालन कर रहे हैं। काश कि...।“ आफिया बात बीच में ही छोड़ती हुई चुप हो गई। अब उसको ख़याल आया कि काश वह भी घरवाले के साथ जिहाद लड़ रही होती। कुछ आगे चलकर मार्लेन और सुलेमान उसे उतारकर आगे बढ़ गए। आफिया के ख़यालों में कामीला ही घूम रही थी। इतना ही नहीं, उसको रात में नींद भी नहीं आई। सारी रात वह किसी ख़याल से गुत्थम-गुत्था होती रही कि काश, वह किसी ऐसे व्यक्ति के साथ शादी करवाये जो कि जिहाद लड़ रहा हो या आवश्यकता पड़ने पर जिहाद में जाए। दिन चढ़ने तक उसने अपने आप से एक दृढ़ फैसला कर लिया कि वह ऐसे ही किसी लड़के के साथ विवाह करवाएगी जो उसकी इस सोच को पूरा करता हो।

आफिया ने युनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उसने बहुत अच्छे अंकों से पढ़ाई खत्म की थी। वर्ष 1995 के जनवरी महीने उसके माता-पिता उसकी ग्रेज्युएशन पर आए। ग्रेज्युएशन की पार्टी के बाद माँ-बाप के साथ वह अपार्टमेंट में आई तो उसकी माँ ने बात प्रारंभ की।

“आफिया, हम तेरी शादी के बारे में सोच रहे हैं।“

इस्मत की यह बात सुनकर आफिया की खुशी का ठिकाना न रहा। क्योंकि जबसे उसके माँ-बाप आए थे, तब से वह अवसर खोज रही थी कि किसी वक़्त वह माँ से बात करे और किसी जिहादी के साथ विवाह करवाने की अपनी ख्वाहिश बताए। अब उसके मन की हो गई जब माँ ने खुद ही बात छेड़ ली।

“अम्मी, उससे पहले मैं कुछ कहना चाहती हूँ।“

“हाँ, बोल।“

“अम्मी, मेरी दिली इच्छा है कि मैं किसी ऐसे लड़के से विवाह करवाऊँ जो कहीं जिहाद लड़ रहा हो।“

“आफिया, तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया। मैंने तुझे क्या कहकर भेजा था ?“ इस्मत गुस्से में उसकी ओर लपकी। भवें सिकोड़ती वह कुछ पल आफिया की तरफ देखती रही और फिर सख़्त आवाज़ में दुबारा बोलने लगी, “मैं तुझे कई बार कह चुकी हूँ कि यह काम चैरिटी तक तो ठीक है, पर उससे आगे नहीं। तेरा असल मैदान तो राजनीति है। पाकिस्तान की राजनीति तुझे पुकार रही है। तू है कि पता नहीं क्या उल्टा-सीधा सोचती रहती है। अगर यह बात तेरे अब्बू ने सुन ली तो क़हर हो जाएगा।“

“पर अम्मी, मेरा मज़हब मुझे इजाज़त देता है कि अगर मुझे अच्छा न लगे तो मैं निकाह से इन्कार कर सकती हूँ।“

“पर इस में अच्छा या बुरा लगने वाली क्या बात है। मैंने तो तुझे अभी यह भी नहीं बताया कि तेरी मंगनी किसके साथ करने की सोच रहे हैं हम। साथ ही, मज़हब यह भी तो कहता है कि बच्चे को माँ-बाप की बात माननी चाहिए। तू पहले पूरी बात सुन ले।“

“हाँ, बताओ।“ आफिया ने मन में सोचा कि यहाँ सीधे ढंग से बात करने से बात नहीं बनने वाली। वह माँ-बाप की बात का जवाब नहीं दे सकेगी। उसने किसी दूसरे ढंग से बात को अपने हक़ में रखने का फैसला कर लिया।

“तुझे याद होगा कि जब पिछली बार तू पाकिस्तान आई थी, तो वहाँ जाहिरा खां नाम की एक बेगम साहिबा ने तेरा भाषण सुना था। बाद में उसका बेटा अमजद तुझे घर तक छोड़ने भी आया था। उस लड़के के साथ तेरी मंगनी की बात चल रही है। वह इस साल आगा खां युनिवर्सिटी से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहा है। फिर, वह एनेस्थीसियोलॉजी की उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका आ रहा है। हमारे मुताबिक यह लड़का हर तरह से तेरे योग्य है। तू अब सोचकर अपनी राय बता।“

माँ की बात सुनकर आफिया चुप हो गई और मन में सोचने लगी, ‘सीधे ढंग से तो माँ जिहाद वाली बात नहीं मानेंगी। पर कई बातों से यह लड़का मेरा अच्छा जीवन-साथी हो सकता है। वह यहाँ अमेरिका में होगा तो मैं उसको जिहाद में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित कर लूँगी। इस प्रकार मेरा मनोरथ भी पूरा हो जाएगा और घरवालों का मान भी रह जाएगा। मैं तरीके के साथ माँ को कहकर उस लड़के को जिहाद के लिए हामी भरवा लेती हूँ।’ मन में निर्णय करके आफिया माँ से बोली, “पर अम्मी, मेरा यह अधिकार है कि मैं अपने होने वाले घरवाले से पूछूँ कि क्या ज़रूरत पड़ने पर वह जिहाद में हिस्सा लेगा जो कि हर मुसलमान का पहला कर्तव्य है।“

इस्मत को उसकी बात कुछ-कुछ ठीक लगी। उसने सोचा कि इस तरह पूछने में क्या हर्ज़ है। इस प्रकार तो हर एक मुसलमान सोचता है कि अगर ज़रूरत होगी तो वह जिहाद में हिस्सा अवश्य लेगा। निकाह वग़ैरह के समय यह एक किस्म की रस्म ही समझी जाती है। उसने इस बात के विषय में आफिया को ‘हाँ’ कह दी और साथ ही, पाकिस्तान में अपने परिवार को खान परिवार तक यह बात पहुँचाने का संदेश भिजवा दिया। उधर खान परिवार वाले संदेश मिलने पर सद्दीकी परिवार के मज़हबी रहनुमा मुफ्ती साहिब से मिलने गए। सारी बातचीत करने के बाद मुफ्ती साहिब ने अमजद के साथ अलग ढंग से बात करते हुए पूछा, “बेटा अगर ज़रूरत पड़े तो क्या तू जिहाद में हिस्सा लेगा ?“

“क्या !“ अमजद हैरान हुआ। उसने सोचा कि वह एक डॉक्टर है, न कि कोई फौजी। फिर उसके मन में ख़याल आया कि एक मज़हबी रहनुमा होने के नाते मुफ्ती साहिब द्वारा इस तरह पूछा जाना स्वाभाविक है। उसने भी इसको एक रस्म-सी समझते हुए कहा, “जी, इंशा अल्लाह अगर खुदा ने चाहा तो ऐसा ही होगा।“ मीटिंग खत्म हो गई। यह बात अमेरिका बैठे सद्दीकी जोड़े की मार्फ़त आफिया तक पहुँच गई कि होने वाले दूल्हे ने जिहाद में हिस्सा लेने की सहमति प्रकट की है। उसने खुशी खुशी रिश्ते के लिए ‘हाँ’ कर दी। सद्दीकी परिवार के पाकिस्तान लौटने के बाद अमजद और आफिया की मंगनी हो गई। बाद में यह निकाह फोन पर ही हुआ।

इस बीच 1993 में बेनज़ीर भुट्टो दूसरी बार प्रधानमंत्री चुनी जा चुकी थी। सबको पता था कि वह अमेरिका समर्थक है। अमेरिकी सरकार ने पहली बात जो उससे कही, वह दुनिया के सबसे ज्यादा वांटेड आतंकवादी रम्जी युसफ को पकड़ने वाली बात थी। भुट्टो ने इसके लिए पूरी मदद देने का भरोसा दिया। इसके बाद कई बार छापे मारे गए, परन्तु रम्जी युसफ हर बार बच निकलता था। एक दिन भुट्टो ने अपने ख़ास अफ़सर से बात की तो उसने अपना विचार बताते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि आई.एस.आई. में रम्जी युसफ के ख़ास सैल हैं। वे हर बार पुलिस रेड होने से पहले ही उसको निकाल देते हैं। फिर, भुट्टो ने एक ऐसी टॉस्क फोर्स बनाई जिसकी वह स्वयं इंचार्ज़ थी। इस टॉस्क फोर्स में सभी उसके विश्वसनीय अफ़सर थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अगले ही महीने रम्जी युसफ पकड़ा गया। उसको गिरफ्तार करते ही अमेरिकी सरकार उसको अमेरिका ले गई। इससे बेनज़ीर भुट्टो पर बहुत तोहमतें लगीं कि उसने मुसलमान होकर एक मुसलमान को काफ़िरों के हवाले कर दिया है। परन्तु उसने इसकी ज़रा भी परवाह नहीं की। बल्कि इसके पश्चात वह आतंकवादियों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। सबसे पहला काम उसने यह किया कि आई.एस.आई के मुखिया और आतंकवादियों के कट्टर समर्थक जावेद नासिर को पद से हटा दिया और उसके स्थान पर अपना ख़ास व्यक्ति बिठा दिया। इस क्षेत्र में वह और भी बड़े काम कर रही थी, पर इस दौरान उसकी सरकार भ्रष्टाचारों के चक्कर में फंस गई और अपना कार्यकाल भी पूरा न कर सकी। अगले चुनाव में भुट्टो की पार्टी हार गई और भुट्टो स्थाई तौर पर देश छोड़कर इंग्लैंड चली गई।

ग्रेज्युएशन होने के बाद भी आफिया ने एम.आई.टी. में अपनी कम्प्यूटर की पार्ट टाइम नौकरी जारी रखी थी। आजकल उसको महसूस होने लगा था, मानो उसका हर वक़्त पीछा किया जाता हो। उसने इस विषय में सुहेल से बात की तो सुहेल ने बताया कि एफ.बी.आई. केयर ब्रदर्ज़ संगठन के पीछे पड़ा हुआ है, इसलिए बचकर रहा जाए। केयर ब्रदर्ज़, एम.एस.ए. और अन्य संगठन सहमे-से रहने लगे थे। हर किसी को लगता था कि एफ.बी.आई. उनके पीछे घूम रही है। फिर तभी 19 अप्रैल 1995 को आक्लोहामा सिटी की मूरा नामक फैडरिल बिल्डिंग में भयानक बम धमाका हो गया जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। सारा अमेरिका दहल उठा। एफ.बी.आई. ने ध्यान से देखा तो पता चला कि इस बम धमाके के सारे तौर-तरीके उस बम धमाके से मिलते-जुलते थे जो रम्जी युसफ ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के नॉर्थ टॉवर के पार्किंग लॉट में किया था। एफ.बी.आई. सभी मुस्लिम संगठनों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। ख़ास तौर पर केयर ब्रदर्ज़ के पीछे। अगले दिन आफिया काम पर गई तो उसको सहकर्मी ने बताया कि कुछ देर पहले ही उसको एफ.बी.आई वाले खोजते हुए आए थे। आफिया तुरन्त वापस लौट आई और बाहर से ही चिकागो चली गई। उसकी बड़ी बहन फौजिया कुछ महीने पहले ही पढ़ने के लिए चिकागो आई थी और वहाँ एक अपार्टमेंट में रहती थी। आफिया उसके पास जा ठहरी। वहीं उसको एक दिन सुहेल का फोन आया। आवाज़ पहचानते हुए वह बोला, “आफिया, आक्लोहामा सिटी बम धमाके का दोषी पकड़ा जा चुका है।“

“अच्छा ! कौन है वो ?“

“वह टिम्थी मकबेथ नाम का कोई अमेरिकी है।“

“अच्छा ! अमेरिका में भी जिहादी पैदा होने लग पड़े।“ आफिया हँसी।

“तू यह बात छोड़, पर उसके पकड़े जाने से हम लोगों को बहुत फायदा हुआ है।“

“वह कैसे ?“

“क्योंकि अब तक अमेरिकी सरकार समझती थी कि यह धमाका किसी इस्लामिक जिहादी ने किया है। इस कारण हमारे सभी संगठनों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई थी। पर अब सब कुछ बदल गया है। अपनी ओर से वे पीछे हट गए हैं। तू चाहे तो वापस आ सकती है। वैसे तेरी मर्ज़ी है, पर जो भी तेरा प्रोग्राम बने, मुझे बता देना।“

इसके बाद, सुहेल ने फोन काट दिया और आफिया के सिर पर से भी बोझ उतर गया।

(जारी…)

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