इश्क़ तेरे लिए... Rajan Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ तेरे लिए...

पार्क में घूमते-घूमते अचानक एक जगह मेरी नज़र अटक गयी| मैं वहीं सामने के बैंच पे जाकर बैठ गया| एक पीले पीपल के पत्ते को हाथों में लेकर अंगूठे और अनामिका अंगुलियों के पोर से धीरे-धीरे गोल-गोल घुमा रहा था और मेरी नज़र वहीं टिकी हुई थी जहाँ दो बच्चे करतब दिखा रहे थे| 
लड़का दस साल का और दुसरा आठ साल के उम्र का लगभग होगा| उसकी माँ काँधे में ढ़ोल लिए बजा रही थी| छोटा लड़का साईकिल के टायर और रिम  में खुद को ऐसे लपेट कर करतब दिखा रहा था जैसे साँप लिपट रहा हो चंदन से| और मैं देखते-देखते उस पल में खोता चला गया जहाँ मैं और मेरी भव्या थी............||

"हमने आठ साल गुज़ारे थे एक साथ एक ही घर में एक ही बिस्तर में फिर ऐसा क्या हो गया कि हम एक दुसरे से इतनी दूर हो गये? क्या हमारे प्यार में खोट था? या हम में ही खोट है? वो आंध्रा की थी और मैं मध्य-प्रदेश का लेकिन हमारे बीच न कभी भाषाई प्रभाव और न ही कभी सांस्कृतिक उलझन आयी| हम दोनो एक-दूसरे को बड़ी सहजता से बिन कहे समझ लिया करते थे| उसके लिए मुझे अपनाना अधिक आश्चर्यजनक न था लेकिन मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी| मैं तो क्या मेरे गाँव के दस कोस के अंदर भी कोई लड़की के साथ घूमता-फिरता दिखाई दे देता तो पूरे जिले में ढ़िंढोरा पिट जाए| और मैं तो पूरे आठ साल उसके साथ रह चुका था। वो भी उस संबंध में जो भारतीय संस्कृति की सबसे पवित्र और सुंदर रिश्ता माना जाता है|

हमारी मुलाक़ात भी कितनी असाधारण हुई थी| इत्तेफाक़न तो न था‌। शायद रब की यही मर्जी थी। मैं घाटकेशर से हुसैनाबाद झील देखने के लिए जा रहा था। हैदराबाद शहर में नया-नया था अभी तक कोई दोस्त भी न बना पाया था। भाषाई दिक्कतें भी बहुत ज्यादा ही आ रही थी| रूम-मेट से रात में ही झील जाने का आइडिया ले चुका था। दिक्कत तो न आनी थी लेकिन स्टैंड से बस लेकर जब निकला और सिकंदराबाद स्टैंड पर पहुँचा फिर समस्या बाँहें फैलाने लगी। मेरे रूम-मेट ने जो बस न० बताया था वह पहले ही निकल चुकी थी। स्टैंड पर जब पूछताछ किया तो लगभग सबने बताया बताया अगली बस "फाई-एम" है।

"फाई-एम"......?????

कई लोगो से पूछा पर सबने यही बताया जो मेरे समझ से बिल्कुल बाहर............।।

तभी पहली बार तुमसे मिला था बस पूछने के लिए। अबकि मैंने डायरी निकाल ली थी ताकि मैं तुमसे लिखवा लूँ। मगर तुम्हें भी उधर ही जाना था। चेल्लुरू बाला जी रूट में ही था हुसैनाबाद झील। तुमने मुझे अपने साथ ले लिया। जब बस में कंडक्टर की बातें मेरे समझ में न आ रही थी तब भी तुमने ही मदद की थी। मैं टिकट लेकर अपनी ही धुन में खिड़की से हैदराबाद सीटी का मुआयना करने लगा। तभी तुम पहली बार हिंदी में बोल पड़ी - "तुम नोर्थ-इंडिया में कहाँ से हो"? मैं सकपका सा गया था।

" मैं.......!!! मैं मध्य-प्रदेश से हूँ। लेकिन आप"???

"मैं यहीं आंध्रा-प्रदेश अरकु से हूँ" ।

मैं चौंक सा गया - "आंध्रा-प्रदेश में इतनी अच्छी हिंदी कैसे"? सोचने लगा।
तभी वह बोल पड़ी - "मैंने दिल्ली में बहुत लंबा समय बिताया है। लगभग पाँच साल....... इसीलिए हिंदी बाखूबी जानती हूँ"| कितनी सहजता से कह गयी थी तुम अपनी बात| और मैं बस तुम्हें देखता ही रह गया था| कितनी प्यारी-प्यारी बातें करती थी तुम........ मानों सावन के पहली फुहार पर मोर अपना सतरंगी पंख फैलाये नृत्य कर रहा हो......... और मैं मोरनी के जैसे टक लगाये तुम्हें आलिंगन में भरने को मचल रहा होऊँ| मोतियों से झड़ते थे तुम्हारे मुँह से हिंदी के शब्द| कितनी बातें की थी हमने उस दिन बस में| बातों-बातों में ही तो तुमने अपना मोबाइल नम्बर भी दिया था और कितने अधिकार से बोली थी जब कोई दिक्कत हो तो फोन कर लेना| मेरे लिए यह कोई सपना से कम न था| 

बातें बनती रही और गाड़ी बढ़ती रही और मेरा स्टेंड आ गया; मैं झील पर उतर गया था तुम्हें आगे जाना था तो बस में बैठी रही थी| तुमने शाम को फिर फोन किया था मैं अपने रूम पे पहुँचा या नहीं.......!!! यही तो थी हमारी दोस्ती की पहली शुरूआत| इसके बाद हम अक्सर ही बातें करने लग गये थे| और फिर एक दिन मेरे रूम-मेट का ट्रांसफर कोयंबटूर हो गया मैं अकेले किराया अफोर्ड नहीं कर सकता था तब तुमसे पहली बार मदद माँगी थी मैंने रूम खोजने में| अगले दिन मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था कि तुम आओगी और मकान-मालिकों से बातचीत करने के दौरान मेरी मदद करोगी पर तुम न आकर फोन की थी मुझे आज भी बढ़िया से याद है वो फोन कॉल की बातें  -"हेलो ! अर्पण तुम आज मेरे फ्लेट पर आ जाओ आगे का प्लान यहीं करते है इधर सस्ते में रूम मिल जाएगा"| और मैं तुम्हारे पास आ गया था|

"तुम यहीं मेरे साथ क्यों नहीं सिफ्ट हो जाते? मेरी रूम-मेट तीन महीने के लिए छुट्टी पर जा रही है शादी करने| मैं अकेली रह जाऊँगी"!! - बातें करते-करते तुमने कितनी आसानी से प्रपोजल रख दी थी| पहले तो मैं झिझका था पर मेरे पास इस से सस्ता जगह तत्काल मिलना मुश्किल था| मैंने "हाँ" कर दिया था|

शुरू-शुरू में तो हम ऐसे रहते थे मानों दो अलग-अलग ग्रह से आये दो उल्काओं को एक ही डिब्बे में बंद कर दिया गया हो और उनकी रौशनी आपस में लुक्का-छिप्पी खेल रहा हो लेकिन जब उस रात तुम बुखार से तप रही थी और मैं अॉफिस से आते ही तुम्हें इस हालत में देख कर परेशान हो गया था तभी शायद तपिश से पिघल कर एक नयी रौशनी का उदय हुआ था जिसका नाम "प्रेम" है|

प्रेम.......!!! हाँ........!!! प्रेम.........
प्रेम में पिघला दिल का बर्फ जब निर्मल जल बन प्रवाहित होता है तो प्रेम-मग्न इंसान सारी हदें, सभी बाँधे तोड़ दिल के आवेग प्रवाह को आँखों के रास्ते साँसों से होते हुए शरीर के हरेक कोने से होते हुए बस रूह में समाँ कर स्थिर हो जाने को बेताब रहता है| कुछ ऐसा ही वाला इश्क़ हमारे बीच भी तो हुआ था|
इश्क़ वाला प्यार........!!! हाँ......... इश्क़.........
ऐसा इश्क़ जिसमें कोई शर्त नहीं था| जो दरग़ाह के चादर सा पाक और मंदिर के चुनरी सी पवित्र| हमारे बीच सबकुछ था लेकिन जबरदस्ती जैसी कुछ नहीं था|

हम दोनों एक-दुसरे को बिन कहे सुने कैसे समझने लग गये थे| मानों दो बदन एक जान.......| तुम्हारी सैलरी ज्यादा थी मुझसे लेकिन फिर भी शादी मुझसे करने का फैसला कर चुकी थी| तुम्हारा कहना था मैं पढ़ाई कैरियर सब इंजॉय कर चुकी हूँ और समय पर फैमिली भी इंजॉय करना चाहती हूँ| तुमने तो अपने घरवालों से भी हमारी शादी के लिए बातें कर ली थी| मेरे लिए थोड़ा मुश्किल था अपने परिवार को मनाना| लेकिन मैं तुम्हें धोखा भी नहीं दे सकता था| और मैंने भी हाँ कर दी थी|

अब बारी मेरे परिवार को इस शादी के लिए तैयार करने की थी|
मेरे पिता जो एक बहुत ही छोटे किसान थे जिनके लिए सबसे बड़ा सहारा मैं ही हूँ जिन्होंने मुझे पढ़ाने के लिए चार एकर जमीन में से ढ़ाई एकर गिरवी दे रखें है| मेरे द्वारा भेजे गये पैसों से दो छोटे भाईयों का पढ़ाई-लिखाई चलता है| जमीन आज भी ज्यों का त्यों गिरवी ही है| अपने तनख्वाह का साठ प्रतिशत परिवार को और चालीस प्रतिशत में खुद का निर्वहन सब कुछ तुम्हें मालूम तो था फिर भी तुम मुझसे शादी करने को तैयार थी तो मैं कैसे पीछे हट सकता था| मुझे तो मानना ही था शादी के लिए सो मान गया|

पर वक्त कुछ और कहानी गढ़ने के लिए तैयार था| उस दिन कंपनी के एनुअल मेडिकल चेकप का रिपोर्ट आना और हामरे रिश्ते में नया मोड़ का लाना साथ-साथ.........| मुझे लंगस् कैंसर............| डॉ० का कहना था अधिक स्मॉकिंग के वजह से ये बीमारी होती है| पर मैंने तो कभी स्मॉकिंग किया ही नहीं था फिर ये बीमारी मुझे ही क्यों??? मेरे पास मात्र तीन महीने का समय था| मैं टूट सा गया था| मुझसे तो तुम्हें भी न बताया जा रहा था| कैसे बताता?? और क्या बताता?? कि मैं अब मरने वाला हूँ|

मैं जब-जब तुम्हारी ओर देखता था तो जीने का मन करता था तुम्हारे लिए| मैं अभी मरना नहीं चाहता था| मुझे तो अभी तुम्हारे संग आसमान को छूना था पुष्प विमान पर सैर करना था| अपने परिवार के लिए कुछ कर गुजरना था| पर सब अधूरे सपने से लगने लगे| ये कोई ख़्वाब नहीं मेरा हकीकत था जिस में मैं पल-पल घुट रहा था| मुझे लग रहा था मानों मैं तुम्हें धोखा दे रहा हूँ| मुझ से वो बेबसी जब सहा न गया तो तुम्हें बताने का फैसला किया था मैंने| पर तुम तो मानों जिद्द पर अड़ गयी थी शादी करने को| कितना रोयी थी तुम मेरे साथ उस रात........ शब्दों में ब्यान करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है उस भावना को| तुम्हारी जिद्द और अपने अंदर चले दो दिनों के कशमकश के बाद मैं कहीं दूर जाने का फैसला कर चुका था| और मैं तुमसे बहुत दूर चला गया जहाँ तुम्हें मेरी खबर न लग सके| लेकिन तुम्हारी "समर्पित-प्रेम" एक बार फिर मुझे उस गली में खींच लायी है जहाँ हम रोज अॉफिस से आने के बाद कुछ पल बिताया करते थे| मैं आज उसी पार्क में तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ जहाँ हमने सपने देखना शुरू किया था| क्या तुम आज भी यहाँ आती हो या.............????

"अर्पित........"!!! - भव्या की आवाज सुन अर्पित की तंद्रा टूट गयी| "तुम कहाँ चले गये थे मुझे अकेले छोड़कर"??? - आँखों से आँसू के बादल फट कर झमाझम बरसने लगे| "तुम्हें क्या लगता है तुम मर जाओगे तो मैं तुम्हें भूल जाऊँगी| तुमने इतना भी न सोचा कि जिन्हें अपनी मौत और जिंदगी के दरम्याँ का फासला नहीं मालूम वो मरने वालों के याद में कितनी मौते मरता है"| - दोनों की आँखें सूज गयी रोते-रोते|

"पर भव्या तुम ये जानते हुए भी कि मैं मरने वाला हूँ फिर भी इतना प्यार कैसे कर सकती यार?? तुम मेरे परिवार को अपना मंथली कैसे भेज सकती?? आखिर कब तक भेज सकती?? मुझे लगा था तुम भी आज के समय के हिंदी सिनेमा की लेटेस्ट वर्जन लवर हो पर तुम तो साठ के दसक की ट्रेडिसनल अभिनेत्री निकली|  अब मैं अपनी बची हुई जिंदगी तुम्हारे संग जीना चाहता हूँ यार| मेरे खून की उल्टी मेरे कमज़ोर होते शरीर के मांसपेशियों को क्या तुम झेल पाओगी"??? 

" पागल.....!!! मैं तुम्हारे गंदे कपड़े या मजबूत बाजूओं से नहीं तुमसे प्यार करती हूँ| चलो अब घर चलो| आज से तुम मेरे हो तुम्हारा परिवार मेरा है तुम्हारी बची हुई जिंदगी मेरी है जिसमें तुम और मैं वो सब करेंगे जिसका तुमने कभी ख्व़ाब देखा था"| - कहते हुए भव्या अपने प्यार पर अपना सबकुछ समर्पित करने को अपने साथ लेकर हृदय के वेदी में सात फेरे लेते हुए साँझ के लाल रंग का चूनर अपने माथे पर ओढ़ चल देती है अपने अशियाने के ओर| जहाँ उन दोनों के बीच केवल प्रेम था "समर्पित-प्रेम"|


©-राजन-सिंह